‘ज़रा
देखिये मेरी
सादगी’
– दारासिंह
............शिशिर
कृष्ण शर्मा
5-7 साल
की उम्र
तक हमारे
लिए ‘दारासिंह’
एक विशेषण
हुआ करता
था| आपसी
लड़ाई-झगड़ों
में हम
अक्सर एक
दूसरे से
कहते थे,
‘तू बहुत
दारासिंह है
क्या?’ या
‘ज़्यादा दारासिंह
मत बन|’
उस समय
हमें पता
ही नहीं
था कि
दारासिंह क्या
है, कौन
है, हमारा
बस यही
अर्थ होता
था कि
ज़्यादा दादागिरी
मत दिखा|
बड़े होने
पर ‘दारासिंह’
शब्द की
हक़ीक़त पता
चली तब
समझ आया
कि इस
नाम को
हम विशेषण
के रूप
में क्यों
इस्तेमाल करते
थे| समय
के साथ
साथ दारासिंह
से जुड़े
किस्से-कहानियां
पढ़-सुनकर
हमारे दिलो-दिमाग
में उनकी
एक विराट
छवि बनती
चली गयी|
मुम्बई आकर
‘सिने एंड
टी.वी.
आर्टिस्ट एसोसिएशन’
(सिन्टा)
की सदस्यता
ली तो
एसोसिएशन की
आमसभा में
उन्हें पहली
बार सामने
मंच पर
बैठे देखा|
फिर एकाध
बार सिंटा
के कार्यालय
में मुलाक़ात
हुई जो
महज़ दुआ-सलाम
तक सीमित
रही| और
फिर बहुत
जल्द वो
दिन भी
आया जब
मैं जुहू
के ए.बी.नायर
रोड स्थित
उनके घर
पर उनके
साथ बैठा
हिन्दी साप्ताहिक
‘सहारा समय’
के अपने
कॉलम ‘क्या
भूलूं क्या
याद करूं’
के लिए
उनका इंटरव्यू
कर रहा
था|
दारासिंह
अमृतसर जिले
के धर्मूचक
गांव के
एक किसान
परिवार से
थे| उनका
जन्म 19 नवम्बर 1928 को उनके
ननिहाल रतनगढ़
में हुआ
था| दो
भाईयों में
दारासिंह बड़े
थे| उनके
अनुसार पीढ़ी
दर पीढ़ी
बंटते-बंटते
उनके परिवार
के पास
बहुत थोड़ी
ज़मीन रह
गयी थी
इसलिए उनके
पिता और
चाचा रोजी-रोटी
के सिलसिले
में सिंगापुर
आते-जाते
रहते थे|
दारासिंह 18 साल की
उम्र तक
गांव में
ही रहकर
खेतीबाड़ी और
शौकिया पहलवानी
करते रहे
और फिर
1947 में चाचा
के साथ
सिंगापुर चले
गए| उनका
असली नाम
दीदारसिंह रंधावा
था| सिंगापुर
के रास्ते
में, मद्रास
(चेन्नई)
बंदरगाह पर
कागज़ात में
उनके नाम
को आसान
करके दारासिंह
लिख दिया
गया था|
आगे चलकर
वो इसी
नाम से
मशहूर हुए|
दारासिंह का कहना था, “सिंगापुर में कुश्ती का खेल बहुत पसंद किया जाता था| वहां ‘हैप्पी वर्ल्ड’ और ‘ग्रेट वर्ल्ड’ नाम के दो मशहूर अखाड़े थे| मेरी कद-काठी और पहलवानी के शौक़ को देखकर लोगों ने मुझे प्रोफेशनल पहलवान बनने के लिए प्रेरित किया| मैं छः महीने तक ‘हैप्पी वर्ल्ड’ के एक उस्ताद जी की मालिश करता रहा लेकिन मुझे वहां कुश्ती लड़ने का मौक़ा ही नहीं दिया गया| फिर एक रोज़ ‘ग्रेट वर्ल्ड’ अखाड़े के उस्ताद हरनाम सिंह जी ने मुझे अपना शागिर्द बना लिया| पहलवानी के लिए अपने दम पर ज़रूरी ख़ुराक का इंतज़ाम कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था, लेकिन सिंगापुर में रह रहे पंजाबियों की मदद से ये समस्या भी हल हो गयी|”
तीन
साल की
कड़ी मेहनत
के बाद
दारासिंह ने
सबसे पहले
1950 में मलेशियन
चैम्पियन जीती|
फिर इंडोनेशिया
और बर्मा
में कुश्तियां
लड़ीं| लेकिन
उनका नाम
तब हुआ
जब उन्होंने
1951 में श्रीलंका
में हुए
मुकाबले में
हंगरी के
रहने वाले
मशहूर पहलवान
किंगकांग को
