“कमर हैलन की, आंखें पद्मनी की” : बीरबल
.........शिशिर कृष्ण शर्मा
हिंदी सिनेमा में ऐसे हास्यकलाकार गिने-चुने ही हुए जिन्हें दर्शकों को हंसाने के लिए ज़रा भी प्रयास नहीं करना पड़ता था। उनका परदे पर आना ही देखने वालों को भीतर तक गुदगुदा देता था। गोप, टुनटुन, केश्टो मुकर्जी और धूमल ऐसे ही चंद हास्य-कलाकार थे। इसी फ़ेहरिस्त में एक नाम है बीरबल का, जो हिंदी फ़िल्मों का एक जाना-पहचाना चेहरा हैं। पर्दे की अपनी छवि के ठीक विपरीत निजी ज़िंदगी में बीरबल एक परिपक्व, संवेदनशील और जागरूक शख़्स हैं। लेकिन साथ ही उनका हास्यबोध भी कुछ कम नहीं है। मुंबई के जे.पी.रोड, अंधेरी (पश्चिम) स्थित बीरबल के निवास पर हाल ही में हुई मुलाक़ात के दौरान उन्होंने बेहद दिलचस्प और चटपटे शब्दों में ‘बीते हुए दिन’ के साथ अपनी निजी और व्यावसायिक जिंदगी के बारे में विस्तृत बातचीत की।
लीजिए प्रस्तुत है, अभिनेता बीरबल की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी -
29 अक्टूबर 1938
को गुरदासपुर के धारीवाल क़स्बे के एक खोसला परिवार में पैदा हुआ था मैं। 3
भाईयों और 2
बहनों में सबसे बड़ा था, घरवालों ने बड़े प्यार से नाम रखा सतिंदर कुमार, जिसके पीछे ‘खोसला’ तो जुड़ना ही था, सो पूरा नाम हुआ सतिंदर कुमार खोसला। पुश्तैनी तौर पर तो हम लोग नूरमहल के रहने वाले थे लेकिन दादाजी की सारी ज़िंदगी धारीवाल में गुज़री थी। मैं बड़ा पोता था इसलिए दादी ने मुझे अपने से अलग नहीं होने दिया। पिताजी का लाहौर में प्रिंटिंग प्रेस का धंधा था लेकिन मेरा बचपन दादी के पास धारीवाल में ही बीता। प्राईमरी की पढ़ाई धारीवाल में ही की हालांकि एक साल के लिए लाहौर के एक स्कूल पर भी एहसान किया था मैंने। और जब बंटवारा हुआ तो हम लोग दिल्ली चले आए।
दिल्ली के बाड़ा हिंदूराव के गवर्नमेंट ए.वी. मिडिल स्कूल से मैंने आठवीं पास की और फिर सदर बाज़ार के हीरालाल जैन हायर सेकंडरी स्कूल से किसी तरह हायर सेकंडरी भी निपटा दिया। नंबर इतने शानदार आए कि दिल्ली के तमाम कॉलेजों ने मार्कशीट देखते ही हाथ जोड़ दिए। बहुत भटकने के बाद आख़िर में जालंधर के एक कॉलेज ने स्वागत किया और इससे पहले कि वो लोग मार्कशीट पर दोबारा नज़र डालते, मैंने फ़ौरन दाख़िला लेकर होस्टल में डेरा डाल दिया। और फिर साल 1957-58
में किसी तरह बी.ए. भी निपटा ही दिया। ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह भी उसी कॉलेज में मुझसे एक साल आगे थे।
कॉलेज में मैं नाटकों और भांगड़ा में हिस्सा लेता था। किशोर कुमार का मैं बहुत बड़ा फ़ैन था। उनकी हरेक फ़िल्म कई-कई बार देखता था, उनके गाने गाता था और उन्हीं की तरह मैं भी एक्टर बनना चाहता था। चूंकि देव साहब भी गुरदासपुर के ही थे इसलिए उनसे ज़रा ख़ास ही लगाव था। उन पर फ़िल्माया गया, किशोर कुमार का गाया फ़िल्म फ़ंटूश का ‘ऐ मेरी टोपी पलट के आ’ मेरा पसंदीदा गीत था। मैं इस गीत को अक्सर गाता फिरता था और इसीलिए कॉलेज में मेरा नाम फ़ंटूश रख दिया गया था।
