“उफ़
ये बेक़रार
दिल कहां
लुटा न
पूछिए”
– बेला बोस
.........शिशिर
कृष्ण शर्मा
बेला
बोस!
इस नाम
का ज़िक्र
होते ही
ज़हन में
1960 के
दशक के
हिंदी सिनेमा
की एक
क्लब डांसर
और खलनायिका
की छवि
उभरती है।
ग्लैमरस और
बुरी औरत
की छवि!
लेकिन असल
ज़िन्दगी में
वोही बेला
बोस अत्यंत
शालीन,
सुसंस्कृत,
मृदुभाषी और
इनसे भी
बढ़कर एक
स्पष्टवक्ता हैं
जिनकी बातों
में कहीं
कोई दुराव-छिपाव
नज़र नहीं
आता।
“मैंने फ़िल्मों
में बतौर
ग्रुप डांसर
कदम रखा
था,
हालांकि अक्सर
मुझे ग्रुप
से बाहर
निकाल दिया
जाता था”
– बेला जी
बेझिझक कहती
हैं। उनकी
जगह कोई
और अभिनेत्री
होती तो
शायद करियर
के इस
संघर्षभरे शुरूआती
दौर को
छिपाने की
कोशिश करती।
“संघर्ष भी
ज़िंदगी का
हिस्सा है,
सफलता भी
और असफलता
भी,
सच छुपाने
से तो
हालात बदलने
से रहे!”
बेला जी
की बेलाग
बातों में
एक अद्भुत
आकर्षण है।
18 अप्रैल 1941 को कोलकाता के एक सम्पन्न परिवार में जन्मीं बेला जी की ज़िंदगी का शुरूआती दौर बेहद उठापटक भरा रहा। पिता का कोलकाता में कपड़े का जमा-जमाया सफल कारोबार था और मां गृहिणी थीं। 2 भाई और 3 बहनों में बेला जी तीसरे नम्बर पर थीं।
बोस
परिवार एक
बहुत बड़े
बंगले में
रहता था।
अचानक वो
दोनों बैंक
एक साथ दिवालिया
हो गए
जिनमें बेला
जी के
परिवार की
सारी जमापूंजी
रखी थी।
बेला जी
बताती हैं,
“उस ज़माने
में तमाम
बैंक प्राईवेट
हुआ करते
थे इसलिए
बैंकों के
दिवालिया होते
ही हम
एक ही
रात में
सड़क पर
आ गए।
पिताजी का
कारोबार ठप्प
हो गया।
उस ज़माने
में ज़्यादातर
कपड़ा मिलें
मुम्बई में
हुआ करती
थीं इसलिए
पिताजी परिवार
को साथ
लेकर मुम्बई
चले आए।
ये जुलाई
1951 का
वाकया है”।
बोस
परिवार ने
मुम्बई आकर
अंधेरी पूर्व
के
‘बैलवेडियर गेस्ट
हाऊस’
को अपना
ठिकाना बनाया।
बेला जी
के पिता
कोहेनूर कपड़ा
मिल के
साथ मिलकर
काम करना
चाहते थे
और इस
सिलसिले में
मिल के
प्रबन्धन के
साथ उनकी
बातचीत जारी
थी। बेला
जी कहती
हैं,
“मुम्बई में
कारोबार जमाने
की पिताजी
की कोशिशें
जारी थीं।
लेकिन भाषा
को लेकर
वो बेहद
परेशान थे।
वो सिर्फ़
बांग्ला और
अंग्रेज़ी जानते
थे,
जबकि मुम्बई
में मराठी
या थोड़ा-बहुत
गुजराती का
बोलबाला था।
इसी वजह
से पिताजी
मुम्बई आने
के 6
महिनों के
अंदर कोलकाता
लौटने की
योजना बनाने
लगे। लेकिन
अचानक उनका
एक सड़क
हादसे में
निधन हो
गया। 1
जनवरी 1952
की सुबह
वो घर
से निकले
थे लेकिन
वापस नहीं
लौटे। दो
दिन की
लगातार तलाश
के बाद
उनका शव
एक अस्पताल
में मिला।
उनकी उम्र
उस वक़्त
महज़ 36
बरस थी”।
पति
के गुज़रने
के बाद
बेला जी
की मां
ने बच्चों
को साथ
लेकर कोलकाता
लौटना चाहा
तो पता
चला बंगले
समेत उनकी
तमाम जायदाद
पर पति
के भाईयों
का कब्ज़ा
हो चुका
है। बेला
जी के
बड़े भाई
की उम्र
उस वक़्त
17 साल
थी,
उनसे छोटी
बहन 14
साल,
बेला जी
11 साल
और सबसे
छोटी बहन
5 साल
की थीं।
मां गर्भवती
थीं। घर
की तमाम
ज़िम्मेदारी अब
