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'बीते हुए दिन'...हिंदी सिनेमा की भूली-बिसरी यादों का झरोखा !
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"बड़े परदे की मां-भाभी, छोटे परदे की शबरी" - सरिता देवी
…...शिशिर कृष्ण शर्मा
हिन्दी सिनेमा में कई ऐसे कलाकार हुए हैं, जो दशकों तक लगातार परदे पर नज़र आते रहे और जिनका चेहरा आज भी दर्शकों की यादों में बसा हुआ है| लेकिन वो कौन थे, कहां से आए थे, उनका नाम क्या था, वो कहां चले गए और अब कहां होंगे जैसे तमाम सवाल अपने पीछे छोड़, गुज़रते वक़्त के साथ वो गुमनामी में खो गए| ऐसी ही एक कलाकार थीं सरिता देवी, जो अभिनय के क्षेत्र में 40 सालों तक लगातार सक्रिय रहीं, एक 'पहचाना सा चेहरा' बनने में तो वो सफल हुईं, लेकिन चेहरे के अलावा उनकी अन्य कोई भी पहचान नहीं बन पायी| हालांकि 40 सालों बाद उनके ढलते करियर में एक चमत्कार हुआ| बड़े परदे पर पहचान बनाने के उनके लम्बे संघर्ष पर छोटे परदे के ब्लॉकबस्टर धारावाहिक 'रामायण' में मात्र एक एपिसोड की उनकी छोटी सी भूमिका ऐसी हावी हुई कि आज भी माता शबरी का नाम सुनते ही मनोमस्तिष्क में न केवल सरिता देवी का चेहरा कौंधता है, बल्कि आमजन का हृदय भी असीम श्रद्धा से भर जाता है|
सरिता देवी के जीवन से जुड़ी तमाम जानकारी मुझे उनकी बेटी सुश्री विजयश्री जी के अलावा जयपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार श्री एम.डी.सोनी और सुश्री मैत्रीमंथन के ब्लॉग 'मैत्रीमंथन' से मिली| श्री एम.डी.सोनी को साल 1993 में, जोधपुर में हुए एक समारोह में सरिता देवी जी का साक्षात्कार करने का मौक़ा मिला था|
सरिता देवी जी का जन्म 23 नवम्बर 1923 को जोधपुर के एक 'पीपा क्षत्रिय' परिवार में हुआ था| उनके पिता पूनमचंद चौहान जी की अपनी टेलरिंग शॉप थी| परिवार में माता पिता के अलावा सरिता देवी और उनसे बड़ी एक बहन यानि दो बेटियां थीं| सरिता देवी जी ने दसवीं तक की पढ़ाई की, और फिर उसी स्कूल में पढ़ाने भी लगी थीं|
Shri M.D.Soni
सरिता देवी जी को बचपन से ही फ़िल्में देखने का और अभिनय का बहुत शौक़ था| श्री एम.डी.सोनी जी से राजस्थान पत्रिका के लिए हुई बातचीत में सरिता देवी जी ने बताया था कि इस दिशा में उनके पिता उन्हें बहुत प्रोत्साहित करते थे और पिता के प्रोत्साहन से ही वो 1940 के दशक के मध्य में, 20-22 साल की उम्र में मुम्बई आ गयी थीं| (हालांकि विजयश्री जी कहती हैं कि उनके नाना अपनी बेटी के इस शौक़ के पूरी तरह ख़िलाफ़ थे और इसीलिये बेटी यानि सरिता देवी पिता को बिना बताए मुम्बई आयी थीं, अलबत्ता मां से उन्होंने कुछ भी नहीं छिपाया था|)
विजयश्री जी के अनुसार उनकी मां ने मुम्बई में रहने वाले एक पूर्वपरिचित गुजराती परिवार के यहां शरण ली| काम की तलाश के दौरान वो लालजी गोहिल के संपर्क में आयीं, जो एक ड्रामा प्रोड्यूसर थे| लालजी गोहिल मूल रूप से तत्कालीन जोधपुर रियासत के बागावास इलाक़े के रहने वाले थे| मुम्बई में सरिता देवी ने नाटकों में अभिनय से करियर शुरू किया| हिन्दी के अलावा उन्होंने राजस्थानी, गुजराती, मराठी इत्यादि भाषाओं के नाटकों में भी अभिनय किया| उस दौर में लालजी गोहिल का नाटक 'राम और रहीम' बहुत हिट हुआ था, जिसने सरिता देवी को ख़ासी पहचान दी| साल 1951 में सरिता देवी जी ने लालजी गोहिल से शादी कर ली थी|
सरिता देवी की पहली फ़िल्म थी, साल 1947 की 'तोहफ़ा'| इस फ़िल्म में उन्होंने महज़ 24 साल की उम्र में नायिका की मां का रोल किया था| उसी साल की 'रिवाज' में भी वो मां के रोल में नज़र आयीं| साल 1948 की 'हिप हिप हुर्रे' उर्फ़ 'चौबेजी’ में वो निरूपा राय की बुआ थीं तो 'चुनरिया' (1948) और 'चकोरी' (1949) में भी उन्होंने इसी तरह की चरित्र भूमिकाएं की थीं|
सरिता देवी जी ने लगभग 45 साल के अपने करियर में ‘दो बीघा ज़मीन', ‘टैक्सी ड्राईवर', ‘देवदास', ‘सोने की चिड़िया', ‘लव मैरिज', ‘आयी मिलन की बेला', 'आये दिन बहार के', 'आप आये बहार आयी', ‘पिया का घर', ‘पाकीज़ा', ‘गंगा की सौगंध', ‘आंचल', ‘प्यार झुकता नहीं' जैसी लगभग 200 हिन्दी फ़िल्में बतौर चरित्र अभिनेत्री कीं| लेकिन उनकी असल और अमिट पहचान बनी, साल 1986-87 में दूरदर्शन पर प्रसारित हुए ब्लॉकबस्टर धारावाहिक 'रामायण' में केवल एक एपिसोड की, भील जनजाति की रामभक्त वृद्धा शबरी की भूमिका से| 'रामायण' के बाद वो साल 1993 में एक बार फिर से छोटे परदे पर धारावाहिक 'श्रीकृष्ण' में नज़र आयी थीं| उनके करियर की आख़िरी फ़िल्म साल 1993 की ही 'आदमी खिलौना है' थी|
हिन्दी के अलावा सरिता देवी जी ने राजस्थानी, गुजराती, भोजपुरी, मराठी, बांग्ला और हरियाणवी भाषाओं की भी कुछ फ़िल्में कीं| साल 1963 की राजस्थानी फ़िल्म 'बाबा रामदेव' में रामदेव की मौसी की खलभूमिका में उन्हें बेहद पसंद किया गया था| भाषा पर सरिता देवी जी की पकड़ बेहद मज़बूत थी| उन्होंने रूसी भाषा की कुछ फ़िल्मों में हिन्दी डबिंग भी की थी|
साल 1993 में जोधपुर के 'कला त्रिवेणी संस्थान' द्वारा राजस्थानी सिनेमा का स्वर्ण जयन्ती वर्ष मनाया गया था| इस समारोह में सरिता देवी जी को सिनेमा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया था| श्री एम.डी.सोनी को इस समारोह के दौरान ही सरिता देवी जी का इंटरव्यू करने का अवसर मिला था|
