“लेके पहला पहला प्यार” – श्याम कपूर
...........शिशिर कृष्ण शर्मा
हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दौर में दिलचस्पी रखने वाले पाठक अक्सर पूछते थे कि फ़िल्म ‘सी.आई.डी’ के मशहूर गीत ‘लेके पहला पहला प्यार’ में देवआनंद और शकीला के साथ नज़र आ रहे बाक़ी दो कलाकार कौन हैं? ज़ाहिर है इस सवाल ने मेरे मन में भी उत्सुकता पैदा की। थोड़ी बहुत कोशिश के बाद ये तो पता चल गया कि इस गीत पर डांस कर रही लड़की शीला वाज़ हैं लेकिन हारमोनियम पर गीत गा रहे अभिनेता के बारे में पता कर पाना आसान नहीं था। दरअसल शीला वाज़ तो अपने दौर की एक जानी-पहचानी डांसर थीं लेकिन हारमोनियमवादक कलाकार का चेहरा बिल्कुल ही अजनबी था। लेकिन एक रोज़ ये रहस्य भी खुल ही गया। वो हारमोनियनवादक थे श्याम कपूर जो गुरूदत्त के असिस्टेण्ट थे।
मैंने श्याम कपूर को तलाशने की कोशिश की लेकिन उनका कुछ भी पता नहीं चल पाया। हालांकि तलाश भी आधे-अधूरे मन से की थी क्योंकि लगता था पता नहीं श्याम कपूर अब होंगे भी या नहीं। अचानक एक रोज़ फ़ेसबुक पर एक पाठक का संदेश मिला। उन्होंने लिखा था कि श्याम कपूर जीवित हैं और साथ में उन्होंने श्याम कपूर का आधा-अधूरा सा पता भी दिया था। लेकिन श्याम कपूर का फ़ोन नम्बर उनके पास भी नहीं था। ऐसे में मुझे एम.टी.एन.एल. की टेलिफ़ोन डायरेक्टरी की सी.डी. की मदद लेनी पड़ी। सी.डी. में मुझे श्याम कपूर का फ़ोन नम्बर मिल गया। गायिका शमशाद बेगम तक भी मैं इसी सी.डी. के ज़रिए पहुंचा था।
श्याम कपूर का फ़ोन लगातार ‘आऊट ऑफ़ सर्विस’ आता रहा। मजबूरन मुझे ख़ुद उनके घर जाने का फ़ैसला करना पड़ा। अधूरा पता हाथ में लिए पूछता-पूछता एक रोज़ किसी तरह उनके दरवाज़े पर पहुंचा तो वहां ताला लगा मिला। पता चला वो कुछ दिनों के लिए बाहर गए हुए हैं। उनके ठीक बगल वाले फ़्लैट में रहने वाली महिला से श्याम कपूर का एक अन्य फ़ोन नम्बर लेकर मैं वापस लौट आया। और फिर एक रोज़ उनसे बात करने में मुझे कामयाबी मिल ही गयी।
24 सितम्बर 2014 की शाम क़रीब 4 घण्टे मैंने श्याम कपूर के घर पर उनके साथ गुज़ारे। उस दौरान उन्होंने अपनी निजी और व्यावसायिक ज़िंदगी के साथ साथ गुरूदत्त और वहीदा रहमान के बारे में भी बहुत सी बातें बताईं।
24 अप्रैल 1928 को लाहौर की चूनियां तहसील में जन्मे श्याम कपूर बहुत छोटे थे जब उनकी मां गुज़र गयी थीं। पिता क्वेटा में पोस्ट मास्टर थे। श्याम कपूर और उनसे क़रीब ढाई साल बड़े उनके भाई बनारसीदास ने दादा-दादी के पास चूनियां में रहकर 8वीं तक की पढ़ाई की और फिर आगे की पढ़ाई के लिए लाहौर जाकर हॉस्टल में रहने लगे। देश का बंटवारा हुआ तो उस वक़्त बनारसीदास बी.ए. (फ़ाईनल) और श्याम कपूर 12वीं में पढ़ रहे थे। पढ़ाई बीच ही में छोड़कर वो दादा-दादी के साथ लुधियाना चले आए। उधर क्वेटा से उनके पिता का ट्रांसफर देहरादून हो गया।
उन्हीं दिनों अख़बारों में विज्ञापन छपा, अगर कोई छात्र कुरूक्षेत्र में बनाए गए शरणार्थी कैम्प में तीन महिने सोशल सर्विस करेगा तो उसे बिना इम्तहान के ही पास मान लिया जाएगा। विज्ञापन देखकर श्याम कपूर और उनके बड़े भाई बनारसीदास कपूर कुरूक्षेत्र चले गए। तीन महिने की सोशल सर्विस के बदले बनारसीदास को बी.ए. की डिग्री और श्याम कपूर को 12वीं पास का सर्टिफ़िकेट मिल गया। साथ ही सरकार की तरफ़ से उन्हें नौकरी का प्रस्ताव भी दिया गया जिसे दोनों भाईयों ने स्वीकार कर लिया। कुछ महीने कुरूक्षेत्र और अलवर में बिताने के बाद श्याम कपूर नौकरी छोड़कर अपने मामा के पास अम्बाला चले गए| बनारसीदास भी तब तक नौकरी छोड़कर पिता के पास देहरादून चले गए थे। उधर दादा-दादी लुधियाना छोड़कर फ़िरोज़पुर में जा बसे थे।
मामा महज़ ढाई-तीन साल बड़े थे। उनका चीनी का कारोबार था। उनके साथ पार्टनरशिप में काम शुरू किया और मोगा मंडी वाला ऑफ़िस सम्भालने लगे। फिर किसी बात पर अनबन हुई तो श्याम कपूर ने मामा से अलग होने का फ़ैसला कर लिया।
