“ये रात ये फ़िज़ाएं फिर आएं या न आएं” - जवाहर कौल
.......शिशिर कृष्ण शर्मा
हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर, यानि 1960 के दशक तक की फ़िल्मों, और ख़ासतौर से ब्लैक एंड व्हाईट सिनेमा के चाहने वालों के लिए अभिनेता जवाहर कौल का नाम अनजाना नहीं है। अपने पूरे करियर के दौरान उन्होंने गिनी-चुनी फ़िल्मों में ही काम किया लेकिन दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने में वो पूरी तरह से कामयाब रहे। आज भले ही आम दर्शक के ज़हन से उनका नाम क़रीब-क़रीब मिट चुका हो लेकिन 85 साल की उम्र में भी वो पूरी तरह से चुस्त-दुरूस्त हैं और मुंबई में ही रहते हैं।
जवाहर कौल ने अपने करियर की शुरूआत बेहद छोटी-छोटी भूमिकाओं से की थी। साल 1945 में बनी ‘वीर कुणाल’ में वो हीरो किशोर साहू के छोटे भाई की भूमिका में नज़र आए थे तो उसी साल बनी सोहराब मोदी की फ़िल्म ‘एक दिन का सुल्तान’ में उन्होंने हुमायूं के महावत की भूमिका निभाई थी। हीरो बनने का मौक़ा उन्हें साल
1948 में बनी फ़िल्म ‘खिड़की’ में मिला था, जिसमें उनकी हीरोईन रेहाना थीं।
27 सितम्बर 1927 को श्रीनगर कश्मीर में जन्मे जवाहर का जन्म तो नेहरू परिवार में हुआ था लेकिन वो महज़ 6 दिन के थे जब उन्हें उनके दादा की बहन ने अपने बेटे के लिए गोद ले लिया था। इस तरह नए परिवार में आकर उनके नाम के साथ नेहरू की जगह ‘कौल’ जुड़ गया।
जवाहर बताते हैं, ‘उन दिनों जवाहर टनल बनी नहीं थी और कश्मीर से मुल्क़ के बाक़ी हिस्सों में जाने का रास्ता रावलपिंडी से होकर गुज़रता था। मैंने पंजाब यूनिवर्सिटी से इंटर किया और फिर रावलपिंडी चला आया। क़रीब एक महिना रावलपिंडी में गुज़ारने के बाद मैंने मुंबई जाने का फ़ैसला किया। पिताजी इसके ख़िलाफ थे लेकिन मैंने यह कहकर उन्हें मना लिया कि मैं पुणे यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करूंगा। लेकिन हक़ीक़त ये थी कि मैं फ़िल्मों में किस्मत आजमाना चाहता था। दरअसल बचपन से ही हिंदी फ़िल्में मुझे अपनी तरफ़ खींचती आई थीं और मेरी दिली तमन्ना थी कि मैं भी एक्टर बनूं।’
उस ज़माने में फ़िल्मी गतिविधियों का केन्द्र दादर हुआ करता था जहां तीन बड़े स्टूडियो ‘रणजीत’, ‘श्री साऊंड’ और ‘सुप्रीम’ थे। चालीस के दशक के मध्य में जवाहर कौल मुंबई पहुंचे और उन्होंने दादर को अपना ठिकाना बना लिया। दिन भर वो स्टूडियोज़ के चक्कर काटते थे और रात में ‘प्रभा पिक्चर्स’ के ऑफ़िस की गैलरी में जाकर सो जाते थे। घर से डेढ़ सौ रूपए का मनीऑर्डर हर महिने आता ही था क्योंकि घरवाले इस ग़लतफ़हमी में थे कि बेटा पूना यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है। कश्मीरी होने के नाते जवाहर आकर्षक चेहरे-मोहरे और क़द-काठी के मालिक थे इसलिए काम मिलने में भी ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। ‘वीर कुणाल’ से शुरूआत हुई और फिर जल्द ही छोटी-छोटी भूमिकाएं मिलने लगीं।
दादर में ही जवाहर की दोस्ती अभिनेता राधाकिशन (मेहरा) से हुई जो लल्लूभाई मेंशन में रहते थे। उसी बिल्डिंग में दादा भगवान और फ़िल्मों में प्रोडक्शन मैनेजर प्रभाशंकर याज्ञिक भी रहते थे। प्रभाशंकर सोहराब मोदी की फ़िल्म ‘मैं हारी’ (1940) के हीरो नवीन याज्ञिक के भाई थे। प्रभाशंकर से जवाहर की ऐसी गहरी दोस्ती हुई कि कुछ समय बाद प्रभा ने उन्हें अपने ही घर में रहने की जगह दे दी। जवाहर बताते हैं, ‘राधाकिशन, प्रभाशंकर और मेरी ऐसी पक्की दोस्ती थी कि बहुत जल्द हमारी तिकड़ी फ़िल्मी हलक़ों में मशहूर हो गयी। उधर प्यारेलाल संतोषी भी राधाकिशन के अच्छे दोस्त थे जिनका हमारे यहां आना-जाना लगा रहता था। फिल्मिस्तान कंपनी की संतोषी निर्देशित फिल्म ‘शहनाई’ (1947) हिट हुई तो संतोषी ने ख़ुद ही प्रोड्यूसर बनने का फैसला कर लिया। फ़िल्म ‘खिड़की’ उनके बैनर की पहली फ़िल्म थी जिसमें हीरो की भूमिका उन्होंने मुझे सौंप दी। हिरोईन रेहाना थीं और संगीतकार थे सी.रामचंद्र। फ़िल्म तो औसत रही लेकिन मुझ पर फ़िल्माया उसका एक गीत ‘किस्मत हमारे साथ है...’ अपने जमाने में बेहद मशहूर हुआ था’।
