“तितली उड़ी, उड़ जो चली” – शारदा
.............शिशिर कृष्ण शर्मा
1960 के दशक के मध्य में फ़िल्म ‘सूरज’ के गीत ‘तितली उड़ी...’ से किसी पहाड़ी नदी की कलकल सी एक बेहद सुरीली आवाज़ फ़िज़ाओं में गूंजी और देखते ही देखते करोड़ों संगीतप्रेमियों के दिलों पर छा गयी| और वो भी उस दौर में जब हिन्दी फ़िल्म संगीत के क्षेत्र में मंगेशकर बहनों का एकछत्र राज था| हालांकि आगे का सफ़र इतना आसान नहीं था|
शारदा जी की आवाज़ मुझे भी बचपन से ही बेहद आकर्षित करती थी| एक ऐसी आवाज़ जिसमें किशोरावस्था का सा अल्हड़पन था जो न सिर्फ़ उस आवाज़ को एक अलग पहचान देता था बल्कि उसकी मिठास को कई गुना बढ़ाता भी था| आसान शब्दों में कहें तो उस आवाज़ में कमउम्र की सी एक कुदरती इतराहट थी जो सुनने वालों पर जादू का सा असर करती थी| इसे करिश्मा कहें या उस आवाज़ के दीवानों का सौभाग्य, दशकों गुज़र जाने के बावजूद उस अल्हड़पन, उस कुदरती इतराहट, उस मिठास की ताज़गी आज भी बरक़रार है| और इसीलिये शारदा जी तब भी मेरी पसंदीदा गायिका थीं और आज भी हैं| और यही वजह है कि जिन कलाकारों के इंटरव्यू से मैंने ‘साप्ताहिक सहारा समय’ के अपने कॉलम ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ की शुरूआत की थी, उनमें शारदा जी भी शामिल थीं, शशिकला, श्यामा और फिर शारदा! शारदा जी उन गिनेचुने कलाकारों में शामिल हैं जिनसे आज भी मेरा संपर्क लगातार बना हुआ है|
शारदा जी का जन्म 25 अक्टूबर 1938 को कुम्भकोणम शहर के एक परम्परावादी वैष्णव अयंगार ब्राह्मण परिवार में हुआ था| तमिलनाडु के तंजावुर ज़िले में स्थित कुम्भकोणम को ‘मंदिरों का शहर’ कहा जाता है और शहर की ही तरह शारदा जी के घर का माहौल भी पूजापाठ और कर्मकांडयुक्त था| शारदा जी बताती हैं, “6 बहनों और 1
भाई में मैं अपने माता-पिता की सबसे बड़ी संतान थी| मेरे पिता सरकारी नौकरी में थे और दादा संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे| मेरा बचपन दादा-दादी के पास रहकर बीता था| वैदिक साहित्य, संस्कृत और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन मेरी प्रारम्भिक शिक्षा का एक अहम हिस्सा था|”
शारदा जी को बचपन से ही हिन्दी फ़िल्मों के गाने बहुत पसंद थे| खासतौर से फ़िल्म ‘रतन’ का ‘अंखियां मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना’ और ‘जुगनू’ का ‘यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है’ उन्हें सबसे ज़्यादा पसंद थे| कॉलेज में और पारिवारिक समारोहों में वो शौक़िया तौर पर हिन्दी गाने गाती थीं और सुनने वाले उनकी आवाज़ और गायन से प्रभावित भी होते थे|
वो बताती हैं, “मेरे शौक़ को देखते हुए माता-पिता ने मुझे कर्नाटक संगीत सीखने के लिए प्रोत्साहित किया| लेकिन हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत के बीच कई जगह विरोधाभास को देखकर जल्द ही महसूस हुआ कि कर्नाटक संगीत सीखकर तो मैं हिन्दी गाने गा ही नहीं पाऊंगी| सो मैंने इसे सीखना छोड़ दिया|”