पड़ोस के ही एक हलवाई से श्याम कपूर की अच्छी पहचान हो गयी थी। उसका लड़का मुम्बई में नेवी का अफ़सर था जो कुछ दिनों की छुट्टी पर घर आया हुआ था। उसे अपने साथ एक सहायक का भी पास मिलता था। छुट्टियां ख़त्म हुईं तो उसने श्याम कपूर को अपने साथ मुम्बई चलने का न्यौता दिया। श्याम कपूर ने मामा से पैसे लिए और उस नेवी के अफ़सर के सहायक बनकर वो उसके साथ मुम्बई चले आए। मुम्बई में श्याम कपूर के ठहरने का इंतज़ाम भी उसी अफ़सर ने कराया। उस वक़्त श्याम कपूर की उम्र क़रीब 21 साल थी।
श्याम कपूर सिर्फ़ घूमने-फिरने के मक़सद से मुम्बई आए थे। उन्होंने एहतियातन सौ रूपए उस अफ़सर के पास वापसी के किराए के लिए रख दिए थे। सोचा था, जब जेब के पैसे ख़त्म होने लगेंगे तो उससे सौ रूपए लेकर वापस पंजाब लौट जाऊंगा। उन दिनों कोलाबा से किंग्स सर्किल तक ट्राम चलती थी। श्याम कपूर रोज़ाना ट्राम में बैठते थे, किंग्स सर्किल जाते थे और उसी ट्राम से वापस आ जाते थे। एक रोज़ किंग्स सर्किल में किसी फ़िल्म की शूटिंग चल रही थी। सीन के मुताबिक़ ट्रक में बैठे कुछ लड़कों को कार में बैठी लड़कियों का पीछा करते हुए उन पर फ़ब्तियां कसनी थीं। उनमें से एक लड़के का डायलॉग था, ‘ईस्ट मीट्स वेस्ट’, जिसे वो ठीक से बोल नहीं पा रहा था।
श्याम कपूर के मुताबिक़ डायरेक्टर अपने असिस्टेंट को और असिस्टेंट उस जूनियर आर्टिस्ट सप्लायर को गालियां दे रहा था जो उस लड़के को लेकर आया था। ऐसे में श्याम कपूर ने सप्लायर से पूछा, मैं बोलूं? सप्लायर ने तो उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया लेकिन असिस्टेंट ने श्याम कपूर को बुलाकर पूछा, बोल लोगे? उनके हां कहने पर उस लड़के की जगह श्याम कपूर को कैमरे के सामने खड़ा कर दिया गया। और शॉट पहले ही टेक में ओके हो गया। श्याम कपूर के मुताबिक़ उन दिनों आम जूनियर आर्टिस्ट का रेट 6 रूपए 6 आने रोज़ होता था जबकि अंग्रेज़ी डायलॉग बोलने वाले को 25 रूपए मिलते थे। सप्लायर ने उन्हें पैसे लेने के लिए अगले दिन दादर नाका पर बुलाया जहां उनकी मुलाक़ात कई और जूनियर आर्टिस्टों से हुई।
जेब के सारे पैसे ख़त्म हो चुके थे। उधर जहां ठहरने का इंतज़ाम था, वहां से भी उन्हें ख़ाली करने को कह दिया गया था। श्याम कपूर पंजाब वापस लौटने का फ़ैसला करके अपने सौ रूपए लेने पहुंचे तो पता चला उनके जानने वाले उस नेवी अफ़सर को जहाज़ पर विशाखापट्टनम भेज दिया गया है। अब श्याम कपूर के पास न तो वापस लौटने का किराया था और न ही रहने की जगह। ऐसे में जूनियर आर्टिस्टों ने उनकी बहुत मदद की। श्याम कपूर को उन्होंने अपने ग्रुप में शामिल कर लिया और श्याम कपूर को भी इस शहर में पैसा कमाने का एक ज़रिया मिल गया। अगले कुछ सालों तक वो फ़िल्मों में लगातार जूनियर आर्टिस्ट का काम करते रहे। और काम के दौरान ही एक रोज़ उनकी मुलाक़ात गुरूदत्त से हुई।
गुरूदत्त की फ़िल्म ‘आरपार’ के क्लब सांग ‘बाबूजी धीरे चलना, प्यार में ज़रा सम्भलना’ की शूटिंग चल रही थी। इसके एक शॉट में श्याम कपूर को अपनी टेबल से उठकर शकीला के क़रीब आना था और गुरूदत्त पर नज़र पड़ते ही ग़ुस्से से वापस अपनी टेबल की तरफ़ चले जाना था। गुरूदत्त को श्याम कपूर का काम बेहद पसंद आया। उन्होंने श्याम कपूर को मेकअप रूम में बुलाकर पूछा, डायलॉग बोल सकते हो? श्याम कपूर के ‘हां’ कहने पर उन्होंने श्याम कपूर से मिलते रहने को कहा।
गुरूदत्त का ऑफ़िस उन दिनों महालक्ष्मी के फ़ेमस स्टूडियो में था। अब जैसे ही समय मिलता, श्याम कपूर गुरूदत्त के ऑफ़िस पहुंच जाते। श्याम कपूर के मुताबिक़ गुरूदत्त को अक्सर अपनी ही शूट की हुई चीज़ें पसन्द नहीं आती थीं और वो उन्हें दोबारा शूट करते थे। ‘बाबूजी धीरे चलना, प्यार में ज़रा सम्भलना’ गीत को भी रीशूट किया गया था। उन दिनों इस गीत की एडिटिंग चल रही थी। पहले वाले वर्शन में श्याम कपूर नहीं थे। गुरूदत्त ने श्याम कपूर को दोनों वर्शन दिखाकर पूछा कौन सा बेहतर है? श्याम कपूर ने रीशूट किए गए वर्शन को बेहतर बताते हुए साथ में ये भी कह दिया कि आप ये मत सोचना कि पहले वाले वर्शन में मैं नहीं हूं इसलिए उसे रिजेक्ट कर रहा हूं। बुरा वो भी नहीं है, लेकिन रीशूट किया हुआ वर्शन बेहतर है। गुरूदत्त श्याम कपूर के इस जवाब से बेहद ख़ुश हुए।
