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'बीते हुए दिन'...हिंदी सिनेमा की भूली-बिसरी यादों का झरोखा !
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“लपक झपक तू आ रे बदरवा, सर की खेती सूख रही है" - भूडो आडवाणी
.......शिशिर कृष्ण शर्मा
हिन्दी फ़िल्मों में ऐसे कई अभिनेता हुए जो परदे पर लगातार नज़र आते रहे, उनका चेहरा बेहद जाना-पहचाना था, लेकिन वो कौन थे, उनका नाम क्या था, वो कहां से आए थे, कहां चले गये, जैसे सवाल अपने पीछे छोड़कर वो हमेशा के लिए गुमनामी में खो गये| 'बीते हुए दिन' ऐसे ही भूलेबिसरे कलाकारों की तलाश में जुटा रहा, आज भी जुटा हुआ है और आने वाले समय में भी अपनी इस मुहिम को यथासंभव जारी रखेगा|
इन्हीं जाने-पहचाने चेहरे वाले अनजाने कलाकारों में शामिल थे भूडो आडवाणी| एक बेहद आम सा, जाना-पहचाना चेहरा| लेकिन औरों से थोड़ा अलग| पतला दुबला शरीर, मुंह में दांत नहीं, सर के बाल लगभग उड़े हुए| किशोरावस्था में भी बूढ़े नज़र आने वाले| उनके बारे में आम धारणा थी कि फ़िल्मों में एक्टिंग के लिए उन्होंने अपने दांत निकलवा दिए थे|
"नहीं! ये धारणा ग़लत है| दरअसल उनके दांत पूरी तरह विकसित नहीं हो पाए थे, जिससे उन्हें तक़लीफ़ होती थी| असली दांत निकलवाकर डेन्चर लगवाए, लेकिन उन नक़ली दांतों से उनकी परेशानी और भी बढ़ गयी थी| इसलिए उन्होंने बिना दांतों के ही रहना बेहतर समझा|” - ये बात हाल ही में हुई एक मुलाक़ात के दौरान भूडो आडवाणी के बेटे रमेश आडवाणी जी ने बताई थी|
Shri Ramesh Advani
भूडो आडवाणी को मैं ब्लैक एंड व्हाईट के ज़माने की कई पुरानी फ़िल्मों में देख चुका था| राजकपूर की फ़िल्म 'बूटपॉलिश' के कॉमेडी गीत 'लपक झपक तू आ रे बदरवा, सर की खेती सूख रही है" में उनके अभिनय ने मुझे ख़ासा प्रभावित किया था| फ़िल्मी पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिये उनका नाम भी पता चल चुका था| लेकिन 1930 के दशक से फिल्मों में काम कर रहे उन जैसे कलाकार के, 7-8 दशकों बाद तक जीवित रहने की संभावना न के बराबर थी| ऐसे में सवाल था कि उनके बारे में बातचीत करूं भी तो किससे?
मेरी ये समस्या एक रोज़ तब सुलझ गयी, जब ‘बीते हुए दिन' के निकट सहयोगी, वरिष्ठ फ़िल्म इतिहासकार, और पुस्तक 'Forgotten Artistes Of Early Cinema and The Same Name Confusion' के लेखक, मुम्बई निवासी श्री अरूणकुमार देशमुख जी ने बताया कि भूडो आडवाणी के बेटे रमेश आडवाणी जी का फ्लैट उन्हीं की बिल्डिंग में है, पत्नी के निधन के बाद पिछले कुछ सालों से वो अपने बेटे के पास बंगलौर में रहते हैं, लेकिन साल में एकाध महीने के लिए मुम्बई भी आते हैं|
अरूणकुमार देशमुख जी के ज़रिये मेरा संपर्क रमेश आडवाणी जी से हुआ और अक्टूबर 2023 में जब वो बेटे विनोद आडवाणी के साथ कुछ दिनों के लिए मुम्बई आए, तो अंधेरी (पश्चिम) के सात बंगला बस डिपो के पास स्थित उनके फ्लैट में भूडो आडवाणी के बारे में पिता-पुत्र से अंततः मेरी बातचीत संपन्न हो ही गयी|
भूडो आडवाणी का जन्म 17 अगस्त 1905 को हैदराबाद–सिंध में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है| उनके पिता कुंदनमल आडवाणी पुलिस इंस्पेक्टर थे और मां उत्तमबाई एक आम गृहिणी| 4 बहनों और 6 भाईयों में भूडो सबसे बड़े थे| उनकी पढ़ाई-लिखाई हैदराबाद में ही हुई| 10 साल की उम्र में उन्होंने पहली बार स्कूल के एक अंग्रेज़ी नाटक में अभिनय किया था|
सिंधी रंगमंच की मशहूर हस्ती हेमनदास गंगादास ने वो नाटक देखा था और भूडो के अभिनय से वो बेहद प्रभावित भी हुए थे| उधर भूडो मैट्रिक में फ़ेल हो गए तो उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी| ऐसे में हेमनदास ने उन्हें अपनी नाटक कंपनी में शामिल कर लिया| और यहां से भूडो का, नाटकों का सिलसिला शुरू हो गया| वो अक्सर महिलाओं की भूमिका में नज़र आते थे, लोग उनके अभिनय को बहुत पसंद करते थे और उस ज़माने की तमाम नाटक कम्पनियां उन्हें अपने नाटकों में लेने को बेताब रहती थीं|
उन्हीं दिनों भूडो ने नवलराम हीराचंद एकेडमी के नाटक 'हरीफ़' में एक बूढ़े की भूमिका की| लोगों को वो भूमिका इतनी पसंद आयी कि भूडो को, जिनका असली नाम दौलतराम आडवाणी था, लोग 'बुड्ढो' अर्थात 'बूढ़ा' आडवाणी कहने लगे| और यही 'बुड्ढो' आगे चलकर 'भूडो' आडवाणी हो गया| उसी दौरान आडवाणी परिवार हैदराबाद से कराची शिफ्ट हो गया था|
भूडो लगातार नाटकों में काम करते रहे| उनके नाटक सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों पर प्रहार करने वाले होते थे| उन्हें जे.बी.आडवाणी एंड कंपनी में 40 रूपया प्रतिमाह के वेतन पर मैनेजर की नौकरी भी मिल गयी थी, जो उस ज़माने में अच्छी ख़ासी रकम हुआ करती थी| लेकिन नाटकों के शोज़ के लिए अक्सर ऑफ़िस से ग़ायब रहने की वजह से जल्द ही वो नौकरी उनके हाथ से निकल गयी| ऐसे में उनके एक प्रशंसक ने उन्हें कराची इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई कारपोरेशन में नौकरी दिला दी|
भूडो को नौकरी करते एक महीना भी नहीं हुआ था कि साल 1933 में एक दोस्त के बुलावे वो इस्तीफ़ा देकर मुम्बई चले आए| यहां आकर वो अजन्ता सिनेटोन के मालिक, निर्माता-निर्देशक मोहन भवनानी से मिले| मोहन भवनानी भी सिंधी थे और हैदराबाद-सिंध के रहने वाले थे| उन्होंने भूडो को ब्रेक दिया और इस तरह अजन्ता सिनेटोन की साल 1933 की फ़िल्म 'अफ़ज़ल उर्फ़ हूरे हरम’ में एक छोटे से रोल से भूडो आडवाणी ने फ़िल्मों में कदम रखा| आगे चलकर उन्होंने अजन्ता सिनेटोन की 'दर्दे दिल' 'दुख्तरे हिन्द', 'द मिल', ‘सैर ए परिस्तान', ‘प्यार की मार' और 'शेरदिल औरत' जैसी 11 और फ़िल्मों में काम किया|
साल 1934 में अजन्ता सिनेटोन बंद हुआ तो निर्माता चिमनलाल देसाई के बुलावे पर भूडो उनकी कंपनी सागर मूवीटोन में चले गए, जहां उन्हें के.पी.घोष, महबूब खान और सर्वोत्तम बादामी जैसे उस दौर के बड़े निर्देशकों के साथ काम करने का मौक़ा मिला| 1933 से 1940 के बीच भूडो ने कुल 35 फ़िल्मों में अभिनय किया| इनमें सागर मूवीटोन के बैनर की 'डॉ.मधुरिका', ‘डेकन क्वीन', ‘दो दीवाने', ‘जागीरदार', ‘मनमोहन’, 'हम तुम और वो', ‘महागीत' और 'पोस्टमैन' जैसी 20 फ़िल्में भी शामिल थीं|
