Thursday, May 31, 2012

“Ye Zindagi Ke Mele Duniya Me Kam Na Honge, Afsos Hum Na Honge” – Naushad

ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में कम होंगे, अफ़सोस हम होंगे  – नौशाद

                                         .........शिशिर कृष्ण शर्मा

मुग़लों के आने के बाद हिंदुस्तान की धरती पर एक नयी तहज़ीब ने जन्म लिया। ये वो तहज़ीब थी जिसमें एक तरफ़ मंदिरों की घंटियां थीं तो दूसरी तरफ़ मस्जिदों में अज़ान। इसमें रसखान की कृष्ण-भक्ति थी, मज़ारों और दरगाहों में गायी जाने वाली क़व्वालियां थीं, सूफ़ियों का संगीत, कत्थक नृत्य, राग-रागिनियों से सजा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, मीठी उर्दू ज़ुबान और और भी बहुत कुछ था, जिसने इसे गंगा-जमुनी तहज़ीब का नाम दिया। इस तहज़ीब का गढ़ था अवध, जहां के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह को संगीत और नृत्य के क्षेत्र में योगदान के लिए आज भी बेहद इज़्ज़त के साथ याद किया जाता है। उसी अवध के केन्द्र लखनऊ में 25 दिसंबर 1919 को जन्मे थे महान संगीतकार नौशाद अली, जिन्होंने आने वाले समय में हिंदी फिल्म संगीत का चेहरा ही बदल दिया था।

नौशाद के पिता वाहिद अली कचहरी में मुंशी और एक बेहद धार्मिक विचारों वाले परंपरावादी इंसान थे। उधर नौशाद का झुकाव बचपन से ही गीत-संगीत की तरफ़ था। वो दौर साईलेंट फ़िल्मों का था। नौशाद के मुताबिक़लखनऊ में सेठ गिरधारीलाल के दो सिनेमाहॉल थे। उन्होंने अपने यहां गवैये और साज़िंदे रखे हुए थे। आने वाली हरेक फ़िल्म सबसे पहले उन्हीं गवैयों और साज़िंदों को दिखाई जाती थी ताकि वो फ़िल्म के मूड के मुताबिक़ संगीत बना सकें। लड्डन मियां पेटी बजाते थे, बाबूलाल जी क्लारनेट और कल्लन मियां तबला। ग़ज़ल गाने की ज़िम्मेदारी गौहर की थी। जिगर साहब, फ़ानी बदायूंनी, बहज़ाद लखनवी और मौलाना आसी जैसे नामी शायरों से ख़ुशामद कर-करके फ़िल्म की थीम के मुताबिक़ ग़ज़लें लिखाई जाती थीं। पब्लिसिटी होती थी, पोस्टर छपते थे, हैंडबिल बंटते थे। और फिर परदे के आगे बैठे गवैये और साज़िंदे फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान गाते-बजाते थे। मैं और मेरी मौसी का बेटा चार आने का टिकट ख़रीदते थे, आधी फ़िल्म मैं देखता था, आधी वो और बाद में हम एक-दूसरे को अपने अपने हिस्से की कहानी सुनाते थे। फ़िल्म कालाईवसंगीत मुझे अपनी तरफ़ बेहद आकर्षित करता था। इसमें दोराय नहीं कि फ़िल्मों में पार्श्वसंगीत के बीज सेठ गिरधारीलाल जी ने ही लखनऊ में बोये थे। अमीनाबाद में उस जमाने का उनका रॉयल सिनेमा अब मेहरा टॉकीज़ कहलाता है।

(नौशाद साहब के कथन के विपरीत, मुंबई निवासी किंतु मूलत: लखनऊ के रहने वाले मशहूर फ़िल्म इतिहासकार, फ़िल्म-पोस्टर और बुकलेट संग्रहकर्ता औरबीते हुए दिन के अभिन्न अंग श्री एस.एम.एम.औसजा का कहना है कि सेठ गिरधारीलाल के वो दो सिनेमाहॉल थेबसंतऔरमेफ़ेयर’, जो हज़रतगंज में हुआ करते थे और अब उनकी सिर्फ़ यादें ही बाक़ी हैं।)

गीत-संगीत के प्रति नौशाद की इस दीवानगी से उनके पिता नाख़ुश थे। पिता की तमाम सख़्ती और पाबंदियों के बावजूद हॉरमोनियम सीखने की चाह नौशाद को साज़ों की एक दुकान तक खींच लायी जहां वो साज़ों की साफ-सफ़ाई का काम करने लगे। नौशाद की मेहनत और संगीत के प्रति दीवानगी को देखते हुए एक रोज़ दुकान के मालिक ने उन्हें एक हॉरमोनियम तोहफ़े में दे दिया। पिता को ये नागवार गुज़रा और उन्होंने फ़ैसला सुना दिया कि नौशाद को संगीत और घर में से किसी एक को चुनना होगा। नौशाद का कहना था, “...और मैंने ख़ुशी ख़ुशी संगीत को चुन लिया।“ 