सरिता देवी जी के पति लालजी गोहिल ने शादी के बाद अपनी ड्रामा कंपनी को बंद करके मुम्बई के उपनगर खार में टेलरिंग शॉप खोल ली थी| सरिता देवी से उनके दो बेटों और एक बेटी विजयश्री का जन्म हुआ| लालजी गोहिल की ये दूसरी शादी थी और पहली शादी से भी उनके दो बेटे थे| उधर सरिता देवी जी की भी ये दूसरी शादी थी| उनकी पहली शादी बारह साल की उम्र में कर दी गयी थी| दुर्भाग्य से शादी के केवल दो महीनों के अन्दर उनके (पहले) पति गुज़र गए थे|
सरिता जी के पति लालजी गोहिल का निधन 21 जून 1990 को हुआ था| सरिता जी का बड़ा बेटा भी अब जीवित नहीं है| बेटी विजयश्री एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करने के बाद अब सेवानिवृत्त हैं और अपने छोटे भाई के परिवार के साथ मुम्बई के उपनगर कांदिवली (पूर्व) में रहती हैं|
सरिता देवी जी जीवन के आख़िरी 5-6 सालों में पार्किन्सन की बीमारी से पीड़ित रहीं, जो समय के साथ गंभीर रूप लेती चली गयी| और फिर इसी बीमारी के चलते 28 जून 2001 को 78 साल की उम्र में वो इस दुनिया को अलविदा कह गयीं|
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr. M.D.Soni (Jaipur) & Maitri Manthan for their support.
Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.
Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.
Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support.
Sarita Devi ji on YT Channel BHD
“Mother & Sister in Law on big screen, Shabari on TV” - Sarita Devi
.....Shishir Krishna Sharma
Hindi cinema has had numerous such artists who were regularly seen on the screen and their faces are embedded deep into viewers’ memory. Who they were, where did they come from, what was their name, where did they vanish and where would they be today?, lost in oblivion, they left so many questions behind.
Sarita Devi was one such artist who remained active for 40 years, succeeded in becoming a known face but nothing more. 40 years later, while her career graph was on the decline, a miracle happened. Years of grueling struggle on big screen was overshadowed by a single episode of the blockbuster TV serial Ramayan, in which her role as Shabari invokes deep respect in the hearts of common people.
I could obtain the whole lot of information about Sarita Devi from her daughter Ms. Vijayshri, Jaipur based senior journalist Shri M.D. Soni and Ms. Maitrimanthan’s blog ‘Maitrimanthan’. Shri M.D. Soni got an opportunity of interviewing Sarita Devi ji in a function held at Jodhpur in 1993.
Sarita Devi was born on 23rd November 1923 in Jodhpur in a Peepa Kshatriya clan. Her father Poonam Chand Chauhan owned a tailoring shop. Sarita Devi had a sister elder to her. Sarita Devi studied upto Matric and began teaching in the same school.
Sarita Devi was fond of films and acting right from her childhood. M.D. Soni while interviewing Sarita Devi for Rajasthan Patrika disclosed that her father was extremely encouraging. With encouragement from her father, she arrived in Mumbai at the age of 20-22 years in mid-1940. (though Vijayshri is emphatic that her maternal grandfather was against this, therefore, Sarita Devi landed in Mumbai without the knowledge of her father, though she did not hide anything from her mother).
According to Vijayshri her mother took refuge with a Gujarati family, known to her. In connection with her work she came in contact with Lalji Gohil, a Drama Producer. Lalji Gohil belonged to Bagavas area of Jodhpur princely state. Sarita Devi began acting on stage in Gujarati, Marathi and Rajasthani language plays. Lalji Gohil’s play ‘Ram aur Rahim’ was a big hit. It brought wide recognition for Sarita Devi. In 1951, Sarita Devi married Lalji Gohil.
‘Tohfa’ of 1947 was Sarita Devi’s debut film in which she played the role of a mother at the age of 24. Same year she again played the role of mother in ‘Rivaaj’. She played the role of Nirupa Roy’s aunt (bua) in 1948’s ‘Hip Hip Hurray’ alias ‘Chaube ji’. She played the similar character roles in ‘Chunariya’ (1948) and ‘Chakori’ (1949).
Sarita Devi, in her long career of 45 years played character roles in more than 200 Hindi films e.g. ‘Do Beegha Zameen’, ‘Taxi Driver’, ‘Devdas’, ‘Sone ki Chidiya’, ‘Love Marriage’, ‘Aayi Milan ki Bela’, ‘Aaye Din Bahar Ke’, ‘Aap Aaye Bahar Aayi’, ‘Piya Ka Ghar’, ‘Pakeezah’, ‘Ganga Ki Saugandh’, ‘Aanchal’, ‘Pyar Jhukta Nahi’. But she earned an indelible mark by playing the single episode role of aged Bhil tribal lady Mata Shabari in Doordarshan’s blockbuster serial ‘Ramayan’ telecast in 1986-87. Again in 1993 she made a come back in the TV serial ‘Shri Krishna’. ‘Aadmi Khilona Hai’ (1993) was the last film of her career.