गुरूदत्त के चीफ़ असिस्टेंट राज खोसला को उन्हीं दिनों बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म (मिलाप / 1954) मिली। राज खोसला की खाली जगह पर निरंजन शर्मा को असिस्टेंट से पदोन्नत करके चीफ़ असिस्टेंट बना दिया गया। उधर श्याम कपूर की इच्छा को देखते हुए गुरूदत्त ने उन्हें असिस्टेंट की ख़ाली जगह पर रख लिया। बकौल श्याम कपूर, उन्होंने फ़िल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ के गीत ‘उधर तुम हसीं हो इधर दिल जवां है’ की ‘महबूब स्टूडियो’ में चल रही शूटिंग में हिस्सा लेकर 17 सितम्बर 1954 को बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर करियर शुरू किया था। उस दिन से गुरूदत्त के आख़िरी समय तक वो उनके साथ काम करते रहे।
ओ.पी.नैयर को याद करते हुए श्याम कपूर कहते हैं, “वो बेहद गुणी संगीतकार थे। लेकिन कब किसको क्या कह दें, ये कोई नहीं बता सकता था। फ़िल्म ‘सी.आई.डी.’ के लिए साऊथ से नयी नयी आयीं सीधी-सादी वहीदा रहमान को देखकर ओ.पी.नैयर ने गुरूदत्त से कहा था, ‘नयी आया रखी है क्या’? इस पर गुरूदत्त ने सिर्फ़ इतना ही कह पाए थे, ‘वक़्त बताएगा, इंतज़ार करो’।“
श्याम कपूर बताते हैं, गुरूदत्त फ़िल्म्स की ‘सी.आई.डी.’ और ‘प्यासा’ एक साथ शुरू हुई थीं। गुरूदत्त ‘प्यासा’ के हीरो भी थे और निर्देशक भी। गुरूदत्त का असिस्टेंट होने के नाते श्याम कपूर फ़िल्म ‘प्यासा’ की यूनिट में थे। उधर ‘सी.आई.डी.’ का निर्देशन राज खोसला कर रहे थे। उन के असिस्टेंट प्रमोद चक्रवर्ती और भप्पी सोनी से श्याम कपूर की दोस्ती थी इसलिए अक्सर श्याम कपूर ‘सी.आई.डी.’ के सेट पर भी आतेजाते रहते थे।
एक रोज़ गुरूदत्त ने श्याम कपूर से कहा, ‘सी.आई.डी.’ के गाने में तुम काम करोगे। श्याम कपूर मानसिक तौर पर अभिनय के लिए तैयार ही नहीं थे। लेकिन गुरूदत्त के दबाव के आगे झुककर उन्हें फ़िल्म ‘सी.आई.डी.’ के उस गीत ‘लेके पहला पहला प्यार भरके आंखों में ख़ुमार’ में काम करना ही पड़ा। ये गीत वर्ली सी-फ़ेस पर तीन दिन में शूट हुआ था।
फ़िल्म ‘सी.आई.डी.’ के ही गीतादत्त के गाए गीत ‘जाता कहां है दीवाने सब कुछ यहां है सनम’ के बारे में श्याम कपूर कहते हैं, “ये धारणा बिल्कुल ग़लत है कि गीत की एक पंक्ति में ‘फ़िफ़्टी’ शब्द के इस्तेमाल पर सेंसर की आपत्ति की वजह से इस गीत को फ़िल्म से निकाला गया था। इसे फ़िल्म से निकाले जाने की वजह थी फ़िल्म की लम्बाई। दरअसल उस ज़माने में फ़िल्म के 13 हज़ार फ़ीट से ज़्यादा लम्बा होने पर फ़िल्म पर टैक्स बहुत ज़्यादा बढ़ जाते थे और फ़िल्म ‘सी.आई.डी.’ भी तय सीमा से ज़्यादा लम्बी हो गयी थी”।
‘प्यासा’ 12-13 रील बन चुकी थी। ‘प्यासा’ और ‘सी.आई.डी.’ का ट्रायल हुआ। गुरूदत्त को ‘प्यासा’ पसन्द नहीं आयी। उन्होंने कम्पनी के डायरेक्टर और प्रोडक्शन कण्ट्रोलर एस.गुरूमूर्ति से ‘प्यासा’ को रोककर पहले ‘सी.आई.डी.’ को पूरा करने को कहा। ‘सी.आई.डी.’ रिलीज़ हुई और ज़बर्दस्त हिट हुई। उसके बाद गुरूदत्त ने एक बार फिर से ‘प्यासा’ की स्क्रिप्ट पर काम शुरू किया। स्क्रिप्ट में जॉनीवॉक़र का रोल जोड़ा गया। इसके अलावा हीरो को धोखा देने वाले उसके दोस्त का भी रोल जोड़ा गया। दोस्त का ये निगेटिव रोल श्याम कपूर को दिया गया। सिर्फ़ 2-3 गानों को छोड़कर पूरी फ़िल्म दोबारा शूट की गयी।
उधर राज खोसला और ओ.पी.नैयर को ‘प्यासा’ का रीशूट किया जाना पसंद नहीं आया। एक पार्टी में उन्होंने खुल्लमखुल्ला कह भी दिया कि गुरूदत्त को (‘सी.आई.डी.’ से) पैसा कमाकर हमने दिया और वो उसे ‘प्यासा’ पर बरबाद कर रहा है। गुरूदत्त तक ये बात पहुंची तो उन्हें बहुत बुरा लगा, हालांकि आगे चलकर ‘प्यासा’ भी ज़बर्दस्त हिट हुई। श्याम कपूर के मुताबिक़ ओ.पी.नैयर फ़िल्म ‘प्यासा’ में एस.डी.बर्मन को लिए जाने से भी बेहद नाराज़ थे। उन्होंने बाहर कई लोगों से कहा भी था, गुरूदत्त एक बार मुझसे बात तो करते, क्या मैं सिर्फ़ मारधाड़ की ही फ़िल्मों के लायक हूं?