लखनऊ में उस्ताद बबन ख़ां से हॉरमोनियम की और उस्ताद यूसुफ अली से सितार की शुरूआती तालीम हासिल कर चुके नौशाद ने घर छोड़ने के बाद एक नाटक कंपनी में साजिंदे की नौकरी पकड़ ली। नौशाद के मुताबिक़नाटकों के प्रदर्शन के सिलसिले में हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में शहर-दर-शहर घूमते थे। लेकिन अचानक एक रोज़ पैसे की तंगी की वजह से कंपनी बंद हो गयी। उस वक़्त हम लोग गुजरात के वीरमगांव में डेरा डाले हुए थे। घर लौटने के तमाम रास्ते बंद हो चुके थे। मजबूरन मुझे काम की तलाश में मुंबई चले आना पड़ा। ये साल 1937 का वाक़या है और मेरी उम्र उस वक़्त महज़ 18 बरस की थी।मुंबई में नौशाद को दूर के एक रिश्तेदारप्रोफ़ेसर अब्दुल अलीम नामीके घर में पनाह मिली जो उत्तर प्रदेश के संडीला-हरदोई के रहने वाले थे और मुंबई के सेंट ज़ेवियर कॉलेज में पढ़ाते थे। मुंबई में वो कोलाबा में रहते थे। 

उन दिनों फ़िल्मी गतिविधियों का केंद्र दादर हुआ करता था, जहां कई छोटे-बड़े स्टूडियो मौजूद थे। नौशाद के मुताबिक़, ‘जेबें खाली रहती थीं इसलिए काम की तलाश में रोज़ मुझे कोलाबा से दादर का 10 किलोमीटर का फ़ासला खाली पेट, पैदल ही तय करना पड़ता था। कुछ वक़्त बाद मैंने प्रोफ़ेसर साहब का घर छोड़कर दादर के ब्रॉडवे सिनेमा के सामने के फ़ुटपाथ पर डेरा डाल लिया।

नौशाद की कोशिशें कामयाब हुईं और उन्हें उस दौर के मशहूर संगीतकार उस्ताद झंडे खां साहब ने 40 रूपए महिने के वेतन पर बतौर प्यानो-वादक अपने साथ रख लिया। संगीतकार गुलाम मोहम्मद, जो आगे चलकर नौशाद के असिस्टेंट बने, उस वक़्त उस्ताद झंडे ख़ां के यहां 80 रूपए महिने के वेतन पर ढोलक बजाते थे। 

नौशाद का कहना था, ‘न्यू थिएटर की फ़िल्मों से प्लेबैक शुरू तो हो चुका था लेकिन पूरी तरह से प्रचलन में आया नहीं था। अभिनेता कैमरे के सामने ही गाते थे और साज़िंदे इधर-उधर छिपकर साज़ बजाते थे। उस दौरान मैंने भी कई फ़िल्मों में इसी तरह से कभी झाड़ियों में छुपकर तो कभी पेड़ पर बैठकर साज़ बजाए थे।नौशाद की मेहनत और लगन को देखकर झंडे ख़ां ने उन्हें बहुत जल्द अपना असिस्टेंट बना लिया। उस दौर में नौशाद ने मनोहर कपूर, मुश्ताक़ हुसैन और खेमचन्द प्रकाश जैसे संगीतकारों को भी असिस्ट किया। इसके साथ ही नौशाद 100 रूपए महिने पर बतौर साज़िंदायंग इंडिया ग्रामोफ़ोन कम्पनीमें भी नौकरी करते रहे। मुश्ताक़ हुसैन के असिस्टेंट के तौर पर उन्होंने निर्देशक मोहन सिंहा कीनिराला हिंदुस्तान उर्फ़ इंडस्ट्रियल इंडिया(1938), कारदार कीबाग़बान(1938) और गुंजाल कीपतिपत्नी(1939) जैसी फ़िल्में कीं जोजनरल फ़िल्म्सबैनर में बनी थीं। और तभी उन्हें मौक़ा मिला निर्मातासी.एम.ग्वालानीकेचित्रा प्रोडक्शंसकी फ़िल्मकंचन(1941) के एक गीत की धुन बनाने का, जिसके बोल थेबता दो कोई कौन गली मोरे श्याम डी.एन.मधोक का लिखा ये गीत लीला चिटणिस की आवाज़ में था।

मणिभाई व्यासद्वारा निर्देशित फ़िल्म कंचनके बाक़ी सभी 10 गीत संगीतकार ज्ञानदत्त ने संगीतबद्ध किए थे। लेकिन नौशाद की बतौर स्वतंत्र संगीतकार पहली फ़िल्मप्रेमनगर’  फ़िल्मकंचनसे एक साल पहले, 1940 में ही रिलीज़ हो चुकी थी। निर्माता-निर्देशक मोहन भवनानी के बैनरभवनानी प्रोडक्शंसकी फ़िल्मप्रेमनगरके मुख्य भूमिकाओं में थे प्रोफ़ेसर रामानंद, हुस्नबानो और बिमला कुमारी। मशहूर राम-भजनजैसे सूरज की गरमी से जलते हुए तन को मिल जाए तरूवर की छायाके गायकशर्मा बंधुप्रोफ़ेसर रामानंद के बेटे हैं, तो हुस्नबानो 1960 के दशक की मशहूर अभिनेत्री नाज़िमा की बुआ थीं।

