“कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ” – अबरार अल्वी
..........शिशिर कृष्ण शर्मा
जब भी गुरूदत्त का ज़िक्र होता है तो ज़हन में खुदबखुद एक और नाम कौंध जाता है| और वो नाम है लेखक-निर्देशक अबरार अल्वी का जो गुरूदत्त के करीबी दोस्त और पसंदीदा कथा-पटकथा-संवाद लेखक तो थे ही, ‘गुरूदत्त फिल्म्स’ की हिट फिल्म ‘साहब बीबी और गुलाम’ का निर्देशन भी उन्होंने ही किया था| अबरार अल्वी से मेरी मुलाक़ात अंधेरी (पश्चिम) के मिल्लत नगर स्थित उनके फ़्लैट पर हुई थी| उस मुलाक़ात के दौरान उन्होंने अपने निजी और व्यावसायिक जीवन के बारे में विस्तार से बेलाग बातचीत की थी|
मूलत: अयोध्या-फैजाबाद के रहने वाले अबरार अल्वी के पिता तत्कालीन सेन्ट्रल प्रोविंस के यवतमाल ज़िले में पुलिस प्रोसिक्यूटर थे और डी.आई.जी. के पद से रिटायर हुए थे| अबरार अल्वी का जन्म 1 जुलाई 1927 को अयोध्या में हुआ था| लेकिन पिता की नौकरी के दौरान उनके बचपन का ज़्यादातर समय होशंगाबाद, अकोला, नागपुर, जबलपुर और खामगांव जैसे शहरों में बीता था|
अबरार अल्वी ने बताया था, “मेरी तमाम पढ़ाई-लिखाई नागपुर में हुई जहां मैं एक शौकिया लेखक और अभिनेता के रूप में रेडियो के लिए भी काम करता था| उस दौरान मैंने कॉलेज के लिए भी कई नाटक लिखे| मैंने एम.ए., एल.एल.बी. किया और फिर साल 1951 में अभिनेता बनने का ख़्वाब लिए मुम्बई चला आया| मशहूर रंगकर्मी हबीब तनवीर कॉलेज में मेरे सीनियर हुआ करते थे| उनके कहने से मैं मुम्बई में इप्टा से जुड़ गया| मुम्बई में मैंने क़रीब चार महीने बिना किसी ठौर-ठिकाने के बिताए| और फिर एक रोज़ अचानक ही मेरी मुलाक़ात इरशाद हुसैन से हो गयी जो मेरे सगे चचेरे भाई थे| मुझे पता ही नहीं था कि वो भी मुम्बई में हैं और फिल्मों में काम कर रहे हैं|”
इरशाद हुसैन ने अपना फ़िल्मी नाम ‘जसवंत’ रख लिया था और वो उन दिनों गुरूदत्त के निर्देशन में बन रही फिल्म ‘बाज़’ में एक अहम भूमिका कर रहे थे| अबरार अल्वी को वो अपने घर पर ले गए और इस तरह अबरार को मुम्बई में पहली बार एक छत मिली| फिल्म ‘बाज़’ साल 1953 में प्रदर्शित हुई थी| इस फिल्म के नायक-नायिका गुरूदत्त और गीता बाली और संगीतकार ओ.पी.नैयर थे| इस फिल्म का निर्माण गीतादत्त की बड़ी बहन हरिदर्शन कौर ने किया था| ‘बाज़’ की शूटिंग के दौरान हरिदर्शन कौर और जसवंत में मुहब्बत हुई और जल्द ही दोनों ने शादी कर ली|
(गीता बाली का असली नाम हरकीर्तन कौर था| उनकी बहन हरिदर्शन कौर और जसवंत की बेटी योगिता बाली 1970 के दशक की स्टार अभिनेत्री थीं| आज वो मशहूर अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती की पत्नी हैं| हरिदर्शन कौर और जसवंत के बेटे और योगिता बाली के भाई (स्वर्गीय) योगेश की पत्नी हेमलता हिन्दी सिनेमा की एक जानीमानी पार्श्वगायिका हैं|)