हराया| 1953 में डेढ़
सौ पहलवानों
के बीच
लगातार तीन
साल तक
चले मुकाबलों
के फाइनल
में टाइगर
जोगिन्दर को
हराकर वो
हिन्दुस्तान के
चैम्पियन बने|
उसके बाद
उन्होंने कॉमनवेल्थ
चैम्पियनशिप जीती
और फिर
1968 में अमेरिका
के पहलवान
को हराकर
वो वर्ल्ड
चैम्पियन बन
गए| इससे
पहले हिन्दुस्तान
के सिर्फ
गामा पहलवान
ने ये
खिताब जीता
था| दारासिंह
ने 1983 में कुश्ती
से संन्यास
लिया था
और तब
तक वर्ल्ड
चैम्पियन का
ये खिताब
उन्हीं के
पास रहा|
दारासिंह का फिल्मों में आना भी अचानक और बिना किसी योजना के हुआ| दरअसल साल 1954 में बनी फिल्म ‘पहली झलक’ में एक सीन था जिसमें ओमप्रकाश सपना देखते हैं कि वो दारासिंह के साथ कुश्ती लड़ रहे हैं| दारासिंह को न तो अभिनय करना था और न ही कोई संवाद बोलना था| इसलिए वो सीन बिना किसी परेशानी के ओके हो गया| करीब 6 साल के बाद उन्हें एक बार फिर से 1960 की फिल्म ‘भक्तराज’ में दादा भगवान के साथ कुश्ती लड़ने का ऑफर मिला| लेकिन इस बार उन्हें छोटे-छोटे 4-5 संवाद भी बोलने थे|
दारासिंह
का कहना
था, “मैं
संवाद बोल
ही नहीं
पा रहा
था जिसकी
वजह से
रीटेक पर
रीटेक होते
जा रहे
थे| आखिर
में निर्देशक
ने कहा,
आप कुश्ती
लड़ते रहो
और गलत-सही
जैसा भी
हो बोल
दो, हम
किसी और
से डब
करा लेंगे|
मुझे समझ
ही नहीं
आया कि
ये डब
करना क्या
होता है|
मेरे साथी
पहलवान ने
कहा, तुझे
कौन सा
हीरो बनना
है, काम
कर और
भूल जा|
और मैं
सब भूलकर
फिर से
पहलवानी में
जुट गया|”
दारासिंह का फ़िल्मी सफ़र सही मायनों में 60 के दशक के साथ शुरू हुआ जब निर्माता देवी शर्मा ने उनसे कुश्तियों पर बनने जा रही अपनी फिल्म के लिए संपर्क किया| दारासिंह ने बताया था, “मैंने देवी शर्मा जी से कहा, एक्टिंग मेरे बस की बात नहीं है| उन्होंने जवाब दिया आप बस हां कह दीजिये, एक्टिंग तो हम करा लेंगे| मुझे डर था कि कहीं लोग मज़ाक़ न उड़ाएं कि लो, पहलवान चला हीरो बनने| और वैसे भी हम पहलवानों के लिए फिल्म देखना तक वर्जित था| उस्ताद कहते थे कि ये तमाशबीनों का काम है| लेकिन दूसरी तरफ गामा पहलवान का उदाहरण हमारे सामने था जिनका बुढ़ापा बहुत बुरे हालात में गुज़रा था| उधर कोल्हापुर के नामी बुलेट पहलवान को भी अपने आख़िरी दिनों में तांगा चलाना पड़ा था| सो इस डर से कि बुढ़ापे के लिए कोई इंतज़ाम नहीं किया तो कहीं मेरा हाल भी और पहलवानों जैसा न हो जाए, मैंने शर्माजी को हां कह दी| साल 1962 की वो फिल्म ‘किंगकांग’ सुपरहिट रही और मेरे पास निर्माता-निर्देशकों की कतार लग गयी|”
फिल्म
का प्रस्ताव
लेकर आने
वाले तमाम
निर्माता-निर्देशकों
के सामने
दारासिंह ये
शर्त रखते
थे कि
पहलवानी से
समय मिलेगा
तभी वो
शूटिंग पर
आएंगे| और
उनकी शर्त
मान ली
जाती थी|
दारासिंह के
अनुसार, “भाषा
मेरी माशाअल्लाह,
सो उर्दू
और हिन्दी
सिखाने के
लिए उस्ताद
रखे गए|
‘किंगकांग’
की रिलीज़
के बाद
मुझे एक
प्रशंसक का
ख़त मिला
जिसमें लिखा
था, ‘तुम
भारत के
भीम हो,
बजाते क्यों
बीन हो?’