रमेश आडवाणी जी बताते हैं, “साल 1940 में सागर मूवीटोन का युसुफ़ फ़ज़लभॉय की कंपनी में विलय हुआ और नेशनल स्टूडियो अस्तित्व में आया, तो सागर मूवीटोन के ज़्यादातर स्टाफ़ को छुट्टी दे दी गयी| इनमें पिताजी भी शामिल थे, हालांकि बाहर आकर भी वो लगातार काम करते रहे| उन्होंने साल 1941 में 'प्रकाश पिक्चर्स' के बैनर की फ़िल्म 'दर्शन' में एक अहम भूमिका तो की ही, नौशाद के संगीत में ज्योति और प्रेम अदीब के साथ मिलकर एक गीत 'कोई कब तक रहे अकेला, मौसम आया अलबेला' भी गाया था|”
1940 के दशक में भी भूडो ने कुल 35 फ़िल्मों में काम किया, जिनमें महबूब खान की कंपनी 'महबूब प्रोडक्शंस’ के बैनर की 'अनमोल घड़ी' और 'अनोखी अदा’ के अलावा 'मेरी कहानी', ‘अमानत', 'बीसवीं सदी', ‘दुखियारी', 'इस्मत', ‘पूजा' और 'शौहर' जैसी फ़िल्में शामिल थीं| महबूब खान ने 'महबूब प्रोडक्शंस’ की नींव सागर मूवीटोन के विलय के बाद, साल 1943 में रखी थी|”
भूडो एक बेहतरीन कॉमेडियन थे और ज़्यादातर फ़िल्मों में वो कॉमेडी ही करते नज़र आए थे| 1950 के दशक में भूडो आडवाणी 'मीना बाज़ार', ‘आदमी', 'आख़िरी दांव', ‘बूट पॉलिश', ‘श्री 420’, ‘जागते रहो', ‘अब दिल्ली दूर नहीं', ‘मधुमती', ‘मधुर मिलन', ‘मिस कोकाकोला', ‘क़ैदी नंबर 911’ और 'आंखें' जैसी कुल 20 फ़िल्मों में नज़र आए| इनमें से ‘बूट पॉलिश' के कॉमेडी गीत 'लपक झपक तू आ रे बदरवा, सर की खेती सूख रही है" में उनके काम को बहुत सराहा गया|
'Lapak jhapak tu aa re badarwa' - Boot Polish / 1954
1960 के दशक में भूडो ने 'अनुराधा' और 'खामोशी' समेत केवल 5 फ़िल्में कीं| 44 साल के अपने करियर में उन्होंने 102 हिन्दी, 2 गुजराती और 4 सिंधी फ़िल्मों में काम किया| इनमें से दो सिंधी फ़िल्मों ‘इंसाफ़ कित्थे आ' और 'राए दियाच' में उनकी पत्नी ने भी अभिनय किया था| 'राए दियाच' में भूडो और उनकी पत्नी ने हीरो के मां-बाप की भूमिका की थी|
Bhudo ji with wife, son, d/l & grandchildren
भूडो आडवाणी जी की शादी साल 1939 में हुई थी| उनकी पत्नी सुशीला मीरचंदानी दिल्ली की रहने वाली थीं| उनके सात बच्चे हुए, पांच बेटियां और दो बेटे| साल 1940 में उनकी बड़ी बेटी का और 1943 में बड़े बेटे रमेश आडवाणी जी का जन्म हुआ| फिर तीन बेटियां, साल 1952 में छोटा बेटा और फिर सबसे छोटी बेटी| छोटे बेटे का साल 1968 में कॉलेज से लौटते समय लोकल ट्रेन से गिरकर 16 साल की उम्र में देहांत हो गया था| सबसे छोटी बेटी भी कम उम्र में ही गुज़र गयी थी| उधर कुछ साल पहले सबसे बड़ी बेटी भी नहीं रहीं|
भूडो की अन्य तीनों बेटियां शानू लालवाणी, सोनू इदनानी और पूनम अरोड़ा मुम्बई में ही रहती हैं| रमेश आडवाणी जी से 'बीते हुए दिन' की इस बातचीत के दो दिन बाद, 22 अक्टूबर 2023 को उनके 80वें जन्मदिन की पार्टी में, जुहू-वर्सोवा लिंक रोड के रेनेसां क्लब में उनकी तीनों बहनों से भी मेरा परिचय हुआ था|
रमेश आडवाणी जी ने देना बैंक में 40 साल की नौकरी के बाद 2001 में रिटायरमेंट ले लिया था| उनकी पत्नी सुन्दरी जगतियानी कोलकाता की रहने वाली थीं| वो साल 2008 में गुजरीं| रमेश जी के बेटे विनोद आडवाणी सिंगापुर की कंस्ट्रक्शन कंपनी मांगल्या ग्रुप में वाईस प्रेसिडेंट हैं और अपने परिवार के साथ बंगलौर में रहते हैं| पत्नी के निधन के बाद रमेश जी भी बेटे विनोद के पास बंगलौर शिफ्ट हो गए थे| रमेश जी की बेटी भाविका हिंगोरानी और उनके पति-बच्चे दुबई में रहते हैं|
भूडो आडवाणी जी दक्षिण मुम्बई के ताड़देव स्थित सेन्ट्रल स्टूडियो कम्पाऊंड में एक विशाल फ्लैट में रहते थे| साल 1977 में वो ताड़देव छोड़कर अंधेरी पश्चिम के सात बंगला इलाक़े की शांतिनिकेतन बिल्डिंग में रहने आ गए थे| उनकी आख़िरी फ़िल्म सत्यजित रे की साल 1977 की ही 'शतरंज के खिलाड़ी' थी| साल 1979 में उनकी पत्नी का निधन हुआ| और 25 जुलाई 1985 को, 80 साल की उम्र में भूडो आडवाणी भी दुनिया को अलविदा कह गए|
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Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.
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Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.
Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support.
“सांझ सवेरे, नैन तेरे मेरे, मिलते रहे हैं मिलते रहेंगे" - प्रेमेन्द्र
..…..शिशिर कृष्ण शर्मा
हिन्दी सिनेमा के इतिहास में कई ऐसे कलाकार हुए, जो गिनी-चुनी फ़िल्में करने के बाद तमाम चमक-दमक से जगमगाती इस मायावी दुनिया को निजी कारणों से बेझिझक अलविदा कह गए| उनमें से कई ऐसे थे, जिन्होंने अपना करियर बतौर हीरो शुरू किया, अपनी उसी स्थिति को बनाए रखा, लेकिन फिर उन्हें अचानक ही एक आम इंसान की सी गुमनामी भरी ज़िंदगी कहीं ज़्यादा भा गयी| 'बीते हुए दिन' ऐसे ही भूलेबिसरे कलाकारों की तलाश में जुटा रहा, आज भी जुटा हुआ है और अगर पाठकों-प्रशंसकों का सहयोग मिलता रहा तो आने वाले समय में भी अपनी इस मुहिम को यथासंभव जारी रखेगा|
'प्रेमेन्द्र' एक ऐसा ही नाम हैं, जिन्होंने 1970 और 71 के दो सालों में 'होली आयी रे', 'दुनिया क्या जाने' और 'साज़ और सनम' समेत कुल 5 जानीमानी फ़िल्में बतौर हीरो करने के बाद फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया था| और फिर बदलती पीढ़ियों के साथ दर्शकों के ज़हन में बसी उनकी यादें धुंधलाती चली गयीं|
प्रेमेन्द्र का नाम मैंने पहली बार लगभग 5 साल पहले, रामसे की फ़िल्मों में शैतान का रोल करने वाले अभिनेता अनिरूद्ध अग्रवाल से, ‘बीते हुए दिन' के लिए हो रही बातचीत में सुना था| उन्होंने बताया था कि प्रेमेन्द्र उनके दोस्त थे, उनका पूरा नाम प्रेमेन्द्र पाराशर था और वो आगरा के पास स्थित फ़तेहपुर सीकरी के रहने वाले थे| और जब उन्होंने बताया कि प्रेमेन्द्र 'होली आयी रे', ‘दुनिया क्या जाने' और 'साज़ और सनम' जैसी जानीमानी फ़िल्मों के हीरो थे तो स्वाभाविक तौर पर मेरे मन में प्रेमेन्द्र के बारे में ब्लॉग 'बीते हुए दिन' में लिखने की इच्छा जागृत हो गयी थी| लेकिन प्रश्न ये, कि 'बीते हुए दिन' की विशेष पहचान और अघोषित नियम के अनुसार प्रेमेन्द्र के बारे में बात करूं तो किससे करूं? उनके परिवार या किसी पारिवारिक सदस्य का पता अथवा संपर्कसूत्र मुझे मिल ही नहीं पा रहा था|
