“पुराना
मंदिर”
– अनिरूद्ध अग्रवाल
.........शिशिर
कृष्ण शर्मा
1949 में
बनी
‘महल’
से हिन्दी
सिनेमा में
रहस्य-रोमांच
के एक
नए जॉनर
की शुरुआत
हुई थी|
50 के दशक
में
‘मधुमति’
और 60 के दशक
में
‘बीस साल
बाद’
और
‘वो कौन
थी’
से होता
हुआ ये
सिलसिला जैसे
ही 70 के दशक
में पहुंचा
तो उसके
साथ एक
नया आयाम
जुड़ गया
- हॉरर का|
बीते दशकों
के रहस्यमय
आम इंसानी
चेहरों का
स्थान अब
सड़ी हुई
लाशों, वीभत्स
चेहरों, शैतानी
ताक़तों और
भयावह राक्षसी
किरदारों ने
ले लिया
था| हिन्दी
सिनेमा को
हॉरर के
इस आयाम
से 1972 की फिल्म
‘दो गज़
ज़मीन के
नीचे’
में
‘रामसे ब्रदर्स’
ने परिचित
कराया था|
मामूली
से बजट
में बनी
फिल्म
‘दो गज़
ज़मीन के
नीचे’
की ज़बरदस्त
कामयाबी ने
‘रामसे ब्रदर्स’
को इसी
जॉनर की
फ़िल्में बनाने
के लिए
प्रेरित किया
और अगले
20 सालों तक
वो एक
के बाद
एक हिट
फिल्में बनाकर
अपना एक
अलग ही
दर्शक वर्ग
तैयार करते
चले गए|
आज वो
दर्शक वर्ग
भले ही
सीनियर सिटिज़न
कहलाने की
दहलीज़ पर
खड़ा है,
लेकिन रामसे
की फिल्मों
के प्रति
अपनी उस
दीवानगी को
वो आज
भी भूला
नहीं है|
खासतौर से
‘पुराना मंदिर’,
‘सामरी’
और
‘बंद दरवाज़ा’
जैसी फिल्मों
में शैतान
का किरदार
निभाने वाले
अभिनेता अनिरूद्ध
अग्रवाल का
तो वो
आज भी
दीवाना है|
‘बीते
हुए दिन’
के पाठक
अक्सर मुझसे
सवाल करते
थे कि
अनिरूद्ध अग्रवाल
आजकल कहां
हैं? मेरे
मन में
भी उनके
बारे में
जानने की
उत्सुकता थी
जो इन
सवालों से
लगातार बढ़ती
जा रही
थी| पिछले
14-15 सालों से
वो न
तो छोटे-बड़े
परदे पर
नज़र आए
थे और
न ही
उनके बारे
में कहीं
कुछ पढ़ने-सुनने
को मिला
था| फिल्मों
से जुड़े
लोगों से
पूछताछ करने
पर कई
तरह की
विरोधाभासी सूचनाएं
मिलीं| कुछ
लोगों का
कहना था
कि वो
मुम्बई छोड़कर
चले गए
हैं| उसी
दौरान ये
भी पता
चला कि
वो देहरादून
के रहने
वाले थे|
कुछ लोगों
ने कहा
कि वो
देहरादून में
रहकर बिजनेस
कर रहे
हैं| थोड़ी
और छानबीन
करने पर
पता चला
कि वो
मूल रूप
से राजपुर
के रहने
वाले थे|
देहरादून से
7 किलोमीटर दूर
मसूरी रोड
पर स्थित
राजपुर एक
छोटा सा
क़स्बा है
जहां से
मसूरी का
पहाड़ शुरू
होता है|
देहरादून की
मुख्य सड़क
राजपुर रोड
इसी क़स्बे
के नाम
पर है|
चौंकाने वाली
एक सूचना
ये भी
मिली कि
अनिरूद्ध अग्रवाल
कुछ साल
पहले गुज़र
चुके हैं|
देहरादून
में, जो
मेरा भी
पैतृक शहर
है, मैंने
लोगों से
अनिरूद्ध अग्रवाल
के बारे
में जानकारी
हासिल करनी
चाही| लेकिन
मेरी तमाम
कोशिशें नाकाम
रहीं| उनके
बारे में
किसी को
भी पता
नहीं था|
रामसे की
फिल्मों से
तो सभी
लोग उन्हें
पहचानते थे
लेकिन ये
बात राजपुर
के लोगों
को भी
पता नहीं
थी कि
अनिरूद्ध अग्रवाल
उनके अपने
कस्बे के
रहने वाले
हैं| हर
तरफ से
निराशा हाथ
लग रही
थी| ऐसे
में धीरे
धीरे इस
मुद्दे को
मैं भूल
ही गया|
लेकिन अचानक
एक रोज़
एक करिश्मा
सा हुआ|
दरअसल
अभिनेत्री रीता
भादुड़ी के
निधन के
बाद उनके
बारे में
जानकारियां जुटाने
की कोशिशों
के तहत
एक रोज़
मैंने
‘सिने एंड
टी.वी.आर्टिस्ट्स
एसोसिएशन
(सिंटा)’
के ऑफिस
में फोन
किया जिसका
मैं आजीवन
सदस्य हूं|
ऑफिसकर्मी सुश्री
श्वेता आयरे
से रीता
जी के
सम्बन्ध में
जानकारी हासिल
करते समय
एकाएक मन
में सवाल
उठा कि
अनिरूद्ध अग्रवाल
के बारे
में मैंने
आजतक
‘सिंटा’
से तो
संपर्क किया
ही नहीं!
और मेरे
पूछते ही
श्वेता ने
तुरंत अनिरूद्ध
अग्रवाल का
मोबाइल नंबर
मुझे दे
दिया|
जिन
अनिरूद्ध को
1700 किलोमीटर दूर
देहरादून तक
में ढूंढ
आया था
वो मुझे
मुम्बई में
ही मिल
गए| देहरादून
का नाम
सुनते ही
उनकी आवाज़
की गर्मजोशी
और भी
बढ़ गयी|
मिलने का
दिन और
समय तय
हुआ तो
उत्साहित होकर
मैंने उनसे
होने वाली
मुलाक़ात के
विषय में
फेसबुक पर
एक पोस्ट
डाल दी|
और उसी
शाम मुझे
जानेमाने क्राइम
रिपोर्टर और
‘मुम्भाई’,
‘खेल खल्लास’
और
‘बॉम्बे बार’
जैसी किताबों
के लेखक
विवेक अग्रवाल
का फोन
आ गया|
उन्होंने पूछा,
‘अनिरूद्ध अग्रवाल
का असली
नाम क्या
है?’...‘ये
असली नाम
ही है|’
– मैंने जवाब
दिया| ‘लेकिन
जिसने
‘पुराना मंदिर’
में शैतान
का रोल
किया था
वो तो
अंडरवर्ल्ड का
आदमी था?’