अबरार अल्वी ने बताया था, “मुझे ड्राईविंग का बहुत शौक़ था इसलिए जसवंत के साथ मैं बतौर ड्राईवर ‘बाज़’ की शूटिंग पर जाने लगा था| उस फिल्म में सहायक निर्देशक का काम कर रहे राज खोसला से जल्द ही मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी| एक रोज़ लंचब्रेक में मैंने बातों बातों में राज खोसला से कहा कि संवाद पात्र के हिसाब से होने चाहिएं| मेरी ये बात गुरूदत्त ने सुन ली| उन्होंने राजखोसला से मेरे बारे में पूछताछ की और जब उन्हें मेरी पृष्ठभूमि का पता चला तो अपनी अगली फिल्म ‘आरपार’ के संवाद लिखने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी| ‘आरपार’ 1954 में प्रदर्शित हुई और बेहद कामयाब रही, जिसके बाद मैं गुरूदत्त के साथ स्थायी तौर पर जुड़ गया|
अबरार अल्वी ने कॉलेज के दिनों में एक हास्य नाटक ‘मॉडर्न मैरेज’ लिखा था जो काफी सफल रहा था| गुरूदत्त ने वो नाटक पढ़ा तो वो उन्हें इतना पसंद आया कि उन्होंने उस पर फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ बना डाली| ये फिल्म भी बेहद कामयाब रही| लेकिन इसमें अबरार अल्वी का नाम केवल संवाद लेखक के तौर पर दिया गया था| फिल्म के क्रेडिट्स में कहानीकार और पटकथाकार का नाम ही नहीं था|
अबरार अल्वी का कहना था, “हैदराबाद के एक ज़मींदार ‘रेड्डी’ परिवार का लड़का नागपुर में मेरे साथ पढ़ता था| उसके ज़रिये मेरी मुलाक़ात एक वेश्या से हुई थी जो गुजरात के किसी मंदिर के पुजारी की बेटी थी| वो अपने प्रेमी के साथ घर से भाग आयी थी और अंत में धोखा खाकर वेश्यावृत्ति के दलदल में आ फंसी थी| उस लड़की के संस्कारों और बातचीत के अंदाज़ ने मुझे बेहद प्रभावित किया था| गुरूदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ में मैंने ‘गुलाबो’ का चरित्र उसी लड़की को ध्यान में रखकर गढ़ा था|”
अक्सर कहा जाता है कि अबरार अल्वी की जो भी पहचान बनी, वो गुरूदत्त की वजह से बनी| लेकिन अबरार अल्वी को ये बात बहुत चुभती थी| वो कहते थे कि तस्वीर के दूसरे पहलू पर किसी ने ध्यान देने की ज़रुरत ही नहीं समझी| उनके अनुसार फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ की तरह ‘प्यासा’ में भी उनका नाम केवल संवाद लेखक के तौर पर दिया गया था जबकि फिल्म की कहानी और चरित्रों को गढ़ने में भी उनका बराबर का योगदान था| फिल्म ‘प्यासा’ के बारे में अबरार अल्वी ने और भी बहुत सी दिलचस्प बातें बताई थीं| उन्होंने कहा था –
