“ये रात फिर न आएगी” - बॉम्बे टॉकीज़
...........शिशिर कृष्ण शर्मा
मुंबई के प्रमुख उपनगर मालाड (पश्चिम) में एस.वी.रोड और लिंक रोड के बीच स्थित है ‘बी.टी.कम्पाऊंड’। कीचड़ और कूड़े-करकट से अटी बेतरतीब और बेहिसाब तंग गलियों में बंटा और सैकड़ों कारखानों और लघु-उद्योगों को ख़ुद में समेटे ये औद्योगिक क्षेत्र हर वक़्त मशीनों, घनों और छेनी-हथौड़ी की आवाज़ों से गूंजता रहता है। अपनी ज़िंदगी का अच्छा-ख़ासा समय इन कल-कारखानों को दे चुके लोगों में से ज़्यादातर को इस जगह के गौरवशाली अतीत के विषय में जानकारी होना तो दूर, ये तक नहीं पता कि इसका नाम ‘बी.टी.कम्पाऊंड’ क्यों पड़ा। “अजी साहब, इतनी फ़ुर्सत ही किसे है?...और होती भी तो क्या मिल जाता इसके बारे में जानकर हमें?” पूछने पर पान की दुकान पर खड़ा, मज़दूर सा दिखने वाला एक आदमी सीधे-सपाट लहजे में कहता है।
उसकी बात काफ़ी हद तक सही भी है। ज़िंदगी की ज़द्दोज़हद में उलझे एक आम आदमी को इस बात से क्या सरोकार कि ये वोही ‘बॉम्बे टॉकीज़ कम्पाऊंड’ है, जहां किसी ज़माने में मशीनों, घनों और छेनी-हथौड़ी की जगह ‘लाईट्स’, साऊण्ड’, ‘कैमरा’, ‘एक्शन’ और ‘कट’ की आवाज़ें गूंजा करती थीं, या ‘अछूत कन्या’, ‘कंगन’, ‘बंधन’, ‘झूला’, ‘किस्मत’, ‘ज्वार भाटा’, ‘ज़िद्दी’ और ‘महल’ समेत 3 दर्जन से भी ज़्यादा सफल फ़िल्में देने वाले ‘बॉम्बे टॉकीज’ से ही शशधर मुकर्जी जैसे प्रख्यात निर्माता, अशोक कुमार, दिलीप कुमार और मधुबाला जैसे कलाकारों, किशोर कुमार जैसे गायक-अभिनेता और कवि प्रदीप जैसे गीतकार-गायक ने अपने करियर की शुरूआत की थी।
‘बी.टी.कम्पाऊंड’ के बीचोंबीच अपेक्षाकृत थोड़े खुले से स्थान पर आज भी उस बंगले का मेहराबदार ढांचा खड़ा है जिसमें ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के संस्थापक हिमांशु राय का निवास और ऑफ़िस हुआ करता था। ‘बी टी. कम्पाऊंड स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज़ एसोसिएशन’ के पूर्व अध्यक्ष जे.एम.शर्मा के मुताबिक़ 1980 के दशक तक ये बंगला ठीकठाक हालत में था और इसमें दो-तीन कारखाने हुआ करते थे। लेकिन अचानक एक रोज़ आग लगने से बंगला नष्ट हो गया और तब से ये ढांचा इसी तरह खड़ा है। बंगले के क़रीब ही ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के दोनों शूटिंग फ़्लोर आज भी मौजूद हैं लेकिन दोनों ही अब कारखानों में तब्दील हो चुके हैं।