फ़िल्म ‘काग़ज़ के फूल’ में निरंजन शर्मा और श्याम कपूर के अलावा गुरूदत्त ने गोबिन्द नाम के एक और असिस्टेंट को साथ में रखा था। ये फ़िल्म सामान्य से चार गुना ज़्यादा शूट हुई थी। फ़िल्म नहीं चली और इसमें ‘सी.आई.डी.’ और ‘प्यासा’ से कमाया हुआ पैसा भी डूब गया। ‘सी.आई.डी.’ 1956 में, ‘प्यासा’ 1957 में और ‘कागज़ के फूल’ 1959 में रिलीज़ हुई थीं। श्याम कपूर के मुताबिक़ फ़िल्म ‘काग़ज़ के फूल’ की नाकामी ने गुरूदत्त के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया था। आर्थिक संकट से उबरने के लिए उन्हें ‘सौतेला भाई’, ‘भरोसा’, ‘बहूरानी’, ‘सुहागन’, ‘सांझ और सवेरा’ जैसी बाहर की कुछ फ़िल्में बतौर हीरो करनी पड़ीं थीं। लेकिन ‘कागज़ के फूल’ के बाद उन्होंने आधिकारिक तौर पर किसी भी फ़िल्म का निर्देशन नहीं किया।
साल 1960 में गुरूदत्त ने मुस्लिम पृष्ठभूमि पर फ़िल्म ‘चौदहवीं का चांद’ का निर्माण किया जिसके निर्देशन की ज़िम्मेदारी उन्होंने एम.सादिक़ को दी। गुरूदत्त चाहते थे कि इस फ़िल्म के गीत साहिर लुधियानवी लिखें। इसका सीधा मतलब यही था कि ‘चौदहवीं का चांद’ में एस.डी.बर्मन और ओ.पी.नैयर नहीं होंगे क्योंकि साहिर के साथ उन दोनों की टीम टूट चुकी थी। गुरूदत्त के ज़हन में साल 1958 की, मुस्लिम पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म ‘मेहंदी’ का संगीत ताज़ा था जिसके संगीतकार रवि थे। गुरूदत्त ने फ़िल्म ‘चौदहवीं का चांद’ के लिए रवि को साईन कर लिया। साहिर के साथ काम करने में रवि को कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन उन्होंने गुरूदत्त से अपने साथी गीतकार शकील बदायुंनी की सिफ़ारिश ज़रूर की। गुरूदत्त को शकील बदायुंनी का लिखा पसन्द आया और इस तरह फ़िल्म ‘चौदहवीं का चांद’ में साहिर की जगह शकील आ गए।
श्याम कपूर बताते हैं, “गुरूदत्त फ़िल्म्स की अगली फ़िल्म ‘साहब बीबी और ग़ुलाम’ के निर्देशन की ज़िम्मेदारी लेखक अबरार अल्वी को दी गयी। ‘काग़ज़ के फूल’ के फ़्लॉप होने के बाद से गुरूदत्त निर्देशन में अपना नाम देना ही नहीं चाहते थे। लेकिन अबरार अल्वी का नाम सुनकर मीना कुमारी ने फ़िल्म करने से इंकार कर दिया। वो इस शर्त पर तैयार हुईं कि गुरूदत्त सेट पर ज़रूर मौजूद रहेंगे। फ़िल्म ‘साहब बीबी और ग़ुलाम’ में भले ही बतौर निर्देशक ‘अबरार अल्वी’ का नाम दिया गया लेकिन इसका 90 प्रतिशत हिस्सा गुरूदत्त ने निर्देशित किया था। ये फ़िल्म 1962 में रिलीज़ हुई थी”।
फ़िल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ 14 रील बन चुकी थी। लेकिन 10 अक्टूबर 1964 को अचानक ही गुरूदत्त गुज़र गए। उनकी मौत के बारे में आज भी तमाम तरह की अफ़वाहें सुनने को मिलती हैं। लोग कहते हैं कि गुरूदत्त ने आत्महत्या की थी। लेकिन मैं इस बात को नहीं मानता। दरअसल जिस रात वो गुज़रे थे, उस रोज़ हमने ‘गुरूदत्त स्टूडियो’ में ‘बहारें फिर भी आएंगी’ के क्लाईमेक्स का, माला सिन्हा की मौत का सीन शूट किया था। गुरूदत्त फ़िल्म के हीरो थे और निर्देशक थे, शाहिद लतीफ़। ‘गुरूदत्त स्टूडियो’ अंधेरी (पूर्व) में ‘नटराज स्टूडियो’ के पीछे था। आज उस जगह पर मुम्बई-अहमदाबाद हाईवे बन गया है।
शाम को पैकअप के बाद माला सिन्हा ने गुरूदत्त से अगले दिन की छुट्टी मांगी क्योंकि उन्हें किसी फ़िल्म के प्रीमियर के लिए कोलकाता जाना था। माला सिन्हा अपने मेकअप रूम में चली गयीं और गुरूदत्त पहली मंज़िल पर बने अपने ऑफ़िस की सीढ़ियां चढ़ने लगे। तनुजा उनके साथ थीं। अचानक गुरूदत्त रूककर अपना सीना सहलाने लगे। तनुजा के पूछने पर उन्होंने कहा, “तबीयत कुछ गड़बड़ है, हार्ट की प्रॉब्लम लग रही है”। फिर फीकी हंसी हंसते हुए कहने लगे, “माला को देखो, कल छुट्टी ले रही है...आर्टिस्ट प्रोड्यूसर को हार्ट प्रॉब्लम ही तो देते हैं”। दरअसल गुरूदत्त की तबीयत दिन से ही ख़राब थी। मेरा मानना है कि रात को अगर उन्होंने वाकई शराब पी होगी या नींद की गोलियां खाई होंगी तो उनका बीमार शरीर उस नशे को बर्दाश्त नहीं कर पाया होगा। लेकिन इसे आत्महत्या कहना ग़लत है”।
गुरूदत्त और वहीदा रहमान के रिश्तों के बारे में श्याम कपूर बताते हैं, “वहीदा चाहती थीं कि गुरूदत्त इस्लाम धर्म अपनाकर उनसे शादी कर लें, हालांकि एम.सादिक़ और जॉनी वॉकर धर्मपरिवर्तन की वहीदा की शर्त से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि किसी पर धर्मपरिवर्तन के लिए दबाव डालना गलत बात है। उधर गुरूदत्त का कहना था कि गीता दत्त किसी भी हालत में तलाक़ के लिए तैयार नहीं होंगी। एक शाम मैं अपने ससुराल में था कि वहां मेरे एक जानने वाले उजागर सिंह आए जिनका फ़िल्मी लोगों के बीच काफ़ी उठना बैठना था। उन्होंने बताया कि वहीदा रहमान के बहनोई बेहद ग़ुस्से में हैं और कह रहे हैं कि मैं इसी वक़्त गुरूदत्त को उठाकर लाता हूं, देखता हूं वो कैसे इस्लाम क़ुबूल नहीं करता। उजागर सिंह की बात सुनकर मैं और मेरे ससुर जी उसी समय गुरूदत्त के घर के लिए निकल पड़े। मैंने वो रात गुरूदत्त के घर पर बितायी, हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसका हमें डर था”। श्याम कपूर के ससुर रवि खन्ना अपने ज़माने के मशहूर फ़ाईट मास्टर थे। श्याम कपूर की शादी साल 1961 में रवि खन्ना की बेटी शारदा से हुई थी।