बड़े भाई
पर आ
गयी थी
जिन्हें मजबूरन
एक फ़ैक्ट्री
में नौकरी
कर लेनी
पड़ी।
डांस
की तरफ़
बेला जी
का बचपन
से ही
झुकाव था।
वो पढ़ाई
के साथसाथ
डांस भी
सीखना चाहती
थीं। लेकिन
पिता के
गुज़रने के
बाद घर
के माली
हालात अब
पहले जैसे
नहीं रह
गए थे।
ऐसे में
घर के
क़रीब मौजूद
एक डांस
स्कूल के
तन्मय मास्टर
(तनु गुरूजी)
इस शर्त
पर नि:शुल्क
सिखाने के
लिए तैयार
हो गए
कि बेला
जी को
उनके स्टेज
कार्यक्रमों में
बिना पैसे
के हिस्सा
लेना पड़ेगा।
बेला जी
उनसे मणिपुरी
डांस सीखने
लगी। एक
रोज़ डांस
स्कूल से
सभी छात्र-छात्राओं
को फ़िल्म
‘जलपरी’
की शूटिंग
पर विले
पार्ले स्थित
विष्णु स्टूडियो
ले जाया
गया। बेला
जी के
लिए शूटिंग
देखने का
ये पहला
मौक़ा था।
बेला
जी बताती
हैं,
“पिता के
गुज़रने के
क़रीब 5
महिनों बाद
5 जून
1952 को
मेरे छोटे
भाई का
जन्म हुआ।
उधर मां
ने तीन
महिनों का
नर्सिंग का
कोर्स किया
और एक
प्राईवेट नर्सिंग
होम में
नौकरी करने
लगीं। ऐसे
में छोटे
भाई की
देखभाल की
ज़िम्मेदारी हम
दोनों बड़ी
बहनों पर
आ गयी।
हमने शिफ़्टों
में स्कूल
जाना शुरू
कर दिया।
मैं सुबह
की शिफ़्ट
में और
मेरी बड़ी
बहन शाम
की शिफ़्ट
में स्कूल
जाने लगी।
साथ ही
मेरा डांस
स्कूल जाना
भी बन्द
हो गया”।
बेला
जी के
मुताबिक़ एक
रोज़ डांस
स्कूल के
तबला मास्टर
नवाब अली
उन्हें तलाशते
हुए उनके
घर आए।
उन्होंने कहा
कि वो
बेला जी
को स्टेज
शोज़ दिलाएंगे
जहां से
पैसा भी
मिलेगा और
साथ में
वो बेला
जी को
फ़िल्मी डांस
भी सिखाएंगे।
बेला जी
कहती हैं,
“नवाब अली
ने अपना
वादा निभाया।
उन्होंने मुझे
फ़िल्मी डांस
सिखाया। सही
मायनों में
नवाब अली
ही थे
जिन्होंने मुझे
‘बेला बोस’
बनाया”।
कुछ
समय बाद
बेला जी
ने चर्नी
रोड पर
बिपिन सिन्हा
गुरूजी की
डांस क्लास
में दाख़िला
ले लिया।
आशा पारेख
और सीमा
देव भी
उसी डांस
क्लास की
छात्राएं थीं।
बेला जी
कहती हैं,
“एक रोज़
बिपिन गुरूजी
मुझे साथ
लेकर फ़िल्मिस्तान
स्टूडियो गए
जहां अंग्रेज़ी
फ़िल्म
‘थ्री हैडेड
स्नेक’
की शूटिंग
चल रही
थी। उस
फ़िल्म में
मुझसे मणिपुरी
डांस कराया
गया। मुझे
400 रूपए मेहनताना
मिला जो
उस ज़माने
में बहुत
बड़ी रक़म
हुआ करती
थी। ये
साल 1954
या 55
का वाकया
है और
उस वक़्त
मेरी उम्र
13-14 साल
थी”।
उधर क़रीब दो साल बाद बोस परिवार बैलवेडियर गेस्ट हाऊस छोड़कर अंधेरी (पश्चिम) के सोहराब बाग़ में रहने चला गया। अंधेरी में उन दिनों मोहन, एम.एन.टी., प्रकाश, अशोक वगैरह कई स्टूडियो थे। बेला जी बताती हैं, “एक रोज़ हमें एम.एन.टी. स्टूडियो में किसी फ़िल्म में ग्रुप डांस के लिए ले जाया गया। लेकिन फ़िल्म के डांस मास्टर बद्री प्रसाद ने मुझे देखते ही ये कहकर बाहर निकाल दिया कि ये तो ताड़ है।
दरअसल
बाक़ी लड़कियों
के मुक़ाबले
मेरी लम्बाई
काफ़ी ज़्यादा
थी। मैं
सुबह 10
बजे से
शाम 4 बजे
तक इस
उम्मीद में
स्टूडियो के
बाहर खड़ी
रही कि
शायद मुझे
वापस बुला