आज़ादी की लड़ाई की मशहूर तिकड़ी ‘लाल-बाल-पाल’ के बिपिनचन्द्र पाल के बेटे निरंजन पाल मेडिकल की पढ़ाई के लिए लंदन गए तो वहां कानून की पढ़ाई कर रहे हिमांशु राय से उनकी मुलाक़ात हुई जो जल्द ही गहरी दोस्ती में बदल गयी। निरंजन पाल का मन पढ़ाई में नहीं लगा तो उन्होंने डॉक्टर बनने का ख्याल मन से निकालकर साल 1913 में ‘केंट फ़िल्म कम्पनी’ में नौकरी कर ली। हिमांशु राय को अभिनेता बनाने का श्रेय निरंजन पॉल को ही जाता है क्योंकि उन्होंने ही अपने नाटक ‘गॉडेस’ में हिमांशु राय को बतौर हीरो काम करने के लिए प्रेरित किया था।
जर्मन कंपनी ‘एमेल्का कॉंजर्न’ और भारतीय निर्माता मोतीसागर की ‘द ग्रेट ईस्टर्न फ़िल्म कॉरपोरेशन’ द्वारा भागीदारी में बनाई गयी फ़िल्म ‘द लाईट ऑफ़ एशिया’ उर्फ़ ‘प्रेम सन्यास’ हिमांशु राय की पहली फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने भगवान बुद्ध की भूमिका की थी। साल 1925 में प्रदर्शित हुई इस फ़िल्म में उनकी नायिका एक एंग्लोइंडियन महिला सीता देवी थीं जिनका असली नाम रेन स्मिथ था। इसके बाद उन्होंने ‘द थ्रो ऑफ़ डाईस’ उर्फ़ ‘प्रपंच पाश’ और ‘शीराज़’ में हीरो की भूमिका की। ये सभी साईलेंट फ़िल्में थीं।
साल 1933 में लंदन में बनी ‘कर्मा’ हिमांशु राय की पहली टॉकी फ़िल्म थी जो अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में बनी थी। हिमांशु राय इस फिल्म के निर्माता भी थे। लंदन में आर्किटेक्चर की पढ़ाई कर रहीं गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की भांजी देविका रानी फ़िल्म ‘कर्मा’ की सेट-डिज़ाईनिंग के सिलसिले में हिमांशु राय के सम्पर्क में आयीं तो हिमांशु राय ने उन्हें ही इस फ़िल्म की हिरोईन बना दिया। जे.जे.फ़ीयर हण्ट द्वारा निर्देशित और अर्नेस्ट ब्रेड हर्स्ट द्वारा संगीतबद्ध इस फ़िल्म के फ़ायनेंसर सर रिचर्ड टेम्पल थे जिनके पिता कभी मुंबई के गवर्नर रह चुके थे। ये तमाम जानकारियां मुझे एक मुलाक़ात के दौरान निरंजन पाल के बेटे और हिंदी सिनेमा के अपने वक़्त के मशहूर पी.आर.ओ. कॉलिन पॉल ने दी थीं, जिनका बचपन ‘बॉम्बे टॉकीज़’ में गुज़रा था।
(कॉलिन पॉल के मुताबिक सर रिचर्ड टेम्पल के पिता मुंबई के गवर्नर थे। लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के मुताबिक मुंबई के टेम्पल उपनाम के सिर्फ़ एक गवर्नर हुए और उनका नाम भी रिचर्ड टेम्पल था। वो साल 1877 से 1880 तक इस पद पर थे। कुछ साल पहले कॉलिन पॉल का भी निधन हो चुका है और अब इस बात की पुष्टि कर पाना संभव नहीं है कि क्या पिता और पुत्र दोनों का नाम रिचर्ड टेम्पल था?)