इस व्यंग्य
ने कुश्ती
का वर्ल्ड
चैम्पियन बनने
की मेरी
जिद को
और मज़बूती
दी और
मैंने ये
ज़िद 1968 में पूरी
कर ही
ली|”
साल
1963 की फ़िल्म ‘फ़ौलाद’ में निर्माता-निर्देशक
किसी बड़ी
हिरोईन को
साईन करना
चाहते थे|
लेकिन दारासिंह
के साथ
काम करने
को कोई
भी हिरोईन
तैयार नहीं
हुई| मजबूरन
उन्हें एक
नयी लड़की
को साईन
करना पड़ा|
और वो
थीं मुमताज़
जो उन
दिनों छोटी-छोटी
भूमिकाएं कर
रही थीं| फ़िल्म ‘फ़ौलाद’ बेहद हिट
हुई और
इसके साथ
ही मुमताज़
और दारासिंह
की जोड़ी
भी हिट
हो गयी|
आगे चलकर
इस जोड़ी
ने एक
दर्जन से
भी ज़्यादा
फिल्मों में
साथ काम
किया| मुमताज़
के अलावा
निशि के
साथ भी
दारासिंह की
जोड़ी काफी
पसंद की
गयी|
दारासिंह
ने ‘किंगकांग’,
‘सैमसन’,
‘महाभारत’,
‘शेरदिल’,
‘लुटेरा’,
‘ठाकुर जरनैलसिंह’,
‘संगदिल’,
‘नसीहत’,
‘बलराम श्रीकृष्ण’,
‘द किलर्स’,
‘तुलसी विवाह’,
‘हर हर
महादेव’,
‘जय बोलो
चक्रधारी’
और ‘हरिदर्शन’
जैसी करीब
80 फिल्मों में
मुख्य भूमिकाएं
कीं| इनमें
ज़्यादातर स्टंट
और कुछ
धार्मिक फ़िल्में
थीं| साल
1982 में बनी
‘रूस्तम’
बतौर नायक
दारासिंह की
आख़िरी फिल्म
थी जिसके
बाद वो
चरित्र भूमिकाएं
करने लगे
थे|
दारासिंह के शब्दों में, “साल 1985-86 में प्रदर्शित हुई फिल्मों ‘मर्द’ और ‘कर्मा’ से मैं चरित्र अभिनेता बना| उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर प्रदर्शित हुए रामानंद सागर के मेगाहिट सीरियल ‘रामायण’ में हनुमान के रोल में दर्शकों ने मुझे बहुत पसंद किया| ये मेरा पहला सीरियल था| आगे चलकर मैंने ‘विक्रम और वेताल’, ‘लवकुश’, ‘नीयत’, ‘तकदीर’, ‘हद कर दी’ और ‘क्या होगा निम्मो का’ जैसे कई और सीरियलों में काम किया|”
दारासिंह
की 2 शादियां हुई
थीं| उनकी
पहली शादी
1937 में महज़
9 साल की
उम्र में
कर दी
गयी थी|
लेकिन पहली
पत्नी से
कुछ सालों
बाद उनका
तलाक़ हो
गया| उस
शादी से
दारासिंह का
एक बेटा
प्रद्युम्नसिंह हैं
जिनका जन्म
1945 में हुआ
था| प्रद्युम्न
ने रामानंद
सागर की
फिल्म ‘आंखें’
में अकरम
नाम के
किरदार से
अभिनय की
शुरूआत की
थी| 1969 में बनी
फिल्म ‘बंदिश’
में वो
‘शैलेन्द्र’
के नाम
से सोनिया
साहनी के
अपोज़िट हीरो
बनकर आए|
‘बंदिश’
गायक जसपाल
सिंह की
भी डेब्यू
फिल्म थी
जो आगे
चलकर फिल्म
‘गीत गाता
चल’
के गीतों
से मशहूर
हुए| प्रद्युम्न
ने 1971 की ‘गंगा
तेरा पानी
अमृत’
में भी
एक रोल
किया था|
प्रद्युम्न अब
मेरठ में
रहते हैं
जहां उनका
एक फ़ार्महाऊस
है|
दारासिंह
की दूसरी
शादी मई
1961 में अमृतसर
की सुरजीत
कौर औलख
से हुई|
इस शादी
से उनकी
तीन बेटियां
कमल, लवलीन,
दीपा और
दो बेटे
विरेंदरसिंह और
