TRIBUTE TO HEMLATA ji
ON HER 61st BIRTH ANNIVERSARY
(16 AUGUST 2015)
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(BIRTH : 16 AUGUST 1954)
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“अंखियों के झरोखों से” – हेमलता
..........शिशिर कृष्ण शर्मा
महज़ 14 साल की उम्र में हिंदी फ़िल्मों में कदम रखने वाली गायिका हेमलता, लता-आशा के वर्चस्व को चुनौती देते हुए एक उत्कृष्ट पार्श्वगायिका के तौर पर अपनी सम्मानजनक पहचान बनाने में कामयाब हुई थीं। क़रीब 20 साल के अपने करियर में उन्होंने हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में पांच हज़ार से ज़्यादा गाने गाए और फिर बदलते वक़्त के साथ पार्श्वगायन से दूर होती चली गयीं। हाल ही में ‘बेटी बचाओ आंदोलन’ में एक हृदयस्पर्शी गीत का योगदान देकर हेमलता जी एक बार फिर से चर्चा में आयीं। इस अवसर पर उन्होंने ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ के साथ लम्बी बातचीत की और इस बातचीत में पहली बार अपने निजी और व्यावसायिक जीवन के कई अनछुए-अनसुने पहलुओं को शामिल किया।
प्रस्तुत है हेमलता जी की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी :-
हम लोग मूलत: राजस्थान के रतनगढ़ से 10 किलोमीटर दूर बसे शेला गांव के रहने वाले हैं। मेरे दादा पंडित जोरावर भट्ट पुरोहित थे और उनके यजमानों में कई राजा-महाराजा शामिल थे। मेरी दादी पाना भट्ट बीकानेर की थीं। दशकों पहले मेरे दादा कोलकाता चले आए थे जहां वो ज़मीनों की ख़रीद-फरोख़्त का व्यवसाय करने लगे। मेरी दादी ने छह बेटियों को जन्म दिया। छह बेटियों का बाप होने के बावजूद दादाजी ख़ुद को नि:संतान कहते थे। बेटे की चाह में उन्होंने चार धाम यात्राएं कीं, तमाम तरह की पूजाएं कराईं, आख़िर में उनकी इच्छा पूरी हुई और मेरे पिता का जन्म हुआ। पिता के बाद मेरी दादी ने एक और बेटी को जन्म दिया। बड़ी छह बेटियों में से तीन बचपन में ही गुज़र गयी थीं और इस तरह मेरे दादा-दादी के अब चार बेटियां और एक बेटा रह गए थे।
मेरी सबसे बड़ी बुआ ‘सुगणा’ की शादी रायपुर (अब छतीसगढ़) में बसे राजस्थानी मूल के एक कारोबारी परिवार में हुई। उनसे छोटी ‘ताई’ बुआ का ससुराल नागपुर में था। फूफाजी पंडित बद्रीप्रसाद जी जानेमाने शास्त्रीय गायक थे और नागपुर में उनका संगीत विद्यालय था। तीसरे नंबर की ‘बया’ बुआ राजस्थान में ही ब्याही थीं लेकिन बंटवारे में उनका गांव पाकिस्तान में चला गया। वो इलाक़ा इतना शांत था कि बुआ को पाकिस्तान बनने का महिनों बाद तब पता चला जब उन्होंने अपने मायके आकर भाई-बहनों से मिलना चाहा और उनसे वीज़ा बनवाने के लिए कहा गया। उस रोज़ बुआ बहुत रोईं और उन्होंने देश के टुकड़े करवाने वालों को जी भर के गालियां और बद्दुआएं दी थीं। बाद में बुआ का परिवार डेरा इस्माईल ख़ां जाकर बस गया था।
चौथे नम्बर पर मेरे पिताजी पंडित जयचंद भट्ट थे। मेरी मां अंबिका गोंदिया (महाराष्ट्र) की थीं। मूलत: जोधपुर के रहने वाले मेरे नाना पंडित बाबूलाल राव बरसों पहले गोंदिया में बस गए थे। नानाजी संगीत के विद्वान और शिक्षक थे।
मेरी सबसे छोटी बुआ ‘कमला’ की शादी मूल रूप से मेवात (हरियाणा) के रहने वाले पंडित प्रताप नारायण जी से हुई थी जो ‘मेवाती संगीत घराने’ के एक मशहूर गायक और वादक थे। सुलक्षणा पंडित, विजेयता पंडित और जतिन और ललित पंडित इन्हीं कमला बुआ के बच्चे हैं। मशहूर शास्त्रीय गायक पंडित जसराज कमला बुआ के देवर यानि प्रताप नारायण फूफाजी के छोटे भाई हैं।