कॉलिन पॉल के मुताबिक पहले से शादीशुदा हिमांशु राय ने फ़िल्म ‘कर्मा’ के दौरान देविका रानी से शादी कर ली थी और उनकी पहली पत्नी एक जर्मन महिला थीं। ‘कर्मा’ के रिलीज़ होने के बाद हिमांशु राय, देविका रानी और सर रिचर्ड टेम्पल मुंबई चले आए जहां साल 1933 में उन्होंने एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी के तौर पर ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की बुनियाद रखी। सर रिचर्ड टेम्पल के प्रभाव से उस ज़माने के जाने-माने उद्योगपति एफ.ई.दिनशा, सर फ़ीरोज़ सेठना, सर चिमनलाल सीतलवाड़ और सर कावसजी जहांगीर भी ‘बॉम्बे टाकीज़’ से जुड़ गए थे और स्टूडियो बनाने के लिए मालाड स्थित ज़मीन सर एफ़.ई.दिनशा से ख़रीदी गयी थी।
‘बॉम्बे टॉकीज़’ की पहली फ़िल्म ‘जवानी की हवा’ साल 1935 में रिलीज़ हुई थी, जिसके हीरो नजमल हुसैन, हिरोईन देविका रानी और संगीतकार सरस्वती देवी थीं। ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की शुरूआती 16 फ़िल्मों ‘जवानी की हवा’ (1935), ‘ममता’, ‘मियांबीवी’, ‘जीवन नैया’, ‘अछूतकन्या’, ‘जन्मभूमि’ (सभी 1936), ‘इज़्ज़त’, ‘जीवन प्रभात’, ‘प्रेम कहानी’, ‘सावित्री’ (सभी 1937), ‘भाभी’, ‘निर्मला’, ‘वचन’ (सभी 1938), ‘दुर्गा’, ‘कंगन’ और ‘नवजीवन’ (सभी 1939) का निर्देशन जर्मनी के रहने वाले फ़्रांज़ ऑस्टिन ने किया था और इनमें से शुरूआती 8 फ़िल्मों के कथा-पटकथाकार निरंजन पाल थे। फ़िल्म ‘जीवन नैया’ से ही ‘बॉम्बे टॉकीज़’ में बतौर लैब असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार ने अभिनय की शुरूआत की थी और इसी कंपनी की फ़िल्म ‘बसंत’ (1942) में मधुबाला बतौर बालकलाकार पहली बार कैमरे के सामने आयी थीं। दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ (1944) और गायक-अभिनेता किशोर कुमार की पहली फ़िल्म ‘ज़िद्दी’ (1948) का निर्माण भी इसी बैनर तले हुआ था।
(कहा जाता है कि ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की पहली फ़िल्म ‘जवानी की हवा’ के निर्माण के दौरान देविका रानी को फ़िल्म के हीरो नजमल हुसैन से प्यार हो गया था और वो अपने पति हिमांशु राय और ‘बॉम्बे टॉकीज़’ को छोड़कर नजमल हुसैन के साथ कोलकाता चली गयी थीं। ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के शेयरधारक और जाने माने निर्माता शशधर मुकर्जी की कोशिशों से देविका रानी तो पति के पास वापस लौट आयीं लेकिन नजमल हुसैन की वापसी के तमाम रास्ते बंद हो चुके थे। अगली दो फ़िल्मों ‘ममता’ और ‘मियां बीवी’ में बॉम्बे टॉकीज़ के गीतकार जमुना स्वरूप कश्यप ने बतौर हीरो काम किया। उनके अचानक बीमार पड़ जाने की वजह से ही फ़िल्म ‘जीवन नैया’ में अशोक कुमार को, जो शशधर मुकर्जी के साले थे, जबरन हीरो बनाया गया था।)
वयोवृद्ध फ़िल्म पत्रकार (स्वर्गीय) बद्री प्रसाद जोशी जी के मुताबिक साल 1940 में हिमांशु राय के अचानक गुज़र जाने के बाद ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की बागडोर देविका रानी ने संभाल ली थी। लेकिन देविका रानी की विवादास्पद कार्यशैली को लेकर जल्द ही कंपनी के शेयरधारकों और कर्मचारियों के बीच मतभेद उभरने लगे। हालात इतने ज़्यादा बिगड़ गए कि शशधर मुकर्जी, अशोक कुमार, रायबहादुर चुन्नीलाल कोहली, कवि प्रदीप, कैमरामैन मार्शल ब्रगेंज़ा, दत्ताराम पै और कनु रॉय ने ‘बॉम्बे टॉकीज़’ से अलग होकर साल 1943 में मुंबई के उपनगर गोरेगांव (पश्चिम) में ‘फ़िल्मिस्तान कंपनी’ की स्थापना कर ली।