उधर गुरूदत्त के गुज़र जाने के बाद ‘गुरूदत्त फ़िल्म्स’ की ज़िम्मेदारी उनके भाई आत्माराम जी ने सम्भाल ली थी। फ़िल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ में गुरूदत्त की जगह धर्मेन्द्र को लिया गया। लेकिन इधर फ़िल्म के डिस्ट्रीब्यूटर ने एक नयी शर्त रख दी कि फ़िल्म को रीशूट अबरार अल्वी करें। आत्माराम जी को शर्त माननी पड़ी, हालांकि मूल कांट्रेक्ट के मुताबिक़ फ़िल्म में बतौर निर्देशक शाहिद लतीफ़ का ही नाम दिया गया। फ़िल्म के हिट गीत ‘आप के हसीन रूख़ पे आज नया नूर है’ समेत गुरूदत्त पर फ़िल्माए जा चुके तमाम हिस्सों को रीशूट किया गया। अबरार अल्वी बेहद ढीले-ढाले इंसान थे। शाहिद लतीफ़ ने फ़िल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ की 14 रीलें सिर्फ़ 60 दिनों में शूट कर ली थीं। वहीं अबरार अल्वी ने सिर्फ़ गुरूदत्त वाले हिस्से रीशूट करने में 288 शिफ़्टें लेकर ‘गुरूदत्त फ़िल्म्स’ का खाता खाली कर दिया। ये फ़िल्म क़रीब दो साल बाद 1966 में रिलीज़ हुई।
1968 में आत्माराम जी ने ‘गुरूदत्त फ़िल्म्स’ के बैनर में फ़िल्म ‘शिकार’ बनाई जो जुबली हिट हुई। इस ख़ुशी में ‘गुरूदत्त फ़िल्म्स’ के पूरे स्टाफ़ को बोनस दिया गया। आत्माराम जी ने वादा किया कि वो गुरूदत्त की याद में कम्पनी के स्थायी स्टाफ़ के रहने के लिए एक बिल्डिंग बनाएंगे। वर्सोवा-अंधेरी के इलाक़े में ज़मीन ख़रीदी गयी। इस बीच आत्माराम जी ने अपने निजी बैनर ‘गुरूदत्त फ़िल्म्स कम्बाईन’ की स्थापना करके ‘चन्दा और बिजली’, ‘उमंग’, ‘मेमसाब’ और ‘ये गुलिस्तां हमारा’ जैसी फ़िल्में बनाईं लेकिन ये फ़िल्में चल नहीं पायी। उधर बिल्डिंग का काम शुरू हो चुका था। आत्माराम जी ने कहा पैसे की तंगी है इसलिए मजबूरन उन्हें फ़्लैट बेचने पड़ेंगे, लेकिन स्टाफ़ को प्राथमिकता दी जाएगी। 1970 के दशक की शुरूआत में वर्सोवा की फ़िशरीज़ रोड पर स्थित पुलिस कॉलोनी में ‘गुरूदत्त अपार्टमेण्ट्स’ नाम की बिल्डिंग बनकर तैयार हुई। श्याम कपूर ने इस बिल्डिंग में फ़्लैट ख़रीदा और पिछले 40 सालों से वो इसी जगह रहते आ रहे हैं।
श्याम कपूर के बगल वाले फ़्लैट में मूर्तिकार प्रदीप शर्मा रहते थे जो कई साल पहले मुम्बई छोड़कर देहरादून चले गए थे। ‘गुरूदत्त अपार्टमेण्ट्स’ के प्रवेशद्वार पर लगी, प्रदीप शर्मा की बनाई हुई गुरूदत्त की मूर्ति आज भी उस महान फ़िल्मकार की यादों को ताज़ा करती है।
साल 1976 तक श्याम कपूर ‘गुरूदत्त फ़िल्म्स कम्बाईन’ के साथ जुड़े रहे। उसके बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से फ़िल्में बनाने की कोशिश की लेकिन उनकी तीनों ही फ़िल्में किसी न किसी वजह से बीच ही में अटक गयीं। मजबूरन उन्हें निर्देशन छोड़कर प्रोडक्शन का काम सम्भालना पड़ा। बतौर प्रोडक्शन कण्ट्रोलर उन्होंने ‘दरिंदा’, ‘प्रोफ़ेसर प्यारेलाल’, ‘सोहनी महिवाल’ जैसी कई फ़िल्में कीं, जिसके बाद वो टी.वी. सीरियलों के निर्माता-निर्देशक अजय सिन्हा की कम्पनी से जुड़ गए। अजय सिन्हा के ‘हसरतें’, ‘अस्तित्व’, ‘घर एक सपना’, ‘गुदगुदी’, ‘केसरिया बालमा’ जैसे कई सीरियलों का प्रोडक्शन सम्भालने के बाद श्याम कपूर अब पिछले कुछ सालों से रिटायरमेंट की ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। उनकी एक बेटी कनाडा में और एक बेटा और एक बेटी अमेरिका में रहते हैं। दो बेटे मुम्बई में हैं जिनमें से एक फ़िल्मों में स्टंटमैन है और सबसे छोटे बेटे का कम्प्यूटर का बिज़नेस है।
बीते अप्रैल में 86 साल के हो चुके श्याम कपूर आज भी पूरी तरह चुस्त दुरूस्त हैं। गुरूदत्त की यादें आज भी उनके ज़हन में पूरी तरह ताज़ा हैं और उनका ज़िक्र होते ही वो उन यादों में खो जाते हैं।
श्याम कपूर का निधन 4 अक्टूबर 2018 को मुम्बई में, 90 साल की उम्र में हुआ|
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir
Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and
support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters & pictures.
Mr.
Sanjeev Tanwar for providing rare pictures.
Ms.
Aksher Apoorva for the English
translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video
editing.
“Leke Pehla Pehla Pyar”
–
Shyam Kapoor
…..Shishir Krishna Sharma
Readers with a keen
interest in the golden era of Hindi Cinema often asked me, who are the other 2 artistes
who are seen in the song ‘leke pehla pehla pyar bharke
ankhon me khumar’ of C.I.D.
along with Dev Anand and Shakeela? This question has had made me curious too.