1950 के दशक में पिता के ट्रांसफ़र की वजह से शारदा जी को परिवार के साथ तेहरान जाना पड़ा| अपने गायन की वजह से वो जल्द ही तेहरान में बसे भारतीयों के बीच ख़ासी लोकप्रिय हो गयीं| एक समारोह में ईरान के शाह के सामने गाने का मौक़ा मिला तो और भी नाम हुआ| उन्हीं दिनों राज कपूर किसी काम से तेहरान आए तो शारदा जी के गायन से प्रभावित होकर उन्होंने शारदा जी को मुम्बई आने को कहा| और उनके बुलावे पर 1959
में शारदा जी मुम्बई चली आयीं|
शारदा जी को संगीत और पार्श्वगायन की शिक्षा लेते हुए काफ़ी समय बीत चुका था| उधर राज कपूर की ‘संगम’ भी रिलीज़ हो चुकी थी, लेकिन शारदा जी को ‘आर.के.’ के लिए गाने का मौक़ा ही नहीं मिला| उन्हें ब्रेक मिला, ‘आर.के.’ से बाहर| शारदा जी बताती हैं, “मुझसे जो पहला गाना रिकॉर्ड कराया गया, वो किसी फ़िल्म का नहीं बल्कि एक टेस्ट या ट्रायल सांग था, ‘जल्दी से आ, चुपके से आ’| इसके बोल शैलेन्द्र जी ने लिखे थे और धुन शंकर जी की थी|
शारदा जी ने करियर की शुरुआत जिन दो गानों से की थी, वो थे ‘गुमनाम’ (1965) का ‘आएगा कौन यहां’ और ‘सूरज’ (1966) का ‘तितली उड़ी’| लेकिन शारदा जी को याद ही नहीं है कि इन दोनों में से उन्होंने कौन सा गाना पहले रिकॉर्ड कराया था| वो कहती हैं, “आगे चलकर राज कपूर ने फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) के लिए मेरी आवाज़ में तीन गाने रिकॉर्ड किये| इनमें मुकेश जी के साथ एक डुएट ‘गाओ गाओ गाओ झूम के गाओ’ और दो सोलो थे ‘मेरे अलीबाबा’ और ‘दिल का दिया जिसको जलाना आएगा’| लेकिन पता नहीं क्यों, तीनों ही गाने फिल्म से निकाल दिए गए| यही हाल फ़िल्म ‘कल आज और कल’ (1971) के लिए रिकॉर्ड किए गए ‘किसी के दिल को सनम लेके यूं नहीं जाते’ का हुआ|”
शारदा जी को आज भी इस बात का दुःख है कि जिन राज साहब के बुलावे पर वो मुम्बई आयी थीं, उनकी एक भी फ़िल्म में शारदा जी का गाना नहीं रह पाया| फ़िल्म ‘अराऊंड द वर्ल्ड’ में ज़रूर सभी गाने शारदा जी के थे जिसके हीरो राज कपूर थे, लेकिन वो फ़िल्म ‘आर.के.’ की नहीं थी| शारदा जी बताती हैं, “फ़िल्म ‘सूरज’ का ‘तितली उड़ी’ सुपरहिट हुआ और इससे मैं रातोंरात मशहूर हो गयी| उस ज़माने में पार्श्वगायन के लिए एक ही ‘फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड’ हुआ करता था| चूंकि रफ़ी साहब को ‘बहारों फूल बरसाओ’ और मुझे ‘तितली उड़ी’ के लिए बराबर वोट मिले थे इसलिए उस साल से पार्श्वगायन के लिए महिला और पुरूष गायकों को अलग अलग अवार्ड दिए जाने की परम्परा की नींव पड़ी|”
शारदा जी 1968 से 1971