लें लेकिन
ऐसा नहीं
हुआ। पूछताछ
करने पर
पता चला
कि दोपहर
में ही
सबका पैकअप
हो गया
था और
स्टूडियो में
अब कोई
भी नहीं
है। ये
बात मुझे
इतनी बुरी
लगी कि
मैंने दोबारा
फ़िल्मों का
रूख़ न
करने की
क़सम खा
ली। लेकिन
स्टूडियोज़ से
मेरा रिश्ता
तब भी
बना रहा”।
दरअसल
फ़िल्मों के
मुहुर्त में
मिलने वाले
कोक और
पेड़े के
लालच में
बेला जी
अक्सर स्कूल
के रास्ते
में पड़ने
स्टूडियोज़ में
जाती रहती
थीं। इससे
स्टूडियोज़ के
कर्मचारी उन्हें
पहचानने लगे
थे। बेला
जी कहती
हैं,
“एक रोज़
दीपक नाम
का एक
बंगाली लड़का
मेरे घर
पर आया
और मुझसे
ग्रुप डांस
में हिस्सा
लेने का
आग्रह करने
लगा। चूंकि
स्टूडियो का
माहौल मुझे
अच्छा लगने
लगा था
इसलिए मैं
फिर से
ग्रुप डांस
में जाने
लगी। लेकिन
मेरी लम्बाई
मेरे लिए
मुसीबत बन
चुकी थी।
सब मुझे
‘लम्बू’
कहकर बुलाते
थे। डांस
मास्टर अक्सर
मुझे डांस
से बाहर
निकाल देते
थे।
‘मुग़ल-ए-आज़म’
के गीत
‘मोहे पनघट
पे नन्दलाल
छेड़ गयो
रे’
में मैं
भी ग्रुप
डांसरों में
थी। शायद
मेरी लम्बाई
की वजह
से ही
इस गीत
की लाईन
‘कंकरी मोहे
मारी गगरिया
फोड़ डाली’
में झुकते
समय मैं
बाक़ी डांसरों
से अलग
नज़र आ
रही थी
जिसकी वजह
से सेट
पर मौजूद
सितारा देवी
मुझ पर
बुरी तरह
भड़क गयी
थीं। वो
डांट मैं
कभी नहीं
भूल सकती।
लेकिन यही
लम्बाई मेरे
लिए वरदान
साबित हुई”।
बेलाजी
कहती हैं,
“ये साल
1958 का
वाकया है
और मैं
उस वक़्त
10वीं
में पढ़
रही थी।
फ़िल्म
‘मैं नशे
में हूं’
साल 1959
में रिलीज़
हुई। उसी
साल मैंने
कमर्शियल आर्ट्स
में डिप्लोमा
के लिए
ग्राण्ट रोड
स्थित
‘न्यू स्कूल
ऑफ़ आर्ट्स’
में दाख़िला
ले लिया
था। इस
कोर्स के
तहत मैं
कपड़े पर
डिज़ाईनिंग सीखने
लगी। 4
साल का
डिप्लोमा कोर्स
करने के
बाद मुझे
कोहेनूर मिल
में नौकरी
मिल जाती
जिसमें पैसा
भी अच्छा-ख़ासा
था। लेकिन
‘मैं नशे
में हूं’
की कामयाबी
के बाद
फ़िल्मों में
मेरी व्यस्तताएं
बढ़ती चली
गयीं। डिप्लोमा
क्लास का
समय शाम
6 बजे
का था
इसलिए मैं
दिन में
शूटिंग करती
थी। लेकिन
फिर व्यस्तताएं
इतनी बढ़
गयीं कि
मुझे ढाई
साल में
ही कोर्स
अधूरा छोड़
देना पड़ा”।
1960 का
दशक बेला
जी के
लिए बेहद
व्यस्तताओं भरा
रहा। इस
दौरान वो
‘ओ दिल
वालों साज़े
दिल पे
झूम लो’
(लुटेरा),
‘बम्बई का
ये बाबू
दिल लेने
देने आए’
(हम
सब उस्ताद
हैं), ‘है
नज़र का
इशारा सम्भल
जाईए’
(अनीता),
‘छोड़ गए
बेदर्दी’
(प्यास
/ अपना घर
अपने बच्चे),
‘जबसे लागी
तोसे नज़रिया’
(शिकार),
‘रूठे सैयां
हमारे सैयां
क्यों रूठे’
(देवर),
‘बड़े ख़ूबसूरत
बड़े ही
हसीं’
और
‘उफ़ ये
बेक़रार दिल’
(दिल
और मोहब्बत),
‘नदी
का किनारा
हो’
(सी.आई.डी.909)
और
‘चुराते हो
नज़रें अजी
किसलिए’
(किलर्स)
जैसे कई
हिट गीतों
पर डांस
करती नज़र
आयीं। साल
1962 में
बनी
‘सौतेला भाई’
बतौर अभिनेत्री
बेला जी
की पहली
फ़िल्म थी
जिसमें उन्होंने
एक संथाल
लड़की का
रोल किया
था। आगे
चलकर उन्होंने