उधर पिताजी ने लाहौर से आने के बाद दिल्ली के सदर बाज़ार में थाना रोड पर ‘खोसला प्रिंटिंग प्रेस’ खोल ली थी, जिसकी एक शाखा अब नारायणा में भी है। जालंधर से बी.ए. होकर लौटा तो पिताजी ने मुझे गद्दी पर बैठा दिया। लेकिन कुछ ही दिनों में उनकी समझ में ये बात आ गयी कि एक जगह टिककर बैठे रहना उनके सपूत के बस का है नहीं सो उन्होंने मुझे ऑर्डर लाने-ले जाने के काम पे लगा दिया। ये काम मुझे थोड़ा सा रास आया क्योंकि इसमें दिन भर साईकिल पर घूमना होता था। इस काम में भी ज़्यादा दिन मन नहीं लगा। उधर पिताजी एक्टर बनने की मेरी तमन्ना के बारे में जान चुके थे। तमाम कामधंधा छोड़कर किशोर कुमार की हरेक नयी फ़िल्म का पहले दिन का पहला शो देखने के लिए मेरा भागना उन्हें जरा भी नहीं सुहाता था और लेकिन उनके श्रीमुख से मेरे साथ-साथ किशोर कुमार के लिए भी गाली निकलती थी। मां मेरी तभी गुज़र चुकी थीं जब मैं 12
बरस का था।
फ़रवरी 1963 में मैं प्रेस के लिए ऑर्डर लेने के बहाने पहली बार मुंबई आया। राज कपूर के मैनेजर सोहन बाली उन दिनों दिल्ली में थे। पिताजी को बताए बग़ैर मैंने उनसे निर्माता-निर्देशक रामदयाल के नाम एक चिट्ठी लिखवा ली थी। मुंबई में थोड़ा बहुत ऑर्डर भी ले लेता था, लेकिन ज़्यादातर समय रामदयाल के ऑफ़िस में उन्हें और उनके साथियों को मोनोएक्टिंग करके दिखाता था। बॉम्बे हॉस्पिटल के पास, लिबर्टी के सामने एक गेस्ट हाऊस को मैंने अपना रहने का ठिकाना बना लिया था। ख़ूब धक्के खाए, तरह तरह के लोगों से मुलाक़ात हुई, 4-5 महिने बाद एक रोज़ रामदयाल ने अपनी फ़िल्म ‘राजा’ के एक गीत में एक शॉट का काम दिया। जगदीप हीरो थे। शूटिंग चेंबूर में रातभर चलनी थी। जाते समय तो रामदयाल जी अपनी गाड़ी से लेकर गए, पैकअप हुआ तो वापसी का कोई ठिकाना नहीं। जेब में ज़्यादा पैसे भी नहीं थे। चेंबूर से दादर 10 किलोमीटर पैदल और दादर से 5 पैसे का टिकट लेकर ट्राम से गेस्ट हाऊस तक पहुंचा।
उधर साल भर बाद,
1964 में पिताजी मुंबई आ धमके। मुझे एक झापड़ रसीद किया और बोले, ‘ढाई फ़ुट का तू, बिज्जू जैसी तेरी शक़्ल, एक्टर बनेगा तू’? रामदयाल जी ने बीचबचाव करना चाहा तो उन्हें भी अच्छी-ख़ासी सुना दी, ‘ख़बरदार जो मेरे बेटे को बिगाड़ा’। और पिताश्री मुझे घसीटते हुए अपने साथ दिल्ली लेकर चले गए। लेकिन 5-6
महिनों बाद एक्टिंग के कीड़े ने फिर से काटा। और मैं इस वादे के साथ कि अब फिल्म वालों की तरफ़ देखूंगा भी नहीं, ऑर्डर लेने के बहाने मैं फिर से मुंबई चला आया।
अब फिर से स्टूडियोज़ के धक्के शुरू हुए। और उन्हीं धक्कों में कई लोगों से दोस्ती भी हो गयी। उनमें एक थे, राज खोसला साहब के असिस्टेंट सुदेश इस्सर। एक रोज़ मैं घूमता-फिरता राज खोसला साहब की फ़िल्म ‘दो बदन’ के सेट पर पहुंच गया। और मेरे पहुंचते ही ख़ुशक़िस्मती से फ़िल्म के हीरो मनोज कुमार की नज़र मुझ पर पड़ गयी। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। पता चला कॉलेज के एक सीन में बेवक़ूफ़ से दिखने वाले लड़के के रोल के लिए वो गुलशन बावरा को बुलाने वाले थे, लेकिन मैं उन्हें ज़्यादा बड़ा बेवक़ूफ़ नज़र आया। मनोज कुमार ने पूछा, एक्टिंग करोगे? अब बेवक़ूफ़ दिखने और होने में तो फ़र्क होता ही है, सो मैं ‘ना’ क्यों कहता? पहली बार कैमरे के सामने डायलॉग बोलने को मिला, काम भी अच्छा हुआ।