साल दर साल गुज़रते गए| प्रेमेन्द्र के बारे में लिखने की मेरी इच्छाशक्ति धूमिल होने लगी| लेकिन अचानक ही एक रोज़ ‘बीते हुए दिन' के प्रशंसक और सहयोगी, ग्वालियर के रहने वाले श्री आनंद पाराशर जी के माध्यम से फ़ोन पर मेरा संपर्क प्रेमेन्द्र के छोटे भाई श्री रामेश्वरनाथ उर्फ़ चुनचुन पाराशर जी से हुआ जो फ़तेहपुर सीकरी में रहते हैं| उन्होंने प्रेमेन्द्र जी के बारे में जानकारी तो दी ही, साथ ही अपने भतीजे यानी प्रेमेन्द्र जी के बेटे मुनीश से भी मेरी बात कराई जो मुम्बई के अंधेरी (पश्चिम) में रहते हैं, लेकिन उन दिनों फतेहपुर सीकरी में थे| और फिर लगभग डेढ़ महीने बाद, 7 अगस्त 2023 की दोपहर मुनीश जी के घर पर उनसे उनके पिता के बारे में मेरी विस्तार से बातचीत भी संपन्न हो ही गयी|
प्रेमेन्द्र जी का जन्म 2 दिसंबर 1942 को उनके ननिहाल आगरा में हुआ था| उनके पिता मुरारीलाल पाराशर जी की गिनती फ़तेहपुर सीकरी के नामी लोगों में होती थी| वो 86 गांवों के ज़मींदार होने के साथ साथ लगातार 25 सालों तक नगरपालिका के चेयरमैन भी रहे थे| उनके 3 बेटों और 3 बेटियों में प्रेमेन्द्र सबसे बड़े थे| उनसे छोटी 2 बहनें स्नेहलता और मंजु, चौथे नंबर पर भाई चुनचुन जी, फिर बहन संध्या और फिर सबसे छोटे भाई राजेन्द्रनाथ जी|
प्रेमेन्द्र जी का असली नाम त्रिलोकीनाथ पाराशर था| उन्होंने फ़तेहपुर सीकरी से 11वीं पास करने के बाद आगरा कॉलेज में बी.एस.सी. में दाख़िला ले लिया था| बायोलॉजी उनका पसंदीदा विषय था और वो डॉक्टर बनना चाहते थे|
उन्हीं दिनों फ़िल्म 'लीडर' की शूटिंग के लिए दिलीप कुमार फ़तेहपुर आए तो 6 फ़ीट 2 इंच लम्बे खूबसूरत प्रेमेन्द्र को देखते ही उन्होंने कहा, ‘तुम बिल्कुल हीरो लगते हो, मुम्बई आ जाओ'| कुछ समय बाद अखबारों में, पूना में नये नये शुरू हुए फ़िल्म संस्थान का विज्ञापन छपा| प्रेमेन्द्र उन दिनों बी.एस.सी. फ़ाइनल में थे| अपने दोस्तों के ज़ोर देने पर उन्होंने फ़िल्म संस्थान का फार्म भर दिया| लिखित परीक्षा और इंटरव्यू दिल्ली में हुए| इंटरव्यू बोर्ड में जगतमुरारी, बीना राय और रोशन तनेजा थे| प्रेमेन्द्र को 1963 के बैच में दाखिला मिल गया|
उस बैच में उनके सहपाठी थे, शत्रुघ्न सिन्हा, अनिल धवन, असरानी, सुभाष घई और बलदेव खोसा| शत्रुघ्न सिन्हा से प्रेमेन्द्र की गहरी दोस्ती हो गयी थी| साल 1966 में पासआउट होने के बाद प्रेमेन्द्र जी पूना से मुम्बई आए| कुछ समय वो एक गेस्ट हाउस में रहे और फिर अंधेरी (पश्चिम) स्थित लल्लूभाई पार्क की ललिता बिल्डिंग के फ्लैट नंबर 5 में किराए पर रहने लगे| कुछ सालों बाद उन्होंने वोही फ्लैट ख़रीद लिया था, जिसमें आज मुनीश रहते हैं|
With Kumud Chhugani in 'Holi Aayi Re'
प्रेमेन्द्र जी ने जो पहली फ़िल्म साईन की, वो थी श्री प्रकाश पिक्चर्स के बैनर की 'होली आयी रे’| इस फ़िल्म के निर्माता शंकरभाई भट्ट और विजय भट्ट थे, जिन्होंने साईलेंट के ज़माने से लेकर 1970 के दशक के उत्तरार्ध तक लगभग 68 फ़िल्में बनाई थीं| इनमें ‘भरत मिलाप', रामराज्य', बैजूबावरा', ‘गूंज उठी शहनाई', 'हरियाली और रास्ता' और 'हिमालय की गोद में' जैसी ब्लॉकबस्टर फ़िल्में भी शामिल हैं| प्रेमेन्द्र जी फ़िल्म 'होली आयी रे’ के नायक थे और इसमें उनकी नायिका थीं, कुमुद छुगानी| इस फ़िल्म में प्रेमेन्द्र की बड़ी बहन के रोल में माला सिन्हा थीं|
मुनीश बताते हैं, “पापा चाहते थे कि वो त्रिलोकीनाथ की जगह किसी नये और आकर्षक नाम के साथ फ़िल्मों में डेब्यू करें| उन्हें 'प्रेम' नाम पसंद आया जो न्यूमरोलॉजी के हिसाब से भी उनपर सही बैठता था| ये वो समय था जब धर्मेन्द्र स्टार बन चुके थे और जीतेंद्र स्टारडम की तरफ़ बढ़ रहे थे| ऐसे में पापा के दोस्तों ने उन्हें भी धर्मेन्द्र और जीतेंद्र की तर्ज पर ही कोई फ़िल्मी नाम रखने की सलाह दी| और तब पापा ने अपना फ़िल्मी नाम 'प्रेम' से बदलकर 'प्रेमेन्द्र' रख लिया था|”
'होली आयी रे' के बाद जो दूसरी फ़िल्म प्रेमेन्द्र जी ने साईन की, वो थी निर्माता-निर्देशक हुदा बिहारी की 'जोगी'| हुदा बिहारी गीतकार एस.एच.बिहारी के भाई थे| मुनीश बताते हैं कि 'जोगी' की शूटिंग 'होली आयी रे' से पहले शुरू हुई थी|
प्रेमेन्द्र जी की शादी साल 1968 में हुई| उनकी पत्नी मंदा लन्दन में रहने वाले एक गुजराती मूल के परिवार से थीं| उनका पूरा नाम मंदाकिनी पंड्या था| अपनी भारत यात्रा के दौरान वो फ़िल्म की शूटिंग देखने के लिए 'होली आयी रे' के सेट पर आयी थीं जहां उनकी मुलाक़ात प्रेमेन्द्र जी से हुई, दोनों में दोस्ती हुई और फिर उन्होंने शादी कर ली थी|
प्रेमेन्द्र का करियर केवल 6 साल और 5 फ़िल्मों तक ही सीमित रहा साल 1966 में वो फ़िल्म संस्थान से पासआउट होकर मुम्बई आए| फ़िल्म 'होली आई रे' और 'जोगी' के अलावा उन्होंने 3 और फ़िल्में, बतौर हीरो कीं| वो थीं ‘दीदार', 'दुनिया क्या जाने' और 'साज़ और सनम'| 'होली आई रे' और ‘दीदार' साल 1970 में रिलीज़ हुईं, और 'दुनिया क्या जाने' और 'साज़ और सनम' 1971 में| 'जोगी' लगभग 80 प्रतिशत पूरी होने के बाद पैसे की कमी की वजह से अटक गयी थी| इसे पूरा होने में लगभग 12 साल लगे और ये फ़िल्म साल 1982 में जाकर रिलीज़ हो पायी थी| हालांकि तब तक प्रेमेन्द्र जी को फ़िल्मों से अलग हुए एक दशक बीत चुका था|
'Deedar'