‘रूपसुंदरी’,
‘दिल दौलत
और दुनिया’,
‘चित्रलेखा’,
‘प्रोफ़ेसर’,
‘ऑपेरा हाऊस’,
‘भाई हो
तो ऐसा’,
‘चन्दा और
बिजली’,
‘उमंग’,
‘दिल और
मोहब्बत’,
‘सी.आई.डी.909’
और
‘रॉकी मेरा
नाम’
जैसी कई
फ़िल्मों में
हास्य और
खलनायिका की
भूमिका की।
फ़िल्म ‘जीने
की राह’
में जीतेन्द्र
की सौतेली
बहन की
खलभूमिका में
उन्हें बेहद
पसन्द किया
गया था।
बेला
जी कहती
हैं,
“बांग्ला फ़िल्मों
के मशहूर
अभिनेता आशीष
कुमार की
मैं फ़ैन
थी। स्कूल
में सहेलियों
के पूछने
पर मैं
उन्हें अपने
ब्वॉयफ़्रेण्ड के
नाम पर
आशीष कुमार
की तस्वीर
दिखा देती
थी। एक
रोज़ माला
सिन्हा के
घर पर
आशीष कुमार
से मुलाक़ात
हुई तो
मुझे ख़ुद
पर यक़ीन
ही नहीं
हुआ। उन्हीं
आशीष कुमार
से साल
1967 में
मेरी शादी
हुई तो
उस वक़्त
मेरी क़रीब
40 फ़िल्में
फ़्लोर पर
थीं। जैसे
तैसे काम
निपटाया और
फिर फिल्मों
से अलग
होकर मैं
घर-गृहस्थी
में व्यस्त
हो गयी।
एक रोज़
अपनी 6
साल की
बेटी को
कैबरे डांसर
की नकल
करते देखा
तो उस
रोज़ से
मेरे घर
में फ़िल्मी
पत्रिकाओं पर
पाबन्दी लग
गयी”।
साल 1967-68 में बेला जी ने मंच के लिए एक बैले शो ‘श्यामा’ तैयार किया। ये मूलत: एक बांग्ला शो था जिसका हिंदी अनुवाद उदय खन्ना ने किया था। इस शो का संगीत तैयार करने के लिए बेला जी को रवीन्द्र संगीत के किसी जानकार की ज़रूरत थी। ऐसे में उन्होंने मानस मुकर्जी को ब्रेक दिया, जिन्होंने आगे चलकर ‘शायद’, ‘लाखों की बात’ और ‘आओ प्यार करें’ जैसी कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया था।
बेला
जी बताती
हैं,
“बैले के
शोज़ बन्द
होने के
बाद उदय
खन्ना ने
संतोषी माता
की कहानी
पर फ़िल्म
बनानी चाही
जिसमें नरगिस
संतोषी माता
का रोल
करने वाली
थीं। आशीष
कुमार फ़िल्म
के हीरो
और नरगिस
की भतीजी
अभिनेत्री ज़ाहिदा
के पति
श्री सहाय
फ़ायनेंसर थे
लेकिन किसी
वजह से
फ़िल्म बन
नहीं पायी।
ऐसे में
उदय खन्ना
से वो
कहानी आशीष
जी ने
ले ली।
फ़िल्म
‘रॉकी मेरा
नाम’
के निर्देशक
सतराम रोहरा
मेरे मुंहबोले
भाई थे।
उन्होंने उस
कहानी पर
आशीष जी
के साथ
पार्टनरशिप में
फ़िल्म
‘जय संतोषी
मां’
बनाई। फ़िल्म
हिट हुई
तो सतराम
रोहरा की
नीयत बदल
गयी। उन्होंने
धोखे से
आशीष जी
से तमाम
राईट्स अपने
नाम लिखवा
लिए। आशीष
जी फ़िल्म
के हीरो
थे। मेरी
भी उस
फ़िल्म में
बेहद अहम
भूमिका थी।
लेकिन फ़िल्म
का जुबली
समारोह कब
हुआ इसका
भी हमें
पता नहीं
चला। सुना
है हमारी
ट्रॉफ़ीज़ आज
भी फ़िल्म
की हेयरड्रेसर
के घर
पर पड़ी
हुई हैं”।