प्रेमनगरऔरकंचनके बाद नौशाद कीदर्शन’, ‘माला(दोनों 1941) औरनयी दुनिया’, ‘स्टेशन मास्टर’, औरशारदा(तीनों 1942) रिलीज़ हुईं।शारदामें सुरैया ने अभिनेत्रीमेहताबके लिए प्लेबैक दिया था और वो मशहूर गीत था डी.एन.मधोक का लिखापंछी जा, पीछे रहा है बचपन मेरा, उसको जा के ला फ़िल्मनयी दुनियाऔरशारदासे नौशाद का रिश्ता निर्माता-निर्देशक .आर.कारदार के साथ ऐसा जुड़ा किकारदार प्रोडक्शंसकी आने वाली सभी फिल्मेंकानून’, ‘नमस्ते’, ‘संजोग(तीनों 1943) औरगीत’, ‘जीवनऔरपहले आप (तीनों 1944) भी नौशाद के हिस्से में गयीं। यों तो इन सभी फ़िल्मों के गीत काफ़ी सराहे गए थे लेकिन साल 1944 में रिलीज हुई फ़िल्मरतनके गीतों की ज़बर्दस्त कामयाबी ने नौशाद को उस दौर के चोटी के संगीतकारों में ला खड़ा किया। करण दीवान के बड़े भाई निर्माता जैमिनी दीवान की फ़िल्मरतन75,000/- रूपयों की लागत में बनी थी लेकिन सिर्फ रेकॉर्ड्स की बिक्री से ही जैमिनी दीवान को साढ़े तीन लाख रूपयों की रॉयल्टी मिली थी। फ़िल्मरतनके दसों गीत आज सात दशक बाद भी उतने ही मशहूर हैं।

फ़िल्मपहले आपमें मोहम्मद रफ़ी को पहली बार नौशाद के संगीत में गाने का मौक़ा मिला था। इस फ़िल्म में रफ़ी ने तीन गीत गाए थे, जिनमें दो युगलगीत श्याम कुमार के साथ थे, ‘तुम दिल्ली मैं आगरे, मेरे दिल से निकले हाएऔरएक बार उन्हें मिला दे फिर मेरी तौबा मौलाऔर एक समूहगीत थाहिन्दुस्तान के हम हैं, हिन्दुस्तान हमारा’, जिसमें रफ़ी का साथ दिया था श्याम कुमार और अलाउद्दीन ने।

साल 1945 में नौशाद ने कारदार की फ़िल्मसन्यासीमें तो 1946 मेंकीमतऔरशाहजहांमें संगीत दिया।शाहजहांवो एकमात्र फ़िल्म थी जिसमें नौशाद के संगीत में के.एल.सहगल ने गाने गाए थे। इसी फ़िल्म में सहगल के साथ गाने का रफ़ी का सपना भी पूरा हुआ था। सहगल के साथ गाया रफ़ी का वो इकलौता गीत थारूही रूही रूही मेरे सपनों की रानीजिसके आख़िर में रफ़ी के हिस्से में सिर्फ़ दो पंक्तियां आयी थीं। शाहजहांसे ही गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने भी अपना करियर शुरू किया था। 


साल 1946 में ही बनी फ़िल्ममहबूब प्रोडक्शंसकी फ़िल्मअनमोल घड़ीसे नौशाद का रिश्ता उस दौर के एक बड़े नाम, निर्माता-निर्देशक महबूब ख़ान से जुड़ा।अनमोल घड़ीसंगीतकार नौशाद और गायिका नूरजहां की जोड़ी की पहली और आख़िरी फ़िल्म साबित हुई क्योंकि बंटवारे के बाद नूरजहां पाकिस्तान चली गयीं।


साल 1947 में नौशाद ने कारदार की फ़िल्मदर्दमें सिर्फ़ एक नए गीतकारशक़ील बदायूंनीको ब्रेक दिया बल्कि एक नयी गायिकाउमादेवीका परिचय भी दर्शकों से कराया। इस फ़िल्म में उमा देवी के तीन सोलोगीतअफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का’, ‘आज मची है धूम’, ‘ये कौन चलाऔर सुरैया के साथ मिलकरबेताब है दिलगाए थे।अफ़साना लिख रही हूंउमादेवी का गाया पहला फ़िल्मी गीत था। आगे चलकर उमादेवीटुनटुनके नाम से मशहूर हास्य अभिनेत्री बनीं। उन्हें नौशाद ने ही फ़िल्मबाबुल(1950) में बतौर अभिनेत्री इस नए नाम के साथ परिचित कराया था।