और इसके
आगे जो
कुछ उन्होंने
कहा उसका
लब्बोलुआब ये
है कि
उस आदमी
का नाम
मोहम्मद इक़बाल
शेख था,
लम्बेचौड़े शरीर
की वजह
से उसे
फ़िल्म
‘पुराना मंदिर’
में शैतान
का रोल
दिया गया
था, अंडरवर्ल्ड
में उसे
‘पुराना मंदिर’
के नाम
से जाना
जाता था
और वो
कुछ साल
पहले पुलिस
एनकाउंटर में
मारा जा
चुका है|
वो आमिर
खान की
फिल्म
‘मेला’
में भी
था| विवेक
के अनुसार
ये तमाम
जानकारी उन्हें
पुलिस विभाग
से मिली
थी और
इसका ज़िक्र
वो अपनी
किताब
‘खेल खल्लास’
में भी
कर चुके
हैं|
‘लेकिन ‘पुराना मंदिर’ और ‘मेला’ में तो अनिरुद्ध अग्रवाल थे?’ - मेरे मन में सवाल उठा| विवेक से बात करते करते मैंने ‘आई.एम.डी.बी.’ और अपने संग्रह में उपलब्ध पुस्तकों में क्रॉसचेक किया लेकिन कहीं भी मोहम्मद इक़बाल शेख का नाम नहीं दिखा| अलबत्ता दोनों ही फिल्मों की कास्ट में अनिरुद्ध अग्रवाल का नाम ज़रूर मौजूद था|
मामला
बेहद पेचीदा
था| विवेक
अंडरवर्ल्ड और
फिल्मी दुनिया
के हमेशा
से चले
आ रहे
रिश्तों के
अलावा पुलिस
से मिली
जानकारी पर
अड़े हुए
थे| उनका
ये भी
कहना था
कि फ़िल्मी
दुनिया हो
या अंडरवर्ल्ड,
दोनों ही
जगह नाम
बदलने का
चलन हमेशा
से ही
रहा है|
ऐसे में
अनिरुद्ध अग्रवाल
के नाम
को लेकर
मेरा भी
आत्मविश्वास डगमगाने
लगा था|
मोहम्मद इक़बाल
शेख का
एनकाउंटर में
मारा जाना
और अनिरुद्ध
अग्रवाल का
आज भी
हमारे बीच
होना जैसी
बातों ने
मुझे और
भी उलझाकर
रख दिया|
आखिर में
हमारी बात
इस नोट
पर ख़त्म
हुई कि
मैं अनिरुद्ध
अग्रवाल से
इस मुद्दे
पर बेझिझक
बात करूंगा
और इंटरव्यू
के तुरंत
बाद तमाम
सम्बंधित सूचनाएं
विवेक को
दूंगा|
इस
उलझन से
निकलने का
और कोई
और रास्ता
भी नहीं
था मेरे
पास|
रविवार
28 जुलाई ’18 की शाम
अनिरुद्ध अग्रवाल
से मेरी
मुलाक़ात हुई|
वो अंधेरी
(पश्चिम)
में एस.वी.रोड
पर शॉपर्स
स्टॉप के
पास रहते
हैं| हमारे
बीच कुछ
देर अनौपचारिक
बातचीत होती
रही जिसका
केंद्र स्वाभाविक
तौर पर
देहरादून था|
मुझे पता
चला वो
राजपुर नहीं
बल्कि विकासनगर
के रहने
वाले हैं
जो देहरादून
शहर से
क़रीब 40 किलोमीटर दूर
यमुना के
किनारे, ज़िले
की पश्चिमी
सीमा पर
स्थित है|
यमुना के
उस पार
हिमाचल है|
उस
अनौपचारिक बातचीत
के दौरान
जैसे ही
मैंने मोहम्मद
इक़बाल शेख
का जिक्र
किया, उन्होंने
इस वाक्य
के साथ
कि
‘हां, वो
अंडरवर्ल्ड का
आदमी था’,
ख़ुद ही
वो तमाम
बातें कह
दीं जो
विवेक अग्रवाल
ने मुझे
बताई थीं|
साथ ही
उन्होंने न
सिर्फ मोहम्मद
इक़बाल शेख
को अंडरवर्ल्ड
में
‘पुराना मंदिर’
कहे जाने
की वजह
बताई बल्कि
अपनी मृत्यु
की झूठी
ख़बर की
वजह का
भी खुलासा
कर दिया|
यानि वो
ऐसी तमाम
ख़बरों और
अफ़वाहों से
वाकिफ़ थे|
अनिरुद्ध
जी का
जन्म 20 दिसंबर 1949 को विकासनगर
में हुआ
था| पिता
का विकासनगर
के पहाड़ी
बाज़ार में
चकरौता और
आसपास के
पहाड़ी इलाक़ों
में पैदा
होने वाले
आलू, राजमा
इत्यादि की
आढ़त का
व्यवसाय था
और घर
सिनेमा रोड
पर था|
5 भाई
और 5 बहनों में
अनिरुद्ध आठवें
नंबर पर
थे| उनसे
छोटी दो
बहनें थीं|
साल 1967 में विकासनगर
के आसाराम
इंटर कॉलेज
से 12वीं
पास करने
के बाद
उन्होंने देहरादून
के श्री
गुरु रामराय
(एस.जी.आर.आर.)
कॉलेज में
बी.एस.सी.
