“दु:ख तो अपना साथी है” – सुशील कुमार
...........शिशिर कृष्ण शर्मा
जून माह के तीसरे सप्ताह में रेडियो चैनल बिग एफ़.एम. 92.7 के मशहूर कार्यक्रम ‘सुहाना सफ़र विद अन्नू कपूर’ के कार्यालय को एक श्रोता का पत्र मिला जिसमें उन्होंने साल 1964 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘दोस्ती’ के दोनों प्रमुख अभिनेताओं सुशील कुमार और सुधीर कुमार के बारे में जानकारी देने का अनुरोध किया था। कार्यक्रम के साथ बतौर रिसर्चर और लेखक जुड़ाव होने के नाते उन श्रोता का सवाल ई-मेल द्वारा मुझे भेज दिया गया। सवाल बेहद टेढ़ा था क्योंकि ज़हन में बचपन से बस सुनीसुनाई एक ही बात बैठी हुई थी कि उन दोनों ही कलाकारों को क़त्ल कर दिया गया था। तमाम पुस्तकें-पत्रिकाएं और फ़ाईलों में बन्द अख़बारी कटिंगें छान मारीं लेकिन उन दोनों के बारे में कहीं कुछ नहीं मिला। ‘गूगल सर्च’ में खोजने पर उनके क़त्ल सूचना और भी ज़्यादा चटपटे मसाले में लिपटी हुई मिली कि उन दोनों को उस ज़माने के एक बहुत बड़े स्टार ने मरवा डाला था।
http://wiki.answers.com/Q/How_died_Sudhir_kumar_and_sushil_kumar?#slide=2 (ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ में सुशील कुमार जी के इस साक्षात्कार के प्रकाशित होने के बाद 4 मई 2015 को उक्त वेबसाइट पर ग़लती में सुधार कर दिया गया है|)
ज़ाहिर है कि इस बेसरपैर की सूचना को गम्भीरता से लिया ही नहीं जा सकता था। ऐसे में हमेशा की तरह संकटमोचक के रूप में मैंने ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ के अभिन्न अंग और सूरत निवासी वरिष्ठ फिल्म इतिहासकार श्री हरीश रघुवंशी जी (चित्र में) को याद किया। उम्मीद के मुताबिक़ हरीश जी का उत्तर भी मुझे तुरंत मिल गया। हालांकि बहुत ज़्यादा जानकारी तो उनके पास भी मौजूद नहीं थी लेकिन तीन पंक्तियों का उनका संक्षिप्त सा उत्तर उम्मीद की किरण ज़रूर लेकर आया। हरीश जी ने लिखा था, “सुशील कुमार सिंधी थे और उन्होंने शायद एक और फ़िल्म में काम किया था। सुधीर कुमार महाराष्ट्रियन थे और वो आगे चलकर भी काम करते रहे। उन दोनों में से एक गुज़र चुके हैं, लेकिन कौन गुज़रे, ये मुझे नहीं पता।” इस “कौन गुज़रे” का जवाब मुझे फ़िल्म ‘दोस्ती’ की बालकलाकार बेबी फ़रीदा और आज की जानीमानी चरित्र अभिनेत्री फ़रीदा दादी से मिल गया। फ़रीदा जी ने बताया कि सुधीर कुमार काफ़ी पहले गुज़र चुके थे लेकिन सुशील कुमार के बारे में उन्हें भी कोई हालिया जानकारी नहीं थी।
उन श्रोता का सवाल मेरे लिए एक चुनौती बन चुका था और अभी तक हासिल हुई आधी-अधूरी सी जानकारी उन्हें देना मुझे गवारा नहीं था। ऐसे में एक बार फिर से नेट का सहारा लिया कि शायद कहीं कुछ मिल जाए। और इस बार मेरी कोशिश कामयाब रही जब मुझे एक जगह ये टिप्पणी पढ़ने को मिली - “सुशील कुमार जीवित हैं और वो मुंबई के चेम्बूर में रहते हैं”।
ये टिप्पणी सुश्री शर्मिला बेलानी ज़ुत्शी ने की थी और टिप्पणी में झलकते आत्मविश्वास से ज़ाहिर था कि वो सुशील कुमार को व्यक्तिगत तौर पर जानती थीं। उधर हरीश रघुवंशी जी का ये कहना कि सुशील कुमार सिंधी थे और “शर्मिला” के साथ जुड़ा सिंधी उपनाम “बेलानी” उस टिप्पणी पर मेरे यक़ीन को और भी मज़बूत बना रहे थे। अब सवाल ये था कि शर्मिला जी से सम्पर्क कैसे करूं? सो ये परेशानी फेसबुक ने दूर कर दी। सुश्री शर्मिला बेलानी ज़ुत्शी मुझे फ़ेसबुक सर्च में मिल गयीं। उन्हें अपना परिचय देते हुए मैंने मैसेज भेजा तो प्रत्युत्तर भी तुरंत ही मिल गया। और महज़ एक घंटे के भीतर सुशील कुमार जी के मोबाईल और लैंडलाईन दोनों ही नम्बर मेरे पास पहुंच चुके थे।