“मैं हमेशा ही फिल्म के सेट पर मौजूद रहकर कलाकारों की भाषा और उच्चारण पर नज़र रखता था| लेकिन किसी वजह से मैं कुछ दिनों तक फिल्म ‘प्यासा’ की शूटिंग पर नहीं जा पाया| अभिनेता राधेश्याम और महमूद इस फिल्म में नायक गुरूदत्त के बड़े भाईयों की भूमिकाओं में थे| शूटिंग के पहले ही दिन महमूद ने कहा कि उन्हें बंगाली लहजे में संवाद बोलने दिए जाएं और उनकी बात मान ली गयी| अगर मैं उस वक़्त सेट पर होता तो ऐसा हरगिज़ नहीं होने देता क्योंकि ‘प्यासा’ में ये बनारस का रहने वाला एक ऐसा परिवार था जिसके सभी सदस्य भोजपुरी मिश्रित हिन्दी में बात करते हैं और जहां सबसे छोटा भाई गुरूदत्त हिन्दी-उर्दू का शायर है| ऐसे में परिवार के केवल एक सदस्य का बंगाली लहज़ा अटपटा लगता है लेकिन अफ़सोस, गुरूदत्त जैसे महान निर्देशक ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया| आज ये सब कहने के पीछे मेरी मंशा केवल गुरूदत्त की रचनाओं में अपने उस योगदान की ओर ध्यान दिलाना है जिसे आज तक सब नज़रअंदाज़ करते आए हैं|”
फिल्म ‘कागज़ के फूल’ में पहली बार अबरार अल्वी का नाम संवाद लेखक के साथ साथ पटकथाकार के तौर पर भी दिया गया| लेकिन वो फिल्म बहुत बुरी तरह पिट गयी| इस नाकामी के बाद गुरूदत्त ने जिस स्क्रिप्ट पर फिल्म की योजना बनाई उसका टाइटल ‘पहली झलक’ था| दरअसल वो स्क्रिप्ट पार्श्वगायिका नूरजहां के निर्माता-निर्देशक शौहर शौक़त हुसैन रिज़वी ने लिखवाई थी और वो उसपर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे थे| लेकिन बंटवारे की वजह से उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा| तब से वो स्क्रिप्ट गुरूदत्त के पास रखी थी| अबरार अल्वी के अनुसार इस फिल्म में उनका योगदान केवल फिल्म का नया नाम ‘चौदहवीं का चांद’ सुझाने तक ही सीमित था| ‘कागज़ के फूल’ की नाकामी के बाद गुरूदत्त ने निर्देशन से हाथ खींच लिए थे और ‘चौदहवीं का चांद’ के निर्देशन की ज़िम्मेदारी उस दौर के मशहूर निर्देशक एम.सादिक़ को सौंप दी थी| ये फिल्म बेहद कामयाब रही|
अबरार अल्वी ने बताया था, “गुरूदत्त फिल्म्स की अगली फिल्म ‘साहब बीबी और गुलाम’ बिमल मित्र के इसी नाम के बांग्ला उपन्यास पर बनने जा रही थी| इस फिल्म की पटकथा और संवाद मुझसे लिखवाए गए| गुरूदत्त के मन में विचार उठा था कि इस फिल्म से वो एक बार फिर से निर्देशन में हाथ आज़माएं| मैं उन दिनों बाहर की कुछ फिल्मों में व्यस्त था इसलिए शूटिंग पर मौजूद रह पाना मेरे लिए संभव नहीं था| नतीजतन मेरी आवाज़ में चार घंटे की स्क्रिप्ट स्पूल पर रिकॉर्ड करवाई गयी ताकि ज़रुरत पड़ने पर गुरूदत्त को कहानी और चरित्रों को समझने में आसानी हो| लेकिन घरेलू परेशानियों और भारी मानसिक तनाव की वजह से उन्होंने निर्देशन का विचार त्याग दिया| उन्होंने इस फिल्म के निर्देशन के लिए सत्येन बोस और नितिन बोस जैसे दिग्गज निर्देशकों से संपर्क किया| लेकिन जब कहीं भी बात नहीं जमी तो उन्होंने ये ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी|”