निर्माता-निर्देशक जुगलकिशोर की फ़िल्म 'दीदार' में प्रेमेन्द्र की नायिका अंजना मुमताज़ थीं और इस फ़िल्म के दूसरे हीरो थे, धीरज कुमार| मद्रास की कंपनी 'चित्रालय पिक्चर्स' की फ़िल्म ‘दुनिया क्या जाने' के निर्देशक श्रीधर थे और संगीत शंकर जयकिशन का था| इसमें प्रेमेन्द्र की नायिका साउथ की मशहूर अभिनेत्री भारती थीं| 1930 के दशक से चली आ रही जानीमानी फ़िल्म कंपनी 'वाडिया मूवीटोन' के बैनर में बनी ‘साज़ और सनम' में प्रेमेन्द्र की नायिका रेखा थीं| जे.बी.एच.वाडिया द्वारा निर्मित और निर्देशित ‘साज़ और सनम' ‘वाडिया' के बैनर में बनी आख़िरी हिन्दी फ़िल्म थी|
इन 5 फ़िल्मों के अलावा करियर की शुरूआत में ही प्रेमेन्द्र जी ने 'आप से प्यार हुआ', ‘और पत्थर रो दिया', ‘दिल एक फूल है', ‘गंगा के उस पार', ‘मानो न मानो', ‘मुशायरा', ‘नादान बालमा' जैसी और भी लगभग 10 - 12 फ़िल्में साइन की थीं| लेकिन ये सभी फ़िल्में किसी न किसी वजह से बंद होती चली गयीं| एक संपन्न ज़मींदार ख़ानदान में जन्मे और राजसी माहौल में पलेबढ़े प्रेमेन्द्र जी के लिए तमाम असुरक्षाओं से भरी इन परिस्थितियों के साथ समझौता कर पाना संभव नहीं था| मुनीश के शब्दों में कहें तो - "पापा का रॉयल खून आड़े आ जाता था| और फिर वो हीरो के अलावा और कोई रोल करने को भी तैयार नहीं थे| इसलिए उन्होंने फ़ैसला कर लिया कि अब मैं फ़िल्में नहीं करूंगा|’’
फ़िल्मों से अलग होने के बाद प्रेमेन्द्र जी ने इंटीरियर डेकोरेशन और लैंपशेड्स और शैंडलेयर्स का बिज़नेस शुरू किया और जल्द ही उनका बिज़नेस ऊंचाईयों पर पहुंच गया| उनके ग्राहकों में मुम्बई के ताज, ओबेरॉय, हयात, लीला, सन एन सैंड, हॉलिडे इन और सेंटॉर जैसे तमाम टॉप के होटल शामिल थे| उसी दौरान प्रेमेन्द्र दो बेटों और दो बेटियों के पिता भी बन गए थे - सबसे बड़ी बेटी अंजली, उनके बाद बेटा ऋषि, तीसरे नंबर पर बेटा मुनीश और सबसे छोटी बेटी शिखा|
साल 1992 तक प्रेमेन्द्र जी का बिज़नेस बहुत अच्छा चला| लेकिन साल 1993 में मुम्बई में बम धमाके हुए तो यहां का होटल व्यवसाय लगभग ठप्प ही हो गया| नतीजतन प्रेमेन्द्र जी के बिज़नेस का ग्राफ़ भी एकदम से नीचे आ गया| हालांकि तब तक बच्चे बड़े हो चुके थे, दोनों बेटे काम करने लगे थे, सो घर उन्होंने संभाल लिया| ऐसे में प्रेमेन्द्र जी अपने वृद्ध पिता की सेवा और पारिवारिक संपत्ति की देखभाल के लिए फ़तेहपुर चले गए| उन्हीं दिनों उनकी पत्नी मंदा जी को भी अपनी बीमार मां की देखभाल के लिए लन्दन जाना पड़ा| मंदा जी अब लन्दन में रहती हैं|
प्रेमेन्द्र जी के बड़े बेटे ऋषि भी अभिनेता थे| उन्होंने ईटीवी (उर्दू) के धारावाहिक 'हमारी ज़ीनत', दूरदर्शन के 'सिराजुद्दौला' और ज़ीटीवी के 'गैम्बलर' के अलावा दो गुजराती फ़िल्मों और कुछ टीवी विज्ञापनों में भी काम किया था| अनिल शर्मा की फ़िल्म 'क़त्लेआम' में उनका अहम रोल था, लेकिन ये फ़िल्म अधूरी रह गयी| ऋषि फ़िल्मों में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे| लेकिन बात नहीं बनी तो साल 2004 में वो भी मां के पास लन्दन चले गए| और फिर शादी करके वहीं बस गए|
प्रेमेन्द्र जी की बड़ी बेटी अंजली भी अपने पति चिंटू सार्थक कल्ला के साथ लन्दन में रहती हैं| वो एक गायिका हैं और चिंटू जानेमाने संगीतकार, गायक और गिटारवादक| पति-पत्नी अपने म्यूज़िकल स्टेज शोज़ के लिए जाने जाते हैं|
मुनीश 'डी.एच.एल', 'शॉपर्स स्टॉप' और 'फारेस्ट एसेंशिअल्स' जैसी बड़ी कंपनियों से जुड़े रहे| वो मुम्बई में अपनी पत्नी और बेटे के साथ रहते हैं|
प्रेमेन्द्र जी की सबसे छोटी बेटी शिखा एक वास्तुशास्त्री हैं और पति के निधन के बाद अब दिल्ली में रहती हैं|
साल 1991 में प्रेमेन्द्र जी को आंतों की बीमारी हुई, जिसने असाध्य रूप ले लिया| साल 2019 में उनकी गर्दन में एक गांठ हुई, जांच में कैंसर का पता चला, 23 अक्टूबर 2019 को प्रेमेन्द्र जी को मुम्बई लाया गया जहां टाटा अस्पताल में उनका इलाज शुरू हुआ लेकिन बीमारी बढ़ती चली गयी|
लगभग 11 महिनों के इलाज के बाद सितम्बर 2020 के पहले हफ़्ते में जब कैंसर अपने चौथे और अंतिम चरण में पहुंच गया तो टाटा अस्पताल के डॉक्टरों की सलाह पर गंभीर रूप से बीमार प्रेमेन्द्र जी को एम्बुलेंस से वापस उनके पैतृक शहर फ़तेहपुर ले जाया गया| और फिर, लगभग 20 दिन बाद फ़तेहपुर में, दिनांक 7 अक्टूबर 2020 को 78 साल की उम्र में प्रेमेन्द्र जी का निधन हो गया|
अफ़सोस, कि कोरोनाकाल की पाबंदियों की वजह से प्रेमेन्द्र की पत्नी मंदा, बेटी अंजली और बेटा ऋषि उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए भारत नहीं आ पाए थे|
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Mr. Anand Parashar (Gwalior) for connecting me with Parashar family.
Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.
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Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support.
26 अगस्त 2023...दोपहर के 2.30 बजे…मुम्बई से देहरादून की यात्रा के दौरान दिल्ली हवाईअड्डे पर विमान के रूकते ही मोबाइल ऑन किया तो मुझे बंगलौर निवासी मित्र अजय कनागत जी का व्हाट्सऐप मैसेज मिला, ‘गीतकार देव कोहली का निधन’| उन्हें फ़ोन किया तो इस समाचार की पुष्टि भी हो गयी| इस अप्रत्याशित सूचना ने मेरे मन को दुःख और अपराधबोध से भर दिया|
दरअसल देव कोहली जी से मेरी जान पहचान लगभग दो दशकों से थी, जब मैंने साप्ताहिक सहारा समय के अपने कॉलम 'बाकलम ख़ुद' के लिए उनका इंटरव्यू किया था| उनसे संपर्क के बने रहने की एक वजह ये भी थी कि मेरे पैतृक शहर देहरादून से उनका भी निकट सम्बन्ध था|
लगभग 3 साल पहले मैंने एक बार फिर से, 'बीते हुए दिन' के लिए उनका इंटरव्यू किया था, लेकिन लगातार व्यस्तताओं के कारण मैं उसे टाइप ही नहीं कर पाया और आज–कल, आज-कल करते करते समय निकलता चला गया| और इसीलिये लम्बे समय तक मैंने उन्हें फ़ोन भी नहीं किया कि कहीं वो इंटरव्यू के सम्बन्ध में कोई सवाल न कर बैठें| और अब अचानक ये सूचना! काश उनका इंटरव्यू मैंने उनके रहते ही प्रकाशित कर दिया होता, हालांकि ये भी सच है कि वो पिछले कुछ सालों में तमाम दुनियावी बातों से इतना ऊपर उठ चुके थे कि इंटरव्यू का प्रकाशित होना न होना उनके लिए मायने नहीं रखता था!