फिर एक रोज़ मैं राज खोसला जी की ही फ़िल्म ‘मेरा साया’ के सेट पर पहुंच गया। सुदेश ने कहा कि के.एन.सिंह के असिस्टेंट वकील का बहुत अच्छा रोल आया है, तू राज जी से बात कर। राज जी सामने बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मेरी उनके सामने जाने की हिम्मत नहीं हुई। सुदेश मुझसे कहता रहा लेकिन डर के मारे मेरी तो जान निकली जा रही थी। आख़िर में सुदेश ने मेरे एक ऐसी ज़बर्दस्त लात मारी कि मैं लुढ़कता हुआ सीधा राज जी के चरणों में ही जाकर रूका। वो चौंके, और मैंने हाथ जोड़कर उन्हें सब कुछ बता दिया। फिर क्या था, सुदेश की लात काम कर गयी और वो रोल मेरा हो गया। उसके बाद तो राज खोसला जी मुझे अपनी हरेक फ़िल्म में याद करते रहे। एक राज़ की बात और बता दूं, राज जी भी पुश्तैनी तौर पर थे नूरमहल के ही। और हमारी दूर की रिश्तेदारी भी थी। जब उन्हें ये बात पता चली तो उनके बर्ताव में और भी गर्मजोशी आ गयी। सही कहूं तो राज खोसला जी ही थे जिनकी वजह से मैं मुंबई में जम सका था।
फ़िल्म ‘मेरा साया’ से मेरी पहचान बनने लगी थी। अब जब कभी बेवक़ूफ़ सा दिखने वाला कोई रोल होता तो लोग मुझे याद करते। उसी दौरान वी.शांताराम जी के यहां से ऑडिशन का बुलावा आया, मैंने ख़ूब तैयारी की लेकिन जब कैमरे के सामने पहुंचा तो शांताराम जी को देखकर डायलॉग ही भूल गया। बहुत कोशिश की सम्भलने की, लेकिन घबराहट में मुंह से पता नहीं क्या-क्या निकलता चला गया। लेकिन ताज्जुब की बात, मेरी वोही बदहवासी शांताराम जी को इतनी पसंद आयी कि मैं ऑडिशन में ए-ग्रेड से पास हो गया। फ़िल्म ‘बूंद जो बन गयी मोती’ का ‘बांछाराम’ नाम का मेरा वो रोल दर्शकों को इतना पसंद आया कि आज भी कभीकभार लोग मुझे इसी नाम से बुलाते हैं। दरअसल ‘बूंद जो बन गयी मोती’ ही वो फ़िल्म थी जिसके बाद एक्टिंग की मेरी ठेली दुकान में बदल गयी थी।
1980 के दशक में फ़िल्मोद्योग में बहुत लम्बी हड़ताल हुई। क़रीब 20
दिनों तक सारा काम ठप्प पड़ा रहा। उसी दौरान जूनियर महमूद ने मुझे अपने साथ स्टेज शो के लिए नागपुर चलने को कहा। मैं घबरा गया। स्टेज शो मेरे लिए बिल्कुल नयी चीज़ थी। बहरहाल जूनियर महमूद ने हिम्मत बढ़ाई, मैं भी ख़ाली बैठा था सो राम का नाम लेके चल पड़ा। ओमप्रकाश जी की मिमिक्री की, ‘हाल कैसा है जनाब का’ जैसे 2-4
गाने गाए, शो हिट रहा और एक नयी दुकान खुल गयी। तब से इंग्लैंड, अमेरिका, न्यूज़ीलैंड, गल्फ़ सहित दुनिया के कई देशों में शो कर चुका हूं।