सुश्री शर्मिला बेलानी ज़ुत्शी के सहयोग के बिना हमारा सुशील कुमार जी तक पहुंच पाना सम्भव नहीं था और टीम ‘बीते हुए दिन’ इसके लिए शर्मिला जी की आभारी है।
शुक्रवार 11 जुलाई 2014 की शाम। चेम्बूर की मशहूर ‘नवजीवन सोसायटी’ में स्थित सुशील कुमार जी का फ़्लैट। सुशील कुमार जी फ़िल्म ‘दोस्ती’ में बैसाखी का सहारा लिए अपंग रामनाथ के किरदार में नज़र आए थे। मुझे उनके साथ क़रीब साढ़े तीन घण्टे गुज़ारने का मौक़ा मिला और उस दौरान उन्होंने अपने निजी और व्यावसायिक जीवन के बारे में बेलाग बातचीत की। प्रस्तुत है, सुशील कुमार जी की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी –
“मेरा जन्म 4 जुलाई 1945 को कराची में हुआ था। दादा-दादी, माता-पिता, दो चाचा और उनके पत्नी-बच्चों से भरापूरा हमारा एक संयुक्त परिवार था। हम सब एक आलीशान मक़ान में रहते थे और हमारा ड्रायफ़्रूट्स का बहुत बड़ा कारोबार था। मेरे पिता का नाम किशनचंद जमनादास सोमाया और मां का नाम तुलसीबाई था। सिंधी होते हुई भी हमारी भाषा, खानपान और रीति-रिवाज पर कच्छ-गुजरात की संस्कृति का गहरा असर था। मैं महज़ ढाई बरस का था जब देश का बंटवारा हुआ और हमें अपना सबकुछ कराची में छोड़कर भागना पड़ा। हम लोग गुजरात के नवसारी शहर में चले आए जहां हमने फिर से ड्रायफ़्रूट्स का कारोबार शुरू किया।
लेकिन नए शहर में कारोबार जम नहीं पाया और लगातार हो रहे घाटे की वजह से हमें 6 साल के भीतर ही नवसारी भी छोड़ना पड़ा। साल 1953 में हम लोग मुंबई चले आए और माहिम की एक चाल में रहने लगे। नवसारी से दूसरी पास करने के बाद मुंबई में मैंने म्यूनिसिपल स्कूल में तीसरी कक्षा में दाख़िला ले लिया था। लेकिन अभी तो हमारी क़िस्मत में और भी बुरे दिन देखना लिखा था।
तमाम ख़ुशहाली और ऐशोआराम भरी ज़िंदगी जी चुके मेरे दादा, पिता और दोनों चाचा कंगाली के इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए और वो चारों एक एक करके सालभर के भीतर ही चल बसे। ऐसे में घर के माली हालात बद से बदतर होते चले गए और हमारा संयुक्त परिवार बिखर गया।
मेरी मौसी-मौसा चेम्बूर में रहते थे। वो बंटवारे के दौरान सीधे मुंबई चले आए थे और अब यहां पूरी तरह से जम चुके थे। हमारे परिवार में मां और हम 3 भाई-बहन थे। मैं सबसे बड़ा था, मुझसे छोटी एक बहन थी और सबसे छोटा भाई था। मौसी-मौसा ने हमें सहारा दिया। उन्होंने हमें माहिम से अपने पास चेम्बूर बुला लिया। मेरी उम्र उस वक़्त महज़ 9 बरस की थी। हम चेम्बूर कैम्प में एक बैरेक में रहने लगे और मुझे म्यूनिसिपल स्कूल में दाख़िला दिला दिया गया। मेरे मौसा डेनमार्क की ‘ल्युमास’ कम्पनी में काम करते थे। उधर मेरी मां को भी लारसन एण्ड टुब्रो (एल.एण्ड टी.) कम्पनी में नौकरी मिल गयी जिससे घर के हालात थोड़ा सम्भलने लगे।