पिताजी इकलौते बेटे थे और इस वजह से दादाजी को उम्मीद थी कि उनका बेटा उनके कारोबार को आगे बढ़ाएगा। संगीत से हमारे ख़ानदान में किसी का भी दूर-दूर तक वास्ता नहीं था। पिताजी का झुकाव जब संगीत की ओर हुआ तो मेरे दादाजी के लिए ये किसी अनहोनी से कम नहीं था। उन्होंने बेटे को संगीत से अलग करने की हर मुमकिन कोशिश की लेकिन पिताजी तो ख़ुद को पूरी तरह से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रति समर्पित कर चुके थे। एक रोज़ वो घर छोड़कर किराना घराने के उस्ताद बहरे ख़ां साहब की शागिर्दी में लाहौर चले गए और ख़ां साहब के आख़िरी वक़्त तक उनकी सेवा में रहे। यहां तक कि वो अपने पिता यानि मेरे दादाजी के गुज़रने पर भी घर नहीं लौट पाए क्योंकि उस वक़्त उनके गुरू उस्ताद बहरे ख़ां साहब भी मृत्युशैया पर थे।
दादाजी के गुज़रने के कुछ ही दिनों बाद ख़ां साहब भी गुज़र गए तो पिताजी लाहौर से सीधे राजस्थान, अपने गांव चले आए। वो अपने हाथ से पिता का अंतिम संस्कार तो नहीं कर पाए थे लेकिन गांव के बड़े-बुज़ुर्गों से सलाह करके उन्होंने पगड़ी समेत मृत्यु के बाद की बाक़ी तमाम रस्में पूरी कीं और फिर कोलकाता आ गए। उनकी सभी बहनों की शादी हो चुकी थी। उधर मेरी दादी बहुत पहले ही गुज़र चुकी थीं। ऐसे में पिताजी बिल्कुल अकेले रह गए थे। उन्होंने काफ़ी समय अपनी दूसरे नम्बर की बहन (ताई बुआ) के पास रहकर गुज़ारा।
मेरे नाना हमारी बहुत दूर की रिश्तेदारी में थे और दादाजी का बहुत आदर करते थे। यह आदर ही मेरे माता-पिता की शादी की सबसे बड़ी वजह बना। नानाजी चाहते थे कि मेरे दादाजी की मृत्यु के बाद अकेले रह गए मेरे पिताजी का घर बस जाए।
हैदराबाद के नवाब अली यावर जंग पिताजी के दोस्त थे। शिकार के साथ-साथ वो गीत-संगीत के भी बेहद शौक़ीन थे। शिकार पर वो हमेशा पिताजी को साथ लेकर जाते थे ताकि जंगलों में बने उनके गेस्ट हाऊसों में भी गीत-संगीत की महफ़िलें सजती रहें। शादी के बाद पिताजी पर मां की ज़िम्मेदारी आ गयी थी। मैं गर्भ में थी। उधर शिकार पर चलने के लिए हैदराबाद से नवाब साहब का बुलावा आया तो पिताजी को मां को भी साथ लेकर जाना पड़ा। हैदराबाद में ही 16 अगस्त 1954 को मेरा जन्म हुआ।
मैं 15 दिन की थी जब पिताजी हमें साथ लेकर हैदराबाद से नानाजी के घर गोंदिया आ गए। कुछ दिन गोंदिया में रूकने के बाद हम लोग कोलकाता चले आए। पिताजी के पास स्थायी काम नहीं था। दादाजी के काम में न तो उनकी दिलचस्पी थी और न ही उसका उन्हें कोई ज्ञान था। उन्होंने कोलकाता की जायदाद अपनी बहनों में बांट दी और मेरे नानाजी के दूर के रिश्तेदार, डांस मास्टर बी.सोहनलाल के बुलावे पर मद्रास चले गए जहां उन्हें मद्रास विश्वविद्यालय में संगीत के लेक्चरर की नौकरी मिल गयी। पिताजी का मुख्य कार्य विद्यार्थियों को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और कर्नाटक संगीत के बीच समानताओं और असमानताओं की शिक्षा देना था। लेकिन मां का मन मद्रास में नहीं लगा। नतीजतन 5 साल बाद पिताजी ने मद्रास छोड़ दिया। उसके बाद एक साल हम लोग राऊरकेला में रहे जहां कुछ दोस्तों की मदद से पिताजी को नौकरी मिल गयी थी। लेकिन फिर में हमें कोलकाता, अपने पुराने घर में लौट आना पड़ा।
मैंने थोड़ी-बहुत शुरूआती पढ़ाई राऊरकेला में की और फिर कोलकाता आने पर क्रीक रो - मौला अली के ‘ली कॉलेंस गर्ल्स स्कूल’ में दाख़िला ले लिया। लेकिन लगातार गोंदिया आते-जाते रहने की वजह से मेरी पढ़ाई में अड़चन आती रही। ननिहाल में और इधर अपने घर में भी संगीत का माहौल होने की वजह से इस ओर मेरा झुकाव होना स्वाभाविक ही था। लेकिन उस ज़माने में हमारे राजस्थानी परिवारों में लड़कियों को घर के कामों तक ही सीमित रखा जाता था। मेरे मन में पिताजी का ऐसा डर बैठा हुआ था कि उनके सामने मैं सर भी नहीं उठा पाती थी। इसलिए प्रश्न ही नहीं था कि उन्हें संगीत की ओर मेरे झुकाव का पता चल पाता। लेकिन ननिहाल से मुझे बहुत प्रोत्साहन मिलता था। इसके बावजूद मैंने जितना भी सीखा, एकलव्य की भांति सिर्फ़ सुन-सुनकर सीखा। मैं विविध भारती और रेडियो सीलोन सुनती थी और पिताजी से छुपकर दुर्गापूजा के पंडाल में गाती थी। पिताजी जब अपने शिष्यों को सिखाते थे तो चाहे मैं रसोईघर में होऊं या किसी और काम में, मेरे कान उन्हीं की ओर लगे रहते थे। घर के काम करते हुए भी मैं दूर से सुनकर उन राग-रागिनियों को दोहराती थी। पिताजी के प्रिय शिष्य, राजपरिवार के गोपाललाल मल्लिक मेरी इस प्रतिभा के बारे में बख़ूबी जानते थे। मशहूर संगीतकार रवीन्द्र जैन (चित्र में) भी पिताजी के शिष्यों में से थे।