With a little effort I came to know that the girl dancing in this song was
Sheela Vaz but it wasn’t easy to know about the actor who sings and plays the harmonium.
Actually, Sheela Vaz was a known dancer of her time, but the harmonium player
was totally an unknown face. But this mystery also got solved one day. That
harmonium player was Shyam Kapoor who was an assistant director
with Gurudutt.
I tried to trace out Shyam
Kapoor but
failed. Though truthfully mine were half hearted efforts as I wasn’t sure if Shyam
Kapoor was
around or not. And then I got a message in my face book message box from a
reader. He wrote that Shyam Kapoor was still around. Shyam
Kapoor’s incomplete address was also mentioned in the message, but the sender
didn’t have Shyam kapoor’s telephone number. Therefore, I had to take help from
the MTNL’s phone directory CD. I found Shyam Kapoor’s contact number in the CD.
The same CD helped me reach the singer Shamshad Begum.
Shyam Kapoor’s phone
was continuously out of service. Constrainedly I had to decide to personally to
go to his place. Somehow, I reached his home with incomplete address in hand
one day and found the door locked. I came to know that they have gone out of
town for few days. I got another contact number of Shyam Kapoor’s from the
lady residing in the adjoining flat and returned. And few days later, eventually
I succeeded in speak with him.
I spent around 4 hours with Shyam
Kapoor on 24th September
2014 at his home. Apart from his personal and professional life, he spoke a lot
about Gurudutt and Wahida Rehman
during our conversation.
Born on 24th April 1928 in Lahore’s
‘Chooniyaan’ tehsil, Shyam Kapoor was very little when his
mother died. His father was a postmaster at Quetta. Shyam Kapoor and his 2-1/2-year older
brother Banarasi Dass stayed with their paternal grandparents at Chooniyan,
completed their schooling till 8th and shifted to a hostel in Lahore
for their further studies. Banarasi Dass was in his B.A.
(filnal) and Shyam Kapoor in 12th when the partition took place.
Leaving their studies incomplete, they shifted to Ludhiana with their
grandparents. On the other hand, their father got transferred to Dehradoon from
Quetta.
Meanwhile an advertisement in the newspaper was published which said that the students who do social service for 3 months at the refugee camp set up at Kurukshetra will be considered as having passed their respective classes without taking any examination. Seeing this advertisement, Shyam Kapoor and his elder brother Banarasi Dass Kapoor shifted to Kurukshetra. After 3 months of social service at the camp, Banarasi Dass got his B.A. degree and Shyam Kapoor got his 12th pass certificate. They also got a job offer from the government which they happily accepted. After working in Kurukshetra and Alwar for a couple of months, Shyam Kapoor left his job and came to Ambala to join his maternal uncle. By that time Banarasi Dass had already left his job and shifted to Dehradoon to live with his father. On the other hand, their grandparents had shifted from Ludhiana to settle in Firozepur.
Shyam kapoor’s uncle was hardly 3 years older to him. He had a flourishing sugar business. Shyam kapoor joined him as a partner and started looking after the Moga Mandi office. But due to some differences, soon he parted ways from his uncle and his business.
Shyam Kapoor had very cordial relations
with a neighboring sweet shop owner. Shop owner’s son, who was an officer with
the navy in Mumbai was home on leave those days. He was entitled for an extra
pass for a helping hand with him. At the time of his
return to Mumbai he asked Shyam Kapoor to accompany him to Mumbai. Shyam
Kapoor took some money from his uncle
and came
to Mumbai with the navy officer on his helper’s pass. Shyam Kapoor’s
boarding & lodging in Mumbai was also arranged by the same navy officer. Shyam
Kapoor was
21 at that time.
Shyam Kapoor simply wanted to see Mumbai.
He had kept 100 Rupees with the officer as a
precautionary measure. He had planned that when all the money he had with him was
spent; he would take back those 100 Rupees from the officer to buy the train
ticket and would return home. During those days there used to be a tram service
from Colaba to King’s Circle. Shyam Kapoor took the tram to King’s Circle
and returned by the same tram daily. One day there was some
film shoot going on at King’s Circle. According to the scene being shot some
boys sitting in a truck had to chase and tease the girls who were sitting in a
car. One of those boys had to speak a dialogue ‘east meets west’ which he
failed to deliver despite many attempts and retakes.
According to Shyam
Kapoor, the director was vilifying his assistant and
the assistant was
vilifying the junior artist supplier
who brought that actor. Suddenly Shyam Kapoor asked
the supplier, ‘can I try this’? Though the supplier ignored him, yet the assistant asked Shyam
Kapoor if
he could speak the dialogue. And as he nodded affirmatively, Shyam Kapoor was taken
in front of the camera. And the shot got Okayed in the first take itself.
According to Shyam
Kapoor, at that time an ordinary junior artist was paid 6 Rupees 6 Anna’s per
day whereas the one who spoke English dialogues was paid 25 Rupees. The supplier
asked Shyam Kapoor to meet him at Dadar Naka next morning to collect his
payment where Shyam kapoor met many more junior artistes.
By now, all his money
had over. Simultaneously he had also been asked to vacate the place where he
was staying. Shyam Kapoor tried to meet the navy officer to take his 100 Rupees
back to return to Punjab only to find that the said officer had already left
for Vishakhapattanam on the naval ship. Shyam Kapoor neither had money to buy a
return ticket nor did he have a place to stay in Mumbai. In
such odd times the junior artistes
came forward to help him. They included Shyam Kapoor into
their group and Shyam
Kapoor also found a way
to earn money in this city. For the next few years, he continuously worked as a
junior artist
and during the same stint he met Gurudutt one fine day.
He met Gurudutt during
the shoot of ‘Aar Paar’s club song ‘babooji dheere chalna, pyar me zara
sambhalna’. In one of the shots Shyam Kapoor had
to get up from his table and come to Shakila and immediately return to his
table, angry, after finding Gurudutt staring
at him. Gurudutt really liked
Shyam Kapoor’s work. He called Shyam Kapoor to
his makeup room and asked if he could speak the dialogues. As Shyam Kapoor said
‘yes’, Gurudutt asked him to keep
on meeting him.