बेला जी और उनके पति ने आगे चलकर ‘सोलह शुक्रवार’, ‘गंगासागर’, ‘राजा हरिशचन्द्र’, ‘बद्रीनाथ धाम’ और ‘नवरात्रि’ फ़िल्में बनाईं। बेला जी की मां, बड़ा भाई और बड़ी बहन अब नहीं हैं। उनकी मां ने प्राईवेट नर्सिंग होम में नर्स की नौकरी से शुरूआत की थी। आगे चलकर वो मुम्बई के मशहूर किंग जॉर्ज अस्पताल में मेट्रन बन गयी थीं। बेला जी के बड़े भाई अनिल बोस आर.टी.ओ.इंस्पेक्टर थे लेकिन पिता की ही तरह वो भी महज़ 36 साल की उम्र में एक सड़क दुर्घटना में गुज़र गए थे। बेला जी की छोटी बहन अमेरिका में और सबसे छोटा भाई कनाडा में रहते हैं। उनकी बेटी मंजुश्री नायर विवाहित हैं और कोयम्बटूर के सरकारी अस्पताल में डॉक्टर हैं। बेला जी के बेटे अभिजित सेनगुप्ता ने फ़िल्म ‘परमवीरचक्र’ (1995) में एक बेहद अहम रोल किया था। लेकिन अभिनय में उनकी दिलचस्पी नहीं थी इसलिए एम.बी.ए. करके वो बिज़नेस में उतर पड़े। आज वो ‘सेनगुप्ता लाईफ़स्पेस’ (एस.जी.एल.) ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज़ के मालिक हैं और एक बिल्डर होने के साथ साथ प्रॉपर्टी बिज़नेस, इवेंट मैनेजमेंट और विज्ञापन फ़िल्मों के निर्माण में सक्रिय हैं। साथ ही वो अपने पिता की कम्पनी ‘जय संतोषी माता पिक्चर्स’ की फ़िल्मों के डिस्ट्रिब्यूशन का काम भी सम्भालते हैं।
बेला
जी और
उनके पति
आशीष कुमार
जी क़रीब
तीन साल
पहले तक
बान्द्रा में
रहते थे।
लेकिन चूंकि
एस.जी.एल.
के कॉरपोरेट
ऑफ़िस समेत
बेटे का
सारा कारोबार
नवी मुम्बई
- बेलापुर के
इलाक़े में
है इसलिए
पति-पत्नी
को बान्द्रा
छोड़कर बेटे
के पास
नेरूल आ
जाना पड़ा।
लेकिन आशीष
जी नेरूल
में ज़्यादा
दिनों तक
नहीं रह
पाए।
बेला
जी बताती
हैं,
“आशीष जी
पिछले कुछ
समय से
बीमार चल
रहे थे।
उन्हें डायबिटीज़
थी और
वो घर
पर ही
रहना पसन्द
करते थे।
नवम्बर 2013
में बेटी-दामाद
और उनके
10 साल
के बेटे
के आग्रह
को देखते
हुए आशीष
जी,
अभिजित और
मुझे उनके
साथ गोवा
घूमने जाना
पड़ा।
‘महिन्द्रा एण्ड
महिन्द्रा’
की क्लब
मेम्बरशिप की
वजह से
हमारा ठहरने
का इंतज़ाम
कम्पनी के
गेस्ट हाऊस
में था।
तीसरे दिन,
23 नवम्बर
को अचानक
आशीष जी
की तबीयत
ख़राब हुई
और वो
गुज़र गए।
गोवा में
ही उनका
अंतिम संस्कार
करके हम
मुम्बई लौटे”।
बेला
जी ने
साल 2002-2003
में सहारा
वन चैनल
पर प्रसारित
अरूणा ईरानी
के धारावाहिक
‘ज़मीन से
आसमान तक’
में अभिनय
किया था
लेकिन उसके
बाद उन्होंने
अभिनय को
अलविदा कह
दिया। बीते
दौर की
अभिनेत्रियों शक़ीला,
अमीता,
ज़ेब रहमान
और अज़रा
से आज
भी उनकी
गहरी दोस्ती
है और
महिने में
एक-दो
बार इन
सभी का
मिलना-जुलना
होता रहता
है। फ़िल्मों
से बेला
जी का
रिश्ता कई
सालों पहले
टूट चुका
था। इसके
बावजूद फ़िल्मी
दुनिया के
लिए उनके
मन में
बेहद प्यार
और सम्मान
है। बेला
जी कहती
हैं,
“लोग भले
ही फ़िल्मी
दुनिया और
इससे जुड़े
लोगों को
शक़ की
नज़रों से
देखते हों
और इनमें
उन्हें तमाम
बुराईयां नज़र
आती हों
लेकिन इस
दुनिया का
मेरा अनुभव
बेहद सुखद
रहा। नरेश
सहगल ने
बिना किसी
स्वार्थ के
मुझे ग्रुप
से बाहर
लाकर एक
पहचान दी,
बाक़ी तमाम
लोग भी
हमेशा ही
मेरे साथ
इज़्ज़त से
पेश आए,
इसलिए आज
मैं जब
भी
‘कास्टिंग काऊच’
जैसा अनजाना
सा लफ़्ज़
सुनती हूं
तो ज़हन
में बस
यही सवाल
उठता है
कि क्या
वाकई हमारी
फ़िल्मी दुनिया
में ऐसा
कुछ होता
होगा?