में दाखिला
ले लिया|
चूंकि हर
रोज़ घर
से कॉलेज
40 किलोमीटर जाना
और आना
संभव नहीं
था इसलिए
अनिरुद्ध जी
देहरादून में
ही रहने
लगे|
अनिरुद्ध
जी कहते
हैं, “वो
मेरी ज़िंदगी
का टर्निंग
पॉइंट था|
मैंने कॉलेज
में नेतागिरी
शुरू कर
दी| देहरादून
के लक्ष्मण
चौक में
पिताजी के
मामा की
बड़ी सी
कोठी में
रहता था|
वहां से
कॉलेज भी
ज़्यादा दूर
नहीं था|
परिवार में
सबकी तरह
मेरा भी
क़द 6 फुट पार
कर चुका
था| किसी
तरह की
कोई कमी
थी नहीं
सो तौर
तरीक़े स्टाइलों
वाले थे|
ऐसे में
सब लोग
मुझे रॉयल
फैमिली का
समझते थे|
उन्हीं दिनों
फिल्म
‘विश्वास’
की शूटिंग
के लिए
जीतेंद्र और
अपर्णा सेन
देहरादून आए|
वो लोग
क्वालिटी होटल
में रुके
हुए थे|
उनकी झलक
पाने के
लिए होटल
पहुंचा तो
देखा वहां
पूरा शहर
उमड़ा हुआ
है| मुझे
लगा, मैं
भी ऐसा
कुछ करूं
कि इसी
तरह मुझे
भी पब्लिक
देखने आए|”
देहरादून
में अनिरुद्ध
जी ने
सिर्फ़ एक
ही साल
पढ़ाई की|
1968 में उनका
सेलेक्शन
‘रूड़की इंजीनियरिंग
कॉलेज’
में हो
गया जो
अब रूड़की
आई.आई.टी.
कहलाता है|
अनिरूद्ध जी
बताते हैं,
“स्कूल में
मैं नाटकों
में भाग
लेता था|
यही सब
मैंने रूड़की
कॉलेज में
भी शुरू
कर दिया|
पढ़ाई-लिखाई
से ज़्यादा
ऐसा कुछ
करने की
धुन सवार
थी कि
मैं भी
लोगों के
लिए आकर्षण
का केंद्र
बनूं| नतीजतन
इंजीनियरिंग में
पहले साल
तो पास
हो गया
लेकिन दूसरे
साल में
सप्लीमेंट्री आ
गयी| कुछ
समझ ही
नहीं आया
क्या करूं|
मैंने कॉलेज
से इस
आधार पर
कि आगे
पढ़ने के
लिए पैसा
कमाना है,
एक साल
की छुट्टी
ले ली|
और फिर
घर में
बिना कुछ
बताए साल
1969 के अंत
में मैं
मुम्बई चला
आया|”
अभिनेता
के.एन.सिंह
जो देहरादून
के ही
थे, अग्रवाल
परिवार के
परिचित थे|
अनिरुद्ध जी
दादर स्टेशन
पर उतरे
और लोगों
से पूछ-पूछकर
के.एन.सिंह
के घर
माटुंगा पहुंच
गए| उन्होंने
2-3 दिन के.एन.सिंह
के घर
पर बिताए
और फिर
अपने भाई
के एक
दोस्त के
घर अंधेरी
पहुंच गए|
भाई के
वो दोस्त
सहारनपुर के
रहने वाले
थे और
मुम्बई में
एम.टी.एन.एल.
में नौकरी
करते थे|
अनिरुद्ध जी
बताते हैं,
“उन्होंने विकासनगर
फोन करके
भाईसाहब को
बता दिया
कि मैं
मुम्बई में
उनके घर
पर हूं|
घरवालों को,
जो मेरी
तलाश में
थे, ये
सुनकर बहुत
झटका लगा|
उन्हें ये
भी पता
नहीं था
कि मैं
फेल हो
चुका हूं|
भाईसाहब ने
अपने दोस्त
से कह
दिया कि
वो मुझे
इसी वक़्त
घर से
निकाल दें|
लेकिन उन्होंने
मुझे बहुत
स्नेह और
अपनेपन से
अपने घर
पर रखा|
लेकिन क़रीब
3 महीने बाद
उन्हें कहना
ही पड़ा
कि अब
मैं अपना
इंतज़ाम कहीं
और कर
लूं|”
भाई के दोस्त के घर से निकलने के बाद अनिरुद्ध जी सान्ताक्रुज़ के एक गेस्ट हाउस में रहने लगे| उनके मुताबिक़ वो उनकी ज़िंदगी का सबसे बुरा दौर था| उनके पास खाने तक का पैसा नहीं था| कई कई दिन भूखे रहना पड़ता था| उधर किराया न मिलने की वजह से गेस्ट हाउस का मालिक रोज़-रोज़ झगड़ा करने लगा| वो बताते हैं, “क़रीब ढाई महीने बाद मुझे गेस्ट हाउस छोड़ देना पड़ा| घर जा नहीं जा सकता था| ऐसे में स्टेशनों पर रहने लगा| हालात बद से बदतर होते जा रहे थे| अचानक एक रोज़ ख़ार स्टेशन पर रूड़की कॉलेज के एक परिचित तपोधन स्वामी शर्मा मिल गए| वो मुझसे 3 साल सीनियर थे और कॉलेज से पास आउट हो चुके थे| वो अपने क़रीबी रिश्तेदार, मशहूर लेखक पंडित मुखराम शर्मा के ख़ार स्थित घर पर रुके हुए थे| मुझे देखते ही वो समझ गए कि मेरी हालत डावांडोल है| उन्होंने मेरा टिकट कटाया और अपने साथ वापस ले गए| मेरठ में उतरे, अपने घर ले जाकर नहलाया-धुलाया और फिर विकासनगर भेज दिया| ये 1970 के शुरू का वाकया है|”
फ़िल्मी
दुनिया को
लेकर अनिरुद्ध
जी का
आकर्षण बढ़ता
ही जा
रहा था|
उन्होंने पूना
फिल्म इंस्टिट्यूट
में दाखिला
लेने का
फैसला किया|
आवेदन भेजा,
इंटरव्यू के
लिए 1970 के मध्य
में मुम्बई
पहुंचे, ऑडिशन
दिया और
उनका सेलेक्शन
भी हो
गया| अनिरुद्ध
जी के
अनुसार मिथुन
चक्रवर्ती भी
इंटरव्यू के
लिए आए
हुए थे,
उनसे मुलाक़ात
हुई जो
दोस्ती में
बदल गयी|
उधर फाइनल
इयर के
छात्र प्रेमेन्द्र