उधर साल 1943 में रिलीज़ हुई ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की अशोक कुमार अभिनीत फ़िल्म ‘किस्मत’ ने कोलकाता के एक सिनेमाहॉल में लगातार 3 साल चलने का रेकॉर्ड बनाया। 1943 में ही बनी ‘हमारी बात’ देविका रानी की आख़िरी फ़िल्म साबित हुई जिसमें अभिनय करने के बाद उन्होंने अपने सभी शेयर निर्माता शीराज़ अली हक़ीम को बेचे और रूसी चित्रकार रोरिख से शादी करके पहले कुल्लू-मनाली और फिर बंगलौर में जा बसीं। कॉलिन पॉल के मुताबिक देविका रानी के जाने के बाद ‘बॉम्बे टॉकीज़’ का स्वामित्व उस ज़माने के चांदी के एक बड़े कारोबारी गोबिंदराम सेकसरिया के हाथ में आ गया था तो प्रबन्धन हितेन चौधरी ने संभाल लिया था।
अगले 4 सालों में ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के बैनर में महज़ 5 फ़िल्में, ‘चार आंखें’, ‘ज्वार भाटा’ (दोनों 1944), ‘प्रतिमा’ (1945), ‘मिलन’ (1946) और ‘नतीजा’ (1947) बनीं लेकिन इनमें से कोई भी बॉक्स ऑफ़िस पर कमाल नहीं दिखा पायी। उधर अशोक कुमार भावनात्मक तौर पर ‘बॉम्बे टॉकीज़’ से इतने जुड़े हुए थे कि उनका मन फ़िल्मिस्तान में नहीं लगा और साल 1947 में वो वापस ‘बॉम्बे टॉकीज़’ में लौट आए।
उन्होंने ‘बॉम्बे टॉकीज़’ को ख़रीदकर उसके बैनर में और ‘मजबूर’, ज़िद्दी (दोनों 1948), ‘महल’ (1949), ‘मशाल’, ‘मुक़द्दर’, ‘संग्राम’ (सभी 1950), ‘मां’ और ‘तमाशा’ (1952) जैसी फ़िल्में बनाईं। फ़िल्म ‘मां’ बिमल राय और नबेन्दु घोष की मुंबई में क्रमश: बतौर निर्देशक और लेखक पहली फ़िल्म थी। लेकिन विघटन के बाद से चले आ रहे क़रीब 28 लाख रूपए के कर्ज़ की वजह से ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के सुनहरे दौर को फिर से लौटा लाने की अशोक कुमार की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं और ‘तमाशा’ इस बैनर के नाम से बनी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई।
साल 1954 में ‘बॉम्बे टॉकीज़’ से जुड़े लोगों ने कंपनी के बिगड़े हालात को सुधारने की कोशिश में सहकारिता के आधार पर फ़िल्म ‘बादबान’ बनाई लेकिन ये कोशिश भी नाकाम रही और ‘बादबान’ को मिलाकर 19 सालों में 39 फ़िल्में देने वाला ‘बॉम्बे टॉकीज़’ इतिहास का हिस्सा बनकर रह गया। फिर कुछ ही समय बाद इसकी तमाम सम्पत्ति सेठ तोलाराम जालान की ‘प्रकाश कॉटन मिल्स’ द्वारा ख़रीद ली गयी। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में ‘प्रकाश कॉटन मिल्स’ ने हरे-भरे पेड़ों से भरी इस जमीन को ‘रामकुमार जालान पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट’ को पट्टे पर दे दिया, जिसने पेड़ काटकर उनकी जगह छोटे-छोटे शेड बनाए और उन्हें लघु उद्योगों को किराए पर दे दिया।
जे.एम.शर्मा के मुताबिक ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की कुल 17 एकड़ ज़मीन का 4 एकड़ हिस्सा अब बागीचे के तौर पर मुंबई महानगर पालिका के पास सुरक्षित है। बाक़ी 13 एकड़ जमीन पर क़रीब 900 लघु उद्योग इकाईयां कार्यरत हैं जिनमें सुईं से लेकर पानी के जहाज़ के कलपुर्जे तक बनाए जाते हैं। सन 1960-61 में शुरू हुई इस प्रक्रिया के फलस्वरूप तब का ‘बॉम्बे टॉकीज़’ आज ‘बी.टी.कम्पाऊंड’ के नाम से एक पूर्ण औद्योगिक क्षेत्र का आकार ले चुका है।...और मशीनों, घनों और छेनी-हथौड़ी के शोर के नीचे दबकर ‘लाईट्स’, ‘साऊण्ड’, ‘कैमरा’, ‘एक्शन’ और ‘कट’ की आवाज़ें कभी का दम तोड़ चुकी हैं।
We
are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable
suggestion, guidance, and support.