मुझे डांस का बहुत शौक़ था। ख़ासतौर से गणेशोत्सव के दौरान होने वाले सार्वजनिक कार्यक्रमों में मैं ख़ूब डांस करता था। एक रोज़ कराची के हमारे एक बरसों पुराने पारिवारिक मित्र किशनलाल बजाज हमारे घर आए। वो मुल्तानी थे और बंटवारे के बाद उनका पूरा परिवार दिल्ली आकर बस गया था। किशनलाल बजाज मुंबई में रहते थे और फ़िल्मों में छोटे-मोटे रोल करते थे। उन्होंने मेरी मां के सामने प्रस्ताव रखा कि 20 प्रतिशत कमीशन के बदले वो मुझे फ़िल्मों में काम दिलाएंगे जिसे मां ने मान लिया।
साल 1958 में बनी सिंधी फ़िल्म ‘अबाना’ बतौर बालकलाकार मेरी पहली फ़िल्म थी। साधना की भी बतौर अभिनेत्री ये पहली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के निर्देशक धरम कुमार (अगले चित्र में) थे जो दीपक आशा के नाम से लाहौर में बनी फ़िल्म “पराए बस में” (1946) में खलनायक का किरदार निभा चुके थे। धरम कुमार ने ‘घमण्ड’ (1955),
‘रोड नं.303’ (1960),
‘संगदिल’ (1967)
और ‘मर्डर ऑन हाईवे’ (1970)
जैसी हिन्दी फ़िल्मों का निर्देशन भी किया था। ‘अबाना’ के बाद मैंने एक और सिंधी फ़िल्म ‘इंसाफ़ कित्थे आ’ में काम किया जो साल 1959 में प्रदर्शित हुई थी।
बतौर बालकलाकार मैंने ‘फिर सुबह होगी’ (1958), ‘धूल का फूल’, मैंने जीना सीख लिया’ (दोनों 1959), ‘काला बाज़ार’, ‘श्रीमान सत्यवादी’, ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ (सभी 1960), ‘संजोग’, सम्पूर्ण रामायण’, ‘एक लड़की सात लड़के’ (सभी 1961), फूल बने अंगारे’ (1963) और ‘सहेली’ (1965) जैसी कई फ़िल्मों में काम किया। उधर किशनलाल बजाज फ़िल्म ‘एक लड़की सात लड़के’ के बाद दिल्ली लौट गए जहां कुछ समय बाद उनका देहांत हो गया।
राजश्री प्रोडक्शंस के मालिक ताराचन्द बड़जात्या 1959 में प्रदर्शित हुई बांग्ला फ़िल्म ‘लालू-भुलू’ का हिंदी रीमेक बनाना चाहते थे जिसकी केन्द्रीय भूमिकाओं के लिए वो 17-18 साल के दो नए लड़कों की तलाश में थे। उनकी बेटी राजश्री मुझे फ़िल्म ‘फूल बने अंगारे’ में देख चुकी थीं और मेरे काम से बेहद प्रभावित थीं। उन्होंने अपने पिता से मेरे नाम की सिफारिश की। और एक रोज़ ‘राजश्री प्रोडक्शंस’ का एक आदमी मुझे खोजता हुआ हमारे घर आ पहुंचा। ‘राजश्री प्रोडक्शंस’ के ऑफ़िस में मेरा परिचय निर्देशक सत्येन बोस और अभिनेता सुधीर कुमार से कराया गया। सत्येन बोस हमें दादर के ‘श्रीसाऊण्ड स्टूडियो’ में साथ लेकर गए जहां हमारा मेकअप किया गया।
नेत्रहीन और अपंग, दोनों ही भूमिकाओं में हम दोनों का संवादों के साथ कैमरा टेस्ट हुआ। अगले दिन हमें बॉम्बे लैब में बांग्ला फ़िल्म ‘लालू-भुलू’ दिखाई गयी। और अंत में सुधीर को नेत्रहीन और मुझे अपंग की भूमिका दे दी गयी। कम्पनी के साथ 300 रूपए प्रतिमाह पर हमारा 3 साल का कॉंट्रेक्ट हुआ।
फ़िल्म ‘दोस्ती’ साल 1964 में रिलीज़ हुई और ज़बर्दस्त हिट हुई। अभिनेता संजय ख़ान ने इसी फ़िल्म से करियर शुरू किया था। पूना की रहने वाली मराठी (?) अभिंनेत्री उमा राजू की भी ये पहली हिंदी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म ने साल 1964 की ‘सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म’ के अलावा संगीत, कहानी, संवाद, पार्श्वगायन और गीतलेखन के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते थे। मुझे इस फ़िल्म के लिए महाराष्ट्र राज्य का ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ का राज्य पुरस्कार हासिल हुआ था। मैं उस वक़्त चेम्बूर के म्यूनिसिपल स्कूल से 11 पास करके जयहिंद कॉलेज में 12वीं में पढ़ रहा था। ताराचन्द बड़जात्या सुधीर और मुझे लेकर अगली फ़िल्म बनाने की तैयारियां कर रहे थे। कॉंट्रेक्ट के तहत कम्पनी से हम दोनों को हर महिने 300 रूपए वेतन मिलता था जो उस जमाने में बहुत बड़ी रक़म मानी जाती थी।