अगले क़रीब डेढ़ दशक में जवाहर ने ‘आज़ादी की राह पर’ (1948), ‘ग़रीबी’ (1949), ‘अपनी छाया’ (1950), ‘शीश महल’ (1950), ‘घायल’ (1951), ‘दाग़’ (1952), ‘पहली झलक’ (1954), ‘कठपुतली’ (1957), ‘देख कबीरा रोया’ (1957), ‘भाभी’ (1957), ‘लाल बत्ती’ (1957), ‘एक शोला’ (1958), ‘अदालत’ (1958), ‘बंटवारा’ (1961) और ‘साहब बीबी और गुलाम’ (1962) जैसी फ़िल्मों में अहम भूमिकाएं निभाईं। लेकिन अपने करियर को लेकर वो संतुष्ट नहीं थे।
उनका कहना है, ‘अक्सर मुझे महसूस होता था कि बतौर अभिनेता मैं ज़्यादा सफल नहीं हो पा रहा हूं। उधर 1950 के दशक के मध्य में शादी भी हो चुकी थी जिसकी वजह से पारिवारिक ज़िम्मेदारियां बढ़ने लगी थीं। पत्नी बहुत पढ़ी-लिखी और मुंबई के एक जाने-माने परिवार से थीं। वो राज्यस्तर की बैडमिंटन खिलाड़ी थीं और हमारी मुलाक़ात क्रिकेट क्लब में हुई थी, जिसका मैं सदस्य था। उनके पिता दत्तात्रेय प्रधान, बाबा साहब अंबेडकर के क़रीबी दोस्त-सहयोगी और मुंबई महानगर पालिका के एक वरिष्ठ कॉरपोरेटर थे। दादर (पूर्व) के मशहूर डी.वी.प्रधान मार्ग को आज उन्हीं के नाम से जाना जाता है। जब मैंने देखा कि करियर कोई ख़ास गति नहीं पकड़ पा रहा है तो अभिनय की तरफ़ से मेरा मन उखड़ने लगा। उधर बढ़ती उम्र के साथ सिर्फ़ कैरेक्टर रोल्स ही मेरे हिस्से आने लगे थे। ऐसे में मौक़ा मिलते ही मैंने अभिनय को अलविदा कह दिया’।
बतौर कैरेक्टर आर्टिस्ट जवाहर ने पापी, मुक्ति, प्यार का मंदिर, प्यार का देवता और आख़िरी बदला जैसी कुछ फ़िल्में कीं। इनमें से प्यार का मंदिर और प्यार का देवता का निर्माण उनकी बेटी शबनम कपूर ने किया था। अभिनय से सन्यास लेने के बाद जवाहर कौल निर्माता संदीप सेठी की कंपनी ज्वाला पिक्चर्स में प्रोडक्शन मैनेजर बन गए। उसी दौरान उनकी मुलाक़ात मिथुन चक्रवर्ती से हुई जो संदीप के अच्छे दोस्त थे। मिथुन के आग्रह पर जवाहर ने उनके सेक्रेट्री की ज़िम्मेदारी संभाल ली। जवाहर लगातार 17 सालों तक मिथुन के सेक्रेट्री रहे और उस दौरान उन्होंने मिथुन को लेकर फ़िल्म ‘अग्निपुत्र’ का निर्माण भी किया। लेकिन तमाम अड़चनों के बाद बनकर तैयार हुई फ़िल्म अग्निपुत्र बहुत मुश्किल से साल 2000 में रिलीज हो पाई। बुरी तरह से फ़्लॉप हुई इस फ़िल्म ने जवाहर को आर्थिक तौर पर बहुत नुक़सान पहुंचाया, हालांकि उस समय तक उनके बेटे-बेटी इतने संपन्न हो चुके थे कि उन्होंने मिलकर अपने पिता का तमाम कर्ज़ उतार दिया।
जवाहर कौल आज अंधेरी (पश्चिम) के पॉश इलाक़े यारी रोड में रहते हैं। सिनेमा से उनका रिश्ता पूरी तरह से टूट चुका है। चार बेटियों और एक बेटे के पिता जवाहर की पत्नी क्लारा कौल का निधन हुए 12 साल गुज़र चुके हैं। उनका बेटा यारी रोड पर ‘चिल्ड्रन वेल्फ़ेयर सेंटर’ के नाम से अपना स्कूल और कॉलेज संभालता है। बेहद गर्मजोशी भरे स्वभाव के बावजूद जवाहर अब फ़िल्मी दुनिया के अपने गुज़रे दौर के बारे में बात करने से कतराते हैं। ‘बीते हुए दिन’ के साथ बातचीत के लिए भी वो बहुत मशक़्क़त और मनुहार के बाद तैयार हुए। उनका कहना है, ‘ऐसी कोई मीठी यादें हैं ही नहीं जिनके बारे में बात करके मुझे ख़ुशी मिलती हो, इसलिए जो गुज़र गया, उसे भुला देना ही बेहतर है।‘