Mr.
Isuru Udayanga Kariyawasam for providing some rare pictures.
Mr. S.M.M.Ausaja
for providing movies’ posters.
Ms.
Akhsher Apoorva for the English translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
“Ye Raat Phir Na
Ayegi” - Bombay Talkies
...........Shishir Krishna Sharma
At one of Mumbai’s
major suburb Malad (West), between SV Road and Link Road is situated the 'B.T.
Compound’. Littered with sludge and garbage, divided into countless random
narrow streets this Industrial area withholds in it-self hundreds of factories
and small-scale industries and echoes of the din made by the machines and hat
made by chisel and hammer. Those who spend most of their time amongst these factories
are far from knowing the glorious past of this place in fact most of them do
not even know why it was named 'B.T. Compound.
"Well sir, who has that much time? ... and even then, what will we
get out of knowing about it?" said the man standing at the paan shop in
plain and simple words.
His argument is
quite accurate. Anyways what does a common man caught up in the hustle bustle
of life has to do with the fact that this is the same place where once instead
of the din of machines and hammer sounds of ‘lights ', ‘sound’, ‘camera', ' action’
and ‘cut’ echoed across the hallways or that prominent producers like
‘Shashdhar Mukerjee’ were birthed by ‘Bombay
Talkies’ which has given
more than 3 dozen hit films along with ‘Achhoot
Kanya’, ‘Kangan’,
‘Bandhan’,
‘Jhoola’,
‘Kismet’,
‘Jwar
Bhata’, ‘Ziddi’
and
‘Mahal’
or that actors like Ashok Kumar, Dilip
Kumar
and
Madhubala and singer-actor Kishore Kumar and song writer and singer Kavi
Pradeep they all started their careers here.
In a relatively
open space in the middle of the 'BT Compound' till today stands the arched
structure which once housed the residence and office of the founder Himanshu
Rai. According to the ‘B.T. Compound Small Scale Industries Association’s’ former
president J.M. Sharma, the structure was alright till the 1980’s decade and
even housed 2-3 factories. But then suddenly one day due to a fire the bungalow
was destroyed and since then just its structure stands. Next to the bungalows
the studio floors still stand but both of them have turned into factory floors
now.
Of the famous trio
‘Lal-Bal-Pal’ from our freedom struggle, Bipin Chandra Pal’s son Niranjan Pal
was pursuing his medical studies in London when he met Himanshu Rai and soon
they turned into close friends. As Niranjan pal’s aptitude was not towards
studies, he soon gave up his desire to be a doctor and joined the ‘Kent Film
Company’ in 1913. In fact, all the credit of making Himanshu Rai an actor goes
to Niranjan Pal as he had persuaded Himanshu Rai to act as the main lead in his
play ‘Goddess’.