अबरार अल्वी इस नयी ज़िम्मेदारी को लेने से हिचकिचा रहे थे| उनकी इस हिचकिचाहट को देखकर गुरूदत्त ने कहा, जैसा तुमने बोलकर रिकॉर्ड कराया है, ठीक वैसा ही परदे पर उतार दो| अबरार अल्वी ने कोशिश की, फिल्म ‘साहब बीबी और गुलाम’ साल 1962
में प्रदर्शित हुई और बेहद कामयाब हुई| इस फिल्म को डॉ. राधाकृष्णन के हाथों राष्ट्रपति का रजत पदक तो मिला ही, इसने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार भी हासिल किया| इसके अलावा अबरार अल्वी ने इस फिल्म के लिए उस साल का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का, और मीना कुमारी ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार भी जीता|
फिल्म ‘साहब बीबी और गुलाम’ के बाद ‘गुरूदत्त फिल्म्स’ के बैनर में कोलकाता के ‘न्यू थिएटर’ की बेहद कामयाब फिल्म ‘प्रेसिडेंट’ के रीमेक की योजना बनी| अबरार अल्वी के अनुसार उनकी व्यस्तताओं की वजह से फिल्म की स्क्रिप्ट इस्मत चुगताई से लिखवाई गयी जिसका टाइटल ‘बहारें फिर भी आएंगी’ रखा गया| इस्मत के कहने पर निर्देशन का जिम्मा उनके शौहर शाहिद लतीफ़ को सौंपा गया| लेकिन तीन रील बनने के बाद फिल्म बंद हो गयी|
अबरार अल्वी का कहना था, “गुरूदत्त ने फिल्म ‘प्रेसिडेंट’ के लेखक बिनॉय चटर्जी को कोलकाता से बुलाया जिनके साथ बैठकर मैंने स्क्रिप्ट में ज़रूरी बदलाव किये और निर्देशन का जिम्मा गुरूदत्त ने संभाल लिया| उधर शाहिद लतीफ़ ने के.आसिफ से दबाव डलवाया तो गुरूदत्त ने साफ़ कह दिया कि निर्देशन वोही करेंगे, शाहिद चाहें तो सेट पर आकर बैठे रहें, कॉन्ट्रैक्ट के मुताबिक़ उन्हें पैसे मिलते रहेंगे| शाहिद इसके लिए तैयार हो गए| लेकिन अचानक ही गुरूदत्त की मृत्यु हो गई| तब तक फिल्म 12-13 रील बन चुकी थी| ऐसे में फिल्म के वितरक बी.एम.शाह और गुरूदत्त के भाई आत्माराम की चिंता को देखते हुए फिल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ मैंने पूरी की|
इस फिल्म के नायक भी गुरूदत्त ही थे इसलिए उनकी जगह धर्मेन्द्र को लेकर तमाम सीन रीशूट किये गए| इसके लिए मुझे गीतकार शैलेन्द्र द्वारा निर्मित फिल्म ‘तीसरी कसम’ और निर्देशक लेख टंडन की ‘झुक गया आसमान’ का लेखन छोड़ना पड़ा| लेकिन कॉन्ट्रैक्ट के मुताबिक ‘बहारें फिर भी आएंगी’ के निर्देशक के तौर पर डमी-निर्देशक शाहिद लतीफ़ का ही नाम दिया गया|”
फ़िल्मी दुनिया में अबरार अल्वी के सबसे करीबी दोस्त साहिर लुधियानवी थे| साहिर से उनकी पहली मुलाक़ात 1951 में मुम्बई स्थित प्रोग्रेसिव राईटर्स एसोसिएशन के ऑफिस के बाहर हुई थी जहां अबरार हबीब तनवीर से मिलने गए थे| ये मुलाक़ात बहुत जल्द गहरी दोस्ती में बदल गयी थी|
