“मेरे दिल ज़िंदगी सफ़र है” – महेन्द्र कपूर
...........शिशिर कृष्ण शर्मा
हिंदी सिनेमा के स्वर्णकाल यानि 1950 और 60 के दशक का सबसे अहम हिस्सा है, उस दौर का कर्णप्रिय फिल्म संगीत जो आज भी अपनी मिठास को बरकरार रखे हुए है। उस दौर के हिंदी फ़िल्म संगीत को समृद्ध करने में न सिर्फ़ ज़हीन संगीतकारों ने बल्कि सुरीले गायक-गायिकाओं ने भी भरपूर योगदान दिया था। रफ़ी, मुकेश, तलत, मन्नाडे, किशोर कुमार, लता, आशा, गीता दत्त, सुधा मल्होत्रा और सुमन कल्याणपुर ऐसे ही सुरीले गायक-गायिका थे, जिन्होंने बेशुमार बेमिसाल गीत संगीतप्रेमियों को दिए। इन्हीं में से एक नाम था, महेन्द्र कपूर का।
महेन्द्र कपूर जी से मेरी मुलाक़ात जनवरी 2004 के आख़िरी हफ्ते में बान्द्रा (पश्चिम) के सेंट एण्ड्रूज़ रोड स्थित उनके फ़्लैट पर हुई थी। बातचीत के दौरान उन्होंने एक चौंका देने वाली बात बताई थी, कि आम धारणा के विपरीत उनका गाया पहला गीत न तो ‘आधा है चन्द्रमा रात आधी’ था और न ही ‘चांद छुपा और तारे डूबे’। बल्कि उनका फिल्मी करियर तो साल 1953 में ही शुरू हो चुका था।
महेन्द्र कपूर के पिता अमृतसर के रहने वाले थे और मुम्बई में कपड़े का कारोबार करते थे। महेन्द्र कपूर का जन्म 9 जनवरी 1934 को अमृतसर में हुआ था, लेकिन वो महज़ 1 महिने के थे जब उनके माता-पिता उन्हें मुम्बई ले आए थे। महेन्द्र कपूर ने बताया था, “मेरी पढ़ाई-लिखाई मुम्बई में ही हुई। हमारे घर में सभी को संगीत का बेहद शौक़ था और मेरी मां और बड़ा भाई भी बहुत अच्छा गाते थे। जब मैं कच्ची क्लास में था तो एक रोज़ टीचर के कहने पर मैंने गाया था – ‘ठण्डी ठण्डी रेत में खजूर के तले, तेरे इंतज़ार में मेरा दिल जले’ जो स्कूल में सबको बहुत पसंद आया था। इसके अलावा अमीरबाई कर्नाटकी का गाया फ़िल्म शहनाई का गीत ‘मार कटारी मर जाना’ और नूरजहां के तमाम गीत भी मैं अक्सर दोस्तों की फ़रमाईश पर गाता था”।
(क़मर जलालाबादी का लिखा और जोहराबाई अम्बालेवाली का गाया गीत ‘ठण्डी ठण्डी रेत में खजूर के तले, तेरे इंतज़ार में मेरा दिल जले’ फ़िल्मिस्तान कंपनी की 1947 में बनी फ़िल्म ‘साजन’ का है जिसे सी.रामचन्द्र ने संगीतबद्ध किया था। फ़िल्म ‘शहनाई’ भी साल 1947 में ही प्रदर्शित हुई थी। 1947 में श्री महेन्द्र कपूर की उम्र 13 साल थी। उम्र के लिहाज़ से श्री महेन्द्र कपूर उस वक़्त कच्ची क्लास अर्थात नर्सरी या के.जी. में नहीं बल्कि चौथी या पांचवी में रहे होंगे।)
एक रोज़ महेन्द्र कपूर के बड़े भाई को संगीत सिखाने के लिए बी.एम.व्यास को घर पर बुलाया गया। बी.एम.व्यास गीतकार भरत व्यास के छोटे भाई थे जो पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर में बतौर गायक, संगीतकार और अभिनेता नौकरी करते थे। महेन्द्र कपूर के मुताबिक़, ‘बी.एम.व्यास साहब से भाईसाहब की जगह मैं संगीत सीखने लगा। उस वक़्त मेरी उम्र 7-8 साल की रही होगी”।
साल 1947 में बनी फ़िल्म ‘जुगनू’ का रेकॉर्ड बाज़ार में आया तो उसके गीत ‘यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है’ के पुरूष स्वर ने महेन्द्र कपूर को बेहद प्रभावित किया। उन दिनों रेकॉर्ड पर पार्श्वगायक की जगह फ़िल्म के उस चरित्र का नाम दिया जाता था, जिस पर वो गीत फ़िल्माया गया हो, इसीलिए गायक ग़ुमनाम ही रहते थे। महेन्द्र कपूर इस गीत के असली गायक का नाम जानने के लिए बेचैन थे। उन्होंने रेकॉर्ड्स की कई दुकानों पर जाकर पूछताछ की, तब उन्हें पता चला कि वो आवाज़ एक नए गायक मोहम्मद रफ़ी की थी।