Made in partnership
with the German Company ‘Emelka Cojern’ and Indian producer Moti Sagar’s ‘The
Great Eastern Film Corporation’ the film ‘The Light of Asia’ Alias ‘Prem
Sanyas’ was Himanshu Rai’ first film where he played the role of Lord Buddha.
His co-star in the film which was released in 1925 was an Anglo-Indian woman
named Sita Devi whose real name was Rene Smith.
There after he played the main lead in ‘A Throw Of Dice’ Alias ‘Prapanch
Pash’ and ‘Shiraz’
‘Karma’ was
Himanshu Rai’s first talkie film made in the year 1933 in London which was made
in both English and Hindi. Himanshu Rai was also the film’s producer. Gurudev Rabindra Nath Tagore’s niece Devika Rani,
who was studying architecture in London, met Himanshu Rai in reference of the
films set design and Himanshu Rai ended up casting her as the heroine of the
film. Directed by J.J.Feer Hunt and composed by Arnest Bread Hurst, the film’s financer was Sir Richard Temple whose father used to be Mumbai’s Governor at one time. All this information was given to me during a meeting by
Niranjan Pal’s son and Hindi cinema’s once famous PRO Colin Pal whose entire
childhood was spent in ‘Bombay Talkies’.
(According to Colin Pal, Sir Richard Temple’s Father was Mumbai’s Governor. But according to historical documents Mumbai had just one governor with the surname ‘Temple’ and his full name was Richard Temple. He was at this post from 1877 to 1880. Colin Pal has passed away a few years back and hence it’s not possible to verify now that maybe father and son shared the same name Richard Temple.)
According to Colin Pal Himanshu Rai was already married to a German woman when during the film ‘Karma’ he married Devika Rani. After ‘Karma’s’ release, Himanshu Rai, Devika Rani and Sir Richard Temple came to Mumbai where in the year 1933 they created the first public limited company ‘Bombay Talkies’. Due to Sir Richard Temple’s influence, the era’s known industrialist F.E.Dinshaw, Sir Feroze Sethna, Sir Chimanlal Setalwad and Sir Kawasji Jehangir also joined hands with ‘Bombay Talkies’ and the land situated at Malad was bought from Sir F.E.Dinshaw to make a studio.
‘Bombay Talkies’s’ first film ‘Jawani Ki Hawa’ was released in the year 1935 and the main lead was Najmal Hussain, and the heroine was Devika Rani and composer was Saraswati Devi. The first 16 films of ‘Bombay Talkies’ ‘Jawani Ki Hawa’ (1935), ‘Mamta’, ‘Miyan Biwi’, ‘Jeewan Naiya’, ‘Achhoot Kanya’, ‘Janm Bhoomi’ (all 1936), ‘Izzat’, ‘Jeewan Prabhat’, ‘Prem Kahani’, ‘Savitri’ (all 1937), ‘Bhabhi’, ‘Nirmala’, ‘Vachan’ (all 1938), ‘Durga’, ‘Kangan’ and ‘Navjeewan’ (all 1939) were directed by Germany citizen Franz Austin and the story and screenplay writer of the first 8 films was Niranjan Pal. Ashok Kumar, who was working as a lab assistant in ‘Bombay Talkies’, started his acting career with the film ‘Jeewan Naiya’and the company’s film ‘Basant’ (1942) featured child actor Madhubala for the first time on screen. The banner is also responsible for producing Dilip Kumar’s first film ‘Jwaar Bhata’ (1944) and singer-performer Kishore Kumar’s first film ‘Ziddi’ (1948).
(It is said that during the making of ‘Bombay Talkies’s’ first film ‘Jawani
Ki Hawa’ Devika Rani fell in love with the films hero Najmal Hussain and left
her husband Himanshu Rai and ‘Bombay
Talkies’ both, and went to Kolkata with Najmal Hussain. Because of the efforts
of ‘Bombay Talkies’s’ shareholder and well-known director Shashdhar Mukerjee,
Devika Rani returned to her husband’s side but all roads for Najmal Hussain’s
return were sealed. ‘Bombay Talkies’s’ lyricist Jamuna Swaroop Kashyap was the
hero in the next two films ‘Mamta’ and ‘Miyaan Biwi’. But due to his sudden
illness, Ashok Kumar, who was Shashdhar Mukerjee‘s brother in law (wife’s
brother), had to be promptly made the hero of the film ‘Jeevan Naiya’.)