1960 के दशक के आरम्भ में कोलकाता में एक संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें लता मंगेशकर, मुहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, हेमंत कुमार, उषा मंगेशकर, हृदयनाथ मंगेशकर और सुबीर सेन जैसे दिग्गज गायक-गायिकाएं पहली बार एक साथ मंच पर आने वाले थे। गोपाललाल मल्लिक, जो कार्यक्रम के आयोजकों में से थे, पिताजी को बेहद सम्मान के साथ कार्यक्रम में लेकर गए और तय योजना के अनुसार इंटरवल में ‘बेबी लता’ के नाम से मुझे मंच पर ला खड़ा किया। मैंने लता का प्रसिद्ध गीत ‘जागो मोहन प्यारे...’ गाया और फिर तो श्रोताओं की मांग पर मुझे लगातार 12गीत गाने पड़े। पहले तो पिताजी सकते में आ गए। लेकिन जब मैं मंच से उतरी तो उन्होंने मुझे बांहों में भर लिया। और फिर अपने शिष्यों के दबाव के आगे झुककर वो मुझे संगीत सिखाने को तैयार हो गए। लेकिन उनकी शर्त थी कि मैं फ़िल्मी गीत नहीं गाऊंगी। उस कार्यक्रम में मौजूद पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिधानचन्द्र रॉय मेरे गायन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मेरे लिए अपनी ओर से एक गोल्डमैडल की घोषणा की थी। मेरी उम्र उस वक़्त 7 बरस की थी।
1960 के दशक के मध्य तक मुझसे छोटे तीनों भाईयों विनोद, गोपाल और ऋषभ का भी जन्म हो चुका था। साल 1966 में मां-पिताजी हम चारों बच्चों को साथ लेकर कमला बुआ के घर मुम्बई आए। हम 16 मई को मुम्बई पहुंचे थे। पिताजी की योजना थी कि वो हम चारों बच्चों को मुम्बई घुमाएंगे, प्रताप नारायण फूफाजी के अलावा अपने क़रीबी दोस्तों पंडित जसराज, उस्ताद अल्लारक्खा ख़ां, उस्ताद अमीर ख़ां और पं. भीमसेन जोशी से भी मिलेंगे और फिर बड़े बेटे विनोद को उस्ताद अल्लारक्खा ख़ां साहब (चित्र में) की शागिर्दी में तबला सीखने के लिए छोड़कर 15 दिनों बाद कोलकाता वापस लौट आएंगे। उन्हें इस बात का भी यक़ीन था कि उन 15 दिनों में मेरे सर से फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों का भूत उतर जाएगा और फिर कोलकाता लौटकर वो मेरी शादी कर देंगे। लेकिन हुआ ठीक उल्टा।
मेरा गाना सुनकर पिताजी के सभी संगीतज्ञ दोस्तों ने बहुत तारीफ़ की। अल्लारक्खा ख़ां साहब ने मुझे पिताजी के साथ उस्ताद रईस ख़ां साहब के पास भेजा, जिनके उस दौर के तमाम नामी फ़िल्म-संगीतकारों से अच्छे ताल्लुक़ात थे। चर्चगेट स्थित रईस ख़ां साहब के घर पर हमारी मुलाक़ात अज़ीज़ नाज़ां क़व्वाल से हुई|उन्होंने पिताजी से कहा कि वो मुझे नौशाद साहब (चित्र में) के पास लेकर जाएं।
संगीतकार नौशाद ने के.आसिफ़ की मौजूदगी में मुझसे अपनी फ़िल्म में गवाने का वादा किया। लेकिन उनकी शर्त थी कि अगले 5 सालों तक मैं किसी और के लिए नहीं गाऊंगी। ‘नौशाद साहब की नयी देन’ जैसे शीर्षक के साथ मेरे बारे में छपा तो उस ज़माने के बड़े-बड़े संगीतकारों के मन में उत्सुकता पैदा हुई। मुझे गाने के प्रस्ताव मिलने लगे लेकिन शर्त में बंधी होने की वजह से मुझे तमाम प्रस्ताव ठुकराने पड़े। लोगों ने समझाया कि ऐसे में मैं अगले 5 सालों में सभी को नाराज़ कर चुकी होऊंगी। उधर नौशाद साहब के संगीत में गाने का मेरा इंतज़ार ख़त्म ही नहीं हो रहा था। मजबूरन मुझे उनकी शर्त का उल्लंघन करना पड़ा।
पहले ही दिन मेरे दो गाने रेकॉर्ड हुए, सुबह उषा खन्ना के संगीत में फ़िल्म ‘एक फूल एक भूल’ का ‘दस पैसे में राम ले लो’ और शाम को कल्याणजी आनन्दजी का संगीतबद्ध किया फ़िल्म ‘विश्वास’ का ‘ले चल मेरे जीवन साथी’। इस तरह साल 1967 में इन दोनों गीतों की रेकॉर्डिंग से मेरे करियर की शुरूआत हुई।
