“ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफ़सोस हम न होंगे” – नौशाद
.........शिशिर कृष्ण शर्मा
मुग़लों के आने के बाद हिंदुस्तान की धरती पर एक नयी तहज़ीब ने जन्म लिया। ये वो तहज़ीब थी जिसमें एक तरफ़ मंदिरों की घंटियां थीं तो दूसरी तरफ़ मस्जिदों में अज़ान। इसमें रसखान की कृष्ण-भक्ति थी, मज़ारों और दरगाहों में गायी जाने वाली क़व्वालियां थीं, सूफ़ियों का संगीत, कत्थक नृत्य, राग-रागिनियों से सजा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, मीठी उर्दू ज़ुबान और और भी बहुत कुछ था, जिसने इसे गंगा-जमुनी तहज़ीब का नाम दिया। इस तहज़ीब का गढ़ था अवध, जहां के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह को संगीत और नृत्य के क्षेत्र में योगदान के लिए आज भी बेहद इज़्ज़त के साथ याद किया जाता है। उसी अवध के केन्द्र लखनऊ में 25 दिसंबर 1919 को जन्मे थे महान संगीतकार नौशाद अली, जिन्होंने आने वाले समय में हिंदी फिल्म संगीत का चेहरा ही बदल दिया था।
गीत-संगीत के प्रति नौशाद की इस दीवानगी से उनके पिता नाख़ुश थे। पिता की तमाम सख़्ती और पाबंदियों के बावजूद हॉरमोनियम सीखने की चाह नौशाद को साज़ों की एक दुकान तक खींच लायी जहां वो साज़ों की साफ-सफ़ाई का काम करने लगे। नौशाद की मेहनत और संगीत के प्रति दीवानगी को देखते हुए एक रोज़ दुकान के मालिक ने उन्हें एक हॉरमोनियम तोहफ़े में दे दिया। पिता को ये नागवार गुज़रा और उन्होंने फ़ैसला सुना दिया कि नौशाद को संगीत और घर में से किसी एक को चुनना होगा। नौशाद का कहना था, “...और मैंने ख़ुशी ख़ुशी संगीत को चुन लिया।“
लखनऊ में उस्ताद बबन ख़ां से हॉरमोनियम की और उस्ताद यूसुफ अली से सितार की शुरूआती तालीम हासिल कर चुके नौशाद ने घर छोड़ने के बाद एक नाटक कंपनी में साजिंदे की नौकरी पकड़ ली। नौशाद के मुताबिक़ ‘नाटकों के प्रदर्शन के सिलसिले में हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में शहर-दर-शहर घूमते थे। लेकिन अचानक एक रोज़ पैसे की तंगी की वजह से कंपनी बंद हो गयी। उस वक़्त हम लोग गुजरात के वीरमगांव में डेरा डाले हुए थे। घर लौटने के तमाम रास्ते बंद हो चुके थे। मजबूरन मुझे काम की तलाश में मुंबई चले आना पड़ा। ये साल 1937 का वाक़या है और मेरी उम्र उस वक़्त महज़ 18 बरस की थी।‘ मुंबई में नौशाद को दूर के एक रिश्तेदार ‘प्रोफ़ेसर अब्दुल अलीम नामी’ के घर में पनाह मिली जो उत्तर प्रदेश के संडीला-हरदोई के रहने वाले थे और मुंबई के सेंट ज़ेवियर कॉलेज में पढ़ाते थे। मुंबई में वो कोलाबा में रहते थे।
उन दिनों फ़िल्मी गतिविधियों का केंद्र दादर हुआ करता था, जहां कई छोटे-बड़े स्टूडियो मौजूद थे। नौशाद के मुताबिक़, ‘जेबें खाली रहती थीं इसलिए काम की तलाश में रोज़ मुझे कोलाबा से दादर का 10 किलोमीटर का फ़ासला खाली पेट, पैदल ही तय करना पड़ता था। कुछ वक़्त बाद मैंने प्रोफ़ेसर साहब का घर छोड़कर दादर के ब्रॉडवे सिनेमा के सामने के फ़ुटपाथ पर डेरा डाल लिया।‘
नौशाद की कोशिशें कामयाब हुईं और उन्हें उस दौर के मशहूर संगीतकार उस्ताद झंडे खां साहब ने 40 रूपए महिने के वेतन पर बतौर प्यानो-वादक अपने साथ रख लिया। संगीतकार गुलाम मोहम्मद, जो आगे चलकर नौशाद के असिस्टेंट बने, उस वक़्त उस्ताद झंडे ख़ां के यहां 80 रूपए महिने के वेतन पर ढोलक बजाते थे।