महेन्द्र कपूर अपने एक दोस्त के ज़रिए भिण्डी बाज़ार स्थित रफ़ी साहब के घर पर पहुंच गए। महेन्द्र कपूर के मुताबिक़, “रफ़ी साहब और उनके भाई हामिद मुझसे बेहद आत्मीयता से मिले, और जब उन्हें पता चला कि मैं भी गाता हूं तो उन्होंने मेरे पिताजी और बड़े भाईसाहब को भी अपने घर पर आमंत्रित किया। पिताजी और भाईसाहब की मौजूदगी में रफ़ी साहब ने मुझसे अपनी प्राईवेट अलबम का गीत ‘वो रातें क्या भूल गए हो जनम जनम के साथी’ सुनाने को कहा। मैंने गीत गाया, उस इम्तेहान में मैं उत्तीर्ण हुआ और रफ़ी साहब ने मुझे अपना शागिर्द बना लिया। वो मुझे अपने साथ अपने गानों की रेकॉर्डिंग पर ले जाने लगे”।
एक रोज़ अपने पड़ोस में रहने वाली पार्श्वगायिका धन इन्दौरवाला के ज़रिए महेन्द्र कपूर की मुलाक़ात संगीतकार वी.बलसारा से हुई। महेन्द्र कपूर के गायन से प्रभावित होकर वी.बलसारा ने उन्हें अपने ऑर्केस्ट्रा में रख लिया। उन्हें पार्श्वगायन में ब्रेक भी वी.बलसारा ने ही दिया था। फ़िल्म थी साल 1953 में बनी ‘मदमस्त’, जिसके लिए महेन्द्र कपूर ने अपना पहला पार्श्वगीत ‘किसी के ज़ुल्म की तस्वीर है मज़दूर की बस्ती’ रेकॉर्ड कराया था। ये एक ड्युएट था और इसमें उनकी सहगायिका धन इन्दौरवाला थीं। फ़िल्म ‘मदमस्त’ में महेन्द्र कपूर ने एस.डी.बातिश के साथ एक क़व्वाली ‘उन्हें देखें तो वो मुंह फेर...हमें आंखें दिखाते हैं’ भी गायी थी।
महेन्द्र कपूर का कहना था, “फिल्म ‘मदमस्त’ और इसके गाने नहीं चले और मैं जहां था वहीं खड़ा रह गया। उधर वी.बलसारा ने धन इन्दौरवाला से शादी कर ली और वो दोनों मुम्बई छोड़कर कोलकाता चले गए। बलसारा के घर पर अक्सर मेरी मुलाक़ात मशहूर प्यानोवादक केरसी मिस्त्री से होती रहती थी, जो संगीतकार स्नेहल भाटकर के लिए अरेंजर का काम भी करते थे। उन्होंने एक रोज़ मुझे स्नेहल भाटकर से मिलवाया जो उन दिनों फ़िल्म ‘दीवाली की रात’ के संगीत पर काम कर रहे थे। स्नेहल भाटकर ने मुझे मेरा पहला सोलोगीत ‘तेरे दर की भिखमंगी है दाता दुनिया सारी’ गाने का मौक़ा दिया। फ़िल्म ‘दीवाली की रात’ साल 1956 में बनी थी”।
साल 1955 में महेन्द्र कपूर ने बुलो सी.रानी के संगीत में फ़िल्म ‘मधुर मिलन’ के गीत ‘एक तरफ़ जोरू ने निकाला है दीवाला’ की कुछ पंक्तियां भी गायी थीं। इसके अलावा साल 1956 में बनी फ़िल्म ‘ललकार’ में भी उन्होंने सन्मुख बाबू के संगीत में सबिता बनर्जी के साथ एक ड्युएट ‘ओ बेदर्दी जाने के न कर बहाने’ गाया था। लेकिन इन गीतों से महेन्द्र कपूर की पहचान नहीं बन पायी। उस दौरान उन्होंने मोहम्मद रफ़ी की देखरेख में पंडित मनहर पोद्दार से शास्त्रीय गायन की विधिवत शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी।