इंटरव्यू लेने
वालों में
शामिल थे|
आगे चलकर
वो भी
अच्छे दोस्त
बन गए|
(प्रेमेन्द्र
का पूरा
नाम प्रेमेन्द्र
पाराशर था|
उन्होंने 1970 की फिल्म
‘होली आई
रे’
से बतौर
हीरो करियर
शुरू किया
था| इस
फिल्म में
उनके अपोज़िट
माला सिन्हा
थीं| उसी
साल उनकी
‘दीदार’
भी प्रदर्शित
हुई| 1971 में
‘दुनिया क्या
जाने’
और रेखा
के अपोज़िट
‘साज़ और
सनम’
बनीं| ‘साज़
और सनम’
‘वाडिया मूवीटोन’
के बैनर
की आख़िरी
हिन्दी फ़िल्म
थी| प्रेमेन्द्र
का करियर
ज़्यादा नहीं
चल पाया|
उन्होंने मुम्बई
में कुछ
साल शैंडलेयर्स
/ बिजली के
झूमर का
बिजनेस किया|
फिर वो
अपने पैतृक
शहर फ़तेहपुर
सीकरी वापस
लौट गए
जहां उनके
परिवार की
काफ़ी ज़मीन
जायदाद थी|
अब वो
फ़तेहपुर सीकरी
में रहते
हैं और
अपनी ज़मीन
जायदाद की
देखभाल करते
हैं|)
अनिरुद्ध
जी को
उनके घरवालों
ने साफ़
साफ़ कह
दिया कि
इंजीनियरिंग की
पढ़ाई पूरी
करो, किसी
और काम
के लिए
घर से
एक भी
पैसा नहीं
मिलेगा| मजबूरन
उन्हें रूड़की
जाना पड़ा|
1971 में सेकण्ड
इयर में
दाखिला लेकर
उन्होंने अपनी
छोड़ी हुई
पढ़ाई फिर
से शुरू
की| अनिरुद्ध
जी बताते
हैं, “मैंने
पूरा ध्यान
पढ़ाई में
लगा दिया|
1972 में सेकण्ड
इयर, 73 में थर्ड
और 74 में फाइनल
इयर करके
मैंने सिविल
इंजीनियरिंग में
डिग्री हासिल
कर ली|
लेकिन उस
दौरान मैंने
कॉलेज में
स्ट्राइक भी
करवा दी
थी जिसकी
वजह से
डिसिप्लीन में
मुझे जीरो
मिला था|
अब डर
ये था
कि मुझे
कहीं नौकरी
नहीं मिलेगी
सो मैंने
फिर से
मुम्बई का
रूख कर
लिया|”
मुंबई
में अनिरुद्ध
जी कॉलेज
के अपने
एक दोस्त
के घर
पर रुके|
वो अनिरुद्ध
जी से
2 साल सीनियर
और कॉलेज
के टॉपर
थे| मुम्बई
में वो
आई.बी.एम.
कंपनी में
काम करते
थे| जल्द
ही अनिरुद्ध
जी को
भी
‘फाउंडेशन कॉर्पोरेशन
ऑफ़ इंडिया’
नाम की
पाइलिंग कंपनी
में नौकरी
मिल गयी|
अनिरुद्ध जी
बताते हैं,
“मैं बिल्डर्स
के साथ
काम करने
लगा, जिनमें
ज़्यादातर दो
नंबर के
लोग थे|
1974-75 में दुबई
में बहुत
डेवलपमेंट हो
रहा था|
हमारे बिल्डर
मुझे भी
दुबई भेजने
लगे| मुझे
कुछ पता
ही नहीं
था दुबई
कहां है,
वहां का
माहौल कैसा
है| ऊपर
से सब
दो नम्बरी,
मैं डर
गया| मैंने
मुम्बई में
ही रहकर
काम करना
बेहतर समझा|
तब तक
फिल्मों का
भूत भी
पूरी तरह
सर से
उतर चुका
था|”
अनिरुद्ध
जी की
ज़िंदगी काफ़ी
हद तक
व्यवस्थित हो
चुकी थी|
आमदनी अच्छी-ख़ासी
थी| साल
1978 में उनकी
शादी भी
हो गयी|
वो बताते
हैं, “मेरी
लम्बाई 6 फ़ुट 4 इंच थी|
व्यक्तित्व आकर्षक
था| लेकिन
अचानक एक
रोज़ महसूस
हुआ, लोग
मुझे देखकर
डरने लगे
हैं| पहले
तो कुछ
समझ ही
नहीं आया
बात क्या
है| फिर
गौर किया
तो पता
चला मेरा
चेहरा-मोहरा,
हाथ-पांव
असामान्य और
अनुपात से
बाहर होते
जा रहे
हैं| नाक
और ठुड्डी
बढ़कर आगे
को निकल
आए थे|
हथेलियां, पैरों
के पंजे,
उंगलियां, कान
इत्यादि का
आकार भी
बढ़ गया
था| डॉक्टरी
जांच में
पता चला,
शायद लगातार
धूलमिट्टी में
रहने के
कारण मेरी
पिट्यूटरी ग्लैंड
में ट्यूमर
हो गया
है| ये
साल 1980 का वाकया
है|”
(पिट्यूटरी
ग्लैंड, जिसे
हिन्दी में
पीयूष ग्रंथि
कहा जाता
है, हमारे
दिमाग की
जड़ में
स्थित होती
है| मटर
के दाने
के आकार
की इस
ग्रंथि को
शरीर में
मौजूद तमाम
अन्य ग्रंथियों
की नियंत्रक
माना जाता
है| इसमें
से निकलने
वाले हारमोंस
खून के
ज़रिये पूरे
शरीर में
फैलकर हमारी
कई शारीरिक
प्रक्रियाओं और
अन्य ग्रंथियों
को निर्देशित
और उनसे
निकलने वाले
हारमोंस को
नियंत्रित करते
हैं| पिट्यूटरी
ग्लैंड में
आयी ख़राबी
से उन
ग्रंथियों से
हारमोंस का
स्राव अनियंत्रित
हो जाता
है| ये
अनियंत्रित स्राव
ही अनिरुद्ध
जी के
शरीर पर
अपना असर
दिखा रहा
था| https://www.hormone.org/diseases-and-conditions/pituitary)
अनिरुद्ध
जी बताते
हैं, “एक
रोज़ मुझे
एक आदमी
मिला| कहने
लगा, फ़िल्म
में काम
करोगे? और
मेरी तमन्नाएं
फिर से
जाग उठीं|
उसके कहने
पर मैं
रामसे ब्रदर्स
के ऑफिस
में पहुंचा
तो मुझे
देखते ही
वो सभी
5-6 भाई खुशी
से उछल
पड़े, ‘मिल
गया, जो
चाहिए था
वो मिल
गया!’