जवाहर कौल का निधन 15 अप्रैल 2019 को 92 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ|
We
are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi, Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ & Mr. Biren Kothari for
their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Akhsher Apoorva for editing the English translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Jawahar Kaul on YT Channel BHD
“Ye Raat Ye Fizaayein Phir Aayein Ya Na Aayein” - Jawahar Kaul
............Shishir Krishna Sharma
For the golden era of Hindi cinema, to be precise the films made up till the 1960’s decade and especially for the fans of
black and white cinema, the name Jawahar Kaul is not unfamiliar. Through his entire
career he worked in only a few selective films, but he very efficaciously
enraptured the attention of the audience. His name may have faded from the memory of the current generation of audience
but at the age of 85 he is still very hale and hearty and resides in Mumbai
itself.
Jawahar Kaul started his career by doing very small roles. He
was first seen onscreen as hero Kishore Sahu’s younger brother in ‘Veer Kunal’ which
was made in 1945 and in the same year he was also seen playing Humayun’s Mahout
in Sohrab Modi’s film ‘Ek Din Ka Sultan’.
He got the chance to be the main lead with the film ‘Khidki’,
made in 1948, where his heroine was Rehana.
Born to the Nehru family on 27th September 1927 in Srinagar,
Kashmir, Jawahar was merely 6 days old when his paternal grandfather’s sister
adopted him for her son. And subsequently as he became part of a new family
his second name changed from Nehru to ‘Kaul’. Jawahar tells us, “Jawhar
tunnel was not made then and the only road connecting Kashmir and the rest of
the country was through Rawalpindi. I did my Intermediate from Punjab University and then went to Rawalpindi. After spending almost a month in Rawalpindi I decided
to go to Mumbai. My
father was against it, but I convinced him by saying that I’ll do my graduation
from Pune University. But the truth was that I wanted to try my luck in films. Since
a very early age Hindi films had a deep effect on me, and my deepest desire was
to become an actor”.
In those days Dadar used to be
the epicenter of all film related activities where three big studios ‘Ranjit’, ‘Shri Sound’ and ‘Supreme’ were
situated. During mid-1940’s Jawahar Kaul
reached Mumbai and made Dadar his address. He would go from studio to
studio during days and in the night, he would sleep in the office gallery of ‘Prabha Pictures’. He would receive a money order
of 150 rupees from home every month because they were under the wrongful
impression that their son is studying at Pune University. Being a Kashmiri
Jawahar’s looks and features as well as his height and personality were
impressive and hence it wasn’t long before he started getting work. He debuted
with ‘Veer Kunal’ and
soon started getting small roles here and there.