उन्हीं दिनों सुधीर को मद्रास की ‘ए.वी.एम.’ कम्पनी की ओर से फ़िल्म ‘लाडला’ के लिए बुलावा आया तो उन्होंने कॉंट्रेक्ट की शर्त के मुताबिक़ हर्जाना देकर ‘राजश्री प्रोडक्शंस’ के साथ हुआ अपना कॉंट्रेक्ट तोड़ दिया। मैं उन दिनों ‘अंतर्राष्ट्रीय बाल फ़िल्म समारोह-1965’ में शामिल फ़िल्म ‘दोस्ती’ के प्रोमोशन के लिए मॉस्को गया हुआ था। सुधीर कुमार के इस क़दम से हमें लेकर बनने वाली ‘राजश्री प्रोडक्शंस’ की अगली फ़िल्म ठप्प हो गयी और कम्पनी को मेरे साथ हुआ कॉंट्रेक्ट भी रद्द कर देना पड़ा। लेकिन ताराचन्द जी ने मुझसे इतना वादा ज़रूर किया कि वो जल्द ही मुझे बुलाएंगे।
उधर निर्माता-निर्देशक देवी शर्मा ने मुझे फिल्म ‘गुनाहों का देवता’ (1967) और निर्माता आर.लक्ष्मण ने फ़िल्म ‘अनोखी रात’ (1968) के लिए बुलाया। लेकिन बार-बार बुलाते रहने के बावजूद वो किसी भी फ़ैसले पर नहीं पहुंचे। ऐसी अनिश्चितताओं की वजह से मेरा मन फ़िल्मों की तरफ़ से उखड़ने लगा था। मैंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया।
उधर ताराचन्द बड़जात्या जी ने अपना वादा निभाते हुए मुझे फ़िल्म ‘तक़दीर’ में एक अहम भूमिका दी। ये फ़िल्म साल 1968 में प्रदर्शित हुई और कामयाब भी रही। लेकिन मैं फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कहने का मन बना चुका था।
मैंने जयहिंद कॉलेज से बी.ए. किया। और फिर कुछ ही समय बाद मुझे एयर इंडिया में फ़्लाईट पर्सर की नौकरी मिल गयी। साल 1973 में बनी देवआनंद की फ़िल्म ‘हीरापन्ना’ में ज़रूर जहाज़ के भीतर के एक सीन में मैं फ़्लाईटपर्सर के रूप में नज़र आया था, वरना ‘तकदीर’ के बाद मैंने फ़िल्मों की तरफ़ मुड़कर नहीं देखा। साल 1971 से 2003 तक मैंने नौकरी की और फिर रिटायरमेंट ले लिया। नौकरी के दौरान मैंने पूरी दुनिया की सैर की। साल 1978 में बचपन की दोस्त कोशी कोटवाणी से मेरी शादी हुई जो माहिम में हमारी पड़ोसी थीं और काफ़ी सम्पन्न परिवार की थीं। कोशी के परिवार का मुंबई मस्जिद बंदर इलाक़े में ड्रायफ़्रूट का कारोबार और बर्फ़ का कारखाना था।
हमारी एक ही बेटी किरण है जो अमेरिका के फ़्लोरिडा शहर में रहती है। उसके पति रवि नागपाल सॉफ़्टवेयर इंजिनियर हैं। मैं और मेरी पत्नी मुंबई में रहते हैं, हालांकि अक्सर बेटी के पास भी हमारा आना-जाना लगा रहता है। मेरा छोटा भाई, बहन, चाचाओं के बेटे और उनके परिवार मुंबई में ही हैं और हममें से ज़्यादातर लोग चेम्बूर में ही आसपास रहते हैं। जहां तक सवाल है फ़िल्म ‘दोस्ती’ के मेरे चरित्र का, तो वो काफ़ी हद तक मेरी असल ज़िंदगी से मिलता-जुलता है। फ़िल्म के रामनाथ की ही तरह मैंने भी बचपन से भीषण गरीबी और दु:ख देखे। ऐसे में फ़िल्म का ये गीत मुझे अपने बेहद क़रीब महसूस होता है, “सुख है इक छांव ढलती, आती है जाती है, दु:ख तो अपना साथी है।”
(अप्रैल 2016 में सुशील कुमार जी की पत्नी का निधन हो गया था| उसके बाद से वो अमेरिका में अपनी बेटी के साथ रह रहे हैं| लेकिन हर साल कुछ महीने मुम्बई में भी बिताते हैं|)
सुधीर कुमार