1947 में ही नौशाद ने महबूब की फ़िल्मऐलानका और कारदार की फ़िल्मनाटकका संगीत तैयार किया। साल 1948 में उनकी दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं, महबूब कीअनोखी अदाऔर वाडिया मूवीटोन कीमेला 1949 में बनीताजमहल पिक्चर्सकी फ़िल्मचांदनी रातमें नौशाद ने पहली बार लता से गवाया। जी.एम.दुर्रानी के साथ लता का गाया वो युगलगीत थाहाए छोरे की जात बड़ी बेवफ़ा उसी साल बनी महबूब की फ़िल्मअंदाज़में नौशाद ने लता को पहली बार नायिका के गीत गाने का मौक़ा दिया तोदिल्लगीमें गीता दत्त ने पहली बार उनके संगीत में गायातू मेरा चांद तू मेरी चांदनी इस गीत का दूसरा वर्शन सुरैया और श्याम कुमार के युगलगीत के रूप में है। वो दौर नौशाद के करियर का सुनहरा दौर था। आने वाली उनकी सभी फ़िल्मेंदुलारी(1949),बाबुल’, ‘दास्तान(1950),दीदार’, ‘जादू(1951),आन’, बैजू बावरा’, ‘दीवाना(1952) भी लगातार कामयाब हो रही थीं। फ़िल्मजादूके गीतजब नैन मिले नैनों सेमें नौशाद ने पहली बार पाश्चात्य संगीत का इस्तेमाल किया था।

फ़िल्मजादूमें ही जोहराबाई अम्बालावाली ने नौशाद के संगीत में अपना आख़िरी फ़िल्मी गीतलेलो लेलो दो फूल जानी लेलोगाया था, जिसमें उनका साथ दिया था शमशाद बेगम और मोहम्मद रफ़ी ने। साल 1953 में फ़िल्मफेयर पुरस्कारों की नींव रखी गयी तो सर्वश्रेष्ठ संगीत का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार फ़िल्मबैजू बावराके लिए नौशाद को मिला। नौशाद का कहना था, ‘बैजू बावराका प्रीमियर दादर के उसी ब्रॉडवे टॉकीज़ में हुआ था जिसके ठीक सामने के फ़ुटपाथ पर कभी मैं रहता था

अगले दो दशकों में भी नौशाद का संगीत कामयाबी की बुलंदियों पर रहा।अमर’, ‘शबाब(1954), उड़नखटोला (1955),मदर इण्डिया(1957),सोहनी महिवाल(1958), कोहिनूर’, ‘मुग़ले आजम(1960),गंगा जमुना(1961),सन ऑफ़ इंडिया(1962),मेरे महबूब(1963),लीडर(1964), दिल दिया दर्द लिया’, ‘साज और आवाज़ (1966), पालकी’, ‘राम और श्याम(1967),आदमी’, ‘साथी’, ‘संघर्ष (1968) औरगवांर (1970) जैसी उनकी सभी फ़िल्मों का सिर्फ़ संगीत पसंद किया गया, बल्कि इनमें से ज़्यादातर फ़िल्में भी हिट हुईं। 


फ़िल्म
मुग़ले आज़म(1960) में मशहूर शास्त्रीय गायकउस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां साहबने फ़िल्मी गायन से दूरी बनाए रखने के अपने उसूलों के ख़िलाफ़ जाकर दो बंदिशेंशुभ दिन आयोऔरप्रेम जोगन बन केगायी थीं तो शमशाद बेगम के लिए नौशाद के संगीत में ये आख़िरी फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म में उन्होंने लता के साथ मशहूर क़व्वालीतेरी महफ़िल में क़िस्मत आजमाकर हम भी देखेंगेगायी थी। मुबारक बेग़म और लता के साथ गाए उनके एक अन्य गीतहुस्न की बारात चलीका फ़िल्म में इस्तेमाल ही नहीं हुआ था।                  

1960 के दशक का उत्तरार्ध हिंदी सिनेमा के लिए ज़बर्दस्त बदलावों का दौर लेकर आया। सिनेमा पूरी तरह से रंगीन हो चला था। संगीत के साथ साथ सुनने वालों की पसंद भी बदल रही थी। ऐसे में नौशाद ने भीराम और श्याम’, ‘साथीऔरगवांरजैसी फ़िल्मों में अपने संगीत को नएपन का जामा पहनाने की कोशिश की और वो कामयाब भी रहे। साल 1971 में रिलीज़ हुई कमाल अमरोही की फिल्मपाकीज़ाऔर उसके संगीत ने कामयाबी के तमाम रेकॉर्ड तोड़ डाले। लेकिन उसका तमाम श्रेय संगीतकारग़ुलाम मोहम्मदके खाते में चला गया। 1970 का दशक आते आते फ़िल्म संगीत का चेहरा पूरी तरह से बदल चुका था। नौशाद के लिए हालात से समझौता कर पाना आसान नहीं था। यही वजह है कितांगेवाला(1972),आईना’, ‘माय फ़्रेण्ड (1974), सुनहरा संसार(1975) औरचंबल की रानी(1979) जैसी उनकी फ़िल्में बहुत जल्द भुला दी गयीं।