तक हर साल ‘फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड’ के लिए नॉमिनेट होती रहीं| उस दौरान वो फ़िल्म ‘जहां प्यार मिले’ (1969) के गीत ‘बात ज़रा है आपस की’ के लिए ये अवार्ड हासिल करने में कामयाब भी हुईं| शारदा जी कहती हैं, “मेरा करियर मुश्किल से 3 साल तक अपनी ऊंचाईयों पर रहा| उस दौर में मेरे लगभग सभी गाने हिट हो रहे थे| उस दौरान मैंने शंकर जयकिशन, रवि, इक़बाल क़ुरैशी, उषा खन्ना, एन.दत्ता जैसे संगीतकारों के लिए क़रीब सौ-सवा सौ गाने गाए होंगे| मेरी कोई फ़िल्मी पृष्ठभूमि तो थी नहीं| और न ही मैं फ़िल्मी दुनिया के तौर-तरीक़ों, दांवपेंच, छलप्रपंच से वाक़िफ़ थी| मेरे गानों को फ़िल्म से, रिकॉर्ड से निकाल देना, पत्र-पत्रिकाओं में मेरे ख़िलाफ़ बेसरपैर की बातों का छापना और तरह तरह की अफ़वाहों का फैलना रोज़ का नियम सा हो गया था| हरेक नयी प्रतिभा की तरह मेरा भी गला घोंटने की कोशिशें चल रही थीं| जयकिशन जी ने मेरे लिए कुछ नए गाने बनाए थे| लेकिन रिकॉर्ड करवा पाते, उससे पहले ही अचानक वो गुज़र गए| ‘मेरा नाम जोकर’ से गानों के निकलने से मैं वैसे ही सदमे की हालत में थी| उधर फ़िल्मों में मेरे आने की वजह से घर के लोग भी मेरे खिलाफ़ थे| ऐसे में मैंने गाना बंद कर दिया|”
क़रीब डेढ़-दो साल तक पूरी तरह निष्क्रिय रहने के बाद शारदा जी ने ख़ुद को सम्भाला और बतौर संगीतकार करियर की दूसरी पारी शुरू की| इस दौर में उन्होंने ‘मां बहन और बीवी’, ‘ग़रीबी हटाओ’, ‘मैला आंचल’, ‘क्षितिज’, ‘सोने का पिंजरा’, ‘गुनाह की कीमत’, ‘ज़हरीली’ जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया| और फिर शंकर जी के कहने पर क़रीब 14 साल बाद एक बार फिर से पार्श्वगायन के क्षेत्र में सक्रिय होते हुए शंकर जी के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ‘पापी पेट का सवाल है’ (1984), ‘कांच की दीवार’ और ‘कृष्णा कृष्णा’ (दोनों
1986) में गाने गाये| ‘कांच की दीवार’ में उन्होंने ‘शरद्रिमा’ के छद्मनाम से पार्श्वगायन किया था|
शारदा जी कहती हैं, “मैं अक्सर शंकर जी के साथ सिटिंग में बैठती थी| वो धुन बनाते थे तो उस धुन पर मैं उसी समय शौक़िया तौर पर बोल लिख देती थी| इन्हीं में से कुछ गीत शंकर जी को इतने पसंद आए कि उन्होंने उन गीतों का इस्तेमाल अपनी फ़िल्मों में कर लिया| इनमें से फ़िल्म ‘गरम खून’ (1980) के ‘परदेसिया तेरे देस में दिल इस तरह मिलता है क्या’ और ‘इक चेहरा दिल के क़रीब आता है’ और ‘चोरनी’ (1980) का ‘देखा है तुम्हें कहीं ना कहीं’ उस ज़माने में बेहद लोकप्रिय हुए थे| ये सभी गीत मैंने ‘सिंघार’ के नाम से लिखे थे|”
We are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Aksher Apoorva, Mr. Gajendra Khanna & Ms. Maitri Manthan for the English
translation of the write ups.
Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Sharda ji on YT Channel Beete Hue Din
..............Shishir Krishna
Sharma
In the 1960s, with the film Suraj’s song ‘Titli Udi’, a melodious voice
reminding me of the sound of a mountainous river’s gurgling echoing in the
valleys entered the film industry and captured the hearts of crores of music
lovers. On top of that, this happened in the period when the Mangeshkar sisters
ruled the film industry. However, the path ahead was not that easy.