नौशाद का कहना था, ‘न्यू थिएटर की फ़िल्मों से प्लेबैक शुरू तो हो चुका था लेकिन पूरी तरह से प्रचलन में आया नहीं था। अभिनेता कैमरे के सामने ही गाते थे और साज़िंदे इधर-उधर छिपकर साज़ बजाते थे। उस दौरान मैंने भी कई फ़िल्मों में इसी तरह से कभी झाड़ियों में छुपकर तो कभी पेड़ पर बैठकर साज़ बजाए थे।‘ नौशाद की मेहनत और लगन को देखकर झंडे ख़ां ने उन्हें बहुत जल्द अपना असिस्टेंट बना लिया। उस दौर में नौशाद ने मनोहर कपूर, मुश्ताक़ हुसैन और खेमचन्द प्रकाश जैसे संगीतकारों को भी असिस्ट किया। इसके साथ ही नौशाद 100 रूपए महिने पर बतौर साज़िंदा ‘यंग इंडिया ग्रामोफ़ोन कम्पनी’ में भी नौकरी करते रहे। मुश्ताक़ हुसैन के असिस्टेंट के तौर पर उन्होंने निर्देशक मोहन सिंहा की ‘निराला हिंदुस्तान उर्फ़ इंडस्ट्रियल इंडिया’ (1938), कारदार की ‘बाग़बान’ (1938) और गुंजाल की ‘पतिपत्नी’ (1939) जैसी फ़िल्में कीं जो ‘जनरल फ़िल्म्स’ बैनर में बनी थीं। और तभी उन्हें मौक़ा मिला निर्माता ‘सी.एम.ग्वालानी’ के ‘चित्रा प्रोडक्शंस’ की फ़िल्म ‘कंचन’ (1941) के एक गीत की धुन बनाने का, जिसके बोल थे ‘बता दो कोई कौन गली मोरे श्याम’। डी.एन.मधोक का लिखा ये गीत लीला चिटणिस की आवाज़ में था।
‘मणिभाई व्यास’ द्वारा निर्देशित फ़िल्म कंचन’ के बाक़ी सभी 10 गीत संगीतकार ज्ञानदत्त ने संगीतबद्ध किए थे। लेकिन नौशाद की बतौर स्वतंत्र संगीतकार पहली फ़िल्म ‘प्रेमनगर’ फ़िल्म ‘कंचन’ से एक साल पहले, 1940 में ही रिलीज़ हो चुकी थी। निर्माता-निर्देशक मोहन भवनानी के बैनर ‘भवनानी प्रोडक्शंस’ की फ़िल्म ‘प्रेमनगर’ के मुख्य भूमिकाओं में थे प्रोफ़ेसर रामानंद, हुस्नबानो और बिमला कुमारी। मशहूर राम-भजन ‘जैसे सूरज की गरमी से जलते हुए तन को मिल जाए तरूवर की छाया’ के गायक ‘शर्मा बंधु’ प्रोफ़ेसर रामानंद के बेटे हैं, तो हुस्नबानो 1960 के दशक की मशहूर अभिनेत्री नाज़िमा की बुआ थीं।
‘प्रेमनगर’ और ‘कंचन’ के बाद नौशाद की ‘दर्शन’, ‘माला’ (दोनों 1941) और ‘नयी दुनिया’, ‘स्टेशन मास्टर’, और ‘शारदा’ (तीनों 1942) रिलीज़ हुईं। ‘शारदा’ में सुरैया ने अभिनेत्री ‘मेहताब’ के लिए प्लेबैक दिया था और वो मशहूर गीत था डी.एन.मधोक का लिखा ‘पंछी जा, पीछे रहा है बचपन मेरा, उसको जा के ला’। फ़िल्म ‘नयी दुनिया’ और ‘शारदा’ से नौशाद का रिश्ता निर्माता-निर्देशक ए.आर.कारदार के साथ ऐसा जुड़ा कि ‘कारदार प्रोडक्शंस’ की आने वाली सभी फिल्में ‘कानून’, ‘नमस्ते’, ‘संजोग’ (तीनों 1943) और ‘गीत’, ‘जीवन’ और ‘पहले आप’ (तीनों 1944) भी नौशाद के हिस्से में आ गयीं। यों तो इन सभी फ़िल्मों के गीत काफ़ी सराहे गए थे लेकिन साल 1944 में रिलीज हुई फ़िल्म ‘रतन’ के गीतों की ज़बर्दस्त कामयाबी ने नौशाद को उस दौर के चोटी के संगीतकारों में ला खड़ा किया। करण दीवान के बड़े भाई निर्माता जैमिनी दीवान की फ़िल्म ‘रतन’ 75,000/- रूपयों की लागत में बनी थी लेकिन सिर्फ रेकॉर्ड्स की बिक्री से ही जैमिनी दीवान को साढ़े तीन लाख रूपयों की रॉयल्टी मिली थी। फ़िल्म ‘रतन’ के दसों गीत आज सात दशक बाद भी उतने ही मशहूर हैं।
फ़िल्म ‘पहले आप’ में मोहम्मद रफ़ी को पहली बार नौशाद के संगीत में गाने का मौक़ा मिला था। इस फ़िल्म में रफ़ी ने तीन गीत गाए थे, जिनमें दो युगलगीत श्याम कुमार के साथ थे, ‘तुम दिल्ली मैं आगरे, मेरे दिल से निकले हाए’ और ‘एक बार उन्हें मिला दे फिर मेरी तौबा मौला’ और एक समूहगीत था ‘हिन्दुस्तान के हम हैं, हिन्दुस्तान हमारा’, जिसमें रफ़ी का साथ दिया था श्याम कुमार और अलाउद्दीन ने।
साल 1945 में नौशाद ने कारदार की फ़िल्म ‘सन्यासी’ में तो 1946 में ‘कीमत’ और ‘शाहजहां’ में संगीत दिया। ‘शाहजहां’ वो एकमात्र फ़िल्म थी जिसमें नौशाद के संगीत में के.एल.सहगल ने गाने गाए थे। इसी फ़िल्म में सहगल के साथ गाने का रफ़ी का सपना भी पूरा हुआ था। सहगल के साथ गाया रफ़ी का वो इकलौता गीत था ‘रूही रूही रूही मेरे सपनों की रानी’ जिसके आख़िर में रफ़ी के हिस्से में सिर्फ़ दो पंक्तियां आयी थीं। ‘शाहजहां’ से ही गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने भी अपना करियर शुरू किया था।