दरअसल उनकी
फिल्म
‘पुराना मंदिर’
शूट हो
चुकी थी|
सिर्फ़ उसका
‘शैतान’
वाला हिस्सा
बाक़ी था
जिसके लिए
उन्हें कोई
आर्टिस्ट मिल
ही नहीं
रहा था|
उनकी वो
तलाश मुझे
देखते ही
पूरी हो
गयी| उन्हें
साक्षात भूत
मिल चुका
था| ‘पुराना
मंदिर’
1984 में रिलीज़
हुई और
ब्लॉकबस्टर साबित
हुई| आगे
चलकर मैंने
रामसे की
दो और
बड़ी फ़िल्मों
‘सामरी’
और
‘बंद दरवाज़ा’
में शैतान
का रोल
किया|”
अनिरुद्ध
जी ने
1982 में नौकरी
छोड़कर कंस्ट्रक्शन
का काम
शुरू कर
दिया था|
साथ ही
वो बिल्डिंग
के कॉन्ट्रैक्ट
भी लेने
लगे थे|
वो कहते
हैं, “मैं
दो नावों
की सवारी
कर रहा
था| मेरा
बिज़नेस अच्छा
चल रहा
था| उधर
मौक़ा मिलते
ही फ़िल्में
भी कर
लेता था|
मैंने क़रीब
40-45 फ़िल्में की
होंगी जिनमें
रामसे की
3 फ़िल्मों के
अलावा
‘बैंडिट क्वीन’
उल्लेखनीय है|
उस फ़िल्म
में मैंने बाबू
गूजर का
रोल किया
था| उसी
दौरान हॉलीवुड
की फिल्म
‘जंगल बुक’
भी की
जिसके लिए
3 महीने मुझे
अमेरिका में
रहना पड़ा|
वहां मेरे
लिए कई
और भी
ऑफ़र्स थीं|
लेकिन उस
वक़्त मेरे
बच्चों की
उम्र करियर
बनाने की
थी इसलिए
मुझे भारत
वापस आना
पड़ा| ‘जंगल
बुक’
1994 में रिलीज़
हुई थी|
उससे पहले
ज़ी टी.वी.
के 1993 में प्रदर्शित
सुपरहिट
‘ज़ी हॉरर
शो’
ने मुझे
घर घर तक
पहुंचा दिया
था|”
अनिरुद्ध
जी के
बेटे असीम
ने 2006 की हिन्दी
फिल्म
‘फाइट क्लब’
में और
बेटी कपिला
ने 2005 की
‘बंटी और
बबली’
में काम
किया था|
असीम ने
एम.बी.ए.
किया और
फिर एक
एन.आर.आई.
लड़की से
शादी करके
अमेरिका चले
गए| कपिला
इंजीनियरिंग करने
के बाद
एम.बी.ए.
की पढ़ाई
के लिए
अमेरिका गयीं
तो वो
भी अमेरिका
में रहने
वाले एक
भारतीय लड़के
से शादी
करके वहीं
बस गयीं|
अब घर
में अनिरुद्ध
अग्रवाल और
उनकी पत्नी
हैं|
अनिरुद्ध
अग्रवाल बताते
हैं, “साल
2000 में रिलीज़
हुई फिल्म
‘मेला’
के बाद
मैंने
‘भाभा एटोमिक
रिसर्च सेंटर-बी.ए.आर.सी.’
में सिविल
कांट्रेक्टर का
काम शुरू
कर दिया|
उस दौरान
2 फ़िल्में
‘तलाश’
और
‘बॉम्बे टु
गोवा’
ज़रूर कीं
जो मेरी
अब तक
की आख़िरी
फ़िल्में हैं|
इसके बावजूद
2010 तक मैं
बी.ए.आर.सी.
के काम
में इतना
व्यस्त रहा
कि फ़िल्मी
दुनिया से
मेरा संपर्क
ख़त्म ही
हो गया|”
1990 में
हुए ऑपरेशन
में ट्यूमर
के साथ
ही अनिरुद्ध
जी की
पिट्यूटरी ग्लैंड
का काफ़ी
बड़ा हिस्सा
निकाल दिया
गया था|
इससे उनके
शरीर पर
पड़ रहा
दुष्प्रभाव रुक
गया था|
फिल्मों में
उन्होंने अपना
करियर
‘अजय अग्रवाल’
के स्क्रीन
नेम से
शुरू किया
था क्योंकि
‘अनिरुद्ध’
नाम उन्हें
थोड़ा मुश्किल
लगता था|
लेकिन दोस्तों
के समझाने
पर कि
‘अनिरुद्ध’
अच्छा नाम
है, वो
अपने असली
नाम से
काम करने
लगे| अनिरुद्ध
जी के
परिवार को
विकासनगर के
रसूखदार और
ख़ानदानी लोगों
में गिना
जाता है|
विकासनगर की
नगरपालिका के
चेयरमैन की
कुर्सी हमेशा
से उनके
परिवार के
पास रही|
उनके बड़े
भाई चंदनलाल
अग्रवाल जो
इस समय
90 साल के
हैं, अटलबिहारी
वाजपेयी के
क़रीबी दोस्त
और सहयोगी
थे| वो
कई साल
नगरपालिका के
चेयरमैन रहे|
वर्त्तमान में
उस कुर्सी
पर अनिरुद्ध
जी के
भतीजे नीरज
अग्रवाल काबिज़
हैं| विकासनगर
का पुराना
नाम चोहड़पुर
था जिसे
अग्रवाल परिवार
की पहल
पर ही
बदला गया
था|
अपने
बारे में
फ़ैली अफ़वाहों
को लेकर
अनिरुद्ध अग्रवाल
का कहना
है, “मेरे
बाद दो
और आर्टिस्ट
गोरिल्ला और
रंधीर फिल्मों
में आए|
उन दोनों
को भी
मुझ जैसी
ही बीमारी
थी जिससे
उनकी भी
शक्लें और
हाथ-पांव
बिगड़ गए
थे| ऐसे
में हम
तीनों एक
जैसे लगने
लगे थे|
रामसे की
1988 में बनी
फ़िल्म
‘वीराना’
में गोरिल्ला
ने काम
किया था|
लेकिन लोग
समझते हैं
कि वो
मैं था|
शायद यही
वजह थी
कि उनके
गुज़रने पर
आम लोगों
के बीच
मेरी मृत्यु
की ख़बरें
उड़ गयी
थीं| कुछ
सालों बाद
रंधीर भी
गुज़र गए|
बिहार के
रहने वाले
रंधीर सिंह
ने
‘लोहा’,
‘त्रिदेव’,
‘जादूगर’
और
‘चीख’
जैसी कुछ
फिल्मों में
काम किया
था|”
(फिल्मों
से जुड़े
लोगों से
बातचीत और
थोड़ी-बहुत
रिसर्च के
बाद पता
चला, गोरिल्ला
हरियाणा के
रहने वाले
थे और
उनका असली
नाम आर.एस.मालिक
था| वो
1995 में गैंगरीन
की वजह
से गुज़रे
थे| उन
दिनों वो
सुभाष घई
की फिल्म
‘त्रिमूर्ति’
में काम
कर रहे
थे| उनके
गुजरने के
बाद
‘त्रिमूर्ति’
में उनकी
जगह अनिरुद्ध
जी को
ले लिया
गया था|)
अनिरुद्ध
अग्रवाल के
अनुसार अंडरवर्ल्ड
के
‘पुराना मंदिर’
यानि मोहम्मद
इक़बाल शेख
के साथ
भी यही
हुआ था|
वो भी
शायद इसी
बीमारी से
पीड़ित था|
अनिरुद्ध जी
से मिलती
जुलती शक्लोसूरत
का होने
की वजह
से अंडरवर्ल्ड
में उसे
‘पुराना मंदिर’
कहा जाने
लगा था|
धीरे धीरे
ये धारणा
बनती चली
गयी कि
मोहम्मद इक़बाल
शेख ने
ही
‘पुराना मंदिर’
में शैतान
का रोल
किया था|
और फिर
‘मेला’
का नाम
भी उसके
साथ अपने
आप ही
जुड़ गया|
ऐसे में
ये तमाम
बातें पुलिस
रिकॉर्ड में
दर्ज होकर
विवेक अग्रवाल
तक पहुंच
गयीं|
इंटरव्यू
ख़त्म करके
बाहर निकलते
ही मैंने
अपने वादे
पर अमल
करते हुए,
फोन करके
विवेक अग्रवाल
को ये
तमाम बातें
बता दीं!