Besides Hindi, Sarita Devi did films in Rajasthani, Gujarati, Bhojpuri, Marathi, Bangla and Haryanvi languages as well. Her role as a wicked aunt of Baba Ramdev in the Rajasthani film ‘Baba Ramdev’ (1963) was well appreciated by the viewers. Sarita Devi was well versed in linguistic skill. She dubbed for a couple of Russian language films in Hindi and was honored for the same.
In the year 1993 Jodhpur’s Kala Triveni Sansthan celebrated its Golden Jubilee year. Sarita Devi was honored in this function for her contribution to cinema. It was in this function that M.D.Soni ji had got an opportunity to interview her.
Lalji Gohil, after his wedding to Sarita Devi, closed down his Drama company and had opened a Tailoring shop in Mumbai’s suburb Khar. The couple had two sons and one daughter. For Lalji Gohil, it was his second marriage. He had two sons from his first marriage as well. For Sarita Devi also it was her second marriage of sort. Her first wedding took place when she was barely 12 years of age. Unfortunately, her husband had died within two months of wedding.
Sarita Devi’s husband Lalji Gohil passed away on 21 June 1990. Sarita Devi’s elder son is also no more. Daughter Vijayshri worked for a Private company and has since retired. Her primary concern was to look after her parents therefore, she chose to remain a spinster all her life. Vijay shri lives with her younger brother’s family in Thakur Complex, Kandivali (East).
Sarita Devi suffered from Parkinson’s disease in her last 5-6 years, which worsened with age. Sarita Devi succumbed to her disease on 28th June 2001 at the age of 78 years.
हिंदी सिनेमा में कई फ़िल्मकार ऐसे हुए जिन्होंने ज़्यादा काम तो नहीं किया, लेकिन जितना भी किया वो दर्शकों के ज़हन पर गहरी छाप छोड़ गया| ऐसे ही एक फ़िल्मकार थे रमेश गुप्ता जिन्होंने साल 1978 में रिलीज़ हुई बहुचर्चित फ़िल्म 'त्यागपत्र' का निर्देशन किया था| आगे चलकर उन्होंने छोटे परदे पर भी हाथ आज़माया तो वहां भी अपनी छाप छोड़ने में पूरी तरह कामयाब रहे| सौभाग्य से रमेश गुप्ता जी आज 82 साल की उम्र में भी स्वस्थ और ऊर्जावान हैं और अपने भरेपूरे परिवार के साथ सुखशान्ति से सेवानिवृत्त जीवन बिता रहे हैं|
रमेश गुप्ता जी के पिता रहने वाले तो स्यालकोट के थे जो अब पकिस्तान में है, लेकिन रमेश गुप्ता जी के ताऊ यानी अपने बड़े भाई की देखादेखी वो भी हिमाचल प्रदेश के चंबा में आकर बस गए थे| रमेश गुप्ता जी का जन्म 23 अक्टूबर 1941 को चंबा में हुआ था| उनके पिता दुकान चलाते थे और मां एक आम गृहिणी थीं| रमेश गुप्ता जी मातापिता की अकेली संतान थे| वो 6 साल के थे, जब उनकी मां गुज़र गयी थीं| ऐसे में उनका पालन पोषण उनके ताऊ-ताई ने किया था|
रमेश गुप्ता जी ने साल 1957 में चंबा के गवर्नमेंट स्कूल से मैट्रिक किया| दशकों पहले इस स्कूल की नींव चंबा स्टेट के महाराजा ने रखी थी| अमृतसर के डी.ए.वी. कॉलेज से रमेश गुप्ता जी ने 1959 में 12वीं की| उसी दौरान साल 1958 में चंबा में कॉलेज खुला तो 12वीं पास करने के बाद उन्होंने वापस लौटकर चंबा कॉलेज से ग्रेजुएशन किया| वो कहते हैं, “अमृतसर का रीजेंट सिनेमाहॉल हमारे कॉलेज से लगा हुआ ही था| घर से हर महीने मुझे 80 रूपए मिलते थे| महीने में मेरा ज़्यादा से ज़्यादा 40 रूपए ख़र्च होता था| 40 बचते थे, जो मैं फ़िल्में देखने में ख़र्च कर देता था| अमृतसर में रहते हुए मैंने बहुत सी फ़िल्में देखी थीं|”
रमेश गुप्ता जी मुम्बई के मशहूर जे.जे.स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में दाख़िला लेना चाहते थे| इस मक़सद से एक रोज़ वो बिना घर में बताए मुम्बई के लिए निकले तो पिताजी ने बसस्टैंड पर ही पकड़ लिया| उन्होंने समझाया, कोर्स पूरा करके आओगे तो दुकानों के बोर्ड पेंट करने का ही काम मिलेगा| उधर साल 1961 में पूना में फ़िल्म इंस्टिट्यूट खुला तो रमेश गुप्ता जी ने ये कहकर पिताजी को मना लिया कि वो सरकारी कॉलेज है| पिताजी की सहमति से वो पूना पहुंचे, फ़िल्म इंस्टिट्यूट में इंटरव्यू दिया और 1962 के बैच में उन्हें फ़िल्म निर्देशन में दाख़िला मिल गया| शिमला के रहने वाले मशहूर सिनेमैटोग्राफर सुदर्शन नाग भी उसी बैच के थे| उनसे रमेश गुप्ता जी की गहरी दोस्ती हो गई थी|