सुनहरा संसारमें किशोर कुमार को नौशाद के संगीत में पहली और आख़िरी बार गाने का मौक़ा मिला। आनंद बक्षी का लिखा और आशा भोंसले के साथ किशोर कुमार का गाया वो दोगाना था, हेलो क्या हाल है लेकिन उसे भी फ़िल्म से निकाल दिया गया था। साल 1982 में आयी निर्माता-निर्देशक सुल्तान अहमद की फ़िल्मधरमकांटामें उन्होंने ख़ुद को एक बार फिर से साबित कर दिखाया। इसके बावजूद नौशाद के लिए व्यस्तताओं का दौर दोबारा लौटकर नहीं आया।लव एण्ड गॉड(1986),आवाज़ दे कहां है(1990),तेरी पायल मेरे गीत(1992) औरगुड्डू(1995) जैसी उनकी इक्का-दुक्का फ़िल्में रिलीज़ तो हुईं, लेकिन कोई करिश्मा नहीं दिखा पाईं। शुरूआत में फ़िल्मलव एण्ड गॉडके नायक गुरूदत्त थे। लेकिन पहले गुरूदत्त की और फिर निर्माता-निर्देशक के.आसिफ़ की मौत की वजह से ये फ़िल्म अधूरी रह गयी थी। गुरूदत्त की जगह संजीवकुमार को लेकर बनाई जा रही लव एण्ड गॉड के.आसिफ की पत्नी अख़्तर आसिफ की कोशिशों से क़रीब दो दशकों बाद रिलीज़ हो पायी थी। अभिनेत्री निम्मी की ये आख़िरी फ़िल्म साबित हुई।


फ़िल्मगुड्डूके प्रदर्शन के बाद क़रीब 10 साल नौशाद फ़िल्मी दुनिया से अलग रहे। और जब साल 2005 में अकबर ख़ान की फ़िल्मताजमहलके गीत देश भर में गूंजे तो सुनने वाले ताज्जुब में पड़ गए। भले ही नौशाद की वापसी नयी तकनीक के साथ हुई थी, लेकिन हरिहरन, प्रीति उत्तम और कविता कृष्णमूर्ति के गाए फ़िल्मताजमहलके सभी गीत पूरी तरह से फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की सी मिठास लिए हुए थे।    

नौशाद अव्वल दर्जे के संगीतकार तो थे ही, एक उत्कृष्ट लेखक और निर्माता भी थे। उनकी शायरीआठवां सुरके नाम से क़िताब के रूप में लोगों के सामने आयी तो उनकी लिखी कहानी पर वाडिया मूवीटोन के बैनर में फ़िल्ममेलाबनी।सन्नी आर्ट प्रोडक्शंसके बैनर में नौशाद नेबाबुल(1950), उड़नखटोला (1955) औरमालिक(1958) जैसी हिट फ़िल्में बनाईं। फ़िल्ममालिकके संगीत की ज़िम्मेदारी उन्होंने अपने असिस्टेंट ग़ुलाम मोहम्मद को दी थी।

नौशाद ने मध्यप्रदेश सरकार कालता मंगेशकर पुरस्कार’, महाराष्ट्र सरकार कामहाराष्ट्र गौरव’, उत्तर प्रदेश सरकार केअवध गौरवऔरसंगीत रत्न पुरस्कार’, भारत सरकार केसंगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’, ‘पद्म भूषण’, ‘दादासाहब फालके पुरस्कारसमेत अनगिनत सम्मान हासिल किए।

क़रीब 65 सालों के करियर के दौरान उन्होंने कुल 65 हिंदी फ़िल्मों, 2 ग़ैरहिंदी फ़िल्मों (पान खाए सैयां हमार’/भोजपुरी/1986 औरध्वनि’/मलयालम/1989), 4 टेलीविज़न धारावाहिकों ( सोर्ड ऑफ़ टीपू सुल्तान’, ‘अकबर ग्रेट’, ‘सरगम’, ‘आरोही) और एक बांग्ला अलबम (प्रेम के आमार प्रोणाम दिए जाए) में संगीत दिया। उनकी 3 हिंदी फ़िल्मेंआन’, ‘उड़नखटोलाऔरमुग़ले आजमतमिल भाषा में भी डब होकर रिलीज़ हुई थीं। उनकी 5 फ़िल्मेंचाणक्य और चन्द्रगुप्त’, ‘हब्बा ख़ातून’, ‘फिर बजे शहनाई’, ‘पुकारऔरकरुइक्का-दुक्का गीत रेकॉर्ड होने के बाद अधूरी रह गयीं।

6 बेटियों और 3 बेटों के पिता नौशाद का देहांत 87 साल की उम्र में लंबी बीमारी के बाद 5 मई 2006 की सुबह हुआ। उनकी ज़िंदगी का लंबा हिस्सा बांद्रा (पश्चिम) के मशहूर कार्टर रोड के अपने बंगलेआशियानामें बीता था। नौशाद की दूसरी बरसी, 5 मई 2008 पर महाराष्ट्र सरकार और मुंबई महानगर पालिका ने सम्मानस्वरूप कार्टर रोड का नाम बदलकरसंगीतकार नौशाद अली मार्गरख दिया।


We are thankful to –

Mr. D.B.Samant, Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Ms. Akhsher Apoorva for the English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.


Ye Zindagi Ke Mele Duniya Me Kam Na Honge, Afsos Hum Na Honge” – Naushad

                                                             ..........Shishir Krishna Sharma

After the invasion of the Mughals, a new culture emerged from the soils of Hindustan. A culture where on one hand there was the sound of temples bells and on the other hand was the mosque’s Azaan. It had Raskhan’s devout devotion of Krishna, qawwalies sung in Mazaars and Dargahas, Soofi music, Kathak, Hindustani Classical Music adorned with ragas, fragrant Urdu language and so much more that gave it the name of Ganga-Jamuni Culture. The seat of this culture was Awadh whose last ruler was Nawab Wajid Ali Shah whose patronage of music and dance is still recalled with utmost reverence. It was in center Lucknow of this very Awadh that on 25th December 1919 was born the great composer Naushad Ali, who in due course of time changed the face of Hindi film music.