साहिर के बारे में अबरार कहते थे, “साहिर बहुत मुंहफट था| साथी संगीतकारों के बारे में वो बिना लाग-लपेट के कहता था कि संगीतकार अंग्रेज़ी के रिकॉर्ड सुनसुनकर हिन्दी गानों की धुनें तैयार करता है जबकि गीतकार दिलोदिमाग से गीत लिखता है| और इसीलिये गीतकार का दर्जा संगीतकार से ऊंचा है| वो प्रोड्यूसरों से संगीतकार के मुकाबले एक रूपया ज़्यादा मेहनताने की मांग करता था और अपनी इन हरक़तों की वजह से उस ज़माने के कई दिग्गज संगीतकारों को नाराज़ कर चुका था| एक बार वो शराब के नशे में एस.डी.बर्मन के घर जाकर उन्हें भी कुछ ऐसा ही उलटा-सीधा बोल आया था, जिसकी वजह से बर्मन दा ने कसम खा ली थी कि वो अब मरते दम तक साहिर के साथ काम नहीं करेंगे|”उन दिनों ‘प्यासा’ बन रही थी और उसका आखिरी गीत लिखा और रिकॉर्ड किया जाना बाक़ी था| गुरूदत्त और अबरार अल्वी ने बर्मन दा को बहुत समझाया तो वो थोड़ा नरम पड़े और बोले उससे लिखवा लाओ, मैं धुन बना दूंगा| लेकिन साहिर के साथ सिटिंग के लिए वो तैयार नहीं हुए| अबरार का कहना था, “फिल्म का क्लाईमेक्स लिखा जाना बाकी था कि मुझे एक ऑपरेशन के लिए अस्पताल में भरती होना पड़ा| मैंने साहिर को विस्तार से सिचुएशन समझाते हुए कहा कि वो उस पर गीत लिख ले, क्लाईमैक्स अस्पताल से लौटने के बाद लिख दूंगा| तीन हफ्ते बाद अस्पताल से छुट्टी मिली तो पता चला गीत रिकॉर्ड भी हो चुका है| गीत के बोल थे, ‘ये तख्तों, ये ताजों, ये महलों की दुनिया’ जिन्हें सुनकर मैंने माथा पीट लिया| हिन्दुस्तान आज़ाद हुए दस बरस बीत चुके थे| रियासतें अब रही नहीं थीं| तख़्त, ताज और महलों के ज़माने लद चुके थे| ऐसे बेतुके गीत के लिए क्या संवाद लिखूं, समझ ही नहीं आ रहा था| मैंने गुस्से में साहिर से कहा, ‘भले आदमी, अस्पताल आकर एक बार मुझे गीत पढ़वा तो देता’, लेकिन वो ख़ामोश खड़ा मुस्कुराता रहा| आख़िर वो जवाब देता भी तो क्या? तीन दिन की माथापच्ची के बाद मुझे अभिनेता रहमान के लिए लिखना पड़ा, ‘अगर आज विजय ज़िंदा होते तो हम उन्हें अपने दिलों के तख़्त पर बैठाते, शोहरत के ताज पहनाते, ग़रीबी की गलियों से निकालकर महलों में राज कराते|”
अबरार अल्वी ने ‘गुरूदत्त फिल्म्स’ से बाहर की भी ‘साथी’, ‘सूरज’, ‘प्रिंस’, ‘प्रोफ़ेसर’, ‘छोटी सी मुलाक़ात’, ‘बैराग’, ‘लैला मजनूं’, ‘दो फूल’, ‘सबसे बड़ा रूपैया’, ‘मनोरंजन’, ‘संघर्ष’, ‘बीवी ओ बीवी’, ‘जनम जनम’ जैसी क़रीब 20 फ़िल्में लिखीं, जिनमें से ज़्यादातर कामयाब रहीं| उनकी आख़िरी फिल्म 1995 में प्रदर्शित हुई ‘गुड्डू’ थी जिसके उन्होंने पटकथा और संवाद लिखे थे| इस फिल्म के नायक-नायिका शाहरूख खान और मनीषा कोईराला और संगीतकार नौशाद थे|
क़रीब डेढ़ दशक तक सेवानिवृत्त जीवन बिताने के बाद 18 नवम्बर 2009 को 82 साल की उम्र में अबरार अल्वी का मुम्बई में निधन हो गया|
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Mr. Gajendra Khanna for the English
translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video
editing.