देव कोहली जी का जन्म 2 नवम्बर 1942 को रावलपिंडी में हुआ था| पिता सरदार जयसिंह सरकारी नौकरी में थे और मां सोमावंती एक आम गृहिणी थीं| 4 भाई और 2 बहनों में देव कोहली चौथे नंबर पर थे| वो 3 साल के थे जब तपेदिक की बीमारी से उनकी मां गुज़र गयी थीं| सबसे छोटी बहन उस वक़्त केवल 6 महीने की थी|
देव कोहली बताते थे, “मेरी शुरूआती पढ़ाई मदरसे में हुई जहां मैंने अलिफ़ बे लिखना पढ़ना सीखा| उधर नाते-रिश्तेदारों की सलाह पर पिताजी ने दूसरी शादी कर ली थी| शादी के बाद वो घूमने फिरने के इरादे से मसूरी गए तो उन्हें देहरादून इतना पसंद आया कि वो वहीं के होकर रह गए| ये साल 1946 की बात है| उधर हम बच्चे रावलपिंडी से 10 मील दूर रवात में चाचा-चाची के पास रहने लगे| और जब सालभर के अन्दर बंटवारा हुआ तो हम सब भाई बहन भी पहले दिल्ली और फिर पिताजी के पास देहरादून चले आए| देहरादून में पिताजी ने रेलवे स्टेशन के पास धामावाला में रेस्टोरेंट खोल लिया था|”
देहरादून में देव कोहली ने गुरूनानक स्कूल में दाख़िला लिया| नौवीं तक की पढ़ाई ठीकठाक चली लेकिन मैट्रिक की परीक्षा में वो फ़ेल हो गए| उनके पिता के एक दोस्त उड़ीसा के राऊरकेला में, स्टील प्लांट में काम करते थे| उनके बुलावे पर देव के पिता साल 1959-60 में रेस्टोरेंट बंद करके, देव को साथ लेकर राऊरकेला चले गए| देव के बड़े भाई सरकारी नौकरी में थे इसलिए वो देहरादून में ही रहे| देव के दूसरे नंबर के भाई मुम्बई में मोटरपार्ट्स का कारोबार करते थे|
देव के पिता ने राऊरकेला में दो रेस्टोरेंट खोले| साथ ही मुम्बई वाले बेटे को भी उन्होंने राऊरकेला बुला लिया, जहां दोनों भाई राशन की दुकान करने लगे| लेकिन दुकान में मन नहीं लगा तो वो दोनों साल 1964 में मुम्बई चले आए| और जब अचानक ही पिताजी की तबीयत ख़राब हुई, तो भाई को रेस्टोरेंट संभालने के लिए वापस राऊरकेला जाना पड़ा और देव मुम्बई में ही रूक गए| उधर कुछ ही समय बाद उनके पिताजी का निधन हो गया|
देव कोहली बताते थे, “पिताजी की क्रिया देहरादून में, हम सभी भाई-बहनों की मौजूदगी में बड़े भाईसाहब के द्वारा की गयी| उनसे छोटे, मुम्बई वाले भाई को पिताजी का बिज़नेस संभालने के लिए वापस राऊरकेला लौट जाना पड़ा| मैं अकेला ही मुम्बई चला आया, जहां मैं खार के एवरग्रीन गेस्ट हाउस में रहने लगा| दो-तीन साल बाद एवरग्रीन के पास ही में जब आशीष गेस्ट हाउस खुला तो मैं उसमें शिफ्ट हो गया|”
देव कोहली को लिखने का शौक़ बचपन से ही था| फ़िल्मों में लिखने के उद्देश्य से उन्होंने फ़िल्मी लोगों से मेलजोल बढ़ाना शुरू कर दिया| इसी प्रक्रिया में उनकी मुलाक़ात संगीतकार जी.एस.कोहली से हुई, जो जल्द ही दोस्ती में बदल गयी|
देव कोहली कहते थे, “एक रोज़ जी.एस.कोहली ने मुझे एक गीत का अंतरा लिखने को कहा| गीत का मुखड़ा और एक अंतरा वो ख़ुद ही लिख चुके थे और मुझसे दूसरा अंतरा लिखवाना चाहते थे, जो मैंने लिख दिया|
वो गीत था, फ़िल्म 'गुंडा' का, आशा भोंसले का गाया कैबरे, ‘ख़ुशी से जान ले लो जी, दिलो ईमान ले लो जी', जो बेलाबोस पर फ़िल्माया गया था| जी.एस.कोहली ने वो गीत मेरे नाम कर दिया, हालांकि मैं उसे अपना कहूं तो बेईमानी होगी| लेकिन जी.एस.कोहली को मैं इस बात के लिए धन्यवाद ज़रूर दूंगा कि उन्होंने भयानक संघर्ष के मेरे उन दिनों में मुझे उस गीत के 500/- रूपये दिलवाए थे| ये 1966 की बात है और उस वक़्त मेरी उम्र 24 साल थी| फ़िल्म 'गुंडा' 3 साल बाद, साल 1969 में रिलीज़ हुई और इसके क्रेडिट्स में 3 गीतकारों में से एक नाम, हक़दार न होते हुए, मेरा भी था|”
देव कोहली जी का अर्जुनदेव रश्क, अनजान और नक्श लायलपुरी जैसे प्रबुद्ध लेखक-गीतकारों के साथ बांद्रा के मशहूर ग़ज़ैबो रेस्टोरेंट में उठना-बैठना और रचनापाठ करना होता रहता था| एक रोज़ कॉफ़ी की चुस्कियों के बीच देव अपनी ताज़ातरीन ग़ज़ल का पाठ कर रहे थे| पास ही की टेबल पर बैठा संगीतकार शंकर (जयकिशन) जी का मैनेजर भी उन्हें सुन रहा था| उसने देव को अपने पास बुलाकर उनकी रचना की तारीफ़ की| तब तक शैलेन्द्र गुज़र चुके थे और शंकर जी किसी अच्छे गीतकार की तलाश में थे| मैनेजर ने देव को शंकर जी से मिलने के लिए अगले दिन फ़ेमस स्टूडियो बुलाया|
देव कोहली जी बताते थे, “शंकर जी से मेरी मुलाक़ात हुई| उन्होंने पूछा गीत लिखते हो? 'नहीं, ग़ज़लों का शायर हूं' - मैंने जवाब दिया| उन्होंने मेरी कुछ ग़ज़लें सुनीं और कहने लगे, ‘सरदार साहब, बहुत फ़ायर है आपमें, मिलते रहिये|' मैं हर दूसरे-तीसरे दिन उनसे मिलने जाता रहा| और फिर एक रोज़ उन्होंने मुझे एक सिचुएशन समझायी और लंच के लिए चले गए| इससे पहले वो कई लोगों के लिखे मुखड़े ख़ारिज कर चुके थे| लगभग 3 बजे वो लौटे| मैंने उन्हें मुखड़ा सुनाया, ‘गीत गाता हूं मैं, गुनगुनाता हूं मैं, मैंने हंसने का वादा किया था कभी'| उन्होंने पूछा, 'कुछ और भी लिखा सरदार साहब?’ ‘नहीं' - मैंने जवाब दिया| उन्होंने बाजा अपनी तरफ़ घसीटा और एक ही सांस में गाना शुरू कर दिया, ‘गीत गाता हूं मैं, गुनगुनाता हूं मैं...’| माहौल बना तो मैंने वहीं बैठे बैठे दोनों अंतरे भी लिख दिए| साल 1971 में रिलीज़ हुई फिल्म 'लाल पत्थर' का, किशोर कुमार का गाया ये गीत सुपरहिट हुआ था|”
देव कोहली जी का पूरा नाम गुरूदेव सिंह कोहली था जिसे उन्होंने शंकर जी के कहने पर छोटा कर दिया था| दरअसल शंकर जी का कहना था, 'इतना लंबा नाम? ये तो पूरे स्क्रीन को घेर लेगा!’ आगे चलकर देव ने शंकर जी के लिए साल 1975 की फ़िल्म 'सन्यासी' में भी एक गीत लिखा था -
‘मर गया पहरेदार शहर की चुंगी का,
शहर में चल निकला है फ़ैशन लुंगी का|’
शंकर जी ने इस गीत की धुन भी बना ली थी, लेकिन इसे रिकॉर्ड नहीं किया गया|
‘गीत गाता हूं मैं, गुनगुनाता हूं मैं...’ जैसा ब्लॉकबस्टर गीत लिखने के बावजूद अगले 18 सालों तक देव कोहली संघर्ष ही करते रहे| वो कहते थे, “उस दौर में मैंने जगदीश जे., उषा खन्ना, सोनिक ओमी, विजय सिंह जैसे कुछ संगीतकारों के लिए गीत लिखे, लेकिन मेरा करियर बस घिसटता ही रहा| महीने में एकाध गीत रिकॉर्ड हो जाता था, और किसी तरह गुज़ारा चल जाता था| और फिर अचानक वक़्त बदला| 1989 की फ़िल्म 'मैंने प्यार किया' के मेरे दो गीत 'आते जाते हंसते गाते' और 'आजा शाम होने आयी' इतने बड़े हिट हुए कि जल्द ही मैंने एक साथ 21 फ़िल्में साईन कर लीं|”
आने वाले वक़्त में देव कोहली ने कई सुपरहिट गीत लिखे, जैसे 'ये काली काली आंखें' (बाज़ीगर), ‘मिस्टर लोवा लोवा तेरी आंखों का जादू' (इश्क़), ‘माई नी माई मुंडेर पे तेरी' (हम आपके हैं कौन), ‘ऊंची है बिल्डिंग लिफ्ट तेरी बंद है' (जुड़वां), ‘तेरी बिंदिया उड़ा के ले गयी मेरी निंदिया' (जोड़ी नंबर वन), ‘दीवाना दिल बिन सजना के माने ना' (पत्थर के फूल), ‘मैं दूर चली जाऊंगी' (आतंक), ‘थाम ख़ुशियों के जाम' (राजू बन गया जेंटलमैन), ‘ओ अजनबी मेरे अजनबी' (मैं प्रेम की दीवानी हूं')|
देव कोहली जी से मैं जब भी मिला, उन्हें भगवा या गेरुआ कपड़ों में ही पाया| और इसकी वजह थी, उनका पूरी तरह से आध्यात्म में डूबा होना| वो बताते थे, “फ़िल्म 'लाल पत्थर' के बाद मुझे अनुभूति हुई कि वो गीत मैंने नहीं लिखा, बल्कि किसी अदृश्य शक्ति ने मुझसे लिखवाया था| 3-4 साल बाद एक शाम आशीष गेस्ट हाउस के अपने कमरे में मैंने मांसाहारी भोजन मंगाया तो उसे देखते ही मन में वितृष्णा और विरक्ति सी पैदा हो गयी| अगले दिन मोहम्मद अली रोड के एक होटल में भी यही हुआ तो उसी रोज़ से मैं शाकाहारी हो गया|
फिर एक रोज़ विद्याविहार स्टेशन के बाहर फुटपाथ पर एक विक्रेता के पास मुझे धूप में चमकती, प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की भगवान कृष्ण की मूर्ति दिखी जो मैंने पांच रूपये में ख़रीदी और नित्य उसे पूजने लगा| उन्हीं दिनों फ़िल्म 'गंगा की सौगंध' के लेखक संतोष व्यास जी से दोस्ती हुई| वो रोज़ गीतापाठ करते थे| मैंने भी उनके साथ गीता पढ़नी शुरू की तो आध्यात्म में डूबता चला गया| उस प्रक्रिया में मद्यपान भी कब छूट गया, पता ही नहीं चला| मेरा जीवन पूरी तरह गीतामय हो गया था|”
करियर के शुरूआती दिनों में संगीतकार जी.एस.कोहली ने देव कोहली को प्रिंटिंग के कारोबारी भाईयों सतीश आनंद और देवराज आनंद से मिलवाया था| देव कोहली ने आनंद भाईयों की मेट्रो प्रिंटिंग कंपनी में साल 1966 में नौकरी शुरू की जो वो 23 सालों तक करते रहे| वो नौकरी उन्होंने फ़िल्म ‘मैंने प्यार किया' की सफलता के बाद छोड़ी थी|