और अब बात इश्क़ो-मोहब्बत की, 1972 में फ़िल्म ‘दरार’ की शूटिंग के लिए मैं जम्मू गया था। वहां एक लड़की से इकतरफ़ा इश्क़ कर बैठा। रातों की नींद और दिन का चैन सभी कुछ उस इश्क़ की भेंट चढ़ गया। फ़िल्म के डायरेक्टर वेद राही जी को मेरे दर्देदिल का पता चला तो वो लड़की की मां से मेरे लिए लड़की का हाथ मांगने गए। कम्बख़्त मां ने ये कह के दरवाज़ा बंद कर दिया कि फ़िल्म वाले को देने के बजाए लड़की को मैं कुएं में धकेल दूंगी। लड़की की जान बच गयी और मैं टूटा हुआ दिल जेब में रखकर जम्मू से दिल्ली आ गया।
पहली बार पिताजी की बात सर झुकाकर मानी और चुपचाप उनकी पसंद की लड़की से शादी कर ली। पत्नी जनकपुरी के भाटिया परिवार से हैं। और अब तो मैं दादा-नाना भी बन चुका हूं। बेटी शालिनी की शादी दादर के एक व्यवसायी, गुगलानी परिवार में हुई है और उसकी एक बेटी और एक बेटा है। हमारा बेटा संतोष एक शिपिंग कंपनी में ऊंचे ओहदे पर है और वो, उसकी पत्नी और बेटी हमारे साथ ही रहते हैं।
शुरूआती कुछ फ़िल्में मैंने सतिंदर कुमार खोसला के नाम से की थीं। लेकिन एक रोज़ फ़िल्म ‘अनीता’ के सेट पर मनोज कुमार ने कहा, ये नाम हीरो का लगता है, इसे बदलकर कोई कॉमेडी नाम रख। बहुत माथापच्ची की, बहुत से नाम सोचे, आखिर में हम दोनों बीरबल पर आकर अटक गए। मनोज कुमार को ये नाम बहुत जंचा, हालांकि उन्होंने इतना जरूर कहा, कि कहां तो असली बीरबल था अकलमंद और तू परदे पे लगता है अकलबंद !
बहरहाल बीते 50
सालों में मैं क़रीब 500
फ़िल्मों में तो काम कर ही चुका होऊंगा जिनमें हिंदी के अलावा कुछ पंजाबी, भोजपुरी, मराठी और एकाध बांग्ला और राजस्थानी फ़िल्म भी शामिल है। आज भी स्टेज शो और मौक़ा मिलने पर फ़िल्में और टी.वी.सीरियल करता रहता हूं। कुल मिलाकर कहूं, तो ज़िंदगी बहुत शांति से और मज़े में गुज़र रही है।
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr.
S.M.M. Ausaja for providing pictures & posters.
Mr. Gajendra Khanna for the English translation of the write up.
Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Comedian Birbal on YT Channel BHD
“Kamar Hailan Ki, Ankhein Padmani
ki” : Birbal
………Shishir Krishna
Sharma
Hindi Cinema has had only a handful
of comedians who could effortlessly make the audience laugh. Their appearance
on screen itself used to induce laughter into the inner core of the viewer.
Gope, Tuntun, Keshto Mukherjee and Dhoomal belonged to this category of
comedians. Another name in this list is of Birbal, who is a well-known face in
Hindi Films. Contrary to his screen image, he is a mature, sensitive and
conscious individual. However, at the same time his comprehension of humour is
also amazing. I met him recently at his residence in J.P. Road, Andheri (West).
During this interview with ‘Beete Hue Din’, he talked about his personal and
occupational life in detail in a very interesting and piquant manner.