अमरीकसिंह हैं|
विरेंदरसिंह भी
अभिनेता हैं
और विन्दु
के नाम
से मशहूर
हैं|
दारासिंह के छोटे भाई सरदारा सिंह भी पहलवानी में नाम कमाने के बाद फिल्मों में आ गए थे| उन्होंने ‘रंधावा’ के नाम से अपनी पहचान बनाई थी| उन्होंने अभिनेत्री मुमताज़ की छोटी बहन मल्लिका से शादी की| रंधावा और मल्लिका के अभिनेता बेटे शाद रंधावा ‘वो लम्हे’, ‘आवारापन’, ‘आशिकी-2’ और ‘मस्तीजादे’ जैसी कुछ फिल्मों में काम कर चुके हैं|
दारासिंह
ने ‘नसीहत’,
‘नानक दुखिया
सब संसार’,
‘मेरा देश
मेरा धरम’,
‘किसान और
भगवान’,
‘धन्ना जट्ट’,
‘करण’
और ‘रूस्तम’
जैसी करीब
एक दर्जन
हिन्दी और
पंजाबी फिल्मों
का निर्माण
भी किया|
‘महावीरा’,
‘ऐलाने जंग’,
‘अजूबा’,
‘अनमोल’,
‘दिल्लगी’,
‘कहर’,
‘कल हो
न हो’,
‘जब वी
मेट’
समेत 50 से ज़्यादा
फिल्मों में
वो बतौर
चरित्र अभिनेता
नज़र आए|
साल 2012 में प्रदर्शित
हुई ‘अता
पता लापता’
उनकी आख़िरी
फिल्म थी|
दारासिंह कई
साल ‘सिने
एंड टी.वी.
आर्टिस्ट एसोसिएशन’
(सिंटा)
के अध्यक्ष
भी रहे|
दारासिंह का निधन 12 जुलाई 2012 को मुम्बई में हुआ|
We
are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Aksher Apoorva for the English
translation of the write ups.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video
editing.
Dara Singh on YT Channel BHD
“Zara Dekhiye Meri Saadgi” – Dara Singh
......... Shishir Krishna Sharma
Till the age of 5-7, ‘Dara Singh’ used to be an adjective for us. During fights we used to tell each other, ‘Are you a big Dara Singh?’ or ‘Don’t try to act like Dara Singh!’ At that time, we did not know what or who is Dara Singh. For us it meant that don’t show too much attitude. When we grew up, we understood the reality of the words ‘Dara Singh’ and understood why the name was used as an adjective. With time after hearing stories related to Dara Singh, we had a larger than life image of his in our minds. When I took the membership of Cine and TV Artists Association (CINTAA) after coming to Mumbai then during the Association’s General Body Meeting, I saw him sitting on the stage for the first time. After that I met him on one or two occasions in CINTA’s office, but these meetings were mere exchange of pleasantries. After some time, one day I landed up at his house at Juhu’s A.B.Nair Road to interview him for my Hindi weekly ‘Sahara Samay’’s column ‘Kya Bhooloon Kya Yaad Karoon’.