महेन्द्र कपूर के मुताबिक़, “ख़ैयाम साहब मेरे अच्छे जानकार थे। साल 1956 में वो एक रोज़ मुझे अनिल बिस्वास के संगीत में बन रही फ़िल्म ‘हीर’ में हीर गवाने के लिए फ़िल्मिस्तान स्टूडियो ले गए। उस वक़्त मुझे बहुत तेज़ बुखार था। मैं रात भर इंतज़ार करता रहा, तब कहीं जाकर सुबह के वक़्त वो हीर रेकॉर्ड की गयी। लेकिन दो महिने तक पैसे नहीं मिले तो पता चला अनिल बिस्वास अकाऊण्टेण्ट को दी गयी लिस्ट में मेरा नाम लिखना भूल गए थे। फ़िल्मिस्तान के मैनेजर से मिला तो उसका रूखा व्यवहार देखकर फिल्मी दुनिया की ओर से मेरा मन उचट गया और मैंने कसम खा ली कि अब फ़िल्मी दुनिया की तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखूंगा”। (फ़िल्म ‘हीर’ के गीतों में मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ है जिनमें हीर भी शामिल है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस फ़िल्म में महेन्द्र कपूर की गायी हीर का इस्तेमाल नहीं किया गया था।)
साल 1957 में ‘ऑल इण्डिया मेट्रो मर्फ़ी सिंगिंग कॉम्पिटिशन’ का आयोजन किया जा रहा था। फ़िल्मों की तरफ़ से महेन्द्र कपूर का मन उखड़ चुका था इसलिए दोस्तों के कहने के बावजूद उन्होंने उस प्रतियोगिता में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन अचानक एक रोज़ प्रतियोगिता के आयोजकों की ओर से बुलावा आया तब पता चला कि महेन्द्र कपूर के एक दोस्त सुरिंदर कपूर ने उनके नाम से फ़ॉर्म भरकर भेज दिया है। मजबूरन महेन्द्र कपूर को उस प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पड़ा।
महेन्द्र कपूर के मुताबिक़, “मैं सभी राऊण्ड जीतता चला गया। प्रतियोगिता के निर्णायकों में नौशाद, सी.रामचन्द्र, मदनमोहन, वसंत देसाई और अनिल बिस्वास शामिल थे। उसी दौरान किसी प्रतियोगी ने आपत्ति दर्ज करा दी कि मैं पेशेवर गायक हूं इसलिए शौक़िया गायकों के लिए आयोजित की गयी उस प्रतियोगिता में नियमानुसार हिस्सा नहीं ले सकता। ‘हीर’ के पैसे न मिलना यहां मेरे काम आया। अनिल दा ने मेरे पक्ष में कहा कि मैंने हीर गायी ज़रूर थी लेकिन महज़ शौक़िया तौर पर। मुझे उसके बदले किसी भी तरह का भुगतान नहीं किया गया था। लेकिन उस प्रतियोगी ने मेरे ख़िलाफ़ अदालत में मुक़दमा दायर कर दिया”।
मजबूरन प्रतियोगिता के आयोजकों को महेन्द्र कपूर के पिता से लिखवा लेना पड़ा कि अगर साबित हो गया कि उनका बेटा पेशेवर गायक है तो प्रतियोगिता का पूरा ख़र्च, क़रीब ढाई लाख रूपया उन्हें ही चुकाना होगा। इसके अलावा धोखाधड़ी के आरोप में महेन्द्र कपूर को छह महिने की क़ैद भी हो सकती थी। ये सारा विवाद अख़बारों की सुर्खियों में आ चुका था। अचानक एक निर्माता ने महेन्द्र कपूर के परिवार को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया।
महेन्द्र कपूर के मुताबिक़, “दरअसल मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि उस निर्माता ने गाने के एवज में मुझे पैसा दिया था जिसकी रसीद उसके पास सुरक्षित थी। वरना मुझे आज तक किसी भी गाने के बदले पैसा मिला ही नहीं था। अब वो निर्माता मेरे हस्ताक्षर वाली उस रसीद को सार्वजनिक करने की धमकी देकर मुझसे पैसा वसूलने की कोशिश कर रहा था। ऐसे में केरसी मिस्त्री एक बार फिर से मेरी मदद के लिए आगे आए। वो उस निर्माता की कम्पनी में भी बतौर अरेंजर काम कर रहे थे। उन्होंने उस निर्माता की आलमारी में से वो रसीद निकाली और उसे मेरे सामने ही जला दिया”।
(श्री महेन्द्र कपूर ने यह कहकर उस निर्माता का नाम बताने से इंकार कर दिया कि वो अब इस दुनिया में नहीं हैं। और इंसान के दुनिया से चले जाने के बाद उसके बारे में नकारात्मक बातें करना अच्छा नहीं होता।)