साल 1946 में ही बनी फ़िल्म ‘महबूब प्रोडक्शंस’ की फ़िल्म ‘अनमोल घड़ी’ से नौशाद का रिश्ता उस दौर के एक बड़े नाम, निर्माता-निर्देशक महबूब ख़ान से जुड़ा। ‘अनमोल घड़ी’ संगीतकार नौशाद और गायिका नूरजहां की जोड़ी की पहली और आख़िरी फ़िल्म साबित हुई क्योंकि बंटवारे के बाद नूरजहां पाकिस्तान चली गयीं।
साल 1947 में नौशाद ने कारदार की फ़िल्म ‘दर्द’ में न सिर्फ़ एक नए गीतकार ‘शक़ील बदायूंनी’ को ब्रेक दिया बल्कि एक नयी गायिका ‘उमादेवी’ का परिचय भी दर्शकों से कराया। इस फ़िल्म में उमा देवी के तीन सोलोगीत ‘अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का’, ‘आज मची है धूम’, ‘ये कौन चला’ और सुरैया के साथ मिलकर ‘बेताब है दिल’ गाए थे। ‘अफ़साना लिख रही हूं’ उमादेवी का गाया पहला फ़िल्मी गीत था। आगे चलकर उमादेवी ‘टुनटुन’ के नाम से मशहूर हास्य अभिनेत्री बनीं। उन्हें नौशाद ने ही फ़िल्म ‘बाबुल’ (1950) में बतौर अभिनेत्री इस नए नाम के साथ परिचित कराया था।
1947 में ही नौशाद ने महबूब की फ़िल्म ‘ऐलान’ का और कारदार की फ़िल्म ‘नाटक’ का संगीत तैयार किया। साल 1948 में उनकी दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं, महबूब की ‘अनोखी अदा’ और वाडिया मूवीटोन की ‘मेला’। 1949 में बनी ‘ताजमहल पिक्चर्स’ की फ़िल्म ‘चांदनी रात’ में नौशाद ने पहली बार लता से गवाया। जी.एम.दुर्रानी के साथ लता का गाया वो युगलगीत था ‘हाए छोरे की जात बड़ी बेवफ़ा’। उसी साल बनी महबूब की फ़िल्म ‘अंदाज़’ में नौशाद ने लता को पहली बार नायिका के गीत गाने का मौक़ा दिया तो ‘दिल्लगी’ में गीता दत्त ने पहली बार उनके संगीत में गाया ‘तू मेरा चांद तू मेरी चांदनी’। इस गीत का दूसरा वर्शन सुरैया और श्याम कुमार के युगलगीत के रूप में है। वो दौर नौशाद के करियर का सुनहरा दौर था। आने वाली उनकी सभी फ़िल्में ‘दुलारी’ (1949), ‘बाबुल’, ‘दास्तान’ (1950), ‘दीदार’, ‘जादू’ (1951), ‘आन’, बैजू बावरा’, ‘दीवाना’ (1952) भी लगातार कामयाब हो रही थीं। फ़िल्म ‘जादू’ के गीत ‘जब नैन मिले नैनों से’ में नौशाद ने पहली बार पाश्चात्य संगीत का इस्तेमाल किया था।
फ़िल्म ‘जादू’ में ही जोहराबाई अम्बालावाली ने नौशाद के संगीत में अपना आख़िरी फ़िल्मी गीत ‘लेलो लेलो दो फूल जानी लेलो’ गाया था, जिसमें उनका साथ दिया था शमशाद बेगम और मोहम्मद रफ़ी ने। साल 1953 में फ़िल्मफेयर पुरस्कारों की नींव रखी गयी तो सर्वश्रेष्ठ संगीत का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के लिए नौशाद को मिला। नौशाद का कहना था, ‘बैजू बावरा’ का प्रीमियर दादर के उसी ब्रॉडवे टॉकीज़ में हुआ था जिसके ठीक सामने के फ़ुटपाथ पर कभी मैं रहता था’।
फ़िल्म ‘मुग़ले आज़म’ (1960) में मशहूर शास्त्रीय गायक ‘उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां साहब’ ने फ़िल्मी गायन से दूरी बनाए रखने के अपने उसूलों के ख़िलाफ़ जाकर दो बंदिशें ‘शुभ दिन आयो’ और ‘प्रेम जोगन बन के’ गायी थीं तो शमशाद बेगम के लिए नौशाद के संगीत में ये आख़िरी फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म में उन्होंने लता के साथ मशहूर क़व्वाली ‘तेरी महफ़िल में क़िस्मत आजमाकर हम भी देखेंगे’ गायी थी। मुबारक बेग़म और लता के साथ गाए उनके एक अन्य गीत ‘हुस्न की बारात चली’ का फ़िल्म में इस्तेमाल ही नहीं हुआ था।