आगे चलकर ‘चंदा को ढूंढने तारे निकल पड़े’ (जीने की राह), ‘दिल करने लगा है प्यार’ (नतीजा), ‘सुईजा तारा’ (मस्ताना), ‘चली कहां हंसती गाती’ (जवाब), ‘...महबूब की मेहंदी हाथों में’ (महबूब की मेहंदी), ‘राज कपूर की नीली आंखें’ (मां और ममता), ‘बात करते हैं जब माशूक़ से’ (कच्चे धागे) जैसे कई गीत मुझे गाने को मिले। लेकिन संगीतकारों और निर्माता-निर्देशकों के सामने ऑडिशन में मैं अक्सर पिताजी के शिष्य रवीन्द्र जैन द्वारा संगीतबद्ध ग़ैरफ़िल्मी गीत गाती थी। इस तरह मैंने रवीन्द्र जैन के नाम का, उनके फ़िल्मों में आने से पहले ही जमकर प्रचार किया। और फिर रवीन्द्र जैन के एक सफल संगीतकार बन जाने का मुझे लाभ भी मिला।
साल 1967 में फ़िल्मों में कदम रखने के अगले 7-8 सालों में मैं 500 से भी ज़्यादा गीत रेकॉर्ड करा चुकी थी। इनमें दक्षिण भारतीय भाषाओं की हिंदी में डब होने वाली फ़िल्मों के एस.जानकी और पी.सुशीला के गाए गीत भी शामिल थे। इससे मेरी आवाज़ में परिपक्वता आयी और मुझे फ़िल्मी गीतों की रेकॉर्डिंग की ज़रूरतों और बारीक़ियों का पता चला। मेरी आवाज़ की ये परिपक्वता सही मायनों में रवीन्द्र जैन की साल 1976 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘फ़कीरा’ के शीर्षक गीत ‘फ़कीरा चल चला चल’ में नज़र आयी। अपने दौर के इस बहुत बड़े हिट ने मेरे करियर को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। इस गीत को सुनकर पिताजी ने कहा था, नौशाद साहब की 5 साल वाली शर्त ग़लत नहीं थी। यही वो पहला गीत है जिसमें माईक के साथ तुम्हारे सही बर्ताव और मज़बूत रिश्ते का पता चलता है।
रवीन्द्र जैन के संगीत निर्देशन में मुझे कई बेहतरीन गीत गाने को मिले। साल 1976 में ही बनी फ़िल्म ‘चितचोर’ के गीत ‘तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले’ के लिए मुझे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। फ़िल्म संगीत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी युगलगीत के लिए सिर्फ़ एक गायक को ये पुरस्कार मिला हो।
मेरे तीन भाईयों में बड़ा विनोद भट्ट एक उत्कृष्ट तबलावादक और छोटा ऋषभ भट्ट संगीतकार है और दोनों ही फ़िल्मों से जुड़े हुए हैं। मंझले भाई गोपाल भट्ट की संगीत में कोई दिलचस्पी नहीं है और वो एक व्यवसायी है। विनोद की पत्नी संगीता संगीतकार जमाल सेन के बेटे शंभुसेन की बेटी और संगीतकार समीर सेन की बहन है। मेरा विवाह महज़ 19 साल की उम्र में, साल 1973 में हुआ। मेरे पति योगेश बाली अभिनेत्री गीता बाली की बहन हरदर्शन कौर के बेटे थे। मेरी सास हरदर्शन कौर ने बतौर निर्माता ‘रागरंग’ (1952) और ‘बाज़’ (1953) जैसी फ़िल्में बनाई थीं। मेरे ससुर जसवंत एक अभिनेता थे और मेरी सास से उनकी मुलाक़ात फ़िल्म ‘बाज़’ की शूटिंग के दौरान हुई थी जिसमें वो अभिनय कर रहे थे। अभिनेत्री योगिता बाली इन्हीं हरदर्शन कौर और जसवंत की बेटी और मेरी ननद हैं।
मेरे पिताजी का निधन 13 अगस्त 1981 को हुआ। वो आख़िरी वक़्त तक पाकिस्तान में रह गयी अपनी बहन, बया बुआ से मिल नहीं पाए थे। उन्होंने मुझसे वचन लिया था कि मैं बुआ से मिलूंगी और उन तक पिताजी की बात पहुंचाऊंगी कि तेरा भाई तुझे याद करता करता इस दुनिया से चला गया। मुझे संतुष्टि है कि मैं पिताजी को दिया वचन पूरा करने में कामयाब हुई। साल 1994 में एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैं पाकिस्तान गयी तो मशहूर गायिका रेशमा ने, जो एक हिंदू बंजारा राजपूत परिवार से थीं, बुआ को डेरा इस्माईल ख़ां से लाहौर के अपने घर पर बुलाकर उनसे मेरी मुलाक़ात कराई। बुआ के बेटे रमेश भाई (चित्र में) भी उनके साथ थे, जो रेशमा की छोटी बहन के पति हैं। मैंने पिताजी का संदेश बुआ तक पहुंचाया तो वो मुझसे लिपटकर देर तक रोती रहीं।