महेन्द्रकपूर के ख़िलाफ़ कोई भी सुबूत न होने की वजह से अदालत का फ़ैसला उनके पक्ष में गया। उधर प्रतियोगिता के अंतिम राऊण्ड में भी उन्हीं की जीत हुई। उस प्रतियोगिता में महिलाओं की श्रेणी में आरती मुकर्जी चुनी गयी थीं। प्रतियोगिता का फैसला आते ही मोहम्मद रफ़ी ने महेन्द्र कपूर को बाक़ायदा गंडा बांधकर अपना शिष्य बना लिया। महेन्द्र कपूर के मुताबिक़ उस मौक़े पर ‘कलमा’ शायर शकील बदायुंनी ने पढ़ा था।
प्रतियोगिता के नियमों के मुताबिक़ विजेताओं को पांचों निर्णायकों द्वारा गायन का मौक़ा दिया जाना था। महेन्द्र कपूर के मुताबिक़, “सबसे पहले मुझसे सी.रामचन्द्र जी ने फ़िल्म ‘नवरंग’ का गीत ‘आधा है चन्द्रमा रात आधी’ रेकॉर्ड कराया। ‘नवरंग’ उन्हीं वी.शांताराम की फ़िल्म थी जो मुझे साल 1957 में बनी अपनी फ़िल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ के गीत ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ के लिए रिजेक्ट कर चुके थे। फिर मैंने नौशाद साहब के लिए फ़िल्म ‘सोहनी महिवाल’ का ‘चांद छुपा और तारे डूबे रात ग़ज़ब की आयी’ गाया|”
(फ़िल्म ‘सोहनी महिवाल’ ‘नवरंग’ से एक साल पहले, 1958 में रिलीज़ हुई थी इसलिए ‘चांद छुपा और तारे डूबे’ को महेन्द्र कपूर का गाया पहला गीत माना जाता है जबकि सच ये है कि उनका गाया पहला गीत ‘आधा है चन्द्रमा रात आधी’ या ‘चांद छुपा और तारे डूबे’ नहीं बल्कि साल 1953 की फ़िल्म ‘मदमस्त’ का ‘किसी के ज़ुल्म की तस्वीर है मज़दूर की बस्ती’ था।)
महेन्द्र कपूर के मुताबिक़, “संगीतकार एन.दत्ता ने जब ‘चांद छुपा और तारे डूबे’ सुना तो उन्होंने मुझे यश चोपड़ा से मिलवाया। एन.दत्ता उन दिनों बी.आर.फ़िल्म्स की ‘धूल का फूल’ का संगीत तैयार कर रहे थे। इस फ़िल्म में उन्होंने मुझसे ‘तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं’ गवाया और मैं ‘बी.आर.’ कैम्प का स्थायी गायक बन गया। इस तरह मेरे करियर की गाड़ी चल निकली।
लगभग सभी भारतीय भाषाओं में गा चुके महेन्द्र कपूर के मुताबिक़ उन्होंने अपना आख़िरी फ़िल्मी गीत ‘धूम धूम लक लक’ जतिन-ललित के संगीत में साल 1999 में बनी फ़िल्म ‘दिल्लगी’ के लिए गाया था। फ़िल्म ‘गुमराह’ (1964) के ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’, ‘हमराज़’ (1968) के ‘हे नीले गगन के तले धरती का प्यार पले’ और ‘रोटी कपड़ा और मकान’ (1975) के ‘और नहीं बस और नहीं’ के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। फ़िल्म ‘उपकार’ (1968) के अमर गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गायक के ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ से और मध्यप्रदेश सरकार द्वारा साल 2001-02 के ‘लता मंगेशकर पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
महेन्द्र कपूर का निधन 74 साल की उम्र में 27 सितम्बर 2008 को मुम्बई में हुआ। उनके परिवार में पत्नी, बेटा, बहू, एक पोता, एक पोती और तीन शादीशुदा बेटियां हैं।
(नवीनतम जानकारियां हासिल करने और कुछ तथ्यों की पुष्टि के लिए हमने श्री महेन्द्र कपूर के पुत्र श्री रोहण कपूर से ई-मेल और फ़ोन द्वारा सम्पर्क करने की कोशिश की। किंतु हमें उनका सहयोग नहीं मिल पाया। मजबूरन हमें इंटरनेट से हासिल की गयी कुछ जानकारियों को बिना पुष्टि के यहां दर्ज करना पड़ा है, जो इस ब्लॉग के मूल चरित्र के विपरीत है।)