1960 के दशक का उत्तरार्ध हिंदी सिनेमा के लिए ज़बर्दस्त बदलावों का दौर लेकर आया। सिनेमा पूरी तरह से रंगीन हो चला था। संगीत के साथ साथ सुनने वालों की पसंद भी बदल रही थी। ऐसे में नौशाद ने भी ‘राम और श्याम’, ‘साथी’ और ‘गवांर’ जैसी फ़िल्मों में अपने संगीत को नएपन का जामा पहनाने की कोशिश की और वो कामयाब भी रहे। साल 1971 में रिलीज़ हुई कमाल अमरोही की फिल्म ‘पाकीज़ा’ और उसके संगीत ने कामयाबी के तमाम रेकॉर्ड तोड़ डाले। लेकिन उसका तमाम श्रेय संगीतकार ‘ग़ुलाम मोहम्मद’ के खाते में चला गया। 1970 का दशक आते आते फ़िल्म संगीत का चेहरा पूरी तरह से बदल चुका था। नौशाद के लिए हालात से समझौता कर पाना आसान नहीं था। यही वजह है कि ‘तांगेवाला’ (1972), ‘आईना’, ‘माय फ़्रेण्ड’ (1974), ‘सुनहरा संसार’ (1975) और ‘चंबल की रानी’ (1979) जैसी उनकी फ़िल्में बहुत जल्द भुला दी गयीं।
‘सुनहरा संसार’ में किशोर कुमार को नौशाद के संगीत में पहली और आख़िरी बार गाने का मौक़ा मिला। आनंद बक्षी का लिखा और आशा भोंसले के साथ किशोर कुमार का गाया वो दोगाना था, ‘हेलो क्या हाल है’ लेकिन उसे भी फ़िल्म से निकाल दिया गया था। साल 1982 में आयी निर्माता-निर्देशक सुल्तान अहमद की फ़िल्म ‘धरमकांटा’ में उन्होंने ख़ुद को एक बार फिर से साबित कर दिखाया। इसके बावजूद नौशाद के लिए व्यस्तताओं का दौर दोबारा लौटकर नहीं आया। ‘लव एण्ड गॉड’ (1986), ‘आवाज़ दे कहां है’ (1990), ‘तेरी पायल मेरे गीत’ (1992) और ‘गुड्डू’ (1995) जैसी उनकी इक्का-दुक्का फ़िल्में रिलीज़ तो हुईं, लेकिन कोई करिश्मा नहीं दिखा पाईं। शुरूआत में फ़िल्म ‘लव एण्ड गॉड’ के नायक गुरूदत्त थे। लेकिन पहले गुरूदत्त की और फिर निर्माता-निर्देशक के.आसिफ़ की मौत की वजह से ये फ़िल्म अधूरी रह गयी थी। गुरूदत्त की जगह संजीवकुमार को लेकर बनाई जा रही ‘लव एण्ड गॉड’ के.आसिफ की पत्नी अख़्तर आसिफ की कोशिशों से क़रीब दो दशकों बाद रिलीज़ हो पायी थी। अभिनेत्री निम्मी की ये आख़िरी फ़िल्म साबित हुई।
फ़िल्म ‘गुड्डू’ के प्रदर्शन के बाद क़रीब 10 साल नौशाद फ़िल्मी दुनिया से अलग रहे। और जब साल 2005 में अकबर ख़ान की फ़िल्म ‘ताजमहल’ के गीत देश भर में गूंजे तो सुनने वाले ताज्जुब में पड़ गए। भले ही नौशाद की वापसी नयी तकनीक के साथ हुई थी, लेकिन हरिहरन, प्रीति उत्तम और कविता कृष्णमूर्ति के गाए फ़िल्म ‘ताजमहल’ के सभी गीत पूरी तरह से फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की सी मिठास लिए हुए थे।
नौशाद अव्वल दर्जे के संगीतकार तो थे ही, एक उत्कृष्ट लेखक और निर्माता भी थे। उनकी शायरी ‘आठवां सुर’ के नाम से क़िताब के रूप में लोगों के सामने आयी तो उनकी लिखी कहानी पर वाडिया मूवीटोन के बैनर में फ़िल्म ‘मेला’ बनी। ‘सन्नी आर्ट प्रोडक्शंस’ के बैनर में नौशाद ने ‘बाबुल’ (1950), ‘उड़नखटोला’ (1955) और ‘मालिक’ (1958) जैसी हिट फ़िल्में बनाईं। फ़िल्म ‘मालिक’ के संगीत की ज़िम्मेदारी उन्होंने अपने असिस्टेंट ग़ुलाम मोहम्मद को दी थी।
नौशाद ने मध्यप्रदेश सरकार का ‘लता मंगेशकर पुरस्कार’, महाराष्ट्र सरकार का ‘महाराष्ट्र गौरव’, उत्तर प्रदेश सरकार के ‘अवध गौरव’ और ‘संगीत रत्न पुरस्कार’, भारत सरकार के ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’, ‘पद्म भूषण’, ‘दादासाहब फालके पुरस्कार’ समेत अनगिनत सम्मान हासिल किए।
क़रीब 65 सालों के करियर के दौरान उन्होंने कुल 65 हिंदी फ़िल्मों, 2 ग़ैरहिंदी फ़िल्मों (‘पान खाए सैयां हमार’/भोजपुरी/1986 और ‘ध्वनि’/मलयालम/1989), 4 टेलीविज़न धारावाहिकों (‘द सोर्ड ऑफ़ टीपू सुल्तान’, ‘अकबर द ग्रेट’, ‘सरगम’, ‘आरोही’) और एक बांग्ला अलबम (‘प्रेम के आमार प्रोणाम दिए जाए’) में संगीत दिया। उनकी 3 हिंदी फ़िल्में ‘आन’, ‘उड़नखटोला’ और ‘मुग़ले आजम’ तमिल भाषा में भी डब होकर रिलीज़ हुई थीं। उनकी 5 फ़िल्में ‘चाणक्य और चन्द्रगुप्त’, ‘हब्बा ख़ातून’, ‘फिर बजे शहनाई’, ‘पुकार’ और ‘करु’ इक्का-दुक्का गीत रेकॉर्ड होने के बाद अधूरी रह गयीं।