According to senior film journalist (late) Badri Prasad Joshi ji, after Himanshu Rai’s sudden death in 1940, ‘Bombay Talkies’ responsibility was taken by Devika Rani. But Devika Rani’s unconventional working style created a rift between the company’s shareholders and staff members. The situation became so bad that Shashdhar Mukerjee, Ashok Kumar, Raibahadur Chunnilal Kohli, Kavi Pradeep, camera man Marshall Bragenza, Dattaram Pai and Kanu Roy separated from ‘Bombay Talkies’ and established the ‘Filmistan company’ in 1943, in Mumbai’s suburb Goregaon (West).
At the same time Ashok Kumar’s film ‘Kismet’ which was release in 1943 by ‘Bombay Talkies’ made a record of being screened in Kolkata for three years in a row. Also made in 1943, film ‘Hamari Baat’ proved to be Devika Rani’s last film after which she sold all her shares to producer Shiraz Ali Haqeem and married the Russian painter Roerich and eventually settled in Kullu-Manali and then in Banglore. According to Colin Pal, after Devika Rani’ departure, ‘Bombay Talkies’ was owned by the era’s well-established silver mogul Gobind Ram Seksaria and the management was looked after by Hiten Chowdhary.
In the next 4 years only 5 films were made under the banner of ‘Bombay Talkies’, ‘Chaar Ankhein’, ‘Jwar Bhata’ (both 1944), ‘Pratima’ (1945), ‘Milan’ (1946) and ‘Nateeja’ (1947) but none could create any box office success. Ashok Kumar was so emotionally attached with ‘Bombay Talkies’ that he couldn’t affiliate himself with Filmistan and in 1947 he returned to ‘Bombay Talkies’. He bought ‘Bombay Talkies’ and made films like ‘Majboor’, Ziddi (both 1948), ‘Mahal’ (1949), ‘Mashaal’, ‘Muqaddar’, ‘Sangram’ (all 1950), ‘Maa’ and ‘Tamasha’ (1952) under its banner. After coming to Mumbai from kolkatta, Director Bimal Roy and writer Nabendu Ghosh stepped into the Mumbai film industry through the film ‘Maa’. But despite all efforts by Ashok Kumar to pull back the company from the strain of 28 lakh rupees it incurred during its dissolution he couldn’t return ‘Bombay Talkies’ to its former glory and ‘Tamasha’ proved to be the last film made under this banner.
In 1954 some people associated with ‘Bombay Talkies’ decided to do something about the deteriorating condition of the company and started a cooperative to finance the film ‘Baadbaan’ but their efforts proved to be futile as well and ‘Bombay Talkies’ which had given 39 films including Baadbaan’ in 19 years, became a part of history. In some time, the entire property was bought by Seth Tolaram Jalan’s ‘Prakash Cotto Mills’. During the end of the 1950’s decade, ‘Prakash Cotton Mills’ gave the green lush grounds full of trees to ‘Ramkumar Jalan Public Charitable Trust’ on lease who promptly cut the trees and made shades all over to create small scale industries on the once green grounds.
According to J.M.Sharma, 4 acres of the 17 acres of land, of ‘Bombay Talkies’ has been reserved by the Mumbai Municipal Corporation as space for a garden. In the rest of the 13 acres of land almost 900 small industries are active that make products from a needle to parts of a ship. As a result due to the process started in 1960-61 the then ‘Bombay Talkies’ has become an industrial area known as ‘B.T.Compound’….and beneath the din of machines and hammer, the sounds of ‘lights ', ‘sound’, ‘camera', 'action’ and ‘cut’ have been lost forever.