फ़िल्म ‘दोस्ती’ के दौरान हुई सुधीर कुमार और मेरी मुलाक़ात पक्की दोस्ती में बदल गयी थी। वो मुझसे उम्र में दो-ढाई साल छोटे थे और उनका पूरा नाम सुधीर कुमार सावंत था। वो महाराष्ट्रियन थे और परेल के लालबाग़ इलाक़े में रहते थे। हमारा मिलना-जुलना और एक-दूसरे के घर आना-जाना होता रहता था। सुधीर के घर में उनके माता-पिता, एक बड़ी बहन शोभा और एक छोटी बहन चित्रा थे। उन्होंने आर्यभट्टम स्कूल से एस.एस.सी. पास किया था। उनके मामा प्रभाकर वी.शांताराम की कम्पनी ‘राजकमल कलामंदिर’ में चीफ़ मेकअपमैन थे।
‘दोस्ती’ से पहले सुधीर फ़िल्म ‘संत ज्ञानेश्वर’ में काम कर चुके थे। ये फ़िल्म भी 1964 में ही प्रदर्शित हुई थी। आगे चलकर सुधीर ने ‘लाडला’ (1966) के अलावा ‘जीने की राह’ (1969) और मराठी फ़िल्म ‘घर ची राणी’ (1968) में भी काम किया लेकिन उनका करियर ज़्यादा नहीं चल पाया। 1960 के दशक के आख़िर में उनकी शादी भी हो गयी थी। लेकिन शादी के बाद उन्हें एक भी फ़िल्म नहीं मिली और वो फ़िल्मी दुनिया से बाहर ही हो गए। उधर मेरी नौकरी की वजह से हमारा मिलना-जुलना भी कम होता चला गया।
साल 1994 में मैं कनाडा से भारत लौट रहा था। लंदन में मुझे एयर इंडिया का ही एक सहकर्मी मिला। वो भी महाराष्ट्रियन ही था। उसने मुझे सुधीर कुमार के निधन की सूचना दी। मुझे इस ख़बर से बहुत धक्का पहुंचा। मुंबई पहुंचकर मैं सुधीर कुमार के घर गया। उनके पिता बहुत पहले ही गुज़र चुके थे। दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी और घर में अब उनकी मां, पत्नी और बेटी थे। उनकी मां से पता चला कि 1993 के दंगों के दौरान सुधीर के गले में खाना खाते वक़्त मुर्गे की हड्डी फंस जाने से ज़ख़्म हो गया था।
चूंकि उन दिनों कर्फ़्यू लगा हुआ था इसलिए समय पर उनका इलाज नहीं हो पाया। धीरे धीरे उनका घाव बढ़ता चला और उन्हें खाने-पीने में तक़लीफ़ होने लगी। हालात यहां तक बिगड़ गए कि उन्हें टाटा अस्पताल में भरती कराना पड़ा। कई महिनों तक उन्हें नली के ज़रिए तरल भोजन दिया जाता रहा लेकिन वो बच नहीं पाए। इसके कुछ सालों बाद एक रोज़ मैं फिर से सुधीर की मां, पत्नी और बेटी का हालचाल पूछने उनके घर पर पहुंचा तो पता चला कि वो लोग मुंबई छोड़ चुके हैं। सुधीर की छोटी बहन चित्रा की शादी पूना में हुई थी और वो अपनी मां, भाभी और भतीजी को अपने साथ लेकर चली गयी थी।
कहा जाता है कि किसी की मौत की झूठी ख़बर फैला देने से उसकी उम्र लम्बी होती है। अफ़सोस, कि सुधीर कुमार के मामले में ये मान्यता ग़लत साबित हुई क्योंकि फ़िल्म ‘दोस्ती’ की ज़बर्दस्त कामयाबी के बाद सुधीर कुमार और मेरे बारे में भी तो अफ़वाह उड़ा दी गयी थी कि हम दोनों की हत्या कर दी गयी है। हालांकि मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं कि उस अफवाह के पीछे कौन था और उसका मक़सद क्या था।
We are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Aksher Apoorva for the English
translation of the write ups.
Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Sushil Kumar ji on YT Channel BHD
(‘DOSTI’ / 1964 : Golden Jubilee Year Special)
“Dukh To Apna Saathi Hai”
–
Sushil
Kumar
...........Shishir Krishna Sharma
Office of the famous program ‘Suhana Safar With