ABRAR ALVI On YouTube Channel BHD
“Koi Door Se Awaaz De Chale Aao” – Abrar Alvi
...................Shishir Krishna Sharma
Whenever Guru Dutt’s name is discussed, another name
automatically comes to mind and that name is of writer-director Abrar Alvi who
was not only his close friend and preferred story-screenplay-dialogue writer,
but he had also directed ‘Guru Dutt Films’ hit Film ‘Sahib Bibi Aur
Ghulam’. I met Abrar Alvi at his Andheri
(West)’s Millat Nagar Flat. During our meeting he talked in detail about his
personal and working life.
His father was originally from Ayodhya-Faizabad and he was
the Police Prosecutor in Yavatmal area of Central Provinces and had retired
from the post of D.I.G. Abrar Alvi was born on 1st July 1927 in Ayodhya. Due to
his father’s career, he spent a majority of his childhood in cities like
Hoshangabad, Akola, Nagpur, Jabalpur and Khamgaon.
Abrar Alvi told me, “I did a major part of my education in
Nagpur where I also used to work as an amateur writer and actor on radio.
During my college days I wrote many plays as well. I completed M.A., L.LB. and
in the year 1951 came to Mumbai to pursue my dream of becoming an actor. Famous
playwright Habib Tanvir was my senior during college. On his suggestion, in
Mumbai, I joined IPTA. I spent nearly four months in Mumbai without any fixed
place of stay. Then one day I happened to meet Irshad Hussain who was my
paternal cousin. I did not know that he was also in Mumbai and was working in
Films.”
Irshad Hussain had changed his name to Jaswant and was
playing an important role in Guru Dutt’s upcoming directorial ‘Baaz’. He took
Abrar Alvi to his house and thus Abrar Alvi got a roof over his head for the
first time in Mumbai. Film ‘Baaz’ was released in 1953. It’s hero-heroine were
Guru Dutt and Geeta Bali and the composer was O. P. Nayyar. This movie was
produced by Geeta Bali’s elder sister Haridarshan Kaur. During the shooting of
‘Baaz’, Haridarshan Kaur and Jaswant fell in love and got married soon after.
(Geeta Bali’s real name was Harkirtan kaur. Her sister
Haridarshan Kaur and Jaswant’s daughter Yogita Bali was a star actress during
the 1970s. She is married to famous actor Mithun Chakravarthy now. Haridarshan
Kaur and Jaswant’s son and Yogita’s brother Yogesh’s wife Hemlata is a famous
playback singer of Hindi Cinema.)
Abrar Alvi recalled to me, “I loved driving and therefore as
a driver I started going to the shooting of Baaz as a driver with Jaswant. I
soon became good friends with the film’s assistant Director Raj Khosla. One day
during a lunch break conversation, I told him that the dialogues of the movie
should be according to the character. Guru Dutt heard me say this. He inquired
about me with Raj Khosla and after coming to know my background gave me the
responsibility of writing the dialogues of his next movie ‘Aar Paar’. This
movie which released in 1954 was very successful and after that I got
associated with Guru Dutt permanently.”
During his college days Abrar Alvi had written a comic play
called ‘Modern Marriage’ which had been quite successful. Guru Dutt read it and
liked it so much that he made a film ‘Mr and Mrs 55’ on it. This film was also
very successful but he was credited only for its dialogues. The film’s credits
did not include the names of the story writer and screen play writer at all.
Abrar Alvi told me, “The son of a Hyderabad based landlord
who were Reddys studied with me in Nagpur. Through him I met a prostitute who
was the daughter of a Gujrati temple priest. She had run away with her lover
from her home and finally, after being cheated by him became a prostitute. I
was quite impressed by the girl’s way of speaking and values. I wrote the character
of Guru Dutt’s film ‘Pyaasa’s ‘Gulaabo’ keeping her in mind.”