So, here we present, actor Birbal’s
story in his own words: -
I was born on 29th
October 1938 in Gurdaspur’s
Dhariwal town’s Khosla Family. I was the eldest among three brothers and two
sisters. My name was very lovingly kept as ‘Satinder Kumar’ and with the
customary addition of the family name Khosla, my full name was Satinder Kumar
Khosla. Although, our ancestral place was Noormahal my paternal grandfather had
spent his whole life in Dhariwal. Since, I was the eldest grandson, my paternal
grandmother being very fond of me, didn’t let me go anywhere. Therefore,
although, my father operated a Printing Press in Lahore, my childhood was spent
in Dhariwal only with my paternal grandmother. I did most of my primary
education in Dhariwal, though I had ‘blessed’ a Lahore school for a year with
my presence too. After partition, we all came to Delhi.
I completed my eighth class from the
Government A.V. Middle School in Bara Hindurao, Delhi. After that I pursued my
Higher Secondary at Sadar Bazar’s Hiralal Jain Higher Secondary School. I
performed so well there that all schools in Delhi denied me admission
immediately after seeing my mark sheet. After a lot of struggle, finally, I got
admission in a college in Jalandhar. Before, they could give my marksheet a
second look, I barged into and set camp in the college hostel! Thus, in the
year 1957-58, I managed to complete my B.A. Ghazal Singer Jagjit Singh was my
college senior by one year.
In college, I used to participate in
plays and Bhangra events. I was a big fan of Kishore Kumar. I used to see each
films of his multiple times, used to sing his songs and wanted to become an
actor just like him! Since, Dev Anand sahib also belonged to Gurdaspur, I had a
special affection towards him. The Kishore Kumar sung solo “Ae Meri Topi Palat
Ke Aa” picturised on him in the movie ‘Funtoosh’ was a special favourite of
mine. I used to sing this song often and hence, my nick name in college became
“Funtoosh”!
Meanwhile, after coming to Delhi
from Lahore, my father had opened ‘Khosla Printing Press’ in Sadar Bazar’s
Thana Road whose one branch is in Narayana also. On my return from Jalandhar
after completing my education, father made me responsible for it. However,
within a few days he understood that I cannot sit in one place for long and
gave me the job of taking as well as delivering orders. I liked this job a bit
as I had to go around on my bicycle the whole day, but this liking did not last
long. Meanwhile, father had come to know about my ambitions of becoming an
actor too. He did not appreciate my running away to watch each new Kishore
Kumar ‘first-day-first-show’ and always used the choicest words for me as well
as Kishore! My mother had already passed away when I was only twelve years of
age.
In February 1963, I ostensibly went
to take orders for the press in Mumbai. Raj Kapoor’s Manager Sohan Bali was in
Delhi at the time. Without telling father, I had asked him to send a
recommendation to actor-director Ramdayal. Although, I used to bring a few
orders from Mumbai, I used to spend most of my time entertaining Ramdayal and
his friends in his office with my mono acting. I had started staying in a guest
house, opposite Liberty, near Bombay Hospital. I struggled a lot and met many
people. After 4-5 months, one day, Ramdayal gave me work in a single shot of a
song in his film “Raja”. Jagdeep was the hero of this movie. The shooting was
to take place the whole night in Chembur. While going, I travelled in
Ramdayal’s car. After pack up, there was no proper way of return. I had hardly
any money of my own. I travelled by foot, the ten-kilometer distance between
Chembur and Dadar following which I took a 5 paisa ticket in a tram to the
guest house. After a year, in 1964, suddenly my father arrived in Mumbai. He
slapped me and said, ‘Two and a half feet height, face of a badger and you want
to become an actor?’ When Ramdayal tried to take my side, my father scolded him
and chided in no uncertain words that he should desist from attempting to spoil
his son. And then he dragged me back to Delhi. However, the acting bug bit me
again 5-6 months later. With the promise that I would not look towards films
again, I came to Mumbai again giving him the hope that I was coming only to
take orders.