6 बेटियों और 3 बेटों के पिता नौशाद का देहांत 87 साल की उम्र में लंबी बीमारी के बाद 5 मई 2006 की सुबह हुआ। उनकी ज़िंदगी का लंबा हिस्सा बांद्रा (पश्चिम) के मशहूर कार्टर रोड के अपने बंगले ‘आशियाना’ में बीता था। नौशाद की दूसरी बरसी, 5 मई 2008 पर महाराष्ट्र सरकार और मुंबई महानगर पालिका ने सम्मानस्वरूप कार्टर रोड का नाम बदलकर ‘संगीतकार नौशाद अली मार्ग’ रख दिया।
We
are thankful to –
Mr. D.B.Samant, Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Akhsher Apoorva for the English translation of the
write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
“Ye
Zindagi Ke Mele Duniya Me Kam Na Honge, Afsos Hum Na Honge” – Naushad
..........Shishir Krishna Sharma
After the invasion of the Mughals, a new culture emerged from the soils of Hindustan. A culture where on one hand there was the sound of temples bells and on the other hand was the mosque’s Azaan. It had Raskhan’s devout devotion of Krishna, qawwalies sung in Mazaars and Dargahas, Soofi music, Kathak, Hindustani Classical Music adorned with ragas, fragrant Urdu language and so much more that gave it the name of Ganga-Jamuni Culture. The seat of this culture was Awadh whose last ruler was Nawab Wajid Ali Shah whose patronage of music and dance is still recalled with utmost reverence. It was in center Lucknow of this very Awadh that on 25th December 1919 was born the great composer Naushad Ali, who in due course of time changed the face of Hindi film music.
Naushad’s father Wahid Ali was a munshi at court and was a very religious and traditional man. And Naushad was inclined towards music since his childhood. This was the
era of silent films. According to Naushad, “Seth Girdharilal had two cinema halls in Lucknow where he had employed
singers and instrumentalists. Every movie that would come in would be shown to these singers and instrumentalists first so that they could set music according
to the mood of the Movie. Laddan Miyaan would play the harmonium, Babulal ji
would play clarinet and Kallan Miyaan - tabla. Guhar was
responsible for singing the Ghazals. Renowned shayars like Jigar Sahib, Faani Badayuni, Behzad Lucknowi and Maulana Asi had to be
coaxed and persuaded into writing ghazals according to the film’s theme. The
film would be publicized, posters would be printed, handbills would be
distributed. And then the singers and instrumentalists would sit in front of
the screen and would play and sing throughout the film’s screening. My cousin (mausi’s son) and i would buy tickets in
four annas, I would see one half of the film and he, the
other half and then later we would sit and tell each other the story of the
parts that we missed. The film’s ‘live’ music would draw me towards it. There is no doubt that
Seth Girdharilal was the one who sowed the seeds of film background music in
Lucknow. Girdharilal’s Royal Cinema of that era situated in Aminabad is now called Mehra Talkies”.