Gurudutt’s office was
at Mahalaxmi’s Famous Studio at that time. Now whenever Shyam Kapoor found time he reached Gurudutt’s
office. According to Shyam Kapoor, Gurudutt’s mood was such that usually he didn’t
like the initial footage shot by him and often preferred to reshoot the
things. The song ‘babooji dheere chalna, pyar
me zara sambhalna’ was also completely reshot. Its second version was
being edited those days. Shyam Kapoor wasn’t there in the original
version. Gurudutt showed
both the versions to Shyam Kapoor and asked which one he liked
more. Shyam Kapoor opined that the reshot version
was better. He also asked Gurudutt not to feel that he (Shyam
Kapoor) was rejecting the original one just because he wasn’t a part of that
version. He said ‘In fact neither of the versions is bad but the reshot one is
better’. Gurudutt was happy with Shyam
Kapoor’s reply.
Meanwhile Gurudutt’s
chief assistant Raj
Khosla got his debut movie (Milap/1954) and he left his job with Gurudutt films.
Subsequently, Niranjan Sharma was promoted from assistant to
the chief assistant in place of Raj
Khosla. As Shyam Kapoor was keen to join Gurudutt as
an assistant, he was given the job of assistant in place of Niranjan Sharma.
According to Shyam Kapoor, he joined the unit of the film ‘Mr. & Mrs.55’ on
17th September 1954 during the song ‘udhar tum haseen ho idhar dil
jawaan hai’ being shot at the ‘Mehboob Studios’ as an assistant. Since that
very day he worked with Gurudutt till his death.
Remembering O.P.Nayyar,
Shyam Kapoor says, “He
was a very talented composer. But nobody could predict what he would speak to
whom and when. When he first saw the newcomer from south Wahida Rehman
who had come for her debut Hindi movie ‘C.I.D.’, O.P.Nayyar asked Gurudutt,
“did you appoint a new ayah”? Gurudutt could only say, “Wait! Let
time speak for itself”.
Shyam Kapoor says, the production of Gurudutt Films’
‘C.I.D.’ and ‘Pyasa’ had
started simultaneously. Gurudutt was the hero and the director of
‘Pyasa’. Being Gurudutt’s
assistant, Shyam Kapoor was
a part of ‘Pyasa’s unit. On the other hand ‘C.I.D.’ was
being directed by Raj Khosla. His assistants Pramod Chakravorty and Bhappi Soni
were good friends with Shyam Kapoor and Shyam Kapoor often visited the sets of ‘C.I.D.’
One day Gurudutt told Shyam
Kapoor, “you have to act in one of ‘C.I.D.’s’ songs.” Shyam
Kapoor wasn’t mentally prepared to
act again. But due to Gurudutt’s
pressure he had to act in the ‘C.I.D.’ song ‘leke
pehla pehla pyar bharke
ankhon me khumar’. This song was shot on
the Worli Sea Face in 3 days.
Talking about ‘C.I.D.’s another song ‘jaataa kahan
hai deewaane sab kuchh yahan hai sanam’ sung by Geeta Dutt, Shyam
Kapoor says, “this is completely a wrong
notion that
this song was removed from the film due to the sensor board’s objection on the
use of the word ‘fiffy’ in the lyrics of this song. The actual reason of its removal was to lower the
length of the movie within 13 thousand feet of length. At that times the movie
exceeding the limit of 13 thousand feet of length was imposed with many other
heavy taxes as per government rules”.
After ‘Pyasa’ was shot up to 12-13 reels, it’s
trial show was arranged along with that of ‘C.I.D’s.
Gurudutt was
disappointed with ‘Pyasa’. He asked company’s Director
and Production Controller S.Gurumoorty
to halt ‘Pyasa’ till
‘C.I.D’ was released.
‘C.I.D’ proved
to be a big hit. Then Gurudutt once
again started working on ‘Pyasa’s script. Johny Walker’s role
was added to the script. Hero’s friend’s character was created who deceives
him. This negative role was played by Shyam Kapoor. Except
2-3 songs the complete film was reshot.
Raj Khosla and
O.P.Nayyar were not happy with ‘Pyasa’ being
reshot. They both openly said in a party that the money they earned for the
company from the movie ‘C.I.D.’ was being wasted on ‘Pyasa’ by Gurudutt.
Gurudutt was hurt to know what they
both said, though ‘Pyasa’ also
proved to be a big hit. According to Shyam Kapoor, O.P.Nayyar was
also annoyed with the idea of taking S.D.Burman on board in ‘Pyasa’. He
even told many people, “At least Gurudutt should have spoken to me once,
am I worth only for action movies”?
Apart from Niranjan
Sharma and Shyam Kapoor, one more assistant name Gobind joined in the movie
‘Kagaz Ke Phool’. This movie was shot 4 times more than the average. Film
flopped miserably and all the money which ‘C.I.D.’ and ‘Pyasa’ generated was lost. ‘C.I.D.’ was released in the year 1956 में, ‘Pyasa’ in 1957 and
‘Kagaz Ke Phool’ in the year 1959. Shyam Kapoor says, “Kagaz Ke Phool’s
failure had shaken Gurudutt’s self confidence badly. To come out of the
financial crunch he did the movies like ‘Sautela
Bhai’, ‘Bharosa’, ‘Bahurani’, ‘Suhagan’, abd ‘Saanjh Aur Savera’ for the outside
producers. But officially he never directed a film after
‘Kagaz Ke Phool”.
Gurudutt produced ‘Chaudahveen
Ka Chand’
on Muslim backdrop in the year 1960 wherein he signed M.Sadiq to direct. Gurudutt wanted Sahir
Ludhianvi to write the songs for this
film. This
clearly meant that ‘Chaudahveen
Ka Chand’ will not have S.D.Burman and
O.P.Nayyar on board as they both were reluctant to work with Sahir Ludhianvi. Gurudutt remembered
the 1958 release
‘Mehndi’ made on Muslim Background which had Ravi as composer. Gurudutt signed
Ravi for ‘Chaudahveen
Ka Chand’. Ravi didn’t have any
objection to work with Sahir but he did recommend his
fellow lyricist Shkeel Badayuni’s name to Gurudutt. Gurudutt liked Shkeel
Badayuni’s poetry and thus Shkeel came on board in the film ‘Chaudahveen
Ka Chand’ in
polace of Sahir,.