We
are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi & Mr.
Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Mr. Gajendra Khanna for editing the English translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Mahendra Kapoor on YT Channel BHD
“Mere Dil Zindagi Safar Hai” - Mahendra Kapoor
………Shishir Krishna Sharma
The most important part of the golden era of Hindi Cinema i.e. 1950’s to 1960’s is the melodious film music of that period which has successfully retained its sweetness till date. It was enriched by not only the learned composers but also the great singers of that era. Rafi, Mukesh, Talat, Manna Dey, Kishore Kumar, Lata, Asha, Geeta Dutt, Sudha Malhotra and Suman Kalyanpur were some of such melodious singers who gave innumerable matchless songs to the listeners. One such name among those stalwarts was Mahendra Kapoor’s.
I met Mahendra Kapoor in the last week of January 2004 at his flat at St. Andrews Road, Bandra (West). During our conversation he surprised me when he said that neither ‘adha hai chandrama raat aadhi’ nor ‘chaand chhupa aur tare doode’ was his debut song as the general impression is, but his film career had started long back in the year 1953 itself.
Mahendra Kapoor’s father hailed from Amritsar and had a clothing business in Mumbai. Mahendra Kapoor was born in Amritsar on 9th January 1934 and he was one month old when he shifted to Mumbai with his parents. Mahendra Kapoor said, “I did my schooling and further studies in Mumbai only. Everybody at home had keen interest in music and my mother and elder brother also sang very well. While in ‘kachchi class’, on persuasion of my teacher one day I sang in the school - ‘thandi thandi rait me khajoor ke tale, tere intezaar me mera dil jale’ which everybody liked. My friends also often asked me to sing Amirbai Karnatki’s song ‘maar katari mar jana’ from the movie ‘Shehnai’ and all the Noorjehan songs which were my favorite”.
(Penned by Qamar Jalalabadi and sung by Johrabai Ambalewali, the song ‘thandi thandi rait me khajoor ke tale, tere intezaar me mera dil jale’ was from ‘Filmistan’ banner’s 1947 release ‘Saajan’ and it was composed by C.Ramchandra. ‘Shehnai’ too was a 1947 release. Mahendra Kapoor was 13 years old in the year 1947. Considering his age, he should be in 4th or 5th standard and not in ‘kachchi class’ i.e. nursery or k.g.)
One day, Shri B.M.Vyas was called at home to teach music to Mahendra Kapoor’s elder brother. B.M.Vyas was lyricist Bharat Vyas’s younger brother and he was serving with Prithviraj Kapoor’s ‘Prithvi Theatre’ as singer, musician & actor. Mahendra Kapoor said, “Instead I started taking music lessons from B.M.Vyas sahib. I was 7 or 8 years old at that time”.