मैंने अपनी लगन और मेहनत से पार्श्वगायन के क्षेत्र में अपना स्थान भले ही बनाया हो लेकिन कई बार राजनीति और जोड़तोड़ का शिकार मुझे भी होना पड़ा। ‘अंखियों के झरोखों से’ के रेकॉर्ड्स को काफ़ी समय तक बाज़ार में पहुंचने ही नहीं दिया गया। शुरूआती दौर में हज़ारों रेकॉर्ड्स को नष्ट कर दिया गया था। राज साहब ने डिस्ट्रिब्यूटरों की मौजूदगी में घोषणा की थी कि उनकी अगली फ़िल्म ‘हिना’ में सिर्फ़ मैं ही गाऊंगी। लेकिन फ़िल्म शुरू होने से पहले ही उनका निधन हो गया और साथ ही मैं भी फ़िल्म से बाहर हो गयी। आर.डी.बर्मन, जिनके स्टेज शोज़ में मैं अक्सर हिस्सा लेती रहती थी, फिल्म ‘1942 अ लव स्टोरी’ के लिए मुझे ढूंढते रहे लेकिन कभी मेरी तबीयत ख़राब होने का बहाना बनाकर तो कभी यह कहकर कि मैं गाना छोड़ चुकी हूं, उन्हें मुझ तक पहुंचने ही नहीं दिया गया और इस तरह वो फ़िल्म भी मेरे हाथ से निकल गयी। इसके बावजूद मुझे इस बात की संतुष्टि है कि मेरे आने के साथ ही पार्श्वगायन के क्षेत्र में बरसों से चला आ रहा एकाधिकार टूटने लगा था और मेरे बाद भी कई नई आवाज़ों ने अपनी पहचान बनाई।
(कहा जाता है कि 1980 के दशक के मध्य में हेमलता जी और रवीन्द्र जैन के सम्बन्धों में खटास आ गयी थी जो 'हिना' और '1942 अ लव स्टोरी' से हेमलता जी के बाहर होने की वजह बनी।)
साल 1983 में मेरे बेटे आदित्य का जन्म हुआ। वो 5 साल का था कि 25 जनवरी 1988 को मेरे पति (चित्र में) का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 34 साल थी। ऐसे में बेटे आदित्य और बूढ़े सास-ससुर की ज़िम्मेदारी मुझ पर आ गयी थी। मैंने पूरा समय अपने परिवार को और आदित्य को दिया। बीच-बीच में मैं गाती भी रहती थी लेकिन पारिवारिक व्यस्तताओं असर मेरे गायन पर पड़ना भी स्वाभाविक ही था। उधर फिल्म संगीत का स्वरूप भी तेज़ी से बदल रहा था जिसमें मैं ख़ुद को असहज़ महसूस करने लगी थी।
मेरी सास 2001 में गुज़रीं और फिर साल भर के अंदर ही 2002 में ससुर जी भी गुज़र गए। हिंदी फ़िल्मों से मैं लगभग अलग ही हो चुकी थी इसलिए सिख संगत का निमंत्रण मिला तो मैंने कुछ साल अमेरिका में रहकर वहां के गुरूद्वारों में रागियों को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी। अब पिछले कुछ वर्षों से मुम्बई में ही हूं। अपना आख़िरी पार्श्वगीत मैंने बप्पी लाहिड़ी के संगीत में क़रीब 7 साल पहले रेकॉर्ड कराया था। हाल ही में ‘बेटी बचाओ प्रोजेक्ट’ के लिए हेमंत मेहता के संगीत में एक गीत रेकॉर्ड किया है और इन दिनों ‘हरे कृष्ण आंदोलन’ के लिए दिलीप दत्ता के संगीत में प्राईवेट अलबम ‘कृष्णा’ की रेकॉर्डिंग में व्यस्त हूं जिसमें मैं गीता का सार गा रही हूं।
बेटे आदित्य का हाल ही में विवाह हुआ है। बेटे के जीवन में स्थायित्व का आना किसी भी मां के लिए जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है और ये सच मुझ पर भी लागू होता है।
We are thankful to -
Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
.......Shishir Krishna Sharma
Well-known playback singer Hemlata was hardly 14 when she entered the film world and challanging the predominance of Lata-Asha, she successfully made a very respectful place for herself in the field of playback singing. In a career spanning 20 years she recorded more than 5 thousand songs in Hindi and other languages and with the changing scenario of the film music she distanced herself from playback singing. Recently, she came into limelight once again when she recorded a heart touching song for the ‘Beti Bachao Project’. She had a long conversation with the blog ‘Beete Hue Din’ on this occasion which included many of the untouched and unheard aspects of her personal and professional life.