कोर्स के दौरान रमेश गुप्ता जी का मुम्बई आनाजाना और फ़िल्मी लोगों से मिलना जुलना होता रहता था| ऐसी ही एक मुलाक़ात के दौरान गुरूदत्त के प्रोडक्शन कंट्रोलर एल.पी.शाह ने रमेश गुप्ता जी से वादा किया था कि उनका कोर्स पूरा होने के बाद वो उन्हें गुरूदत्त की टीम में रखवा देंगे| निर्माता-निर्देशक-अभिनेता किशोर साहू ने भी कहा था कि कोर्स पूरा होने के बाद मेरे पास आ जाना| रमेश गुप्ता जी साल 1965 में पासआउट होकर मुम्बई आए, लेकिन तब तक गुरूदत्त गुज़र चुके थे| मशहूर अभिनेता पुनीत इस्सर के पिता सुदेश इस्सर से भी रमेश गुप्ता जी की जान पहचान हो गयी थी| सुदेश इस्सर उन दिनों राजखोसला को असिस्ट कर रहे थे| उन्होंने रमेश गुप्ता जी को राजखोसला से मिलवाया| रमेश गुप्ता जी ने अपना परिचय देते हुए जैसे ही कहा कि मैं फ़िल्म इंस्टिट्यूट से हूं, राजखोसला ने जवाब दिया, “सॉरी! तुम्हारे लिए जगह नहीं है|”
Raj Khosla
रमेश गुप्ता जी बताते हैं, “सुदेश ने मुझसे कहा, फ़िल्म इंस्टिट्यूट का नाम क्यों लिया? खोसला जी उसके नाम से ही बिदक जाते हैं| कुछ दिनों बाद सुदेश का फ़ोन आया कि राजखोसला 'मेरा साया' शूट कर रहे हैं, जिसके लिए उन्हें एक उर्दू अनुवादक की ज़रुरत है| सुदेश के कहने पर मैंने राजखोसला को फ़ोन किया तो उन्होंने मुझे बुला लिया| मिलने पहुंचा, तो मुझे देखते ही वो पहचान गए| उन्होंने पूछा, फ़ोन तुमने किया था? और मेरे हां कहते ही उन्होंने एकबार फिर से मुझे बैरंग वापस भेज दिया, कि सॉरी, नो प्लेस फॉर यू|”
साधना के पति, निर्देशक आर.के.नैयर की बहन चंबा में रहती थीं| रमेश गुप्ता जी की उनसे जान पहचान थी| उनकी सिफ़ारिश पर रमेश गुप्ता जी आर.के.नैयर से अंधेरी (पश्चिम) के फ़िल्मालय स्टूडियो के उनके ऑफिस में जाकर मिले| नैयर ने कहा, मेरे पास तो जगह नहीं है, राजकपूर के यहां लगवा देता हूं| लेकिन रमेश गुप्ता जी ये कहकर वहां से लौट आए कि आपके यहां 8 हैं, तो वहां तो पता नहीं कितने असिस्टेंट होंगे| फिर वो किशोर साहू से मिले और फ़िल्म 'हरे कांच की चूड़ियां' (1967) में उन्हें ज्वाइन कर लिया| फ़िल्म पूरी हुई तो रमेश गुप्ता जी फ़िल्म 'दस लाख' के लिए देवेन्द्र गोयल की टीम में चले गए| उसके बाद बासु चटर्जी के चीफ़ असिस्टेंट के तौर उनकी फ़िल्में 'सारा आकाश' (1969) और 'उस पार' (1974) कीं|
रमेश गुप्ता जी कहते हैं, “मुम्बई में मैं ख़ार के एवरग्रीन गेस्ट हाउस में रहता था| उसके मालिक चड्ढा जी बेहद दरियादिल इंसान थे| अपने पैसे का तकाज़ा करना तो दूर, हमारी ज़रुरत पर वो हमें उधार भी दे देते थे| साल 1970-71 में गेस्ट हाउस को तोड़कर उसकी जगह होटल बनाने का काम शुरू हुआ तो मैं बांद्रा के मरीना गेस्ट हाउस में आ गया| मरीना गेस्ट हाउस को राजेंद्र कुमार, बीर सखूजा, मोहन कुमार जैसे फ़िल्मी स्ट्रगलरों के ठिकाने के साथ साथ उसकी बेहद सख्तमिज़ाज लेकिन दिल की उतनी ही नरम सिंधी मालकिन रूकी मीरचन्दानी की वजह से भी जाना जाता था| एक रोज़ रूकी मीरचन्दानी ने मुझे डांटा कि 6 महीने हो गए यहां मुफ़्त में पड़े पड़े, निकल यहां से| मैं डरकर सामान बांधने लगा तो वो बोलीं, ‘मुआ बिना पैसे दिए ही चला जाएगा क्या?’ उन्होंने मुझे जाने से तो रोका ही, 10 रूपये भी दिए कि जा कहीं काम ढूंढ, दिन भर यहीं पड़ा रहता है|”
Basu Chatterjee
रूकी मीरचंदानी विधवा थीं और उनकी कोई संतान नहीं थी| राज कपूर ने रूकी से ही प्रेरित होकर फ़िल्म अनाड़ी में मिसेज़ डीसा का रोल गढ़ा था, जिसे ललिता पवार ने निभाया था| दुर्भाग्य से रूकी का निधन 20 मार्च 1993 को बेहद संदेहास्पद हालात में हुआ था| कहा जाता है कि उन्हें प्रॉपर्टी के लालच में मुंह पर तकिया रखकर मारा गया था और इस क़त्ल का शक़ उनके भाई अर्जुन पर था| उधर रमेश गुप्ता जी ने एक और जानकारी दी कि रूकी मीरचन्दानी राजेश खन्ना के आख़िरी कुछ सालों में उनकी लिव इन पार्टनर रहीं अनीता आडवाणी की सगी मौसी थीं|