Sharda ji’s voice used to attract me from childhood. Her voice had the
gaiety of youth which not only gave an independent identity to it but also
increased its sweetness manifold. To put it simply, her voice had the natural
pride of teenage which had a magic like effect on the ears of the listeners. I
don’t know whether to call it a miracle or the good fortune of the audience
that the freshness of that sweetness, natural gaiety and youth is still the
same even today. For this reason, Sharda ji has been a favourite singer for me
then as well as now. For this reason, Sharda ji was among the artists I
interviewed first for the weekly Sahara Samay. I first interviewed Shashikala,
Shyama and then Sharda! Sharda ji is one of the few artists with whom I have
been in constant touch since then.
Sharda ji was born on 25th October 1938 in a traditional
Vaishnav Iyengar Brahmin family from Kumbakonam. Situated in Tamil Nadu’s
Thanjavur district, Kumbakonam is also called the ‘City of Temples’. Just like
her city, the environment of Sharda ji’s
house revolved around religious
worship and rituals. Sharda ji told us, “Among six sisters and one brother, I was the eldest. My
father was in a government job and my grandfather was a professor of Sanskrit.
I spent my childhood staying with my paternal grandparents. Vedic literature,
Sanskrit and study of religious epics was an important part of my education.”
Sharda ji was fond of the songs of Hindi films from her childhood. Her
particular favourites were film Rattan’s ‘Ankhiyaan Mila Ke Jiya Bharma Ke
Chale Nahin Jaana’ and film Jugnu’s ‘Yahaan Badla Wafa Ka Bewafai Ke Siwa Kya
Hai’. She used to sing Hindi songs as an amateur during college and family
functions which impressed many with her voice and singing. She told us, “Seeing my
interest, my parents encouraged me to learn Carnatic music. However, seeing the
differences between Hindustani and Carnatic music, I realized that I would not
be able to sing Hindi songs at all and so I stopped learning it.”
During the 1950s, she shifted along with her family to Tehran where her
father had got transferred. Due to her singing She soon gained wide popularity
among the expat Indian settled there. During a function, she also got an
opportunity to sing before the Shah of Iran which made her even more popular.
In those days, Raj Kapoor who was visiting Tehran in some context was impressed
by her singing and invited her to come to Mumbai. On his invitation, Sharda ji
came to Mumbai in 1959.
Sharda ji remembers, “I went to R K Studios to meet Raj Sahab. At that time,
RK’s ‘Jis Desh Mein Ganga Behti Hai’ was due for release and Raj Sahab was
preparing for his first colour film ‘Sangam’. My microphone test was done at RK
after which Raj Sahab sent me to meet composer duo Shankar-Jaikishan. I had met
Shankar ji many years before in Hyderabad also. He sent me to learn Hindustani
music from Pt Jaggannath Prasad ji. I also learnt nuances of Sugam Sangeet from
Pt Lakshman Prasad ji and later from Nirmala Devi too.”
Sharda ji had spent a lot of time learning music and playback but had not
got any singing opportunity from RK. She got her break outside RK! She recalls, “The first song
I recorded was not for any film but was a test or trial song, ‘Jaldi Se Aa,
Chupke Se Aa’. Its lyrics were by Shailendra ji and composed by Shankar ji.
Producer-Director Pachhi wanted to use it for his movie ‘Around the World
(1967)’ but Shankar ji declined to give it for the movie. As a result, this
song could not be released though it is still available with me on some spool”.
Sharda ji started her career by singing two songs, one was ‘Gumnaam’ (1965)’s ‘Aayega
Kaun Yahaan’ and film ‘Suraj’ (1966)’s ‘Titli Udi’. However, Sharda ji does not
recall which of the two was recorded first. She says, “Later ‘Raj Kapoor had also got three songs recorded by me
for his film, ‘Mera Naam Joker’ (1960). Among these, one was a duet with Mukesh
ji, ‘Gaao Gaao Jhoom Ke Gaao’ and two solos ‘Mere Alibaba’ and ‘Dil Ka Diya
Jisko Jalana Aayega’. Later for some unknown reason, all the three songs were
deleted from the film. The song, ‘Kisi Ke Dil Ko Sanam Leke Yun Nahin Jaate’ recorded
for the film ‘Kal Aaj Aur Kal’ met the same fate.”