(In contradiction to what Naushad says, Mumbai based well
known film historian, film-posters & booklets collector and an integral
part of ‘Beete Hue Din’ Mr.S.M.M.Ausaja who is originally from Lucknow says
that the two cinema halls of Seth Girdharilal were ‘Basant’ and ‘mayfair’ and they used to be located
in Hazratganj but now only their memories remain there with us.)
Naushad’s
father was very upset with Naushad’s passion for music. Despite his father’s
strictness and restrictions, Naushad’s desire to learn the harmonium drew him
to a musical instrument’s shop where he started working and oversaw keeping the
instruments neat and clean. Seeing Naushad’s hard work and devotion towards music, one day the shop
owner gifted him a harmonium. His father did not like this at all and told Naushad
to choose one between music and home. Naushad said,
“….and I, very happily, chose music”
Having recieved
initial training in Lucknow from Ustad Baban Khan in harmonium and from Ustad Yusuf Ali in Sitar, after
leaving home, Naushad joined a theatre company as an instrumentalist. According
to Naushad, “for shows of our plays, we used to go from city to city in west
U.P. and Rajasthan. But suddenly one day the company was shut down due to financial
constraints. At that time, we were camped
in Viramgam, Gujarat. All roads leading home were closed. And hence to find
employment I had to go to Mumbai. This was during 1937 and I was just 18 years
old.” Naushad found shelter at a distant relative ‘Professor Abdul
Alim Nami’s home in Mumbai who hailed from Sandila-Hardoi, U.P. and was teaching in Mumbai’s
St. Xavier College. He used to live in Colaba in Mumbai. In those days, Dadar
used to be the epicenter of filmic ongoings and would house many small and big
studios. As per Naushad, “pockets would be empty, hence, to look for work, I
had to commute from Colaba to Dadar by foot
and on an empty stomach. After some time, I left Professor Sahib’s house and
camped on a footpath opposite Dadar’s Broadway Cinema.”
Naushad
succeeded in his efforts and the then renowned composer Ustad Jhande Khan Sahib
hired him as a pianist at a salary of 40 rupees per month. Composer Ghulam
Mohammad, who later became Naushad’s assistant, used
to be employed with Ustad Jhande Khan at that time as a dholak player at a
salary of 80 rupees per month. Naushad had said, “New Theatres introduced playback with
its films, but the trend had not caught on with everyone. Actors would sing in
front of the camera and the instrumentalists would hide here and there in
different places and play their instruments. I also played instruments for many
films, by sometimes hiding behind the bushes or sometimes sitting on top of a
tree.” Seeing Naushad’s hard work
and diligence, very soon Jhande Khan made him his assistant. Naushad also assisted composers like Manohar
Kapoor, Mushtaq Hussain and Khemchand
Prakash during that time. Along with this, Naushad used to also work as an instrumentalist with ‘Young India Gramophone Company’ at 100 Rupees per month.
As Mushtaq Hussain’s assistant he did films like director Mohan Sinha’s ‘Nirala Hindustan’ (aka Industrial India / 1938), Kardar’s ‘Baaghbaan’ (1938) and Gunjal’s ‘Pati Patni’ (1939) which were made under the
banner of ‘General Films’. Right then he got an
opportunity to compose a song for producer ‘C.M.Gwalani’s’ ‘Chitra Productions’s film ‘Kanchan’ (1941), and that song was ‘bata do koi kaun gali more shyam’. Written by D.N.Madhok, this song was sung by Leela
Chitnis. Rest of the ten songs of ‘Manibhai Vyas’ directed film ‘Kanchan’ were composed by Gyandutt. But Naushad’s debut film as an independent composer, ‘Premnagar’, had already released in 1940, a year
prior to the film ‘Kanchan’s release. Made under the banner ‘Bhavnani Productions’ of producer-director Mohan Bhavnani, the main leads of the film ‘Premnagar’ were Professor Ramanand, Husn Bano and Bimla Kumari. ‘The singers Sharma Bandhu’ of the famous Ram bhjan ‘jaise sooraj ki garmi se jalte hue tan ko mil jaaye taruvar ki chhaya’ are Professor Ramanand’s sons, whereas Husn Bano was 1960’s well-known actress Nazima’s paternal aunt.
After ‘Premnagar’ and ‘Kanchan’, Naushad’s films ‘Darshan’, ‘Mala’ (both 1941) and ‘Nai Duniya’, ‘Station Master’, and ‘Sharda’ (all 1942) were released. Suraiya had given
playback for actress ‘Mehtab’ in the film ‘Sharda’ and that famous song written by D.N.Madhok was ‘panchhi ja, peechhe raha hai bachpan mera ussko ja ke la’. After film ‘Nai Duniya’ and ‘Sharda’, Naushad and producer-director A.R.Kardar bonded so well that henceforth all of ‘Kardar Productions films ‘Kanoon’, ‘Namaste’, ‘Sanjog’ (all 1943) and ‘Geet’, ‘Jeevan’ and ‘Pehle Aap’ (all 1944) were given to Naushad. Although all songs of these films
were cherished but the extensive popularity of songs from the movie ‘Rattan’, released in 1944, shot Naushad into the league of the topmost
music directors of that era. Karan Dewan’s elder brother producer Jemini Dewan’s film ‘Rattan’ was made in 75,000/- Rupees but with just the
sale of records, Jemini Dewan got a royalty of 3,50,000/- Rupees. 7 decades later and all 10 songs
of film ‘Rattan’ are just as popular even today. Mohd. Rafi got the opportunity to sing for Naushad for the very first time
for the movie ‘Pehle Aap’. Rafi sang 3 songs for the same movie of which 2 were
duets with Shyam Kumar, ‘tum dilli mai agre, mere dil se nikle haay’ and ‘ek baar unhe mila de phir meri tauba maula’ and the other was a group song ‘Hindustan ke hum hain Hindustan hamara’, where Rafi was accompanied with Shyam Kumar and Alauddin.