We are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Aksher Apoorva, Mr. Gajendra Khanna & Ms. Maitri Manthan for the English
translation of the write ups.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video
editing.
Aniruddh Agrawal on YT Channel BHD
“Purana Mandir” – Anirudh Agarwal
........Shishir Krishna Sharma
The movie ‘Mahal’ on its release in 1949, had kick started the genre of mystery-thrillers. ‘Madhumati’ in the 1950s with ‘Bees Saal Baad’ and ‘Who Kaun Thi’ in the 1960s were the popular films in this genre. During the 1970s, a newer dimension in the form of Horror films was added to the genre. The mysterious common faces of the earlier decades were now replaced by rotting corpses, grotesque faces, devilish forces and terrifying demonic characters. ‘Ramsay Brothers’ had introduced such elements in their 1972, ‘Do Gaz Zameen Ke Neeche’. This movie made on a small budget did so well at the box office that ‘Ramsay Brothers’ were inspired to make more Horror films. For the next twenty years, they made many successive hit films of the genre creating a new audience for them. Viewers of that audience are now nearing the bracket of senior citizens, but they have not forgotten their love for the films made by Ramsay Brothers. In particular, they are still avid fans of the actor Anirudh Agarwal who had played demonic characters in films like ‘Purana Mandir’, ‘Samri’ and ‘Band Darwaza’.
The readers of ‘Beete Hue Din’ often used to enquire about
the current whereabouts of Anirudh Agarwal. My curiosity to know more about him
was also on the rise continuously. In the last 14-15 years, he was neither seen
on the cine screen nor on television. I did not come across anything written on
him and there was no news heard as well. My inquiries regarding him with film
folk gave me contradictory news. Few people said that he has left Mumbai for
good. I also came to know that he was originally a resident of Dehradun. Some
people claimed that he was doing Business now in Dehradun. Further inquiries
informed me that he was originally a resident of Rajpur. Rajpur is a small
community, 7 kilometers away from Dehradun on Mussoorie Road from where the
mountains of Mussoorie start. Dehradun’s main road Rajpur Road is named after
this area. Another shocking information was that Anirudh Agarwal had passed
away a few years back.
Dehradun is my hometown too. I tried to obtain information
about him there, but my efforts did not lead to any useful information. Nobody
seemed to know about him. Everyone knew him from Ramsay movies but even the
people of Rajpur did not know that he was a resident of their area. It was
quite disappointing, and I was slowly abandoning this search when one day, a
miracle presented itself.
Actually, after the death of Actress Rita Bhaduri, when I
was trying to obtain information on her, I called the office of the Cine and TV
Artists Association (CINTAA) of which I am a life member. When I was taking
information about Rita Bhaduri from their office’s Ms.Shweta Aayre, I realized
that I had never asked CINTAA about Anirudh Agarwal and on my taking his name,
Shweta gave me his mobile number on the spot!
In this way, the Anirudha I had been searching for 1700 km
away in Dehradun was located by me here in Mumbai itself. The warmth in his
voice multiplied when I took the name of Dehra Dun. Once the day and time of
the interview was fixed, in my enthusiasm I posted about it on Facebook too.
That very evening, Author Vivek Agarwal, a well known crime reporter who has
written books like ‘Mumbhai’, ‘Khel Khallas’ and ‘Bombay Bar’ called me. He
asked me, “What’s the real name of Anirudh Agarwal?”. I replied, “This is his
real name.” He exclaimed, “But the actor who played the demon’s role in ‘Purana
Mandir’ belonged to the underworld!”. The summary of what he told me was that
his real name was Mohammad Iqbal Sheikh who had been chosen for the Demon’s
role in ‘Purana Mandir’ due to his big build and was called as ‘Purana Mandir’
in the Underworld, had been killed in a police encounter few years back. He had acted in Aamir Khan’s movie ‘Mela’
also. According to Vivek, he had got this information from the Police
Department and he had shared this information in his book ‘Khel Khallaas’ as
well.