In Dadar Jawahar met and became
friends with actor Radhakishan (Mehra)
who used to live in Lallubhai
Mansion. Dada Bhagwan and production manager of
films
Prabha Shankar Yagnik also used to stay in the
same building. Prabha Shankar was Navin Yagnik’s brother who was the hero of Sohrab Modi’s film ‘Mai Haari’ (1940). Jawahar and Prabha Shankar became
such good friends that after a while Prabha gave him a place to stay in his own
house. Jawahar says, “I, Radhakishan and Prabha Shankar became such good
friends that our trio became very famous in and around the film circle. Pyarelal
Santoshi was also good friends with Radhakishan and he would visit us very often. Filmistan Company’s film ‘Shehnai’ (1947) directed by Santoshi became
a hit and so Santoshi himself decided to become a producer. Film ‘Khidki’ was the first film to be made under his banner
and he cast me in the lead role of the movie. The heroine was Rehana and
the composer was C.Ramchandra.
The film did average business but a song that was filmed on me ‘kismet hamare saath hai...’ became
very famous during that time. “
In the next approximately one
and a half decade Jawahar essayed important roles
in films like ‘Azadi Ki Raah Par’ (1948), ‘Gharibi’ (1949), ‘Apni Chhaya’ (1950), ‘Sheesh Mahal’ (1950), ‘Ghayal’ (1951), ‘Daag’ (1952), ‘Pehli Jhalak’ (1954), ‘Kathputli’ (1957), ‘Dekh Kabira Roya’ (1957), ‘Bhabhi’ (1957), ‘Laal Batti’ (1957), ‘Ek Shola’ (1958), ‘Adalat’ (1958), ‘Batwara’ (1961) and ‘Sahib Biwi Aur Ghulam’ (1962). But he wasn’t satisfied with his career
trajectory. He
says, “I used to often feel that I am not able to attain much success as an
actor. On the other hand, in the mid-1950’s I had married and hence family
responsibilities had increased as well. My wife was well educated and hailed
from a well-known family in Mumbai. She was a national level badminton player and we had met at the Cricket
Club, of which I was a member. Her father Dattatreya Pradhan, was a close associate of Baba Saheb Ambedkar and was a senior corporator in
Mumbai Municipal Corporation. Dadar (east)’s famous D.V.Pradhan Marg is
still known by his name. When
I realized that my career is not gaining much momentum, then, my fascination
with acting started to wane away. On the other hand, due to my increasing age I was getting only character
roles. And
so as soon as I got the chance, I bid acting goodbye.
As a character artist Jawahar did a few films like ‘Paapi’, ‘Mukti’, ‘Pyar Ka Mandir’, ‘Pyar ka Devta’ and ‘Akhiri Badla’. Of these ‘Pyar Ka Mandir’ and
‘Pyar ka Devta’ were made by his daughter Shabnam Kapoor. After retiring from acting, Jawahar Kaul became the
production manager in director Sandeep Sethi’s company ‘Jwala
Pictures’. At
this time he met Mithun Chakravorty who was a good friend of Sandeep. On Mithun’s request Jawahar became his
secretary. Jawahar was his secretary for the next 17 years and during that time
he also made a film ‘Agniputra’
with Mithun. The
film ‘Agniputra’ was completed only after facing a lot of hiccups and was
finally released with great difficulty in 2000. An absolute flop, this film caused great financial
difficulties for Jawahar, although by this time his son and daughters had
become so successful that they together cleared all his financial debts.
Today Jawahar Kaul stays at Andheri (West)’s posh Yari Road area. He has completely broken all his ties with the
cinematic world. Father
to 4 daughters and a son, it has been 13 years since the demise of his wife
Clara Kaul. His son takes care of his school and collage
called ‘Children Welfare Centre’
at Yari Road. Though
Jawahar’s nature is very warm and hearty, he hesitates to talk about the
yesteryears of the film industry. Even to be interviewed by ‘Beete Hue Din’
he
had to be cajoled and persuade. He had said, “There is no such sweet memory
that I can talk about with fondness, that’s why, it’s better to forget that
which has already passed.
Jawahar Kaul died in Mumbai on 15 April 2019 at the age of 92.