उस ज़माने में विडियो कैसेट्स, डीवीडी, यूट्यूब वगैरह कुछ भी न होने की वजह से अपनी पसंद की फ़िल्में देख पाना बेहद मुश्किल था| ऐसे में बासु चटर्जी और अरूण कौल जैसे कुछ फ़िल्मकारों ने मिलकर एक फ़िल्म सोसायटी बनाई, जहां सभी लोग महीने में एक-दो बार मिलकर फ़िल्में देखते थे और विचार-विमर्श करते थे| एक रोज़ वहां नौनिहाल (1967) और त्रिसंध्या (1974) जैसी फ़िल्मों के निर्देशक राज मारब्रोस का ज़िक्र हुआ जो अब निर्माता महेंद्र बिनायके के लिए अगली फ़िल्म बनाने की तैयारियों में जुटे हुए थे| लेकिन राज मारब्रोस के नाम पर एन.एफ़.डी.सी. ने फ़िल्म को फाइनेंस करने से इनकार कर दिया था, क्योंकि एन.एफ़.डी.सी. की ही फाइनेंस की गयी राज की फ़िल्म 'त्रिसंध्या' बुरी तरह फ्लॉप हो गयी थी, और एन.एफ़.डी.सी. का पैसा डूब गया था| फाइनेंस न मिल पाने की वजह से महेंद्र बिनायके बेहद परेशान थे| ऐसे में बासु चटर्जी ने राज मारब्रोस की जगह रमेश गुप्ता जी का नाम सुझाया|
रमेश गुप्ता जी कहते हैं, “मेरे साथ जुड़ा 'पूना फ़िल्म इंस्टिट्यूट' का नाम काम कर गया और एन.एफ़.डी.सी. फ़िल्म को फाइनेंस करने के लिए तैयार हो गया| वो फ़िल्म थी साल 1978 में रिलीज़ हुई 'त्यागपत्र', जो मशहूर लेखक जैनेन्द्र कुमार के इसी नाम के उपन्यास पर बनी थी| ये अपने दौर की बेहद चर्चित फ़िल्म थी| इस फ़िल्म की मेनलीड में थे विद्या सिन्हा, प्रताप शर्मा और सत्येन कप्पू| फ़िल्म 'त्यागपत्र' मई 1975 में फ़्लोर पर गयी थी और उसी साल अगस्त के महीने में मेरी अगली फ़िल्म 'मंगल दादा' का मुहूर्त हुआ था|”
फ़िल्म 'मंगल दादा' सुनील दत्त साहब की पहल पर शुरू हुई थी| दरअसल रमेश गुप्ता जी साल 1980 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म 'एक गुनाह और सही' में एसोसिएट डायरेक्टर थे| इस फ़िल्म के निर्देशक योगी कथूरिया फ़िल्म इंस्टिट्यूट से एडिटिंग का कोर्स करके आए थे और निर्देशन के बारे में उन्हें ज़्यादा कुछ पता नहीं था| रमेश गुप्ता जी ने एसोसिएट डायरेक्टर की अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई, लेकिन उन्हें राजनीति का शिकार होकर आधी से ज़्यादा बन चुकी फ़िल्म से अलग हो जाना पड़ा| हालांकि फ़िल्म के हीरो सुनील दत्त तब तक रमेश गुप्ता जी की काबिलियत को भांप गए थे| उधर योगी कथूरिया आगे चलकर अमेरिका शिफ्ट हो गए थे|
रमेश गुप्ता जी बताते हैं, “एक रोज़ मैं मरीना गेस्ट हाउस के अपने कमरे में था कि किसी ने दरवाज़ा खटखटाया| बाहर एक बंगाली बाबू खड़े थे| उन्होंने पूछा, 'गुप्ताजी हैं?’ मैंने कहा, 'मैं ही हूं रमेश गुप्ता|’
उनका नाम लट्टू भट्टाचार्य था| अपना परिचय एक फ़िल्म राईटर के तौर पर देते हुए उन्होंने पूछा, 'अन्दर आ जाऊं?’
वो अन्दर आए, बैठे, और बोले, 'कहानी सुनाऊं?’
मुझे कहानी अच्छी लगी| उन्होंने पूछा, ‘फ़िल्म बनाओगे?’
'फ़िल्म? कैसे बनाऊं?’
‘कहानी अच्छी लगी हो तो हां तो बोलो|’
मैंने 'हां' कहा तब उन्होंने बताया कि उन्हें सुनील दत्त साहब ने भेजा है और दत्त साहब को भी कहानी बहुत पसंद आयी है| फ़िल्म के लिए प्रोड्यूसर भी लट्टू भट्टाचार्य ही लेकर आए - मनु कर्मचंदानी| फ़िल्म का टाइटल रखा गया, 'मंगल दादा'| बड़े बजट की फ़िल्म थी जिसमें सुनील दत्त, रीना रॉय, अमजद खान, सारिका, आशा सचदेव जैसे सितारों की भरमार थी| फ़िल्म का ट्रीटमेंट ग्रेगरी पैक की साल 1962 की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म 'केप फियर' से लिया गया था|”
रमेश गुप्ता जी के अनुसार मनु कर्मचंदानी अचानक ही आर्थिक परेशानियों में घिर गए| ऐसे में फ़िल्म को पूरा होने में बहुत समय लगा| उस दौरान अमजद का वज़न बहुत बढ़ गया, जिसका असर फ़िल्म की कांटिन्यूटी पर पड़ा| फिल्म में कई जगह काटछांट करनी पड़ी| दत्त साहब को भी उनकी फ़ीस नहीं मिली, इसके बावजूद उन्होंने ये फ़िल्म सिर्फ़ रमेश गुप्ता जी की वजह से पूरी की| फ़िल्म 'मंगल दादा' साल 1986 में रिलीज़ हुई और इसने ठीकठाक बिज़नेस किया| दुर्भाग्य से लट्टू भट्टाचार्य इसकी रिलीज़ से पहले ही दुनिया को अलविदा कह गए थे|