Thus, my struggle in the studios
began again. I made a lot of friends during this period. One of them was Raj
Khosla Sahab’s assistant Sudesh Issar. One day I wandered onto the sets of Raj
Khosla Sahab’s film ‘Do Badan’. By a stroke of luck, I caught the attention of
the film’s hero Manoj Kumar. He called me. I came to know that they wanted to call
Gulshan Bawra to do the part of a stupid looking boy in one of the scenes but
Manoj Kumar felt I looked more stupid than Gulshan! Manoj Kumar asked me, ‘Would
you like to act’? Since there is huge difference between looking stupid and
being stupid so there was no question of my refusing and I took up the
assignment. I got to speak a dialogue in front of the camera, and I did it well.
Then, another day, I landed on the sets of another Raj Khosla film, ‘Mera Saya’.
Sudesh told me that there is a good role of the assistant advocate of K N Singh
and suggested that I ask Raj ji about it. Raj ji was reading something opposite
me at that time, but I was afraid to go in front of him. Sudesh kept pestering
me but I feared to talk to him. This indecision of mine annoyed Sudesh, who
gave me such a powerful kick that I rolled straight away onto Raj ji’s feet! He
was surprised and I explained everything to him. This is how Sudesh’s kick did
the job of getting me that role. After
that, Raj Khosla ji called me for every film of his. Here, I should tell you a
secret, that Khosla sahib was also originally from Noormahal and was a distant
relative of ours. When, he realized this, his behavior towards me became even
warmer. It is the truth that it was
because of him only that I could settle in Mumbai.
I started getting recognized after
the movie ‘Mera Saaya’. After that, people used to remember me for any role
requiring one to look a bit stupid! Around this time, I got an audition call
from V Shantaram. I did lots of preparations for it, but I forgot my dialogue
when I came in front of him on camera. I tried to steady myself but in panic I
don’t know what all I kept speaking! Surprisingly, Shantaram ji appreciated my
restless behavior and declared me passed with flying colours! My role of ‘Baanchharam’
in the movie ‘Boond Jo Ban Gayi Moti’ was so adored by audiences that even to
this day sometimes I get called by that name! In reality, it was this role that
changed my acting cart into a full-fledged acting shop!
In the 1980s a long strike had taken
place in film industry and no work could be done for nearly twenty days. During
this period, Junior Mahmood asked me to accompany him in a stage show in
Nagpur. I became nervous as stage shows were a totally new ball game for me.
Nevertheless, with the encouragement of Junior Mahmood and seeing my
joblessness, I took the name of God and went to Nagpur. I did the mimicry of Om
Prakash ji, acted 2-4 songs like ‘Haal Kaisa Hai Janaab Ka’. The show was a hit
and it opened a new avenue for me. Since then, I have done shows in many
countries of the world including England, America, New Zealand and the Gulf.
Now let me come to the topic of love
and romance. I had gone in 1972 to Jammu for the shooting of the movie ‘Daraar’.
I got into a one-sided love with a girl there. As a result, my day’s peace and
night’s sleep both vanished as I fell even deeper in love with her. On coming
to know about it, the film’s director, Ved Rahi ji went to ask her mother with
my marriage proposal. Her obnoxious mother slammed the door saying she would
prefer dumping her daughter in the well over giving her hand in marriage to
film folk! The girl’s life was saved, and I came to Delhi from Jammu with my
broken heart in my pocket. For the first time, I heard my father’s words humbly
and quietly married a girl of his choice. My wife is from a Bhatia family of
Janakpuri and I have now become a maternal as well as paternal grandfather. My
daughter Shalini is married into a business family with surname Guglani of
Dadar. She has a son and daughter from her marriage. My son Santosh is on a
high post in a shipping company. He, his wife and daughter stay with us.
In my initial films, I was credited
as ‘Satinder Kumar Khosla’ only. One day on the sets of movie ‘Anita’, Manoj
Kumar told me that my name resembled that of a hero, and I should consider
keeping a comical name. We gave it a lot of thought, coming up with lots of
names but at the end of it we both got stuck with the name of ‘Birbal’. He
liked the name a lot, though he quipped that in reality though Birbal was known
for his brains, you look like a fool on screen.
Over the past 50 years, I have done nearly 500 films. These include Punjabi, Bhojpuri and Marathi films other than Hindi. I have appeared in one odd Bengali and Rajasthani film too. Today, as well, I act in stage shows and when the opportunity arises, I act in films and T.V. serials. Overall, I can say with conviction, that my life is passing well, full of abundant peace and happiness.