When the gramophone records of the 1947 release ‘Jugnu’ came into market, Mahendra Kapoor got highly impressed with the male voice in ‘Jugnu’s duet ‘yahan badla wafa ka bewafai ke siva kya hai’. As per the trend those days, in place of the actual singer of the song, name of the character of the movie used to be given on the records on which the song had been picturised and the actual singers remained unnamed. Mahendra Kapoor was eager to know the name of the male singer in this duet. After visiting and enquiring at many records selling shops he eventually came to know that the voice was that of a new singer named Mohammad Rafi.
With help from one of his friends, Mahendra Kapoor succeeded in meeting Rafi Sahib at his residence at Bhindi Bazar. Mahendra Kapoor said, “Rafi Sahib and his brother Hamid met me with great affinity and when he came to know that I also sing he invited my father and elder brother to his place. In presence of my father and brother he asked me to sing for him the song ‘wo raatein kya bhool gaye ho janam janam ke saathi’ from his private album. I sang and passed the test and Rafi Sashib instantly made me his disciple. He started taking me along to his recordings”.
One day, Mahendra Kapoor met composer V.Balsara through playback singer Dhan Indorewala who was Mahendra Kapoor’s neighbor. V.Balsara was so impressed with Mahendra Kapoor’s singing that not only he made him a part of his orchestra but also gave him break as playback singer. Mahendra Kapoor’s debut song was a duet ‘kisi ke zulm ki tasweer hai mazdoor ki basti’ with Dhan Indorewala from the 1953 release movie ‘Madmast’. Another song which Mahendra Kapoor sang for this movie was a qawwali with S.D.Batish, ‘unhe dekhein to wo munh pher…hamey ankhein dikhaate hain’.
Mahendra Kapoor said, “Madmast and its music failed to leave an impact on the audiences, and I remained where I was. Thereto V.Balsara married Dhan Indorewala, they both left Mumbai and shifted to Kolkata. I often met renowned pianist Kersi Mistry at Balsara’s home who also worked as arranger for composer Snehal Bhatkar. One day he made me meet Snehal Bhatkar who was working on the music of the movie ‘Diwali Ki Raat’ at that time. Snehal Bhatkar gave me my first solo song ‘tere dar ki bhikhmangi hai data duniya saari’ to sing. ‘Diwali Ki Raat’ released in the year 1956”.
Mahendra Kapoor had already sung few lines in the 1955 release movie ‘Madhur Milan’ song ‘ek taraf joru ne nikala hai diwala’ under the baton of composer Bulo C.Rani. Besides this he had also sung a duet ‘o bedardi jaane ke na kar bahaane’ with Sabita Chatterji for composer Sanmukh Babu in 1956 movie ‘Lalkaar’. But none of these songs could give any recognition to Mahendra Kapoor. Meanwhile under Mohammad Rafi’s supervision he started taking lessons in Indian Classical Singing from Pandit Manahar Poddar.
According to Mahendra Kapoor, “Khayyam sahib was well known to me. One day in 1956 he took me to Filmistan Studio to sing a Heer in the movie ‘Heer’ which had music by Anil Biswas. I had acute fever that day. I waited the whole night and then only the Heer was recorded in the morning. But I didn’t get my remuneration even after 2 months had passed, then only I came to know that Anil Biswas had forgotten to write my name in the list prepared for the accountant. I met Filmistan’s manager to ask for my pay cheque but after witnessing his rude behavior I felt so dejected that I swore not to look back to the film world again”. (Male voice in the movie Heer’s songs including the above stated ‘Heer’ is that of Mohd Rafi. It seems that the ‘Heer’ sung by Mahendra Kapoor wasn’t used in the movie.)
Then came ‘All India Murphy Metro Singing Competition’ which was organized in the year 1957. Mahendra Kapoor had lost all the interest towards films so he didn’t pay heed to his friends who wanted him take part in the competition. But one day Mahendra Kapoor suddenly received a call from the organizers then only he came to know that one of his friends Surinder Kapoor had filled the form on his behalf. Mahendra Kapoor had to constrainedly take part in that competition.
Mahendra Kapoor said, “I started winning every round. The group of judges for the competition comprised of Naushad, C.Ramchandra, Madanmohan, Vasant Desai and Anil Biswas. Suddenly one of the participants raised objection that being a professional singer I wasn’t eligible to participate in the competition as it was only meant for the amateur singers. Here the ‘no pay’ for the Heer came to my rescue. Anil biswas stood in my favor and said that I indeed sang the Heer but just as an amateur singer as I wasn’t paid for that. But that participant filed a suit against me in the court”.