So, here we present Hemlata ji’s story in her own words: -
We are from a village Shela originally, which is situated 10 kms away from Ratangarh-Rajasthan. My grandfather Pandit Jorawar Bhatt was a priest who had many royal families as his clients. My grandmother Pana Bhatt was from Bikaner. My grandfather shifted to Kolkata decades ago and started a business in purchase and underselling of lands. Though my grandmother gave birth to 6 daughters, yet my grandfather considered himself childless. His desire for a son made him go on ‘char dham yatra’ and perform all kind of worships, eventually his desire got fulfilled and my father was born. Later, my grandmother gave birth to one more girl child. 3 of the older 6 daughters died very young, thus my grandparents were eventually left with 4 daughters and a son.
My eldest aunt ‘Sugna Bua’ was married into a Raipur (now Chhattisgarh) based business family that had roots in Rajasthan. My 2nd aunt ‘Tayi Bua’s family was based in Nagpur. Her husband Pandit Badri Prasad ji was a renowned classical vocalist who ran a music school in Nagpur. My 3rd aunt ‘Baya Bua’ was married in Rajasthan only but the area which she lived in, merged with Pakistan after partition. It was so remote and peaceful that Baya Bua came to know about the partition months later, only when she expressed her desire to meet her siblings and was told to get a visa from the Indian government. That day she cried a lot and cursed all those who were responsible for the partition. Later on her family shifted to Dera Ismail Khan.
My father Pandit Jai Chand Bhatt was at no. 4. My mother Ambika was from Gondia (Maharashtra). Originally from Jodhpur, my maternal grandfather had settled in Gondia decades ago. He was a music scholar and teacher.
My youngest ‘kamla Bua’ was married to ‘Mewati Music School’s renowned vocalist and instrumentalist Pandit Pratap Narayan ji who was from the Mewat region in Haryana originally. Sulakshana Pandit, Vijeyta Pandit and Jatin and Lalit Pandit are Kamla Bua’s children and my cousins. Well known classical vocalist Pandit Jasraj is Kamla Bua’s brother in law and Pratap Narayan foofaji’s youger brother.
Being his only son, my grandfather had great expectations from my father that he would look after and expand his family business. No one in our family had even the remotest relation with music. That’s why my father’s inclination towards music came as a shock of life to my grandfather. He tried his best to keep his only son away from music, but my father had devoted himself to the Indian Classical Music. One fine day he left his home for Lahore, joined ‘Kirana Music School’s Ustad Bahre Khan Sahib as his disciple and served for Khan Sahib till end. Even he failed to come home when my grandfather died because of his Guru Ustad Bahre Khan Sahib also being on the death bed at that time.
Within a few days of my grandfather’s death, Khan Sahib also died. After his Guru’s death my father left Lahore for his native village in Rajasthan. He couldn’t do the cremation of his father with his own hands but under the guidance of village elders he did perform all other rites including ‘Pagdi’ and finally he came back to Kolkata. Since my grandmother was also no more, my father was now left alone in the family as all his sisters were already married. He stayed with his 2nd sister, Tayi Bua for long.
My maternal grandfather was distantly related to us and he had great respect for my grandfather. This respect proved to be the main reason behind my parent’s marriage as my maternal grandfather wanted to see my grandfather’s only son settled who was left alone after his parent’s death.
Hyderabad’s Nawab Ali Yawar Jung, who was my father’s friend, was very fond of hunting and music. While on hunting, he always took along my father so that the music sessions could also be held in the guest houses in jungles. After marriage, when my father received a message from the Nawab to reach Hyderabad for a hunting trip, he also took along my mother who was heavily pregnant with me at that time. I was born in Hyderabad on 16 August 1954 during that trip.