लेकिन इस
बात पर
मुझे जरा
भी यक़ीन
नहीं होता”।
(बेला
जी और
आशीष जी
की सभी
पुरानी तस्वीरें
– सौजन्य :
बेला जी
की फ़ेसबुक
फोटो अल्बम|)
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir
Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and
support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters & pictures.
Ms.
Aksher Apoorva for the English
translation of the write ups.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video
editing.
Bela Bose on YT Channel BHD
“Uff Ye Beqaraar Dil Kahan Luta Na Poochhiye” - Bela Bose Sengupta
.......Shishir Krishna Sharma
Bela Bose! The minute one utters this
name, the first imagery to jump into the mind is of a club dancer & a vamp
from the 1960’s decade of Hindi cinema. The Glamorous wicked woman! This image
is in vivid contradiction to the real-life Bela Bose who is a very dignified,
erudite, soft-spoken and above all an extremely sincere/candid orator that
holds no hidden malevolence in her words. “I had entered films as a group
dancer, although I was almost always kicked out of the group” – Belaji
confesses without any qualms. Any other actress in her stead would have
probably tried to conceal her initial struggle days. “Perseverance is a part of
life as much as is success & failure…hiding the truth will not change what
is or was” Belaji’s uninhibited words hold an astounding magnetism.
Born on 18th April, 1941 in
Kolkata to a well to do family, Belaji was the third of 2 brothers & 3
sisters. Her formative years were capricious. Her father had a well-established
prosperous cloth/garment business and her mother was a home-maker. The Bose
family resided comfortably in an affluent bungalow. All of a sudden, both the
banks that carried the family savings, declared bankruptcy. Belaji tells us,
“There were only private banks at the time hence once the banks declared
bankruptcy we became impoverished overnight. Fathers business collapsed. In
those days Mumbai was the hub for clothing mills and so father moved the entire
Bose clan to Mumbai. This instance transpired in July 1951.”
The Bose family began to reside at ‘Belvedere Guest House’ in Mumbai’s Andheri (East) area. Belaji’s
father wanted to join hands with ‘Kohinoor Clothing Mill’ and so were in talks
with the management. Belaji says, “Father was striving to establish a trade in
Mumbai. But, the language barrier was very frustrating for him. He spoke Bangla
& English whereas Marathi & some sparse Gujarati were predominant
languages in Mumbai. Thus father started preparing a move back to Kolkata
within just 6 months of our arrival in Mumbai. But, all of a sudden, he
perished in a road accident. He left home on the morning of 1st
January, 1952 but never came back. After a tedious 2 day search we finally
located his body in a hospital. He was only 36 years old.”
After her father’s demise, when
Belaji’s mother desired to return to Kolkata with her children in tow, it came
to light that her husband’s brother had staked his claim over not only their
bungalow but over their entire property. Belaji’s elder brother was 17 at that
time, her younger sister was 14, Belaji was 11 & her youngest sister was 5.
Her mother was expecting. The responsibility of the entire clan fell on her
elder brother’s shoulders who had no choice but to take up a job at a factory.
Belaji had a predisposition towards
dance from an early childhood. She wanted to learn dance along with her
studies. But after fathers demise the monetary situation of the house was in
dire conditions. By the by, Tanmay Master (Tanu Guruji) of a nearby dance school agreed to
tutor Belaji free of cost on the condition that she would have to perform on
stage without fiscal compensation. Thus Belaji started learning Manipuri dance
with him. One day all students of the dance school were taken to Vishnu Studio
in Vile Parle at film ‘Jalpari’s’ shooting. For Belaji it was her first instance
of seeing a shooting.
Belaji says, “On 5th June,
1952, 5 months after father passed away, my youngest brother was born. My
mother did a 3 months nursing course and took up a job in a private nursing
home. And so, the wellbeing of our youngest sibling fell on us two eldest
sisters. We started going to school in shifts. I would go for morning classes
and my sister would attend school in the evening shift. My dance lessons were
terminated as well.”
According to Belaji one day Tabla
player Nawab Ali from the dance school came searching for her. He alleged that
he would fetch stage shows for Belaji where she would be able to earn some
money & that he would also teach her filmy dance. Belaji says, “Nawab Ali
kept his words. He taught me filmy dance. Truly it was Nawab Ali who made me ‘Bela
Bose’.”