My mind kept contradicting, “but it was Anirudh Agarwal who
acted in Purana Mandir and Mela!” While talking to Vivek, I tried to crosscheck
on IMDB as well as the reference books in my collection, but I did not find the
name of Mohammad Iqbal Sheikh anywhere. The cast of both films did mention the
name of Anirudh Agarwal, however. The case was quite complicated. Vivek was
insisting on the correctness of the relationship between underworld and the
film world as well as the Police information. He said that it was a common
practice in both underworld and film world to change names. In this scenario,
my confidence in the name of Anirudh Agarwal was getting shaken as well. On one
hand Mohammad Iqbal Sheikh had been killed in a police encounter and on the
other, Anirudh Agarwal was amongst us. This was quite puzzling for me. Our
conversation ended on the note that I would talk to Anirudh about this in
detail and would share the results of the conversation with Vivek. There was no
other method to resolve this confusion.
I met Anirudh Agarwal one Sunday evening on 28th July 2018.
He stays near the Shoppers Stop on S V Road in Andheri (West). Our initial
informal discussion naturally revolved around Dehra Dun. I came to know that he
belongs to Vikas Nagar (and not Rajpur) which is nearly 40 kms from Dehradun
city at its western border on the banks of river Yamuna. On the other side of
Yamuna there, starts the Himachal Pradesh.
During the informal discussion, when I mentioned the name of
Mohammad Iqbal Sheikh, he simply said, “He was a part of the Underworld” and narrated
the same things that Vivek Agarwal had told me. He not only told me why
Mohammad Iqbal Sheikh was called Purana Mandir but also about the false news of
his own death. He was already aware of this news and rumours.
Anirudh ji was born on 20th December 1949 at Vikas Nagar.
His father was a businessman in Vikas Nagar’s Pahadi Bazaar and was a dealer of
potatoes, Rajma etc which used to grow in Chakrata and other neighbouring hilly
areas. His house was on Cinema Road. They were 5 brothers and 5 sisters of whom
Anirudh was the eighth one with both younger ones being sisters. After passing
out of 12th in 1967 from Vikas Nagar’s Asaram Inter College, he took admission
in Dehradun’s Shri Guru Ram Rai (SGRR) College in the B.Sc. course. Since his
house was 40 kilometers away from the college and daily travel was difficult,
Anirudh ji started staying in Dehradun itself.
Anirudh ji recalls, “That was the turning point of my life.
I got involved in college politics. I used to stay in my father’s maternal
uncle’s mansion in Dehradun’s Laxman Chowk which wasn’t very far from my
college. Like my other family members, my height had also exceeded 6 feet. I
was not wanting for anything and was stylish in everything. People used to
think that I belonged to a Royal family. At that time Jitendra and Aparna Sen
had come to Dehradun to shoot for their movie ‘Vishwas’. They were staying in
the Kwality Hotel. When I went to the Hotel to catch a glimpse of them, I found
the whole town there! I felt, I should also do something so that members of the
public come to see me too!”
Anirudh ji studied in Dehradun only for a year. In 1968, He
got selected for the ‘Roorkee Engineering College’ which is now known as IIT
Roorke. Anirudh ji recalls, “I used to take part in Dramas during my school. I
started doing it in Roorkee at the college too. I wanted to do something more
than studies so that I become a center of attraction among my compatriots. As a
result, though I successfully completed the first year, I got a supplementary
during the second year. I could not understand what I should do about it. I
applied leave for a year from college citing that I had to earn money for
further studies. Then without saying anything at home, I came to Mumbai towards
the end of 1969.”
Actor K N Singh belonged to Dehradun and was known to the
Agarwal family. Anirudh ji got off at Dadar Station and after inquiring with
many people reached K N Singh’s house in Matunga. He spent 2-3 days at K N
Singh’s house and then went to the house of one of his elder brother’s friends
in Andheri. That friend was from Saharanpur and used to work with MTNL at
Mumbai. Anirudh ji remembers, “He called up my brother in Vikas Nagar and
informed him that I was at his home. My family members who had been searching
for me were surprised by this news. They didn’t even know that I had failed. My
elder brother instructed his friend to kick me out of the house, but he kept me
there with lots of love and affection. However, after nearly three months he
asked me to make alternate residential arrangements.”
After that Anirudh ji started staying in a guesthouse at
Santacruz. According to him this was the worst phase of his life. He did not
even have enough money to eat. As a result, he had to go without eating for
many days. On the other hand, the owner of the guest house started fighting
daily for the unpaid dues. He reminisces, “Finally, I had to leave the guest
house after two and a half months. I could not go back home. Therefore, I
started staying at stations. My circumstances were becoming worse day by day.
Suddenly, one day, at Khar station, I came across one of my acquaintances from
Roorkee College, Tapodhan Swami Sharma. He was senior to me in college by 3
years and had passed out of college. He was residing at the Khar residence of
his close relative and famous writer Pandit Mukhram Sharma. As soon as he saw
me, he understood my dire circumstances. He bought a ticket for me and took me
back with him. We got off at Meerut, I bathed at his home and then he sent me
to Vikas Nagar. This happened in the beginning of 1970.”
Anirudh ji’s attraction towards the film world was
increasing day by day. He had decided to take admission at the Film Institute
in Pune. He sent an application, came to Mumbai to give an interview in mid-1970,
gave an audition which led to him being selected. According to Anirudh ji,
Mithun Chakravarty had also come for an interview and this meeting turned into
friendship. Premendra, a student of the final year was also among those taking
the interview. Premendra also became a good friend in the days to come.
(Premendra’s full name was Premendra Parasher. He had made
his debut as a hero in the 1970 film, ‘Holi Aayi Re’. Mala Sinha had starred
opposite him in that movie. The same year his movie ‘Deedar’ had also released.
During 1971, his movies ‘Duniya Na Jaane’ and ‘Saaz Aur Sanam’ in which Rekha
was opposite him released. ‘Saaz Aur Sanam’ was the last Hindi movie of the
banner ‘Wadia Movietone’. Premendra’s film career could not last long. For a
few years he did the business of Chandeliers in Mumbai. After that he went back
to his hometown Fatehpur Sikri where his family had a lot of property. Now he
stays in Fatehpur Sikri and takes care of his land and property.)
Anirudh ji’s family told him categorically that he must
complete his Engineering degree and that they would not give him a single paisa
if he tried to do anything else. As a result, he was forced to return to
Roorkee where he resumed his second year of engineering studies in 1971.