Dara Sing belonged to a farmer’s family from Dharmuchak Village in Amritsar District. He was born at his maternal home on 19 November 1928 in Ratangarh. He was the elder among two brothers. According to him due to the dwindling shares over generations, not much land was left with the family and as a result his father and paternal uncle used to often go to Singapore in order to make a living. Till the age of 18, Dara Singh remained in the village to carry out farming activities along with being an amateur wrestler. In 1947, He went to Singapore along with his Uncle. His real name was Deedar Singh Randhawa. Enroute to Singapore, at Madras (Chennai) port, his name was simplified to Dara Singh in the documentation. He was to become famous with this name later.
Dara Singh recalled, “The sport of wrestling was much loved in Singapore. There were two famous Akharas (wrestling clubs) there named ‘Happy World’ and ‘Great World’. Seeing my height and build and inclination towards wrestling, people encouraged me to become a professional wrestler. I worked as a masseuse for a Ustad ji at ‘Happy World’ for six months but did not get any wrestling opportunities at all. Then one day Ustad Harnam Singh ji of the ‘Great World’ Akhara accepted me as his disciple. I could not arrange the required diet on my own, but this issue also got sorted out thanks to the Punjabis staying in Singapore.”
After three years of hard work Dara Singh first won the Malyasian Championship in 1950 followed by wrestling in Indonesia and Burma. Real fame came to him when he defeated famous Hungarian wrestler King Kong in Srilanka in 1951. He became the Indian Champion in 1953 after defeating Tiger Joginder in the finals of the championship which had featured bouts between 150 wrestlers which went on for nearly 3 years continuously. After that he won the Commonwealth Championship and in 1968, after defeating an American wrestler, he became the World Champion. Before this, only Indian wrestler to win it had been Wrestler Gama. Dara Singh retired from wrestling in 1983 and he had held the title of world champion till then.
Dara Singh’s entry into films was sudden and unplanned. Actually, in ‘Pehli Jhalak’ (1954), there was a scene in which Om Prakash dreams of wrestling with Dara Singh. Dara Singh neither had to act nor speak any dialogues. As a result, the scene was okayed without any difficulties. Nearly six years later, for the film ‘Bhaktraj’ (1960), he got an offer to wrestle with Dada Bhagwan. However, this time he had 4-5 small dialogues to speak.
Dara Singh told me, “I was not able to speak the dialogues which was leading to repeated retakes. Finally, the director told me, you just wrestle and speak the dialogues as correctly as possible. We will get it dubbed by someone else. I did not know what doing dubbing meant. My co-wrestler told me, as I didn’t want to become a Hero, I should just do my work and forget it. After that I forgot everything and focused my attentions totally towards wrestling.”
Dara Singh’s film career started in true spirits in the 1960s when producer Devi Sharma approached him for his movie being made on wrestling. Dara Singh reminisced, “I told Devi Sharma that acting was not my cup of tea. He asked me to just agree to sign up and it was Devi’s job to make him act. I was afraid of being made fun of as a wrestler trying to become a Hero. As it is, seeing movies was banned for wrestlers. Our Ustad used to say that it was a work of showmen. On the other hand we had the example of wrestler Gama whose old age was spent in a very shabby condition. Kolhapur’s famous wrestler Bullet Pehelwan also had been forced to ride a tonga during his last days. With this fear in mind that since I had not made any arrangements for my old age and I should not suffer like the other wrestlers at a later date, I assented to Sharmaji’s request. This 1962 movie, ‘King Kong’ proved to be a superhit and producer-directors started queueing up with offers for me to act in their films.”