I was 15 days old when my parents returned from Hyderabad to my maternal grandparent’s home in Gondia. After staying in Gondia for a few days we went back to Kolkata. My father didn’t have a permanent job, nor did he have any interest or any knowledge into his father’s business. He distributed our Kolkata’s property among his sisters and on invitation from the renowned dance master B.Sohanlal - who was a distant relative from my maternal grandfather’s side - shifted to Madras where he got a job of lecturer of music in Madras University. My father’s main job was to teach his students the similarities and dissimilarities between Indian Classical and the Carnatic music. But my mother never liked the city. Constrainedly, my father had to resign from the job after 5 years. Then we lived in Rourkela for a year where my father had got a job with the help from his friends. But we had to come back to Kolkata at last.
I started my schooling in Rourkela and after we came back to Kolkata, I was admitted to the ‘Lee Collins Girls School’ of Kolkata’s Creek Row – Maula Ali area. But my studies faced so many hindrances due to my frequent visits to Gondia. Since the environment of my maternal grandfather’s home as well as of my own home was musical, I had an obvious inclination towards music since my childhood. But in those days, daughters in our Rajasthani families were confined only to the household work. I feared my father so much that I didn’t even raise my head in front of him. He never knew about my inclination towards music. But my maternal grandparents always encouraged me. Still, whatever I learnt, was only by listening like Eklavya. I listened Vividh Bharti and Radio Ceylon and without bringing into my father’s notice I used to sing in Pooja Pandals. Whenever he taught his students, despite being busy with household work be that in kitchen or somewhere else, I always kept my ears focussed on their singing. I repeated the Ragas or Swaras being sung by them. My father’s favourite student Gopal Lal Mallick, who was from a royal family, knew about my passion for music. Renowned composer Ravindra Jain was also one of my father’s students.
In early 1960’s, a grand musical program was organised in Kolkata in which big singing stars viz. Lata mangeshkar, Mohammad Rafi, Kishore Kumar, Hemant Kumar, Usha Mangeshkar, Hridaynath Mangeshkar and Subir Sen were to come on stage together for the first time. Gopal Lal Mallick, who was among the organisers, took my father along to the program respectfully and as per the plan brought me on stage during interval with the name ‘Baby Lata’. I sang lata’s famous song ‘jaago mohan pyaare…’ and then on audience’s demand had to sing 12 songs at one go. Initially my father was shocked to see me on the stage but as soon as I came down, he hugged me. And on insistence of his students he agreed to teach me, but on condition that I’ll never sing film songs. West Bengal’s that time Chief Minister Bidhan Chandra Roy, who was present in that program was so happy with me that he announced a special Gold Medal for me. I was 7 at that time.
In the year 1966 my parents came to Mumbai along with us siblings i.e. me and my 3 younger brothers Vinod, Gopal and Rishabh, to meet his youngest sister Kamla Bua and brother in law Pratap Narayan foofaji. We reached Mumbai on 16 May. My father had planned to take us children along to go jaunting through Mumbai, to meet with his friends Pandit Jasraj, Ustad Alla Rakkha Khan, Ustad Amir Khan and Pandit Bhimsen Joshi and finally return to Kolkata after 15 days, leaving behind Vinod, the eldest of my brothers under the discipleship of Tabla maestro Ustad Alla Rakkha Khan sahib. He was also confident that during this 15 days’ time my madness towards the films and film songs will vanish and after reaching Kolkata he would marry me off. But the outcome was totally different.
All my father’s musician friends appreciated my singing. Alla Rakkha Khan Sahib sent us to Ustad Rais khan who had good relations with all big composers of that time. We also met Aziz Nazan Qawwal at Rais Khan Sahib’s home at Churchgate. After Aziz Nazan Qawwal heard me sing, he asked my father to take me to naushad sahib.
In presence of K.Asif, composer Naushad Sahib promised me that he would give me a break but on condition that I’ll not sing for any other composer in the next 5 years. ‘Naushad Sahib introduces a new voice’ kind of publicity made all the big composers of that period curious for me. I started getting offers to sing in films which I had to reject due to the condition in my contract with Naushad Sahib. People tried to persuade me that my denial in all these 5 years will annoy everybody. On the other hand I was eager to sing for Naushad Sahib but there was no end to my wait. Constrainedly, I had to lay aside my contract with him. The very first day I recorded 2 songs, Usha Khanna’s ‘dus paise me raam le lo’ for the film ‘Ek Phool Ek Bhool’ in the morning and Kalyanji Anandji’s ‘le chal mere jeewan sathi’ for ‘Vishwas’ in the evening. Thus I debuted in the year 1967.
Later on I recorded many songs viz. ‘chanda ko dhoondhne taare nikal pade’ (Jeene Ki Raah), ‘dil karne laga hai pyaar’ (Nateeja), ‘soija tara’ (Mastana), ‘chali kahan hansti gaati’ (Jawaab), ‘...mehboob ki mehndi haathon me’ (Mehboob Ki Mehndi), ‘raj kapoor ki neeli ankhein’ (Ma Aur Mamta), ‘baat karte hain jab mashooq se’ (Kachche Dhage). But during my audition for composers & producer-directors I always sang my father’s disciple Ravindra Jain’s non-film compositions. This way, I highly publicized his name, even before he entered the film-world and I did get a reward of this after he became a successful composer.