Under compulsion the organizers had to take in writing from Mahendra Kapoor’s father that in case it is proved that his son is a professional singer, competition’s total expenditure Rs. 2 lakh 50 thousand would be borne by him only. Apart from this, Mahendra Kapoor could also face 6 months imprisonment on charges of fraud. This whole controversy had prominently come into newspaper headlines. Suddenly a producer started blackmailing Kapoor family.
Mahendra Kapoor said, “Unfortunately I didn’t remember that I had been paid for a song by that producer. He had a receipt with my signature with him. Otherwise I never received any money for the songs which I had recorded till that time. Now the producer was trying to extort money from me. He threatened us if we do not meet with his demand, he would make the receipt public. Here once again Kersi Mistry helped me. He worked as arranger with producer’s company too. He took out the receipt from producer’s cupboard and burnt that in my presence”.
(Mahendra Kapoor refused to divulge the name of that producer saying the person is no more and it would not be wise to say anything negative for a deceased person.)
Since there was no evidence against Mahendra Kapoor, court’s verdict came in his favor. Thither he also won the final round of the competition. Female singer category of the competition was won by Aarti Mukerjee. Immediately after the declaration of the results, Mohammad Rafi tied a ‘Ganda’ to Mahendra Kapoor as per the custom and officially made him his disciple. According to Mahendra Kapoor, on that occasion the ‘Kalma’ was read by the lyricist Shaqeel Badayuni.
As per the competition rules the winners were to be given chance in playback singing by each of the 5 judges. Mahendra Kapoor said, “C.Ramchandra ji was the first judge who made me sing ‘adha hai chandrama raat aadhi’ for his film ‘Navrang, which was being produced and directed by the same V.Shantaram who had rejected me for his 1957 release film ‘Do Ankhein Barah Haath’ song ‘aye maalik tere bande hum. My Next song was Naushad sahib’s ‘chand chhupa aur tare doobe raat ghazab ki aai’ for the film ‘Sohni Mahiwal”.
(Film ‘Sohni Mahiwal’ released a year earlier than ‘Navrang’ in 1958 so ‘chaand chhupa aur taare doobe’ is supposed to be Mahendra Kapoor’s debut song. But the truth is that neither ‘adha hai chandrama raat aadhi’ nor ‘chaand chhupa aur tare doobe’ was his debut song but it was ‘kisi ke zulm ki tasweer hai mazdoor ki basti’ from the 1953 release movie ‘Madmast’.)
Mahendra Kapoor said, “When composer N.Dutta heard ‘chaand chhupa aur tare doobe’, he introduced me to Yash Chopra. At that time N Dutta was busy composing for ‘B.R.Films’s movie ‘Dhool Ka Phool’. He made me sing ‘tere pyaar ka aasra chahta hoon’ for ‘Dhool Ka Phool’ and I became a permanent singer for B.R.’s camp. This helped my career gain momentum”.
Mahendra Kapoor sang almost in all the Indian languages. According to him his last recorded film song was 1999 release movie ‘Dillagi’s ‘dhoom dhoom luck luck’ which was composed by Jatin-Lalit. He won Filmfare Award thrice for the movie ‘Gumrah’s ‘chalo ek baar phir se ajnabi ban jaayein hum dono’ (1964), ‘Humraaz’s ‘hey neele gagan ke tale’ (1968) and ‘Roti Kapda Aur Makaan’s ‘aur nahin bas aur nahin’ (1975). 1968 release movie ‘Upkar’s immortal song ‘mere desh ki dharti sona ugle’ won him ‘National Award’ of the best singer and Madhya Pradesh government honored him with ‘Lata Mangeshkar Award’ for the year 2001-02.
Mahendra Kapoor passed away on 27th September 2008 at the age of 74 in Mumbai. He left behind his family comprising of his wife, one son, daughter in law, one grandson, one granddaughter and three married daughters.
(We contacted Shri Mahendra Kapoor’s son Shri Ruhan Kapoor through E-mails and phone and requested him to provide information on some points and verify the facts which was necessary for updating the write up. Unfortunately, we failed to get any cooperation from Shri Ruhan Kapoor. Therefore, we are compelled to update the write up with some information taken from the internet without any verification which is against the basic character of this blog)