It is often said that whatever recognition Abrar Alvi got
was due to Guru Dutt but this statement pinched Abrar Alvi a lot. He said that
no one bothered to see and understand the other side of the story. According to
him, like the movie ‘Mr and Mrs 55’, for Pyaasa also he was credited only as
the dialogue writer but despite the fact that he had made an equal contribution
to the movie’s story and etching out its characters. Abrar Alvi told me a lot
of interesting things about the movie ‘Pyaasa’. He told me:-
“I always used to be on the film’s set and monitor the
artists’ language and pronunciation. However due to some reasons, I was not
able to attend the film’s shooting for a few days. Actors Radhe Shyam and
Mehmood were playing the roles of elder brothers of the hero Guru Dutt. On the
first day of the movie’s shoot Mehmood had requested to be permitted to speak
his dialogues in a Bengali accent which was agreed to. If I had been on the
sets at that time I would have never let that happen because in Pyaasa, this
was the one family of Benares where all members spoke Bhojpuri mixed Hindi and
where the youngest brother Guru Dutt was a poet of Hindi and Urdu. In such a
family it looks odd that only one member speaks in a Bengali accent but
unfortunately an ace director like Guru Dutt did not pay attention to this
anomaly. My aim of saying all this is to remind people of those contributions
of mine to Guru Dutt’s creations which have been ignored by everyone till
date.”
Abrar Alvi got the credit as a screen play writer along with
that of a dialogue writer for the first time for the movie ‘Kaagaz Ke Phool’
but it flopped miserably. After its failure, the next script which Guru Dutt
had planned to make a film on was titled ‘Pehli Jhalak’. Actually, the script
had been written by Actress-singer Noorjehan’s producer-director husband
Shaukat Hussain Rizvi to be made into a film but post-partition he had to leave
for Pakistan. The script had been lying with Guru Dutt since. According to
Abrar Alvi, his only contribution was limited to giving the movie the new name
of ‘Chaudhavin Ka Chaand’. After the failure of ‘Kaagaz Ke Phool’, Guru Dutt
had stopped direction and had given the responsibility of directing ‘Chaudhavin
Ka Chaand’ to famous director M Sadiq. This film proved to be quite successful.
Abrar Alvi had told me, “Guru Dutt Films’ next movie ‘Sahib
Bibi Aur Ghulam’ was planned on Bimal Mitra’s Bengali novel with the same name.
I wrote the movie’s screen play and dialogues. Guru Dutt was considering taking
up directing with this film once again. I was busy with some movies outside
this banner and it was difficult for me to be available for the movie’s
shooting. Due to this, the script of the movie was recorded in my voice on a
spool running to nearly four hours so that it could become easy for Guru Dutt
to understand the story and its characters. However due to personal troubles
and heavy mental tension, he decided to not take up direction. He contacted
many famous directors like Satyen Bose and Nitin Bose to direct it. When he
didn’t get a positive reply from them, He gave me the responsibility of
directing the movie.”
Abrar Alvi was reluctant to take up this new assignment.
Seeing his reluctance, Guru Dutt instructed him to simply translate on screen
what he had done in the recording. Abrar Alvi tried to do that and the movie
‘Sahib Bibi Aur Ghulam’ released in 1962 to wide acclaim. This film not only
won the President’s silver medal from Dr Radhakrishnan but also got the
Filmfare Award for best film. In addition, Abrar Alvi got the Best Director
Filmfare and Meena Kumari, the Best Actress Filmfare for the movie.
After ‘Sahib Bibi Aur Ghulam’, ‘Guru Dutt Films’ decided to
remake Kolkata’s New Theatres’ hit movie ‘President’. According to Abrar Alvi,
due to his being busy, the script of this film was written by Ismat Chugtai and
was titled ‘Baharen Phir Bhi Aayengi’. On her suggestion, Ismat’s husband Shahid
Latif was made its director but the film’s shooting got stopped after the
recording of three reels.