रमेश गुप्ता जी फ़िल्म 'मंगल दादा' के निर्माण के शुरूआती दौर में ही प्रोड्यूसर के डावांडोल हो रहे आर्थिक हालात को भांप गए थे, इसलिए उन्होंने औरों पर निर्भर रहने के बजाय ख़ुद ही फ़िल्म प्रोड्यूसर बनने का फ़ैसला भी कर लिया था| सुनील दत्त प्रेरणास्रोत थे ही इसलिए रमेश गुप्ता जी ने 'रमेश फ़िल्म्स' के नाम से अपने प्रोडक्शन की नींव रखी और सुनील दत्त, विद्या सिन्हा, संजीव कुमार और प्रेमनाथ को लेकर फ़िल्म शुरू कर दी, जो अंग्रेज़ी उपन्यास 'बाऊंड मैन' से प्रेरित थी| टाइटल रखा गया 'महान'| अभिनेत्री किरण खेर को रमेश गुप्ता जी ने ही इस फ़िल्म में इंट्रोड्यूस किया था|
'Mahaan'
उन दिनों देश में इमरजेंसी लगी हुई थी| फ़िल्म में ज़बरदस्त एक्शन था| लोग कहते थे, सेंसर एक्शन को पास नहीं करेगा| ऐसे में फ़िल्म से एक्शन निकाल दिया गया| इधर शूटिंग पूरी हुई, सारे पैसे ख़त्म हो गए, और उधर इमरजेंसी भी हट गयी| अब फ़िल्मी हलकों में बातें होने लगीं कि सुनील दत्त और प्रेमनाथ की फ़िल्म, और बिना एक्शन वाली? कौन खरीदेगा ये फ़िल्म? ऐसे में फायनेंसर भी पीछे हट गए और फ़िल्म बंद हो गयी| नतीजतन रमेश गुप्ता जी को अपना पूरा ध्यान रूक-रूककर बन रही 'मंगल दादा' पर केन्द्रित कर देना पड़ा| उधर रमेश गुप्ता जी की अधूरी फ़िल्म 'महान' की कहानी का इस्तेमाल यश चोपड़ा ने साल 1978 की अपनी फ़िल्म ‘त्रिशूल' में कर लिया था|
रमेश गुप्ता जी कहते हैं, “मंगल दादा की रिलीज़ के बाद काफ़ी समय तक मैं ख़ाली बैठा रहा| वो दौर बहुत परेशानी भरा था| एक रोज़ मुझे एक दोस्त कैलाश आडवाणी मिल गए जो रामानंद सागर के असिस्टेंट थे| मेरे हालात के बारे में सुनकर उन्होंने कहा कि सिनेविस्टाज़ कंपनी के लिए वेद राही जी का एक सीरियल पास हुआ है, उनसे मिल लो| वेद जी से मेरी पहले से ही जान पहचान थी| दरअसल उनकी पत्नी चंबा की, और हमारी महाजन बिरादरी की ही हैं| बचपन से ही हमारी दोस्ती और भाई-बहन वाला रिश्ता रहा| मुम्बई में शुरूआती दौर में जब मैं स्ट्रगल कर रहा था तो हरेक रविवार को मेरा दोपहर का खाना उन्हीं के घर पर होता था| लेकिन मेरे मुंहफट स्वभाव की वजह से वेद जी की मुझसे पटती नहीं थी| बहरहाल कैलाश आडवाणी की सलाह पर मैं वेद जी के घर पहुंच गया|”
Ved Rahi
रमेश गुप्ता जी ने वेद राही जी से कहा, फ़िल्में मिल नहीं रही हैं, सीरियल का मुझे कुछ आता नहीं है, आप ही अपने साथ रख लो| उन्होंने साफ़ मना कर दिया - ‘तू बोलता बहुत है, सबके बीच बेइज्ज़ती करता है, नहीं रखूंगा|’ रमेश गुप्ता जी ने वादा किया, ‘चुप रहूंगा| बिल्कुल नहीं बोलूंगा|’ और इस वादे पर वेद राही जी के उस सीरियल 'ज़िंदगी' से रमेश गुप्ता जी की छोटे परदे पर एंट्री हो गयी| उस सीरियल के मुख्य कलाकार थे शर्मिला टैगोर, परीक्षित साहनी, बेंजामिन गिलानी, सुप्रिया पाठक और बतौर बाल कलाकार - उर्मिला मातोंडकर|
रमेश गुप्ता जी के लिए छोटा परदा बेहद शुभ रहा| आगे चलकर उन्होंने 'गुल गुलशन गुलफ़ाम', ‘कथासागर' जैसे भारी भरकम सीरियलों के कुछ एपिसोड्स का निर्देशन किया| काम की तारीफ़ हुई तो जल्द ही वो दूरदर्शन के शो 'जूनून' से स्वतन्त्र निर्देशक बन गए| और फिर 'ज़ी टी.वी.' के 'यूल लव स्टोरीज़', ‘क़र्ज़', ‘परम्परा', 'कर्तव्य' और डीडी गोल्ड के 'अलग अलग' जैसे कई बिगबजट सुपरहिट शोज़ के ज़रिये वो अपने दौर के टॉप के टी.वी. निर्देशकों में शामिल हो गए|
रमेश गुप्ता जी कहते हैं, “टी.वी. ने मुझे नाम दिया, पैसा दिया और ये सिलसिला साल 2001 तक चलता रहा| और फिर जैसे जैसे निर्देशकों की नयी और युवा पीढ़ी मैदान में आती गयी और हमारी पीढ़ी बुज़ुर्गों में शुमार होती गयी, स्वाभाविक रूप से मैं भी रिटायरमेंट की तरफ़ बढ़ता चला गया| इस अक्टूबर में 82 साल का होने जा रहा हूं| परिवार में पत्नी, दो बेटे-बहुएं और उनके बच्चे हैं| बड़ा बेटा फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में है और छोटा बेटा एम.बी.ए. करने के बाद बंगलौर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहा है| कुल मिलाकर ज़िंदगी सुखशांति से गुज़र रही है|”
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.
Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.
Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.
Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support.