After a while Belaji enrolled in Bipin
Sinha
Guruji’s
dance classes in Charni Road. Asha Parekh and
Seema Dev
were
students of the same dance classes. Belaji says, “One day Bipin
Guruji took me to Filmistan Studio where an English film
‘Three Headed
Snake’ was being shot. I was made to perform some Manipuri Dance
for the film. I got paid Rupees 400 for it which was a handsome amount at the
time. This instance occurred in 1954 or 55 when I was 13-14 years old.”
After nearly 2 years the Bose family
moved from Belvedere Guest House to Sohrab Baug in Andheri (West). There were
many studios in Andheri like Mohan, M.N.T.,
Prakash,
Ashok
etc. Belaji tells us, “One day we were called to M.N.T.
Studio
for a group dance for some film. But the films dance master Badri Prasad
immediately ousted me saying that I was a ‘taad’ (as tall as a palm tree). I
surely was quite tall compared to the other girls. However, I stood outside the
studio from morning 10 till 4 in the evening in the hopes that I might be
called back…but that didn’t happen. On enquiring with a few people I realised
that everyone had already packed up earlier in the day and that there was no
one in the studio. This upset me so much that I vowed never to associate with
films again. But my association with studios was still to be.
Truthfully Belaji would often go to
studios that were on her way to school in the wants of coke and pedas (small
sweets) that were distributed at the Muhurat of a film. Coz of this Belaji
became a familiar face to the studio employees. Belaji says, “One day a Bengali
boy called Deepak came to my home and requested me to be part of a group dance.
Since I had begun to enjoy the studio environment I started going for group
dances again. But my height had become a problem for me. Everyone used to call
me ‘Lambu’. Dance masters would often throw me out of the
dances. I was one of the group dancers in the song ‘mohe panghat pe nandlal chhed gayo re’ from ‘Mughal-e-Azam’. Maybe it was my height that when we
were to bend down during the line ‘kankari mohe maari gagariya phod daali’ I would be seen more clearly than my
counterparts and that’s why Sitara Devi who was present on the sets was livid
at me. I can never forget the scolding that followed. But in the end it was my
height that proved to be a blessing.”
Once during the shoot of the film ‘Mai Nashe Me Hoon’
director
Naresh Sehgal came on sets and saw Belaji who stood out to him amongst the other
dancers and he asked her to step away from the group. For Belaji was accustomed
to being thrown out of group dances. But she was definitely taken aback when
Naresh Sehgal asked her to perform on ‘mujhko yaaron maaf karna
mai nashe
me hoon’ with Raj Kapoor & to do a solo dance on ‘ye na thi hamari kismet’ for the film. This
break proved to be a very important one of Belaji’s career.
Belaji says, “This incident took place
in 1958 and I was studying in the 10th at that time. Film
‘Mai Nashe
Me Hoon’ released in the year 1959. That year I had applied to ‘New School Of Arts’ in Grant Road for a
diploma in commercial arts. Under this course I was learning designing on
cloth. After a 4 year diploma course I would have gotten a job at Kohinoor Mill
where I would earn a steady income. But after ‘Mai Nashe Me Hoon’s’ success, films kept my calendar
full. The diploma class
would
start at 6 in the evening and so I would try to schedule my shoots in the day. But
eventually my schedule became so packed that I had to leave my course after 2 ½
years.”
1960 was a decade of immense occupation
for Belaji. She was seen dancing to the tune of many songs like ‘o dil waalon saaze dil pe jhoom lo’
(Lootera),
‘bambai ka
ye babu dil lene dene aaye’ (Hum Sab Ustaad Hain),
‘hai nazar
ka ishara sambhal jaiye’ (Anita),
‘chhod
gaye bedardi’ (Pyaas / Apna Ghar Apni Kahani),
‘jabse
laagi tose najariya’ (Shikaar),
‘roothe
saiyaan hamaare saiyaan kyon roothe’ (Devar),
‘bade
khoobsoorat bade hi haseen’ and ‘uff ye beqaraar dil’
(Dil Aur
Mohabbat), ‘nadi ka kinara ho’
(C.I.D.909) and ‘churaate ho nazrein aji kisliye’
(Killers). Made in 1962, ‘Sautela Bhai’
was
Belaji’s first film as an actress where she was seen playing a Santhaali girl.
Later on she played comic and villainous roles in many films like ‘Roop Sundari’,
‘Dil
Daulat Aur Duniya’, ‘Chitralekha’,
‘Professor’,
‘Opera House’,
‘Bhai Ho
To Aisa’, ‘Chanda Aur Bijli’,
‘Umang’,
‘Dil Aur
Mohabbat’, ‘C.I.D.909’ and
‘Rocky
Mera Naam’. She was especially liked in film
‘Jeene Ki Raah’
where she
played Jeetendra’s evil step sister.