In the next 7-8 years after entering films in the year 1967, I sang more than 500 songs. These included Hindi dubbed south Indian languages movie songs as well, which were originally sung by S.Janaki & P.Sushila. This helped my voice get matured and I came to know the nuances & needs of the recording of film songs. This matureness of my voice reflected for the first time in the song ‘fakeera chal chala chal…’ from the 1976 release ‘Fakeera’, with Ravindra Jain as composer. This very big hit of that time gave new heights to my career. Hearing this song my father said, “Naushad sahib was not wrong on his ‘5 years’ condition. This is the song which proves your proper dealing and strong relation with the microphone.”
Later on I sang many hit songs under the baton of Ravindra Jain. I received Filmfare Award for his 1976 release ‘Chitchor’ song ‘tu jo mere sur me sur mila le’. This was a unique example of only one singer winning the award for a duet song, in the history of Hindi Film Music.
Eldest of my 3 brothers Vinod Bhatt is an ace Tabla player whereas the youngest, Rishabh Bhatt is a composer and they both are associated with films. Middle one Gopal Bhatt didn’t have any interest in music and he is running his own business. Vinod’s wife Sangeeta is the daughter of composer Jamal Sen’s son Shambhu Sen. Composer Sameer Sen of ‘Dilip Sen Sameer Sen’ duo is Sangeeta’s brother. I got married in 1973, at the age of 19. My husband Yogesh Bali was actress Geeta Bali’s sister Hardarshan Kaur’s son. My mother in law Hardarshan Kaur produced the movies ‘Raag Rang’ (1952) and ‘Baaz’ (1953). My father in law Jaswant was an actor who first met my mother in law on the sets ‘Baaz’ in which he was playing an important role. Actress Yogita Bali is Hardarshan Kaur and Jaswant’s daughter and my sister in law.
My father passed away on 13 August 1981. He couldn’t meet with his Pakistan based sister ‘Baya Bua’ till his death. He took a word from me that I’ll anyhow meet up my Bua and convey to her my father’s last message that her brother left this world remembering her. I’m happy that I fulfilled my promise to my father. In the year 1994, during my visit to Pakistan for a stage show, singer Reshma, who was from a ‘Hindu Nomad Rajput’ family, especially called Bua from Dera Ismail Khan to her home at Lahore to meet up with me. Bua’s son Ramesh bhai, who is married to Reshma’s younger sister, also accompanied her to Lahore. When I conveyed my father’s message to her, she embraced me crying.
I might have made a remarkable place in the field of playback singing for myself with all determination and hard work, but I was also a victim of film world’s internal politics and manipulations. ‘Ankhiyon Ke Jharokhon Se’ music records were deliberately stopped from reaching the market for very long. Thousands of records of this film were destroyed initially. In presence of distributers Raj Kapoor had announced that I was going to sing all the songs in his next movie ‘Henna’. But with his passing away before the commencement of the shoot I was also thrown out from the movie. I used to be an integral part of R.D.Burman’s stage shows. He tried to contact me for good 11 months for his film ‘1942 – A Love Story’ but he failed, thanks to my ‘so called’ well-wishers who always made different excuses like ‘I’m seriously unwell’ OR ‘I don’t want to sing anymore’ resulting into my failure to grab the opportunity. Still I’m happy that the monopoly in the field of playback singing started crumbling with my entry into films which resulted into paving the way for so many new talented voices.
(It is said that the records of 'Ankhiyon Ke Jharokhon Se’ were destroyed on behest of a famous female singer. It is also said that the relation between Hemlata and Ravindra Jain soured in mid-1980's which resulted into Hemlata’s ouster from the films 'Henna' & '1942 - A Love Story'.)
I gave birth to a son Aditya in the year 1983. He was 5 when my husband passed away due to a prolonged illness at the age of 34. Thus, all the responsibility of Aditya and my old in-laws came upon me. I devoted myself to my in-laws and my son. Though I kept on singing occasionally, yet it was obvious for my career to get affected due to my family obligations. On the other hand, the face of film music was changing very fast which made me feel uncomfortable to be in the field.
My mother in law passed away in 2001 and within a year, in 2002, my father in law also died. I was almost away from the films, so I shifted to U.S. on invitation from ‘Sikh Sangat-U.S.’. I stayed in U.S. for a couple of years and taught Indian Classical Music to Ragee’s in the Gurudwaras. Now I’m back in Mumbai for last few years. I recorded my last playback song for Bappi Lahiri 7 years back. Recently I recorded a song for the ‘Beti Bachao Project’ which is composed by Hemant Mehta. Presently I’m busy with the recording of my private album for ‘Hare Krishna Movement’ which is composed by Dilip Dutta and is based on the ‘Geeta Saar’ which I’m singing.
My son Aditya got married recently. Every mother’s biggest desire is to see her children settle and obviously, I’m no exception.