Naushad’s father Wahid Ali was a munshi at court and was a very religious and traditional man. And Naushad was inclined towards music since his childhood. This was the era of silent films. According to Naushad, “Seth Girdharilal had two cinema halls in Lucknow where he had employed singers and instrumentalists. Every movie that would come in would be shown to these singers and instrumentalists first so that they could set music according to the mood of the Movie. Laddan Miyaan would play the harmonium, Babulal ji would play clarinet and Kallan Miyaan - tabla. Guhar was responsible for singing the Ghazals. Renowned shayars like Jigar Sahib, Faani Badayuni, Behzad Lucknowi and Maulana Asi had to be coaxed and persuaded into writing ghazals according to the film’s theme. The film would be publicized, posters would be printed, handbills would be distributed. And then the singers and instrumentalists would sit in front of the screen and would play and sing throughout the film’s screening. My cousin (mausi’s son) and i would buy tickets in four annas, I would see one half of the film and he, the other half and then later we would sit and tell each other the story of the parts that we missed. The film’s ‘live’ music would draw me towards it. There is no doubt that Seth Girdharilal was the one who sowed the seeds of film background music in Lucknow. Girdharilal’s Royal Cinema of that era situated in Aminabad is now called Mehra Talkies”.

(In contradiction to what Naushad says, Mumbai based well known film historian, film-posters & booklets collector and an integral part of ‘Beete Hue Din’ Mr.S.M.M.Ausaja who is originally from Lucknow says that the two cinema halls of Seth Girdharilal were ‘Basant’ and ‘mayfair’ and they used to be located in Hazratganj but now only their memories remain there with us.)

Naushad’s father was very upset with Naushad’s passion for music. Despite his father’s strictness and restrictions, Naushad’s desire to learn the harmonium drew him to a musical instrument’s shop where he started working and oversaw keeping the instruments neat and clean. Seeing Naushad’s hard work and devotion towards music, one day the shop owner gifted him a harmonium. His father did not like this at all and told Naushad to choose one between music and home. Naushad said, “….and I, very happily, chose music”

Having recieved initial training in Lucknow from Ustad Baban Khan in harmonium and from Ustad Yusuf Ali in Sitar, after leaving home, Naushad joined a theatre company as an instrumentalist. According to Naushad, “for shows of our plays, we used to go from city to city in west U.P. and Rajasthan. But suddenly one day the company was shut down due to financial constraints. At that time, we were camped in Viramgam, Gujarat. All roads leading home were closed. And hence to find employment I had to go to Mumbai. This was during 1937 and I was just 18 years old.” Naushad found shelter at a distant relative Professor Abdul Alim Nami’s home in Mumbai who hailed from Sandila-Hardoi, U.P. and was teaching in Mumbai’s St. Xavier College. He used to live in Colaba in Mumbai. In those days, Dadar used to be the epicenter of filmic ongoings and would house many small and big studios. As per Naushad, “pockets would be empty, hence, to look for work, I had to commute from Colaba to Dadar by foot and on an empty stomach. After some time, I left Professor Sahib’s house and camped on a footpath opposite Dadar’s Broadway Cinema.”

Naushad succeeded in his efforts and the then renowned composer Ustad Jhande Khan Sahib hired him as a pianist at a salary of 40 rupees per month. Composer Ghulam Mohammad, who later became Naushad’s assistant, used to be employed with Ustad Jhande Khan at that time as a dholak player at a salary of 80 rupees per month. Naushad had said, “New Theatres introduced playback with its films, but the trend had not caught on with everyone. Actors would sing in front of the camera and the instrumentalists would hide here and there in different places and play their instruments. I also played instruments for many films, by sometimes hiding behind the bushes or sometimes sitting on top of a tree.” Seeing Naushad’s hard work and diligence, very soon Jhande Khan made him his assistant. Naushad also assisted composers like Manohar Kapoor, Mushtaq Hussain and Khemchand Prakash during that time. Along with this, Naushad used to also work as an instrumentalist with ‘Young India Gramophone Company’ at 100 Rupees per month. As Mushtaq Hussain’s assistant he did films like director Mohan Sinha’sNirala Hindustan’ (aka Industrial India / 1938), Kardar’sBaaghbaan’ (1938) and Gunjal’sPati Patni’ (1939) which were made under the banner of General Films. Right then he got an opportunity to compose a song for producerC.M.Gwalani’s’ ‘Chitra Productions’s filmKanchan’ (1941), and that song was bata do koi kaun gali more shyam. Written by D.N.Madhok, this song was sung by Leela Chitnis. Rest of the ten songs of Manibhai Vyas directed film ‘Kanchanwere composed by Gyandutt. But Naushad’s debut film as an independent composer, Premnagar, had already released in 1940, a year prior to the film Kanchan’s release. Made under the bannerBhavnani Productionsof producer-director Mohan Bhavnani, the main leads of the filmPremnagar were Professor Ramanand, Husn Bano and Bimla Kumari. The singers Sharma Bandhuof the famous Ram bhjanjaise sooraj ki garmi se jalte hue tan ko mil jaaye taruvar ki chhayaare Professor Ramanand’s sons, whereas Husn Bano was 1960’s well-known actress Nazima’s paternal aunt.