Annu Kapoor’ on radio channel BIG FM 92.7’s received a letter from a listener in the 3rd week of June, who wanted to know the
whereabouts of the main lead actors Sushil Kumar and Sudhir Kumar of 1964 release hit
movie ‘Dosti’. Being associated with the program as researcher and
writer, that mail was forwarded to me. This was a tricky question as I knew
nothing about them except what was being told since my childhood that they had
been murdered. I checked all the reference books, magazines and paper cuttings
but found nothing about these two actors. And ‘Google search’ gave me some more
spicy information that they were really murdered by a very big star of that
era.
http://wiki.answers.com/Q/How_died_Sudhir_kumar_and_sushil_kumar?#slide=2 (Mistake has been rectified
by the said website on 4 May 2015 after the publication of Sushil Kumar ji’s interview on blog ‘Beete Hue din’.)
So as usual, I saw a savior in Shri Harish
Raghuwanshi ji who is an integral part of the blog ‘Beete Hue Din’ and is a
Surat based very senior film historian. As expected, I received his immediate
reply. Though he too didn’t have much information about these two actors yet,
his short reply did come as a ray of hope to me. Harish ji wrote, “Sushil Kumar
was Sindhi and possibly acted in one more film, Sudhir Kumar was Maharashtrian,
he acted later on, one of them died, who died I don’t know.”
And I got
the answer to this question of ‘who died?’ from the movie ‘Dosti’s child artist Baby Farida who
is today known as a famous character artist ‘Farida Dadi’. Farida
ji said, “Sudhir Kumar is no more, he died long
back” but she didn’t have any information about Sushil Kumar’s whereabouts.
The Gwalior based
listener’s query was like a challenge to me and I wasn’t ready to provide him with
incomplete and apocryphal information. Thus hoping for something new I once again
checked the internet. And this time I met with success when I saw the following
comment online - “sushil kumar is very much alive. He lives in Chembur,
Mumbai, India”.
This comment was posted by one Ms.Sharmila Belani Zutshi and the confidence behind the comment was enough to imply that she knew Sushil Kumar ji personally. On the other hand, Harish Raghuwanshi ji’s reply that Sushil Kumar was Sindhi and the Sindhi surname ‘Belani’ attached with ‘Sharmila’ were enough to intensify my instinct about her comment.
Now the biggest
question that posed itself was, ‘how do I contact Sharmila ji’? and in today’s
technically vibrant age this problem was solved by none other than facebook! I
found Ms.Sharmila Belani Zutshi through the Facebook search page. I sent her a
message along with my brief introduction and surprisingly in no time I received
her reply. Thanks to Sharmila ji, Sushil Kumar ji’s mobile and landline numbers had
reached me within an hours’ time.