Shyam Kapoor says, “Gurudutt Films’
next ‘Sahab Bibi Aur Ghulam’s direction was handed over to the writer Abrar
Alvi. After ‘Kagaz
Ke Phool’s debacle Gurudutt didn’t want to give
his name as a director. But Meena Kumari refused
to work in the film under Abrar Alvi’s direction. She said ‘yes’ for the film
on the condition that Gurudutt will have to be present on the
sets. Though it was Abrar Alvi’s name as director in the
credits of ‘Sahab Bibi Aur Ghulam’ in reality the film’s 90% part was directed
by Gurudutt. This was a 1962 release.”
Film ‘Baharein
Phir Bhi Ayengi’ had been shot for almost 14
reels. Suddenly Gurudutt passed away on 10th
October 1964. There are many theories which are heard even today regarding his
mysterious death. People often say that Gurudutt committed
suicide but I don’t believe in such sensational theories. Actually he died in
the night and the same day we had shot the climax scene, the death scene of
Mala Sinha’s character of ‘Baharein Phir Bhi Ayengi’ at ‘Gurudutt Studio’. Gurudutt was the Hero of the film and
the director was Shahid Lateef. ‘Gurudutt Studio’ was behind the ‘Natraj Studio’ at Andheri (East).
That place has been taken over by the Mumbai-Ahmedabad Highway today.
After the pack up in
the evening Mala Sinha requested Gurudutt to grant him leave for the
next day as she had to attend a film premier in Kolkata. Mala Sinha went to her
makeup room and Gurudutt, along with Tanuja started
climbing up the stairs to his first-floor office. Suddenly Gurudutt stopped mid way and started
massaging his chest. As Tanuja asked him if he was ok,
he replied, “I am feeling uneasy, it seems like some heart problem”. Then on a
lighter note he said, “Just see
Mala taking leave tomorrow...what else the artistes give to the producers except
heart problem”. Actually, Gurudutt was
not feeling well since morning that day. I firmly believe that he was too
unwell to stand the effects of drinks or the sleeping pills which he reportedly
took in the night. It’s wrong to call it suicide as it was an accident as per
my belief”.
Talking about Gurudutt and Wahida Rehman’s
relation, Shyam Kapoor says, “Wahida wanted
Gurudutt to convert to Islam and marry
her, though M.Sadiq and Johny Walker were against Wahida’s
condition regarding the conversion. They always said that it was totally wrong
to force someone to convert. On the other hand, Gurudutt said that Geeta Dutt will
never be ready to divorce him. One evening I was at my in laws home that
suddenly one of my acquaintances Ujagar Singh came searching for me. Ujagar
Singh was known to lots of film personalities. He said that Wahida Rehman’s
brother in law was extremely angry and was shouting that he was going to drag Gurudutt then and there and also that
he would see how come he doesn’t convert and marry Wahida. I, along with my
father in law immediately rushed to Gurudutt’s home.
I spent that night at Gurudutt’s
home though nothing happened which we were afraid of”. Shyam
Kapoor’s father in law Ravi Khanna was a renowned fight master of his times. Shyam
Kapoor married
Ravi Khanna’s daughter Sharda in the year 1961.
After Gurudutt’s death his brother Atmaram
ji took the responsibilities of the ‘Gurudutt Films’. In place of Gurudutt, Dharmendra
was signed for the film ‘Baharein Phir Bhi Ayengi’. But the distributor of the
film put a condition that the reshoot of the film should be directed by Abrar
Alvi. Atmaram ji had no other option than to agree but as per the
original contract, Shahid Lateef’s name was given
as the director in the credits. All the Gurudutt portions including the hit
song ‘aap ke haseen rookh pe aaj naya nor hai’ were reshot. Abrar Alvi was a very lazy person. Shahid
Lateef had shot the original 14 reels of the film ‘Baharein
Phir Bhi Ayengi’ in
just 60 days whereas Abrar Alvi took
288 shifts to reshoot Gurudutt’s parts with Dharmendra and emptied all the
accounts of ‘Gurudutt Films’. This
film released 2 years later in 1966.
In the year 1968, Atmaram ji produced the film
‘Shikar’ under ‘Gurudutt Films’ banner
which was a jubilee hit. Bonus was paid to the staff of the ‘Gurudutt Films’. Atmaram
ji promised that he would get a residential building built for the permanent
staff of the company in Gurudutt’s remembrance. A plot of land was bought in
Andheri’s Versova area. Meanwhile Atmaram ji founded his own banner ‘Gurudutt Films Combine’
and produced ‘Chanda Aur Bijli’, ‘Umang’, ‘Memsaab’ and ‘Ye Gulistaan Hamara’
but none of these films could make an impact on the box office. On the other hand the
building’s work had started. Atmaram ji said, due to financial constraints he
would have to sell the flats and the staff members who are interested to buy,
would be given priority. This buiding named ‘Gurudutt Apartments’ in the Police Colony on
Fisheries Road – Versova completed in early 1970’s decade. Shyam
Kapoor bought a flat in this building
and has been living here since then.
There lived a sculptor
Pradeep Sharma in the flat adjacent to Shyam Kapoor’s flat who shifted to Dehradoon many
years back. He sculpted a bust of Gurudutt which is still displayed on the
entrance of the ‘Gurudutt Apartments’ and
reminds us of the great film maker.
Shyam Kapoor was associated with the ‘Gurudutt Films Combine’ till 1976. Afterwards he tried
to direct the films independently but all 3 films which he started got shelved
because of some or other reason. Constrainedly he had
to leave direction to start the production job. As
a Production Controller he
did some movies including ‘Darinda’, ‘Professor Pyarelal’, ‘Sohni Mahiwal’ and then he joined the company
owned by the well known T.V. show producer-director Ajay Sinha. After looking after the
production of Ajay Sinha’s T.V. shows ‘Hasratein’, ‘Astitva’, ‘Ghar Ek Sapna’,
‘Gudgudi’, ‘Kesariya Balma’ etc., Shyam Kapoor is
now living a retired life since last few years. One of his 2 daughters lives in Canada and
the other daughter and one son are settled in America. One of his Mumbai based
2 sons is a stuntman in films and the youngest one has his own business in
computers.
Shyam Kapoor, who completed 86 in last
April, is
still fit and healthy. Gurudutt’s memories are still fresh into his mind and with
the very mention of his name Shyam kapoor gets immersed into those memories.
Shyam Kapoor died in Mumbai on 4 October 2018 aged 90.