9 मार्च 2020 को देव कोहली जी के अंधेरी-लोखंडवाला स्थित घर पर हुई बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था, “13 साल पहले मैं टी.सीरीज़ के ऑफ़िस से लौटा तो अचानक मेरा बदन कांपने लगा| मुझे ध्यान की अनुभूति हुई| घर में दाख़िल होते ही मैं बिस्तर पर लेटा और अपनेआप ही ध्यानावस्था में चला गया| तब से मैं रोज़ शाम को 6 से 9 ध्यान करता हूं| उस दौरान जो अनुभूति होती है, उस पर लिख लेता हूं| 8-8, 10-10 गीतों की 9 प्राइवेट अल्बम भी की हैं| कृष्णभक्ति पर आधारित मेरी पुस्तक 'शून्य से शून्य तक' प्रकाशित हो चुकी है और अब अगली पुस्तक पर काम कर रहा हूं| इस सब में मन इतना रम गया है कि अब फ़िल्में नहीं करता| ऑफर्स आते भी हैं तो हाथ जोड़ देता हूं| फ़िल्मों में लगभग 175 गीत लिखने के बाद अब जीवन में अगर कुछ शेष है तो केवल कृष्ण भक्ति|
देव कोहली जी आजीवन अविवाहित रहे| इसीलिये 26 अगस्त 2023 को उनके निधन का समाचार मिलने के बाद से मैं लगातार असमंजस में रहा कि शोक प्रकट करूं भी तो किससे? उनके परिवार में आख़िर था ही कौन?
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr. Ashok Mittal (Ex-PNB / Dehradun) for providing pictures of Guru Nanak School, Dehradun
Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.
Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.
Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support.
Dev Kohli ji on YT Channel BHD
"Geet
Gaata Hoon Mai Gungunata Hoon Mai"
...…..Shishir Krishna Sharma
It
was at 2.30 pm on 26th
August 2023 while on a flight from Mumbai to Dehradun, I switched on
my mobile phone at Delhi airport, I received a shocking message from
my Banguluru based friend Ajay Kanagat ji that ‘Lyricist Dev Kohli
was no more’. I rang up Ajay Kanagat ji and the news was confirmed.
I was filled with the sense of agony and guilt.
I
had known Dev Kohli ji for the last two decades when I had
interviewed him for my column ‘Baakalam Khud’ in Sahara
Samay,
a weekly journal. Another reason to be consistently in touch with
him; he too had close links with my ancestral city Dehradun.
Some
three years back I once again interviewed him for ‘Beete Hue Din’,
but due to my continuous preoccupations the interview could not be
given a final shape. For one reason or the other, the time passed by
and fearing he would inquire about the interview I did not talk to
him for long even on phone. And all of a sudden this sad news of his
passing away! I wish I had published his interview while he was still
there to see it.
Although,
it is also true that of late, he had risen above such worldly
trappings.
Dev
Kohli was born on 2nd
Nov. 1942 in Rawalpindi. His father Sardar Jai Singh was in
Government service. His mother Somavanti was a home maker. He was
number 4 among four brothers and two sisters. His mother passed away
due to tuberculosis when he was merely three years of age. His
youngest sister was just six months old at that time.
Dev
Kohli shared “My elementary education began in a Madrassa where I
learnt the Urdu alphabets Alif...Be... Meanwhile on the advice of
elders in the family my father had remarried. After marriage he
visited Mussoorie on an excursion trip, and he fell in love with
Dehradun so much that he decided to settle in there. The year was
1946. We kids stayed back with our uncle and aunt (Chacha-Chachi) in
Ravaat, a village 10 miles from Rawalpindi. Following the partition, all
of us siblings came to Delhi and then to Dehradun to stay with
father where he had opened a Restaurant at Dhamawala, close to
Railway station.
Dev
Kohli got admitted in the Guru Nanak school, Dehradun. The studies
were going on well till 9th
standard but he failed in his Matriculation. His father’s friend
who was working in Rourkela steel plant called him to Rourkela. His
father closed down his Restaurant in Dehradun and relocated along
with Dev to Rourkela in 1959-60. Brother, elder to Dev, was already
into Government service so he stayed back at Dehradun. Dev’s second
brother was in motor parts business in Mumbai. Dev’s father opened
two restaurants at Rourkela and called his Mumbai based son also to
stay with him, where both the brothers started a ration shop but soon
got disinterested in running it and they came back to Mumbai in 1964.
Suddenly, their father fell ill, so the brother had to go back to
Rourkela to look after the restaurant business, whereas Dev stayed
back in Mumbai. After a while the father passed away.
Dev
Kohli reminiscents “Father was cremated by our eldest brother at
Dehradun in presence of all us siblings and other family members. My
Mumbai based brother went back to Rourkela to look after father’s
restaurant business. I returned to Mumbai all alone where I stayed in
Khar’s Evergreen Guest House. 2-3 years later, when Ashish Guest
House came up in the neighborhood, I shifted into it”.
Dev
Kohli was fond of writing right since his childhood. With a view to
write in films he started familiarizing with film people. In this
process he met Music Director G.S.Kohli and soon they became good
friends.
Dev
Kohli recalls “Once G.S. Kohli asked me to write an ‘antara’
(verse)
for a song. He had already penned the ‘mukhda’ and one ‘antara’.
I wrote the second one. That song, sung by Asha Bhonsle for the film
‘Gunda’, was a cabaret ‘Khushi se jaan le lo ji, dil o Imaan le
lo ji..’, which was filmed on actress Bela Bose.
G.S.Kohli
was extremely magnanimous to credit this song to me. Though it would
be dishonest in my part to call it my song, yet I am grateful to G.S.
Kohli as his noble action got me Rs.500/- for that song, a large
amount for me in my days of miserable struggle.
The
year was 1966, I was all of 24 years. Film ‘Gunda’ was released
three years later in 1969. As a ‘Lyricist’, though not entitled
for, my name too figured in credits along with the other two.
Dev
Kohli was now in the company of learned lyricists viz. Arjundev
Rashq, Anjaan and Naqsh Layalpuri. They would regularly meet and
recite poetry at Bandra’s famous ‘Gazebo Restaurant’. Once,
while sipping coffee, Dev recited his latest Ghazal. At the adjacent
table the manager of Shankar ji of Music Director duo
Shankar-Jaikishan, was sitting and listening the recitation. He
showered praise on Dev Kohli for the Ghazal. By then Shailendra had
died and Shankar was looking for a good lyricist. The Manager invited
Dev to meet Shankar at Famous studio next day.
Dev
Kohli narrated “I met Shankar ji, he asked me ‘So you write
songs?’ I said, ‘No I am a poet, I write Ghazals’. He listened
to few of my Ghazals and said ‘Sardar Saab! you have a fire in you,
keep in touch. Thereafter I kept meeting him every after 2-3 days.
One day he described a particular ‘situation’ to me for a film
song and withdrew for his lunch. He had already rejected ‘mukhda’
written by several lyricists. He returned at 3 pm. I narrated to him
my ‘mukhda’, ‘Geet gata hun main gungunata hun main, maine
hansne ka wada kiya tha kabhi’. Have you written anything else
Sardarji? - he asked. I replied in negative. He pulled his harmonium
and began singing in one breath, ‘Geet gata hun main gungunata hun
main...’. When the atmosphere was set, I also wrote two ‘antaras’
then and there. This song sung by Kishore Kumar for the 1971 release
‘Lal Patthar’ was an instant super hit”.