Ramesh Gupta ji on YT Channel BHD
"From Cinema To TV" - Ramesh Gupta
.....Shishir Krishna Sharma
Hindi cinema has had several filmmakers who generally do not have a large repertory to boast of but whatever they have done has left deeper imprint in the minds of viewers. Ramesh Gupta was one such luminary, who had directed the much talked about film ‘Tyagpatra’ way back in 1978. Later, he tried his hand at TV as well and left deep impact there too. These days at the ripe age of 82 Ramesh Gupta ji is equally energetic and in good health, and is leading a happy, healthy and peaceful retired life with his family.
Ramesh Gupta’s father hailed from Sialkot, now in Pakistan but like his elder brother i.e. Ramesh Gupta ji’s Taooji, he too relocated and settled in Chamba , Himachal Pradesh. Ramesh Gupta ji was born on 23rd October 1941 in Chamba. His father used to run a shop and mother was a home maker. Ramesh Gupta, who was the only child of his parents; was barely six when his mother left this world. Ramesh Gupta ji was brought up by his uncle-aunt (Taooji -Taiji).
Ramesh Gupta ji completed his Matriculation from the Government school, Chamba in 1957. Decades back this school was founded by the Maharaja of Chamba. Ramesh Gupta ji passed his Intermediate examination from DAV college Amritsar in 1959. Meanwhile in the year 1958 a degree college was established in Chamba; Ramesh Gupta ji returned to Chamba and did his graduation from this college. He recalls “Regent theatre of Amritsar was adjacent to our college. A sum of Rs.80/- was sent to me from home every month, while my expenses were only Rs.40/-. I could save Rs.40/- which I used to spend in viewing films. While in Amritsar I saw numerous films.”
Ramesh Gupta always wanted to get admission in Mumbai’s illustrious J.J. School of Arts. With this aim he decided to run away from home but was caught by his father at the city bus stand itself. His father counseled him that after passing this course he would merely become a sign board painter, nothing bigger. In 1961 the Film Institute came in existence in Pune. Ramesh Gupta ji convinced his father saying that the Film Institute is a government college. With his father’s consent Ramesh Gupta ji reached Pune, he was interviewed and he secured admission in the ‘Film Direction’ course, batch of 1962. Famous cinematographer Sudarshan Nag from Shimla was his batchmate. They both became good friends.
While pursuing the course, Ramesh Gupta ji used to visit Mumbai and interact with people from film industry frequently. During one such meeting L.P. Shah, the Production Controller of Gurudutt promised to get him engaged with Gurudutt’s team, once he completes his course. Producer-Director-Actor Kishore Sahu also promised him a break. By the time Ramesh Gupta ji completed his course in 1965 and landed in Mumbai, Gurudutt was no more. Ramesh Gupta ji was friendly with actor Puneet Issar’s father Sudesh Issar, who was assisting Raj Khosla. Sudesh Issar took Ramesh Gupta ji to Raj Khosla. As soon as Ramesh Gupta said he was from the Film Institute, Raj Khosla dismissed him “Sorry! there is no place for you”.
Ramesh Gupta ji narrates, “Sudesh asked me why I mentioned Film Institute’s name?” Khosla is put off by the very name of Film Institute. After few days, Sudesh rang up to inform that Raj Khosla is shooting a film ‘Mera Saya’ and is in need of an Urdu translator. At the behest of Sudesh I telephoned Raj Khosla. He called me. When he saw me, he immediately recognized me and asked whether I had telephoned him? On my saying ‘yes’, he again said ‘Sorry! For you, no place”.
Film actress Sadhna’s husband R.K. Nayyar’s sister was based in Chamba. Ramesh Gupta ji was familiar with her. With her recommendation Ramesh Gupta ji met R.K. Nayyar in his office at Filmalaya studio, Andheri (West). Nayyar informed that he has no vacancy, however, he will get him engaged with Raj Kapoor. Ramesh Gupta ji politely declined “When you have eight assistants, God knows how many he would be having”. Thereafter, he met Kishore Sahu and joined him in Sahu’s underproduction movie ‘Hare Kannch ki chudiyan’ (1967). After completion, Ramesh Gupta ji joined Devendra Goyal who was making ‘Dus Lakh’. Later, he joined Basu Chatterjee as Chief Assistant in his films ‘Sara Aakash’ (1969) and ‘Uss Paar (1974).
Ramesh Gupta ji fondly remembers, “I was living in Evergreen Rest House, Khar. Its owner Chaddha saab was a kind-hearted man, leave alone asking for his rightful dues, at times he would lend us money in our hour of need. In the year 1970-71 the Guest House was demolished to make way for a hotel, so I shifted to Marina Guest House, Bandra. Marina Guest House was well known not only as the shelter for strugglers like Rajender Kumar, Bir Sakhuja and Mohan Kumar but also for the hot headed but soft-hearted Sindhi landlady Mrs. Ruki Mirchandani. One day Ruki Mirchandani fired me and asked me to get lost as I am doing nothing but idling here without paying for the last six months. I got scared, started packing my bag, she fired me further- eh so want to run away without settling my dues? She prevented me from going, also gave me ten rupees, advised me to go out and look for work rather than whole day lying in the room doing nothing.
Ruki Mirchandani was an issueless widow. Raj Kapoor’s film Anari’s character of Mrs. D’sa, played by Lalita Pawar was inspired by this real-life Mrs. Ruki Mirchandani. Unfortunately, Mrs. Ruki died on 20th March 1993 under highly mysterious circumstances. It was rumored that for her property, her own brother Arjun strangulated her by pressing a pillow on her face. Ramesh Gupta ji also confided that Mrs. Ruki Mirchandani was real Mausi of Anita Advani, the live-in partner of Rajesh Khanna in his twilight days.
Those were the times when video cassettes, DVDs and You Tube etc. did not exist so film makers like Basu Chatterjee and Arun Kaul formed a Film Society where once or twice in a month they would meet, watch movies and have discussion on various aspects of film making. Once the topic of Raj Marbros, Director of films like Naunihal (1967) and Trisandhya (1974) came to be discussed, who was preparing to direct next film for the producer Mahendra Binayake. After hearing that Raj Marbros was to direct the film, NFDC refused to finance the film as his earlier directed and financed by NFDC film Trisandhya had flopped miserably resulting into huge financial loss to it. Mahendra Bianayake was feeling helpless due to lack of a financier. It was at this stage that Basu Chatterjee suggested the name of Ramesh Gupta ji in place of Raj Marbros.