In the year 1945 Naushad gave music for Kardar’s film ‘Sanyasi’ and in 1946 for ‘Keemat’ and ‘Shahjehan’. ‘Shahjehan’ was the only film in which K.L.Sehgal sang under Naushad’s music. Rafi too
saw his dream of singing with Sehgal come true through this movie. The only
song that Rafi sung with Sehgal was ‘roohi roohi
roohi mere sapnon ki rani’ where Rafi got to sing only the last two lines. Lyricist Majrooh
Sultanpuri also began his career with
‘Shahjehan’. With ‘Mehboob Productions’s
film ‘Anmol Ghadi’ made
in 1946, Naushad’s relations were created with a big name of that era, producer-director Mehboob Khan. ‘Anmol Ghadi’ was duo music director Naushad
and singer Noorjehan’s first and
last film as after the partition, Noorjehan migrated
to Pakistan. In 1947 Naushad not
only gave break to lyricist ‘Shakeel Badayuni’ through Kardar’s film ‘Dard’,
he also introduced the audience to a new singer ‘Umadevi’. Umadevi sang
3 solos ‘afsana
likh rahi hoon dile beqarar ka’,
‘aaj
machi hai dhoom’, ‘ye kaun chala’ and a duet with Suraiya, ‘betab hai dil’ for this movie. ‘Afsana likh rahi hoon’ was the first film song sung by Umadevi.
Later, Umadevi came to be known as the famous comedian ‘Tuntun’.
It was Naushad who introduced her in the film
‘Babul’ (1950) as an actress with her new
name. In 1947, Naushad gave music for Mehboob’s film ‘Elaan’ and for Kardar’s film ‘Natak’. Two of his films, Mehboob’s ‘Anokhi Ada’ and Wadia Movietone’s ‘Mela’, released in 1948. Naushad made
Lata sing for him for the first time in 1949 in ‘Tajmahal
Pictures’s film ‘Chandni Raat’. A duet sung with G.M.Durrani, this song of Lata’s was ‘haye chhore ki jaat badi bewafa’. In the same year while Naushad gave lata a chance
to sing for the heroine for the first time in Mehboob’s film ‘Andaz’, Geeta Dutt sang a song composed by him for the first
time in ‘Dillagi’ called ‘tu mera chand mai teri chandni’. Another version of this song is sung as a duet by Suraiya and Shyam Kumar. That
was the golden period of Naushad’s career. All his films, ‘Dulari’ (1949), ‘Babul’, ‘Dastaan’ (1950), ‘Deedar’, ‘Jadoo’ (1951), ‘Aan’, ‘Baiju Bawra’, ‘Deewana’ (1952), were proving
to be a success one after the other. Naushad used western music for the first
time in film ‘Jadoo’s song ‘jub nain mile naino se’. In the same film, Zohrabai
Ambalawali sang her last film song ‘le lo le lo do
phool jaani le lo’
under Naushad’s music and was accompanied in the song
by Shamshad Beghum and Mohammad Rafi.
Filmfare Awards were established in 1953 and the first award under the category
of best music was awarded to Naushad for ‘Baiju Bawra’. Naushad had said, “Baiju Bawra’s premier was held at
Broadway Talkies in Dadar, the same place where I once used to camp on the footpath
opposite it.” For the next 2 decades Naushad’s music was at the heights of its
success. Music of films like ‘Amar’, ‘Shabaab’ (1954), ‘Uran khatola’ (1955), ‘Mother India’ (1957), ‘Sohni Mahiwal’ (1958), ‘Kohinoor’, ‘Mughal-E-Azam’ (1960), ‘Ganga Jamuna’ (1961), ‘Son of India’ (1962), ‘Mere Mehboob’ (1963), ‘Leader’ (1964), ‘Dil Diya Dard Liya’, ‘Saaz Aur Awaaz’ (1966), ‘Paalki’, ‘Ram aur Shyam’ (1967), ‘Aadmi’, ‘Saathi’, ‘Sangharsh’ (1968) and ‘Ganwaar’ (1970) was not only liked but most
of these films were also a hit. While for the film ‘Mughal-E-Azam’ (1960), renowned classical singer ‘Ustad
Bade Ghulam Ali Khan Sahib’ broke his rules of keeping a distance from film
music and sang 2 bandishes ‘shubh din aayo’ and ‘prem jogan ban ke’,
the film also proved to be Shamshad Beghum’s last collaboration with Naushad. She had sung the famous qawwali ‘teri mehfil me
kismet aazma kar hum bhi dekhenge’ with Lata for this film. Another song of
Shamshad’s, ‘husn ki baraat chali’
sung for the same film with Mubarak
Beghum and Lata was finally
not used in the film.