After PremnagarandKanchan, Naushad’s films Darshan’, ‘Mala’ (both 1941) andNai Duniya’, ‘Station Master’, andSharda’ (all 1942) were released. Suraiya had given playback for actressMehtab in the film Sharda and that famous song written by D.N.Madhok was panchhi ja, peechhe raha hai bachpan mera ussko ja ke la. After filmNai Duniya’ andSharda, Naushad and producer-director A.R.Kardar bonded so well that henceforth all of Kardar Productions films Kanoon’, ‘Namaste’, ‘Sanjog’ (all 1943) andGeet’, ‘JeevanandPehle Aap’ (all 1944) were given to Naushad. Although all songs of these films were cherished but the extensive popularity of songs from the movie Rattan’, released in 1944, shot Naushad into the league of the topmost music directors of that era. Karan Dewan’s elder brother producer Jemini Dewan’s filmRattanwas made in 75,000/- Rupees but with just the sale of records, Jemini Dewan got a royalty of 3,50,000/- Rupees. 7 decades later and all 10 songs of film Rattanare just as popular even today. Mohd. Rafi got the opportunity to sing for Naushad for the very first time for the movie Pehle Aap. Rafi sang 3 songs for the same movie of which 2 were duets with Shyam Kumar,tum dilli mai agre, mere dil se nikle haayandek baar unhe mila de phir meri tauba maulaand the other was a group songHindustan ke hum hain Hindustan hamara’, where Rafi was accompanied with Shyam Kumar and Alauddin.

In the year 1945 Naushad gave music for Kardar’s  filmSanyasiand in 1946 forKeematand Shahjehan. Shahjehanwas the only film in which  K.L.Sehgal  sang under Naushad’s music. Rafi too saw his dream of singing with Sehgal come true through this movie. The only song that Rafi sung with Sehgal wasroohi roohi roohi mere sapnon ki raniwhere Rafi got to sing only the last two lines. Lyricist Majrooh Sultanpuri also began his career with ‘Shahjehan’. With Mehboob Productions’s filmAnmol Ghadimade in 1946, Naushad’s relations were created with a big name of that era, producer-director Mehboob Khan. Anmol Ghadiwas duo music director Naushad and singer Noorjehan’s  first and last film as after the partition, Noorjehan migrated to Pakistan. In 1947 Naushad not only gave break to lyricistShakeel Badayuni through Kardar’s film Dard, he also introduced the audience to a new singerUmadevi. Umadevi sang 3 solosafsana likh rahi hoon dile beqarar ka’, ‘aaj machi hai dhoom’, ‘ye kaun chalaand a duet with Suraiya, betab hai dilfor this movie. Afsana likh rahi hoonwas the first film song sung by Umadevi. Later, Umadevi came to be known as the famous comedian Tuntun. It was Naushad who introduced her in the film ‘Babul’ (1950) as an actress with her new name. In 1947, Naushad gave music for Mehboob’s filmElaanand for Kardar’s filmNatak. Two of his films, Mehboob’sAnokhi Adaand Wadia Movietone’sMela, released in 1948. Naushad made Lata sing for him for the first time in 1949 inTajmahal Pictures’s filmChandni Raat. A duet sung with G.M.Durrani, this song of Lata’s washaye chhore ki jaat badi bewafa. In the same year while Naushad gave lata a chance to sing for the heroine for the first time in Mehboob’s film Andaz, Geeta Dutt sang a song composed by him for the first time in Dillagicalled tu mera chand mai teri chandni. Another version of this song is sung as a duet by Suraiya and Shyam Kumar. That was the golden period of Naushad’s career. All his films, Dulari’ (1949), ‘Babul’, ‘Dastaan’ (1950), ‘Deedar’, ‘Jadoo’ (1951), ‘Aan’, ‘Baiju Bawra’, ‘Deewana’ (1952), were proving to be a success one after the other. Naushad used western music for the first time in filmJadoo’s song jub nain mile naino se. In the same film, Zohrabai Ambalawali sang her last film song le lo le lo do phool jaani le lo’ under Naushad’s music and was accompanied in the song by Shamshad Beghum and Mohammad Rafi.