Ramesh Gupta ji recalls “The tag of Film Institute Pune came to my rescue and NFDC agreed to finance the film. The film ‘Tyagpatra’, based on Jainendra Kumar’s novel with the same name, released in 1978. It was a much talked about film of its time with Vidya Sinha, Pratap Sharma and Satyen Kappu in the main lead. Tyagpatra went to floor in May 1975 and the same year in the month of August, mahurat of my next film ‘Mangal Dada’ took place.
Mangal Dada commenced at the prompting of Sunil Dutt saheb. In fact, Ramesh Gupta ji was once working as the Associate Director of the 1980 film ‘Ek Gunah Aur Sahi’. Director of this film Yogi Kathuria had done a course in Film Editing from FTII. He had little knowledge of film direction. Ramesh Gupta as Associate Director fulfilled his duties very well, however, he fell victim to ‘film politics’ and recused himself from the film at the stage when the film was more than half completed. By now, Sunil Dutt had realized the abilities of Ramesh Gupta ji. Yogi Kathuria later migrated to America.
Ramesh Gupta ji recounts “One day while in my room at Marina Guest House, there was a knock at the door. A Bengali Babu, standing there, inquired whether Guptaji was there? I replied ‘Yes I am Ramesh Gupta’. He introduced himself as Lattu Bhattacharya, a film writer, and sought permission to get in. He came, he sat and said, ‘Shall I narrate a story?’. I liked the story. He asked, ‘Will you make the film?’ I asked, Film? How? He simply asked, ‘Just say ‘yes’ if you liked the story’. I replied in affirmative. Then he disclosed that he was sent by Sunil Dutt, who also liked the story. Lattu Bhattacharya himself brought the producer also, named Manu Karamchandani. The film was titled ‘Mangal Dada’. It was a big budget, multi starrer film with Sunil Dutt, Reena Rai, Amzad Khan, Sarika and Asha Sachdev. Film’s treatment was based on Gregory Peck’s 1962 blockbuster hit film Cape Fear.
According to Ramesh Gupta ji, suddenly Manu Karamchandani ran into financial trouble. Therefore it took unduly long time for the film to complete. Meanwhile, Amjad gained lot of weight, adversely affecting the continuity of the film, which necessitated lots of cuts in the film. Sunil Dutt did not get even his fee, yet he cooperated and completed the film for the sake of Ramesh Gupta ji. Mangal Dada was released in 1988 and did just about OK business on box office. Unfortunately, Lattu Bhattacharya left this world before the film was released.
In the initial stage of ‘Mangal Dada’ shoot itself, Ramesh Gupta ji had sensed the trouble with producer’s financial position, hence, instead of depending on others he decided to become a Producer himself. Sunil Dutt was his source of inspiration. Ramesh Gupta ji founded his production house by the name ‘Ramesh Films’. He started a film titled ‘Mahaan’ with Sunil Dutt, Vidya Sinha, Sanjeev Kumar and Prem Nath. It was inspired by an English novel ‘Bound Man’. Actress Kiran Kher was introduced by Ramesh Gupta ji in this film.
This film had lot of action. It was the time of Emergency. Sensing trouble with the censor Board the action scenes were chopped off. By the time film was completed and the funds had dried up, also the emergency had been lifted. Now the talk in film circle was as to who will buy the film with Sunil Dutt - Prem Nath duo yet no action? In such a scenario, the financiers also backed out and the film was left in lurch. Subsequently, Ramesh Gupta ji had to concentrate on ‘Mangal Dada’. On the other hand, the story of Ramesh Gupta ji's incomplete film 'Mahan' was used by Yash Chopra in his 1978 film 'Trishul'.
Ramesh Gupta ji informs “After the release of ‘Mangal Dada’, I had no work for a long period. That was a miserable time. One day I met my friend Kailash Advani, who was assistant to Ramanand Sagar. Hearing my plight, he told me that Ved Rahi’s serial for Cinevistaas company has been cleared. I knew Ved Rahi very well as his wife is also from Chamba and from the same Mahajan community as mine. Right since childhood, we were friends and were like brother and sister. Initially while struggling in Mumbai, my lunch every Sunday used to be at their residence only. Since I was bluntly outspoken, Ved Rahi ji could not bring himself to be friends with me. However, on the insistence of Kailash Advani I met Ved Rahi ji at his home.”
Ramesh Gupta ji confided to Ved Rahi that he was not getting films, and about serials he knew nothing, please keep him alongside. Ved Rahi refused point blank and said ‘You speak too much, humiliate before others, I can not keep you’ Ramesh Gupta ji avowed to keep quiet and never to speak. And with this promise, Ramesh Gupta ji entered the TV world through the serial ‘Zindagi’ starring Sharmila Tagore, Parikshit Sahni, Benjamin Gilani, Supriya Pathak and the child artist Urmila Matondkar.
The TV proved to be lucky for Ramesh Gupta ji. In times to come he directed a couple of episodes of ‘Gul Gulshan Gulfam’ and ‘Katha Sagar’. His work was much appreciated and with the Doordarshan serial ‘Junoon’, he became an independent Director. Further with super hit big budget serials like ‘Yule Love Stories’ ‘Karz’, ‘Parampara’ ‘Kartavya’ on Zee tv and ‘Alag-Alag’ on Doordarshan catapulted Ramesh Gupta ji to the league of top TV directors of the time.
Ramesh Gupta ji fondly reminisces, “TV gave me name, fame and wealth. This continued till 2001. As the newer and younger generation entered the fray, we found ourselves among the ‘oldies’. I was advancing towards retirement. This October I will be 82 years of age. I live with my family consisting of my wife, two sons, daughters-in-law and grandchildren. My elder son is into film director and the younger one, after completing his MBA, is working for a multinational company in Bangalore. Today, I am leading a blissfully peaceful life.