Dev
Kohli’s full name was Gurudev Singh Kohli which he shortened at the
behest of Shankar ji, who told him in lighter vein, ‘your full name
will occupy the whole screen’. Later, Dev Kohli wrote another song
for Shankar ji for the 1975 film ‘Sanyasi’ -
“Mar
gaya pehredar shahar ki chungi ka,
Shahar
me chal gaya fashion lungi ka”.
Shankar
had composed the tune for the song but eventually the song was not
recorded.
Despite
giving blockbuster song ‘Geet gata hun main’ he kept on
struggling for 18 years. He remembered “I wrote few songs for
Jagdish J, Usha Khanna, Sonik Omi and Vijay Singh etc, but my career
was just about dragging. Monthly one or two songs were being
recorded; I was just about surviving.
And
then suddenly the time changed. Both my songs ‘Aate jaate hanste
gaate’ and ‘Aaja shaam hone aayi’ in the 1989 release ‘Maine
Pyar Kiya’ became such massive hits that I immediately signed as
many as 21 films.
In
times to come, Dev Kohli gave super hit songs like ‘Ye kaali kaali
Aankhen’ (Baazigar), ‘Mr Lova Lova teri aankhon ka jadu’
(Ishq), ‘Mai ni mai munder pe teri’ (Hum aapke hain kaun),
‘Oonchi hai building lift teri band hai’ (Judwa), ‘Teri bindiya
uda ke le gayi meri nindiya’ (Jodi number one), ‘Deewana dil bin
sajna ke maane na’ (Patthar ke phool), ‘Mai door chali jaoongi’
(Aatank), ‘Tham khushiyon ke jaam’ (Raju ban gaya gentleman),
‘O ajnabi mere ajnabi’ (Main Prem Ki Diwani Hun).
Whenever
I met Dev Kohli, I found him in saffron attire, the reason being he
was so engrossed in spiritualism. He shared “After Lal Patthar’s
song I felt as if some unseen spiritual power had made me compose
that song.
Three-four
years later, once while having my meal, I ordered meat in Asheesh
Guest House, the very sight of meat filled me with sheer disgust and
dislike. Next day again the same thing happened with me in a hotel at
Mohd. Ali Road. Since that very day I became a vegetarian. One day I
saw the shining into sunlight an idol of Lord Krishna, made of
Plaster of Paris at the pavement outside Vidya Vihar Railway station
which I bought for Rupees five and began offering my prayers daily.
Meanwhile I became friends with Santosh Vyas the writer of the film
‘Ganga Ki Saugandh’. He was a devout scholar of Geeta. I too
started reading and imbibing teachings of Geeta and in the process I
became a teetotaler and found my life entirely overpowered by the
divine”.
During
initial years of his career G. S. Kohli had introduced Dev Kohli to
brothers duo Satish and Devraj Anand who were in the Printing Press
business. Dev Kohli had started working in their Printing Press in
1966. He continued with this job in the Press for 23 years. He left
this service only after the success of ‘Maine
Pyar Kiya’.
On
9th
March 2020 while chit chatting at Dev Kohli’s Andheri-Lokhandwala
residence, he shared, “some 13 years back, when I had just returned
from a visit to T-Series office, my body started shivering strangely,
I felt like meditating. As soon as entered my room and lay on the
bed, I went in trance. Since that day religiously I do meditation
daily from 6 pm to 9 pm. Whatever vision comes during the meditation,
I pen down my lyrics based on that. My nine albums, each consisting
of 8-10 songs, have come out.
My
book ‘Shoonya Se Shoonya Tak’ devoted to Lord Krishna has been
published and now I am working on my next book. I’m so much
engrossed in this pursuit now that I have taken myself apart from the
films. Even if offers come my way, I politely decline. After having
penned down 175 songs for films, now I’ve devoted myself totally
into Krishna Bhakti.
Dev
Kohli had remained unmarried whole his life. Therefore, on hearing
the news of his passing away on 26 August 2023,
I
was in continuous dilemma as to who I send my condolences to? After
all who was there for him in the name of family?
"बड़े परदे की मां-भाभी, छोटे परदे की शबरी" - सरिता देवी
…...शिशिर कृष्ण शर्मा
हिन्दी सिनेमा में कई ऐसे कलाकार हुए हैं, जो दशकों तक लगातार परदे पर नज़र आते रहे और जिनका चेहरा आज भी दर्शकों की यादों में बसा हुआ है| लेकिन वो कौन थे, कहां से आए थे, उनका नाम क्या था, वो कहां चले गए और अब कहां होंगे जैसे तमाम सवाल अपने पीछे छोड़, गुज़रते वक़्त के साथ वो गुमनामी में खो गए| ऐसी ही एक कलाकार थीं सरिता देवी, जो अभिनय के क्षेत्र में 40 सालों तक लगातार सक्रिय रहीं, एक 'पहचाना सा चेहरा' बनने में तो वो सफल हुईं, लेकिन चेहरे के अलावा उनकी अन्य कोई भी पहचान नहीं बन पायी| हालांकि 40 सालों बाद उनके ढलते करियर में एक चमत्कार हुआ| बड़े परदे पर पहचान बनाने के उनके लम्बे संघर्ष पर छोटे परदे के ब्लॉकबस्टर धारावाहिक 'रामायण' में मात्र एक एपिसोड की उनकी छोटी सी भूमिका ऐसी हावी हुई कि आज भी माता शबरी का नाम सुनते ही मनोमस्तिष्क में न केवल सरिता देवी का चेहरा कौंधता है, बल्कि आमजन का हृदय भी असीम श्रद्धा से भर जाता है|
सरिता देवी के जीवन से जुड़ी तमाम जानकारी मुझे उनकी बेटी सुश्री विजयश्री जी के अलावा जयपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार श्री एम.डी.सोनी और सुश्री मैत्रीमंथन के ब्लॉग 'मैत्रीमंथन' से मिली| श्री एम.डी.सोनी को साल 1993 में, जोधपुर में हुए एक समारोह में सरिता देवी जी का साक्षात्कार करने का मौक़ा मिला था|
सरिता देवी जी का जन्म 23 नवम्बर 1923 को जोधपुर के एक 'पीपा क्षत्रिय' परिवार में हुआ था| उनके पिता पूनमचंद चौहान जी की अपनी टेलरिंग शॉप थी| परिवार में माता पिता के अलावा सरिता देवी और उनसे बड़ी एक बहन यानि दो बेटियां थीं| सरिता देवी जी ने दसवीं तक की पढ़ाई की, और फिर उसी स्कूल में पढ़ाने भी लगी थीं|
Shri M.D.Soni
सरिता देवी जी को बचपन से ही फ़िल्में देखने का और अभिनय का बहुत शौक़ था| श्री एम.डी.सोनी जी से राजस्थान पत्रिका के लिए हुई बातचीत में सरिता देवी जी ने बताया था कि इस दिशा में उनके पिता उन्हें बहुत प्रोत्साहित करते थे और पिता के प्रोत्साहन से ही वो 1940 के दशक के मध्य में, 20-22 साल की उम्र में मुम्बई आ गयी थीं| (हालांकि विजयश्री जी कहती हैं कि उनके नाना अपनी बेटी के इस शौक़ के पूरी तरह ख़िलाफ़ थे और इसीलिये बेटी यानि सरिता देवी पिता को बिना बताए मुम्बई आयी थीं, अलबत्ता मां से उन्होंने कुछ भी नहीं छिपाया था|)
विजयश्री जी के अनुसार उनकी मां ने मुम्बई में रहने वाले एक पूर्वपरिचित गुजराती परिवार के यहां शरण ली| काम की तलाश के दौरान वो लालजी गोहिल के संपर्क में आयीं, जो एक ड्रामा प्रोड्यूसर थे| लालजी गोहिल मूल रूप से तत्कालीन जोधपुर रियासत के बागावास इलाक़े के रहने वाले थे| मुम्बई में सरिता देवी ने नाटकों में अभिनय से करियर शुरू किया| हिन्दी के अलावा उन्होंने राजस्थानी, गुजराती, मराठी इत्यादि भाषाओं के नाटकों में भी अभिनय किया| उस दौर में लालजी गोहिल का नाटक 'राम और रहीम' बहुत हिट हुआ था, जिसने सरिता देवी को ख़ासी पहचान दी| साल 1951 में सरिता देवी जी ने लालजी गोहिल से शादी कर ली थी|
सरिता देवी की पहली फ़िल्म थी, साल 1947 की 'तोहफ़ा'| इस फ़िल्म में उन्होंने महज़ 24 साल की उम्र में नायिका की मां का रोल किया था| उसी साल की 'रिवाज' में भी वो मां के रोल में नज़र आयीं| साल 1948 की 'हिप हिप हुर्रे' उर्फ़ 'चौबेजी’ में वो निरूपा राय की बुआ थीं तो 'चुनरिया' (1948) और 'चकोरी' (1949) में भी उन्होंने इसी तरह की चरित्र भूमिकाएं की थीं|