Belaji confides, “I was a fan of Ashish
Kumar, a famous actor of Bangla films. When my friends in school
would ask me about any boyfriend, I would cheekily show them Ashish Kumar’s
picture. I just could not believe my eyes when one fine day I met Ashish Kumar
at Mala Sinha’s house. When I married the very
same Ashish Kumar in 1967, I had about 40 films on floor. Someway I managed to
finish all the films and then parted ways from the industry to immerse myself
in my domestic life. One day I witnessed my 6 year old daughter trying to
imitating a cabaret dancer and from that day I banned all film magazines from
my house.”
In 1967-68
Belaji
prepared a ballet show ‘Shyama’. This was originally a Bangla Show
which was later adapted in Hindi by Uday Khanna. Belaji required someone
proficient in Rabindra Sangeet for the score. She eventually gave a break to
Manas Mukerjee who later on gave music for films like ‘Shayad’,
‘Lakhon Ki
Baat’ and ‘Aao Pyaar Karein’. Belaji tells us, “After the Ballet
shows came to an end, Uday Khanna ventured to make a film on Santoshi Mata, wherein
Nargis was to play Santoshi Mata’s role. Ashish Kumar was the hero of the same
and Mr. Sahay was the financer, also husband to actress Zahida who is niece to
Nargis, but for some reason the film couldn’t be made. And so Ashishji bought
the story from Uday Khanna. Film ‘Rocky Mera Naam’s’ director Satram Rohra
was a Rakhi-brother
to me. He partnered with Ashishji and they finally made the film ‘Jai
Santoshi
Maa’. Once the film was declared a hit, Satram Rohra’s
intentions sullied. He deceitfully made Ashishiji sign over the rights of the
film. Ashishji was the film’s hero. I too had played an important role in the
film. We didn’t even come to know when the film celebrated its Jubilee
Function. We’ve heard that our trophies are at the films hairdresser’s home
till date.”
Later on Belaji and her husband made
films like ‘Solah Shukrawar’,
‘Ganga
Sagar’, ‘Raja Harishchandra’, ‘Badrinath Dham’
and
‘Navratri’. Belaji’s mother, elder brother and
elder sister are no more. Her mother had started as a nurse in a private
nursing home. And she went on to become a matron in Mumbai’s famous King George
Hospital. Belaji’s elder brother Anil Bose
was a R.T.O.
Inspector but like father he too passed away in a
road accident at the age of 36. Belaji’s younger sister resides in USA and her
younger brother resides in Canada. Her daughter Manju Shri Nayar is married and
is a doctor in a government hospital in Coimbtore. Belaji’s son Abhijit Sengupta had played a
very important role in the film ‘Paramveer Chakra’
(1995).
But his heart wasn’t in acting and thus he earned an M.B.A. degree and ventured
into business. Today he is the owner of ‘Sengupta Lifespace’
(S.G.L.)
Group Of Companies;
he is also a builder, has a property business, Event Management Company & is proficient in making
Ad films. He also handles the film distribution of his father’s company ‘Jai
Santoshi Mata Pictures’. Belaji and her husband Ashish Kumarji
used to reside in Bandra (West) till 3 years ago. But because their son’s
company, S.G.L.’s corporate office
and
business is in Navi Mumbai
–
Belapur
area, they had to leave Bandra and they shifted to live with their son in
Nerul. But Ashishji couldn’t stay in Nerul
for long.
Belaji tells us, “Ashishji was not
keeping well for some time. He had diabetes and he preferred to stay at home.
In November 2013, on insistence from her daughter and son-in-law and their 10
year old son, Ashishji, Abhijit and I went go to visit Goa with them. Since we
had a club membership with ‘Mahindra & Mahindra’
our stay
was organised at the company guest house. On the 3rd day, 23rd
November, Ashishji suddenly fell gravely ill and passed away. We completed the
final rites in Goa and came back to Mumbai.
Belaji acted in Aruna Irani’s serial ‘Zameen Se Aasmaan Tak’ for Sahara One Channel in 2002 – 2003 but since she has bid goodbye to acting all together. She is still close to yesteryear actresses Shakila, Ameeta, Zeb Rehman and Azra and they make it a point to meet a couple of times in a month. Her link with the film industry had been broken many years back. Despite that she has a lot of love and respect for the film industry. Belaji says, “Laymen might view the world of films & the people associated with it with suspicion and maybe they find many a faults but my experiences with this industry have been a very pleasant one. Naresh Sehgal selflessly picked me from my group and bestowed me with an identity, everyone else behaved with utmost respect towards me, maybe that’s why when I hear unfamiliar words like ‘casting couch’ I begin to question its existence that does such a thing truly exist in our industry? However I don’t believe in does at all.”
(All
the old pictures of Bela ji & Ashish ji – courtesy : Bela ji’s FB foto
album)