Dara Singh used to keep a condition to all producer-directors approaching him with film offers that he would do shooting only when he had free time from wrestling and they always agreed to it. According to Dara Singh, “My command over languages was poor and therefore tutors were assigned to teach me Urdu and Hindi. After the release of ‘King Kong’, an admirer sent me a letter asking me, ‘You are India’s Bhim, why do you play Been’. This comment strengthened my resolve to win the wrestling world championship and I was able to achieve this dream in 1968.”
The producer-director wanted to sign a big heroine for his 1963 movie ‘Faulaad’ but no heroine agreed to be cast opposite Dara Singh. Reluctantly they had to sign a new girl Mumtaz whose career was limited to minor characters till then. Film ‘Faulaad’ proved to be a hit just like its lead pair of Dara Singh and Mumtaz. This lead pair went on to star in over a dozen films after that. His pairing with actress Nishi was also loved by the audience.
Dara Singh played lead roles in nearly 80 films including ‘King Kong’, ‘Samson’, ‘Mahabharat’, ‘Sherdil’, ‘Lootera’, ‘Thakur Jarnail Singh’, ‘Sangdil’, ‘Nasihat’, ‘Balram Shrikrishna’, ‘The Killers’, ‘Tulsi Vivah’, ‘Har Har Mahadev’, ‘Jai Bolo Chakradhari’ and ‘Haridarshan’. Most of these were stunt films and a few were mythological movies. ‘Rustom’ (1982) was Dara Singh’s last film as a lead actor after which he transitioned to character roles.
In Dara Singh’s words, “I became a character artist with the films ‘Mard’ and ‘Karma’ which were released in 1985-86. During the same period, my role of Hanuman in Ramanand Sagar’s mega hit serial Ramayana was also adored by the viewers. This was my first TV serial. Later I also acted in many serials including ‘Vikram Aur Betaal’, ‘Luv Kush’, ‘Neeyat’, ‘Taqdeer’, ‘Hadd Kar Di’ and ‘Kya Hoga Nimmo Ka’.”
Dara Singh married twice. His first marriage took place at the age of just 9 years in 1937. However, he later got divorced from his first wife. His son Pradyumn Singh from that marriage was born in 1945. Pradyumn had started his acting career with Ramanand Sagar’s film ‘Aankhen’ with a character named ‘Akram’. He played the lead role with the stage name of ‘Shailendra’ opposite Sonia Sahni in the movie Bandish (1969). This was the debut film for singer Jaspal Singh who later became famous for his songs of the movie ‘Geet Gata Chal’. Pradyuman had also played a role in ‘Ganga Tera Paani Amrit’ (1971). He now lives in Meerut where he owns a farmhouse.
Dara Singh’s second marriage took place in May 1961 with Surjit Kaur Aulakh of Amritsar. He had three daughters Kamal, Loveleen and Deepa and two songs Virender Singh and Amreek Singh from this marriage. Virender Singh is also an actor and is famous with the nickname ‘Vindu’.
Dara Singh’s younger brother Sardar Singh also entered films after gaining fame as a wrestler. He is known by the stage name ‘Randhawa’. He got married to Mallika, the younger sister of actress Mumtaz. Randhawa and Mallika’s actor son Shaad Randhawa also appeared in a few films including ‘Woh Lamhe’, ‘Aawarapan’, ‘Aashiqui-2’ and ‘Mastizaade’.
Dara Singh also produced nearly a dozen Hindi and Punjabi films including ‘Nasihat’, ‘Naanak Dukhiya Sab Sansaar’, ‘Mera Desh Mera Dharm’, ‘Kisaan Aur Bhagwan’, ‘Dhanna Jatt’, ‘Karan’ and ‘Rustom’. He appeared as a character artist in over 50 films including ‘Mahaveera’, ‘Elaan-e-Jung’, ‘Ajooba’, ‘Anmol’, ‘Dillagi’, ‘Kahar’, ‘Kal Ho Na Ho’ and ‘Jab We Met’. His last movie ‘Ata Pata Lapata’ released in 2012. Dara Singh also served for many years as the Chairman of the ‘Cine and TV Artist Association’(CINTA).
Dara Singh passed away on 12 July 2012 in Mumbai.