सरिता देवी जी ने लगभग 45 साल के अपने करियर में ‘दो बीघा ज़मीन', ‘टैक्सी ड्राईवर', ‘देवदास', ‘सोने की चिड़िया', ‘लव मैरिज', ‘आयी मिलन की बेला', 'आये दिन बहार के', 'आप आये बहार आयी', ‘पिया का घर', ‘पाकीज़ा', ‘गंगा की सौगंध', ‘आंचल', ‘प्यार झुकता नहीं' जैसी लगभग 200 हिन्दी फ़िल्में बतौर चरित्र अभिनेत्री कीं| लेकिन उनकी असल और अमिट पहचान बनी, साल 1986-87 में दूरदर्शन पर प्रसारित हुए ब्लॉकबस्टर धारावाहिक 'रामायण' में केवल एक एपिसोड की, भील जनजाति की रामभक्त वृद्धा शबरी की भूमिका से| 'रामायण' के बाद वो साल 1993 में एक बार फिर से छोटे परदे पर धारावाहिक 'श्रीकृष्ण' में नज़र आयी थीं| उनके करियर की आख़िरी फ़िल्म साल 1993 की ही 'आदमी खिलौना है' थी|
हिन्दी के अलावा सरिता देवी जी ने राजस्थानी, गुजराती, भोजपुरी, मराठी, बांग्ला और हरियाणवी भाषाओं की भी कुछ फ़िल्में कीं| साल 1963 की राजस्थानी फ़िल्म 'बाबा रामदेव' में रामदेव की मौसी की खलभूमिका में उन्हें बेहद पसंद किया गया था| भाषा पर सरिता देवी जी की पकड़ बेहद मज़बूत थी| उन्होंने रूसी भाषा की कुछ फ़िल्मों में हिन्दी डबिंग भी की थी|
साल 1993 में जोधपुर के 'कला त्रिवेणी संस्थान' द्वारा राजस्थानी सिनेमा का स्वर्ण जयन्ती वर्ष मनाया गया था| इस समारोह में सरिता देवी जी को सिनेमा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया था| श्री एम.डी.सोनी को इस समारोह के दौरान ही सरिता देवी जी का इंटरव्यू करने का अवसर मिला था|
सरिता देवी जी के पति लालजी गोहिल ने शादी के बाद अपनी ड्रामा कंपनी को बंद करके मुम्बई के उपनगर खार में टेलरिंग शॉप खोल ली थी| सरिता देवी से उनके दो बेटों और एक बेटी विजयश्री का जन्म हुआ| लालजी गोहिल की ये दूसरी शादी थी और पहली शादी से भी उनके दो बेटे थे| उधर सरिता देवी जी की भी ये दूसरी शादी थी| उनकी पहली शादी बारह साल की उम्र में कर दी गयी थी| दुर्भाग्य से शादी के केवल दो महीनों के अन्दर उनके (पहले) पति गुज़र गए थे|
सरिता जी के पति लालजी गोहिल का निधन 21 जून 1990 को हुआ था| सरिता जी का बड़ा बेटा भी अब जीवित नहीं है| बेटी विजयश्री एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करने के बाद अब सेवानिवृत्त हैं और अपने छोटे भाई के परिवार के साथ मुम्बई के उपनगर कांदिवली (पूर्व) में रहती हैं|
सरिता देवी जी जीवन के आख़िरी 5-6 सालों में पार्किन्सन की बीमारी से पीड़ित रहीं, जो समय के साथ गंभीर रूप लेती चली गयी| और फिर इसी बीमारी के चलते 28 जून 2001 को 78 साल की उम्र में वो इस दुनिया को अलविदा कह गयीं|
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr. M.D.Soni (Jaipur) & Maitri Manthan for their support.
Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.
Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.
Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support.
Sarita Devi ji on YT Channel BHD
“Mother & Sister in Law on big screen, Shabari on TV” - Sarita Devi
.....Shishir Krishna Sharma
Hindi cinema has had numerous such artists who were regularly seen on the screen and their faces are embedded deep into viewers’ memory. Who they were, where did they come from, what was their name, where did they vanish and where would they be today?, lost in oblivion, they left so many questions behind.
Sarita Devi was one such artist who remained active for 40 years, succeeded in becoming a known face but nothing more. 40 years later, while her career graph was on the decline, a miracle happened. Years of grueling struggle on big screen was overshadowed by a single episode of the blockbuster TV serial Ramayan, in which her role as Shabari invokes deep respect in the hearts of common people.
I could obtain the whole lot of information about Sarita Devi from her daughter Ms. Vijayshri, Jaipur based senior journalist Shri M.D. Soni and Ms. Maitrimanthan’s blog ‘Maitrimanthan’. Shri M.D. Soni got an opportunity of interviewing Sarita Devi ji in a function held at Jodhpur in 1993.
Sarita Devi was born on 23rd November 1923 in Jodhpur in a Peepa Kshatriya clan. Her father Poonam Chand Chauhan owned a tailoring shop. Sarita Devi had a sister elder to her. Sarita Devi studied upto Matric and began teaching in the same school.
Sarita Devi was fond of films and acting right from her childhood. M.D. Soni while interviewing Sarita Devi for Rajasthan Patrika disclosed that her father was extremely encouraging. With encouragement from her father, she arrived in Mumbai at the age of 20-22 years in mid-1940. (though Vijayshri is emphatic that her maternal grandfather was against this, therefore, Sarita Devi landed in Mumbai without the knowledge of her father, though she did not hide anything from her mother).
According to Vijayshri her mother took refuge with a Gujarati family, known to her. In connection with her work she came in contact with Lalji Gohil, a Drama Producer. Lalji Gohil belonged to Bagavas area of Jodhpur princely state. Sarita Devi began acting on stage in Gujarati, Marathi and Rajasthani language plays. Lalji Gohil’s play ‘Ram aur Rahim’ was a big hit. It brought wide recognition for Sarita Devi. In 1951, Sarita Devi married Lalji Gohil.
‘Tohfa’ of 1947 was Sarita Devi’s debut film in which she played the role of a mother at the age of 24. Same year she again played the role of mother in ‘Rivaaj’. She played the role of Nirupa Roy’s aunt (bua) in 1948’s ‘Hip Hip Hurray’ alias ‘Chaube ji’. She played the similar character roles in ‘Chunariya’ (1948) and ‘Chakori’ (1949).
Sarita Devi, in her long career of 45 years played character roles in more than 200 Hindi films e.g. ‘Do Beegha Zameen’, ‘Taxi Driver’, ‘Devdas’, ‘Sone ki Chidiya’, ‘Love Marriage’, ‘Aayi Milan ki Bela’, ‘Aaye Din Bahar Ke’, ‘Aap Aaye Bahar Aayi’, ‘Piya Ka Ghar’, ‘Pakeezah’, ‘Ganga Ki Saugandh’, ‘Aanchal’, ‘Pyar Jhukta Nahi’. But she earned an indelible mark by playing the single episode role of aged Bhil tribal lady Mata Shabari in Doordarshan’s blockbuster serial ‘Ramayan’ telecast in 1986-87. Again in 1993 she made a come back in the TV serial ‘Shri Krishna’. ‘Aadmi Khilona Hai’ (1993) was the last film of her career.
Besides Hindi, Sarita Devi did films in Rajasthani, Gujarati, Bhojpuri, Marathi, Bangla and Haryanvi languages as well. Her role as a wicked aunt of Baba Ramdev in the Rajasthani film ‘Baba Ramdev’ (1963) was well appreciated by the viewers. Sarita Devi was well versed in linguistic skill. She dubbed for a couple of Russian language films in Hindi and was honored for the same.
In the year 1993 Jodhpur’s Kala Triveni Sansthan celebrated its Golden Jubilee year. Sarita Devi was honored in this function for her contribution to cinema. It was in this function that M.D.Soni ji had got an opportunity to interview her.
Lalji Gohil, after his wedding to Sarita Devi, closed down his Drama company and had opened a Tailoring shop in Mumbai’s suburb Khar. The couple had two sons and one daughter. For Lalji Gohil, it was his second marriage. He had two sons from his first marriage as well. For Sarita Devi also it was her second marriage of sort. Her first wedding took place when she was barely 12 years of age. Unfortunately, her husband had died within two months of wedding.
Sarita Devi’s husband Lalji Gohil passed away on 21 June 1990. Sarita Devi’s elder son is also no more. Daughter Vijayshri worked for a Private company and has since retired. Her primary concern was to look after her parents therefore, she chose to remain a spinster all her life. Vijay shri lives with her younger brother’s family in Thakur Complex, Kandivali (East).
Sarita Devi suffered from Parkinson’s disease in her last 5-6 years, which worsened with age. Sarita Devi succumbed to her disease on 28th June 2001 at the age of 78 years.