Sharda ji still feels that not a single song of hers could feature in an RK
film though She had come to Mumbai on Raj Kapoor’s invitation. The Raj Kapoor
starrer Film ‘Around the World’ did have her singing in all the female songs
but that film was not of the RK banner. Sharda ji tells us, “Film ‘Suraj’’s ‘Titli Udi’ proved to be a superhit and as
a result I became famous overnight. In those days, there used to be a single
filmfare award for playback singing. Since, Rafi Sahab’s ‘Baharon Phool Barsao’
and my ‘Titli Udi’ got equal votes, from that year onwards the practice of
giving separate Best Playback Singer for Male and Female singers started.”
From 1968 to 1971, Sharda ji got nominated every year for the ‘Filmfare
Award’. She succeeded in getting it for ‘Jahaan Pyaar Mile’ (1969)’s song ‘Baat
Zara Hai Aapas Ki’ too. Sharda ji says, “My career maintained its heights for hardly 3 years.
During this period, almost all my songs were becoming hits. During this period,
I sang nearly 100-125 songs for composers like Shankar Jaikishan, Ravi, Iqbal
Qureshi, Usha Khanna and N Datta. I neither had a filmy background nor was
aware of the ways and politics of the film world. My songs being removed from
films and records, ridiculous things being published in newspapers/magazines
and different type of rumors regarding me became a daily affair. Like every new
talent, attempts were being made to scuttle my career too. Jaikishan ji had
made some new songs for me too. Unfortunately, before he could record them, He
suddenly passed away. As it is, I was under deep shock from the removal of my
songs from ‘Mera Naam Joker’. At the same time my family members were against
my working in films. In this scenario, I stopped playback singing.”
After being away from the studios for nearly around 2 years, Sharda ji
recovered and started her second innings as a composer. During the period, she
composed for movies including ‘Maa, Behan aur Biwi’, ‘Garibi Hatao’, ‘Maila
Aanchal’, ‘Kshitiji’, ‘Sone Ka Pinjra’, ‘Gunaah Ki Kimat’ and ‘Zehreeli’. On
Shankar ji’s insistence, after 14 years, I gave playback for him in the movies
‘Paapi Pet Ka Sawaal Hai’ (1984), ‘Kaanch Ki Deewaar’ and ‘Krishna Krishna’ (both 1986). In ‘Kaanch Ki Deewaar’
she sang with the pseudo name of ‘Sharadrima’.
Sharda ji says, “I used to often sit with Shankar ji during sittings. He
used to make tunes and I used to write words for them just for fun. Among
these, Shankar ji liked some songs so much that he used them for his films.
Among these, film ‘Garam Khoon’ (1980)’s songs ‘Pardesiya Tere Des Mein Dil Is
Tarah Milta Hai Kya’ and ‘Ek Chehra Dil Ke Kareeb Aata Hai’ and ‘Chorni’
(1980)’s ‘Dekha Hai Tumhen Kahin Na Kahin’ were quite popular in those days.
All these songs were penned by me under the pen name Singhar.”
Though Sharda ji has bid adieu to films, her attachment towards music has remained as strong as ever. During this period, she wrote and composed songs for children. She also prepared a Ghazal album. Her riyaaz continues to this day and she still continues to give stage shows in India and abroad especially in USA. She says, “Raj Sahab, Shankar ji, Mukesh ji and Rafi sahib are no longer among us but I shall never be able to forget them. I remember Raj Sahab because though none of my songs remained in his movies, but I reached here thanks to his co-operation and inspiration. I remember Shankar ji because he sculpted my voice, taught me the intricacies of playback singing and really helped my career develop. And I remember Mukesh sahib and Rafi sahib because they gave me support, strength and guided me at every step of my career”.