The latter half of 1960’s, ushered in an era of complete change in Hindi Cinema. Cinema had now
become colored. Along with music, the taste of the listeners was changing as
well. With such change Naushad tried to reinvent the garb of his music in film
like ‘Ram aur Shyam’, ‘Saathi’ and ‘Ganwaar’ and succeeded. Kamaal Amrohi’s
film ‘Pakeezah’ released in 1971 and its music broke all previous records. But all the credit for that was given
to it’s other music director ‘Ghulam Mohammad’. As 1970’s came in, the face of film music had changed
completely. It wasn’t easy for Naushad to conciliate with the prevalent times. That
was the reason that Naushad’s films like ‘Tangewala’ (1972), ‘Aaina’, ‘My Friend’ (1974), ‘Sunehra Sansar’ (1975) and ‘Chambal ki Rani’ (1979) were soon forgotten. Kishor
Kumar got the opportunity to sing for Naushad in ‘Sunehra Sansar’ for the first
and the last time. It was a duet penned by Anand
Bakshi, which Kishor Kumar sang with Asha Bhonsle, ‘hello
kya haal hai’ but later it was removed from the film. Released in 1982, with producer-director Sultan Ahmed’s film ‘Dharamkanta’, he once again proved himself. But despite this, Naushad’s packed and busy days
did not come back to him. A few and in between films like ‘Love and God’ (1986), ‘Awaaz De Kahan Hai’ (1990), ‘Terti Payal
Mere Geet’ (1992) and ‘Guddu’ (1995) did release but couldn’t create much magic. Initially Gurudutt was
the lead for ‘Love and God’. But after Gurudutt’s and then producer-director K. Asif’s demise, the film had remained incomplete. Later
on Sanjeev Kumar replaced Gurudutt in ‘Love and God’, and only after a struggle of almost 2
decades by K.Asif’s wife Akhtar Asif, the film was finally released. It proved to be actress Nimmi’s last film.
After the
release of film ‘Guddu’, Naushad stayed away from cinematic world for about 10 years. And in
2005 listeners were stunned when songs from Akbar Khan’s film ‘Taj Mahal’ were heard nationwide. Naushad may have made a comeback
with new technology, but all the songs of ‘Taj Mahal’ sung by Hariharan, Priti Uttam and Kavita Krishnamoorti encompassed the
sweetness that from film music’s golden era.
Not only was Naushad one of the topmost composers, he
was also an excellent writer and producer. While people saw his collection of Shayaries
‘Aathwaan Sur’ released in the form of a book, the banner, Wadia
Movietone, made a film on a story written by him called ‘Mela’.
Under the banner of ‘Sunny Art Productions’, Naushad made hit films like ‘Babul’ (1950), Uran khatola (1955)’ and ‘Maalik’ (1958). He had entrusted his assistant Ghulam Mohammad with the music for film ‘Maalik’.
Naushad was honored with awards such as Madhya Pradesh Government’s ‘Lata Mangeshkar Award’, Maharashtra Government’s ‘Maharashtra
Gaurav’, Uttar Pradesh Government’s ‘Awadh Gaurav’ and ‘Sangeet Ratn
Puraskar’, Government of India’s ‘Sangeet Natak Academy Puraskar’, ‘Padm Bhooshan’, ‘Dadasaheb Phalke Award’ along with countless others. A career spanning 65 years, Naushad did a total of 65 Hindi films, 2 Non Hindi films (‘Paan Khaye Saiyaan hamaar’/Bhojpuri/1986 and ‘Dhvani’/Malyalam/1989), 4 television serials (‘The Sword Of Tipu Sultan’, ‘Akbar The Great’, ‘Sargam’, ‘Aarohi’) and also gave music for one Bangla Album (‘Prem Ke Amaar Pronam Diye Jaaiye). 3 of his Hindi films ‘Aan’, ‘Uran khatola’ and ‘Mughal-E-Azam’ were dubbed in Tamil as well. He recorded one or two songs for 5 of his films ‘Chanakya Aur Chandragupt’, ‘Habba
Khatoon’, ‘Phir Baje Shehnai’, ‘Pukaar’ and ‘Karu’ which ultimately remained incomplete.
Father to 6 daughters and 3 sons, Naushad died in the morning
of 5th May 2006 at the age of 87 years after battling a long illness. He spent a large part of
his life in his bungalow ‘Aashiana’ on Carter Road, Bandra (West). On his 2nd death anniversary i.e. on 5th
May 2008, as a symbol of respect, Maharashtra Government and Mumbai
Mahanagar Palika renamed Carter Road as ‘Sangeetkar Naushad Ali Marg’.