Abrar Alvi recalled, “Guru Dutt called movie President’s
writer Benoy Chatterjee from Kolkata to make necessary changes to the script
and decided to direct the film himself. Meanwhile, through K Asif, Shahid Latif
got pressure applied on Guru Dutt. Guru Dutt told him that he would himself
direct the film but Latif was welcome to come and sit on the sets and get the
payment as per the contract. Shahid Latif agreed to this but suddenly Guru Dutt
passed away. The movie’s 12-13 reels had already been made by then. Considering
the situation of the movie’s distributor B M Shah and Guru Dutt’s brother Atma
Ram, I had to complete the movie ‘Bahaaren Phir Bhi Aayengi’. Since Guru Dutt
was also the hero of this movie, I reshot all his scenes with Dharmendra. For
doing this I had to leave the writing assignments of Lyricist Shailendra’s
production ‘Teesri Kasam’ and Director Lekh Tandon’s ‘Jhuk Gaya Aasmaan’. However
as per the contract, the dummy Director Shahid Latif got the credit for the
Director of ‘Bahaaren Phir Bhi Aayengi.”
Abrar Alvi’s closest friend in the film industry was Sahir
Ludhyanvi. Abrar met him for the first time in 1951 at Mumbai’s Progressive Writers
Association Office where Abrar had gone to meet Habib Tanvir. This meeting soon
turned into deep friendship. Remembering Sahir, Abrar said, “Sahir was very
straight forward and curt. He used to say very undiplomatically of his fellow
composers that they used to listen to English records and prepare the tunes of
their Hindi songs after lifting them while the lyricists wrote with their
hearts and minds. Hence, the status of lyricists is above that of the
composers. He used to ask the producers to pay him one rupee more salary than
the composers and this had made many of the top composers of the era against
him. Once he went to S D Burman’s house in an inebriated condition and talked
to him in such a manner that Burman sworn never to work with Sahir again in his
lifetime.”
During those days, ‘Pyaasa’ was being made and its last song
was yet to be written and recorded. Guru Dutt and Abrar Alvi tried to convince
Burman da for it. After lot of efforts, Burman da relented to agree to
recording the song if they could bring the written song from him. He however
refused to participate in any sitting whatsoever with Sahir.
Abrar recalled, “The climax of this film was yet to be
written when I had to be admitted to the Hospital for an operation. I explained
the situation of the movie to Sahir and asked him to write the song while I
would write the climax after returning from the Hospital. When I got discharged
from the Hospital after three weeks, I came to know that the song had already
been recorded. The lyrics of the song were, “Yeh Takhton, Yeh Taajon, Yeh
Mehlon Ki Duniya”, hearing which I was quite troubled. It had been ten years
since India had got independent and kingdoms no longer existed. The days of
Takhts, Taajs and Mahals were long gone. I was finding it difficult to come up
with suitable dialogues for such a senseless song. I asked Sahir what stopped
him from coming to the Hospital and making me read the song but he silently
stood smiling there. What could he tell me anyway? After three days of scratching
my mind, I finally wrote this dialogue for actor Rehman, “Agar Aaj Vijay Zinda
Hote To Hum Unhen Apne Dilon Ke Takht Par Bithaate, Shohrat Ke Taaj Pehnaate
aur Gareebi Ki Galiyon Se Utha Kar Mehlon Mein Raaj Karaate!”
Outside ‘Gurudutt films’ Abrar Alvi wrote nearly 20 films
including ‘Saathi’, ‘Sooraj’,’Prince’, ‘Professor’, ‘Chhoti Si Mulakaat’,
‘Bairaag’, ‘Laila Majnu’, ‘Do Phool’, ‘Sabse Bada Rupaiya’, ‘Manoranjan’,
‘Sangharsh’, ‘Biwi O Biwi’ and ‘Janam Janam’ most of which were quite successful.
His last film ‘Guddu’ released in 1995 for which he had written the screenplay
and dialogues. It starred Shahrukh Khan and Manisha Koirala while its composer
was Naushad.
After spending nearly one and a half decade of retired life,
Abrar Alvi passed away at the age of 82 on 18 November 2009 in Mumbai.