Anirudh ji told us, “I put all my efforts in studying now. After completing
second year in 1972, third year in 1973 and final year in 1974, I finally
graduated with a degree in Civil Engineering. However, as I had led a strike in
college, I got zero marks in discipline. I was afraid that I won’t get any job,
so I headed back to Mumbai.”
Anirudh ji stayed at the home of a friend from college in
Mumbai. He was two years senior to him and was the college topper. He was
working in Mumbai with the IBM company. Anirudh ji also got a job with a piling
company called ‘Foundation Corporation of India’ in Mumbai. He says, “I started
working with builders most of whom were involved in shady dealings. During
1974-75, there was a lot of development happening in Dubai and the builders wanted
to send me to Dubai too. I didn’t even know where Dubai was and how the
environment there would be. I was also afraid of the shady dealings I would
have to get into, and I was inclined towards working in Mumbai only. By then, I
was completely enamoured by the film industry.”
Anirudh ji’s life had become settled and he was earning
quite well. He had also got married in 1978. He recalls, “My height was 6 Feet
4 Inch and I had an attractive personality. Suddenly, I started feeling as if
people were becoming afraid on seeing me. Initially, I could not understand why
that was happening. On deep introspection I realized that my hands, feet and
facial features were becoming unnatural and larger in dimension. My nose and
chin had started to bulge out. The shape and size of my palms, feet, fingers
and ears also had become large. Medical examinations revealed that I had a
tumour in my pituitary gland. This happened in 1980.”
(Pituitary gland, which is called Piyush Granthi in Hindi is
situated at the root or base of our brain. It is the size of a pea and is
believed to control all the other glands of our body. The hormones released by
it in our blood stream are responsible for many of our bodily functions and
also control other glands and the hormones released by them. Any kind of
problem with the pituitary gland leads to an uncontrolled hormone flow which
had started showing its effects of Anirudh ji’s body. https://www.hormone.org/diseases-and-conditions/pituitary)
Anirudh ji recalls, “One day I met a man who inquired if I
wanted to work in films and my desires rose up again. On his suggestion, I went
to the Ramsay Brothers’ office. As soon as the 5-6 brothers saw me, they jumped
and exclaimed, “We have found who we were looking for!” Actually, their film ‘Purana Mandir’ had
already been shot. Only the scenes of the Demon or Shaitaan were yet to be shot
because they were unable to find the right actor for it. Their search for the
right actor ended with me. They had found a live ghost! ‘Purana Mandir’
released in 1984 and proved to be a blockbuster. I played the role of the devil
(demon) in two other big movies of the Ramsay Brothers, ‘Samri’ and ‘Band
Darwaza’.
Anirudh ji had left his job in 1982 and had started work in
the construction field. He was parallel taking contracts for buildings. He
says, “I was active in both fields and my business was doing well. Whenever I
would get an opportunity, I would act in films also. I have worked in 40-45
films, the prominent among which are the movies for Ramsay Brothers and ‘Bandit
Queen’. I had performed the role of Babu Gujjar in that movie. Around the same
time, I also worked in the Hollywood movie ‘Jungle Book’ for which I had to
stay in America for 3 months. I had got many more offers there. However, my
children were at an age where their career was more important, so I had to return
to India. ‘Jungle Book’ released in 1994. Before that, in 1993, the superhit TV
Serial, ‘Zee Horror Show’ had brought me to every household.”
Anirudh ji’s son Aseem had worked in the Hindi film ‘Fight
Club’ in 2006 while his daughter Kapila had worked in ‘Bunty Aur Babli’ in
1995. Aseem completed his MBA and went to America after marrying an NRI girl.
Kapila after completing her engineering, went to America for doing her MBA and
she also settled in America after marrying an Indian boy there. Now only
Anirudh Agarwal and his wife reside in Mumbai.
Anirudh ji told me, “After the 2000 release ‘Mela’ I started
working as a civil contractor for the Bhabha Atomic Research Center (BARC). I
did do two movies ‘Talaash’ and ‘Bombay To Goa’ which till date are the last
movies I have acted in. Till 2010, I was so busy with work at BARC that my
association with the film world almost got severed.”
In 1990, he had been operated for the tumour, during which a
large part of his pituitary gland was removed. This arrested the ill effects he
had been suffering from. He started his film career with the stage name ‘Ajay
Agarwal’ because he felt that Anirudh was a bit difficult. However, his friends
insisted that Anirudh was a good name and prevailed on him which led to him
using his real name in films. Anirudh ji’s family is a prominent family in Vikas Nagar. The post of the Municipality’s Chairman
has always remained with the family. His elder brother Chandanlal Agarwal who
is now 90 years old, is a close friend and associate of Atal Bihari Vajpayee.
He was the chairman for the municipality for many years. At present, the
municipality chairman is Anirudh ji’s nephew Neeraj Agarwal. Vikas Nagar, which
was earlier called ChohaDpur was renamed on the initiative taken by Agrawal
family only.
Regarding the various rumours about him, Anirudh Agarwal
clarifies, “After me, two more artists Gorilla and Randhir entered the film
industry. Both suffered from a similar condition to mine because of which their
faces, hands and feet were deformed. This made us all look like each other.
Gorilla had worked in the 1988 release ‘Veerana’ of the Ramsay Brothers but
people erroneously thought it was me. Perhaps this was the reason that when he
died, false rumours regarding my death started circulating. After few years
Randhir also passed away. Randhir Singh was from Bihar who had worked in movies
including ‘Loha’, ‘Tridev’, ‘Jadoogar’ and ‘Cheekh’.”
(After doing some research and talking to people involved
with the film world, I came to know that actor Gorilla belonged to Haryana and
his real name was R S Malik. He passed away in 1995 due to gangrene. At that
time, he was shooting for Subhash Ghai’s movie ‘Trimurti’. After his demise,
his part in the film was given to Anirudh ji.)
According to Anirudh Agarwal, the same thing happened to
underworld’s ‘Purana Mandir’, that is Mohammad Iqbal Sheikh who also probably
suffered from the same condition. Due to his similar face to Anirudh ji,
underworld people started calling him ‘Purana Mandir’ which led to the myth
that Mohammad Iqbal Sheikh had played the demonic role in ‘Purana Mandir’ and
he also got associated with the movie ‘Mela’. In such a scenario, these things
ended up in police records and reached Vivek Agarwal.
Soon after completing the interview, as promised, I called up Vivek Agarwal and shared the facts with him!