Filmfare Awards were established in 1953 and the first award under the category of best music was awarded to Naushad forBaiju Bawra. Naushad had said, “Baiju Bawra’s premier was held at Broadway Talkies in Dadar, the same place where I once used to camp on the footpath opposite it.” For the next 2 decades Naushad’s music was at the heights of its success.  Music of films likeAmar’, ‘Shabaab’ (1954), ‘Uran khatola’ (1955), ‘Mother India’ (1957), ‘Sohni Mahiwal’ (1958), ‘Kohinoor’, ‘Mughal-E-Azam’ (1960), ‘Ganga Jamuna’ (1961), ‘Son of India’ (1962), ‘Mere Mehboob’ (1963), ‘Leader’ (1964), ‘Dil Diya Dard Liya’, ‘Saaz Aur Awaaz’ (1966), ‘Paalki’, ‘Ram aur Shyam’ (1967), ‘Aadmi’, ‘Saathi’, ‘Sangharsh’ (1968) and Ganwaar’ (1970) was not only liked but most of these films were also a hit. While for the film ‘Mughal-E-Azam’ (1960), renowned classical singer ‘Ustad Bade Ghulam Ali Khan Sahib’ broke his rules of keeping a distance from film music and sang 2 bandishes ‘shubh din aayo’ and ‘prem jogan ban ke’, the film also proved to be Shamshad Beghum’s last collaboration with Naushad. She had sung the famous qawwali teri mehfil me kismet aazma kar hum bhi dekhengewith Lata for this film. Another song of Shamshad’s, husn ki baraat chalisung for the same film with Mubarak Beghum and Lata was finally not used in the film.  

The latter half of 1960’s, ushered in an era of complete change in Hindi Cinema. Cinema had now become colored. Along with music, the taste of the listeners was changing as well. With such change Naushad tried to reinvent the garb of his music in film like ‘Ram aur Shyam’, ‘Saathi’ and ‘Ganwaar’ and succeeded. Kamaal Amrohi’s film Pakeezahreleased in 1971 and its music broke all previous records. But all the credit for that was given to it’s other music directorGhulam Mohammad. As 1970’s came in, the face of film music had changed completely. It wasn’t easy for Naushad to conciliate with the prevalent times. That was the reason that Naushad’s films likeTangewala’ (1972), ‘Aaina’, ‘My Friend’ (1974), ‘Sunehra Sansar’ (1975) and Chambal ki Rani’ (1979) were soon forgotten. Kishor Kumar got the opportunity to sing for Naushad in ‘Sunehra Sansar’ for the first and the last time. It was a duet penned by Anand Bakshi, which Kishor Kumar sang with Asha Bhonsle, ‘hello kya haal hai’ but later it was removed from the film. Released in 1982, with producer-director Sultan Ahmed’s filmDharamkanta, he once again proved himself. But despite this, Naushad’s packed and busy days did not come back to him.  A few and in between films like Love and God’ (1986), ‘Awaaz De Kahan Hai’ (1990), ‘Terti Payal Mere Geet’ (1992) and Guddu’ (1995) did release but couldn’t create much magic. Initially Gurudutt was the lead for Love and God. But after Gurudutt’s and then producer-director K. Asif’s demise, the film had remained incomplete. Later on Sanjeev Kumar replaced Gurudutt in ‘Love and God’, and only after a struggle of almost 2 decades by K.Asif’s wife Akhtar Asif, the film was finally released. It proved to be actress Nimmi’s last film.

After the release of filmGuddu, Naushad stayed away from cinematic world for about 10 years. And in 2005 listeners were stunned when songs from Akbar Khan’s filmTaj Mahalwere heard nationwide. Naushad may have made a comeback with new technology, but all the songs of Taj Mahal sung by Hariharan, Priti Uttam and Kavita Krishnamoorti encompassed the sweetness that from film music’s golden era.

Not only was Naushad one of the topmost composers, he was also an excellent writer and producer. While people saw his collection of Shayaries Aathwaan Surreleased in the form of a book, the banner, Wadia Movietone, made a film on a story written by him called ‘Mela’. Under the banner of ‘Sunny Art Productions, Naushad made hit films likeBabul’ (1950), Uran khatola (1955)’ andMaalik’ (1958).  He had entrusted his assistant Ghulam Mohammad with the music for filmMaalik.  

Naushad was honored with awards such as Madhya Pradesh Government’s Lata Mangeshkar Award’, Maharashtra Government’s Maharashtra Gaurav’, Uttar Pradesh Government’s Awadh GauravandSangeet Ratn Puraskar’, Government of India’s ‘Sangeet Natak Academy Puraskar’, ‘Padm Bhooshan’, ‘Dadasaheb Phalke Awardalong with countless others. A career spanning 65 years, Naushad did a total of 65 Hindi films, 2 Non Hindi films (‘Paan Khaye Saiyaan hamaar’/Bhojpuri/1986 andDhvani’/Malyalam/1989), 4 television serials (‘The Sword Of Tipu Sultan’, ‘Akbar The Great’, ‘Sargam’, ‘Aarohi’) and also gave music for one Bangla Album (‘Prem Ke Amaar Pronam Diye Jaaiye).  3 of his Hindi filmsAan’, ‘Uran khatolaandMughal-E-Azamwere dubbed in Tamil as well. He recorded one or two songs for 5 of his filmsChanakya Aur Chandragupt’, ‘Habba Khatoon’, ‘Phir Baje Shehnai’, ‘Pukaar and Karuwhich ultimately remained incomplete.

Father to 6 daughters and 3 sons, Naushad died in the morning of 5th May 2006 at the age of 87 years after battling a long illness. He spent a large part of his life in his bungalowAashiana on Carter Road, Bandra (West). On his 2nd death anniversary i.e. on 5th May 2008, as a symbol of respect, Maharashtra Government and Mumbai Mahanagar Palika renamed Carter Road as ‘Sangeetkar Naushad Ali Marg’.