It was impossible for
us to reach Sushil Kumar ji without the kind support and help from Ms.Sharmila
Belani Zutshi. Team ‘Beete Hue Din’ is indeed grateful to Sharmila ji for her
kindness.
Friday 11 July 2014. Evening. Sushil Kumar ji’s flat at Chembur’s well known ‘Navjivan Society’.Sushil Kumar ji played the crippled character Ramnath (on crutches) in the movie ‘Dosti’. I spent three and a half hours with him during which he spoke in details about his personal and professional lives. Here we present Sushil Kumar ji’s story in his own words –
“I was born on 4th July 1945 in Karachi.
Ours was a joint family consisting of my grandparents, parents, two uncles, their
wives and children. We lived in a palatial house and had a thriving and flourishing
business of dry fruits. My father’s name was Kishen Chand Somaya and mother was
called Tulsi Bai. Though we were Sindhi’s yet we had a deep impact of Kachchh-Gujarat’s
culture on our language, food habits and the traditions. I was hardly two and a
half years old when the partition took place and we had to run away from
Karachi leaving behind everything we had. We migrated to Gujarat’s Navsari city
where we started our dry fruits business afresh. But our business failed to
take off in the new place and due to continuous losses we had to leave Navsari
within 6 years. We shifted to Mumbai in the year 1953 and started living in a
chawl in Mahim. I was admitted to a municipal school in Mahim in 3rd
standard as I had already passed 2nd from Navsari. But we hadn’t
seen the worst of days which were destined for us.
Having lived a prosperous and luxurious life, my
grandfather, father and both the uncles couldn’t cope with the shock of bankruptcy
and within a year they all had died. Our financial conditions went from bad to
worse and our joint family got scattered.
My maternal aunt and her husband (Mausi-Mausa)
lived in Chembur. They had directly migrated to Mumbai after partition and were
well settled here during all these years. Our family was now left with my
mother and we 3 siblings. I was the eldest, and then came my sister and the
youngest was our brother.
Mausi-Mausa proved to be great support to us. They
called us from Mahim to Chembur to live near them. I was just 9 years old at
that time. We started living in a barrack in Chembur Camp and I got admitted to
a municipal school. My Mausa was in service with a Denish company ‘Lumas’. My
mother also got a job with the ‘Larson & Toubro’ (L&T) which helped us
bring our financial condition under control to some extent.
I loved dancing and enthusiastically participated
in the dance programs organized during ‘Ganpati festival’. One day our old
family friend from Karachi Kishen Lal Bajaj came to our home. He was a Multani
and his whole family had migrated to Delhi after partition. Kishen Lal Bajaj
lived in Mumbai and worked as an extra in films. He offered my mother to get me
roles in films against a 20% commission which my mother happily accepted.
My debut movie as a child artist was ‘Abana’, made
in Sindhi in the year 1958. This was actress Sadhna’s debut movie as well.
‘Abana’ was directed by Dharam Kumar who, with the screen name of Deepak Asha
had played the main villain in the Lahore production ‘Paraaye Bass Me’ (1946).
Dharam Kumar also directed Hindi movies ‘Ghamand’ (1955), ‘Road No.303’ (1960),
‘Sangdil’ (1967) and ‘Murder On Highway’ (1970). Along with ‘Abana’ I acted in
another Sindhi movie ‘Insaaf Kitthe Aa’ which was released in 1959.
As a child artist I did many movies like ‘Phir
Subah Hogi’ (1958), ‘Dhool Ka Phool’, ‘Maine Jeena Seekh Liya’ (both 1959),
‘Kala Bazar’, ‘Shriman Satyawadi’, ‘Dil Bhi Tera Hum Bhi Tere’ (all 1960),
‘Sanjog’, ‘Sampoorn Ramayan’, ‘Ek Ladki Saat Ladke’ (all 1961), ‘Phool Bane
Angaare’ (1963) and ‘Saheli’ (1965). Meanwhile Kishen Lal Bajaj returned to
Delhi after ‘Ek Ladki Saat Ladke’ where he died sometime later.
Rajshri Productions’ owner Mr.Tarachand Badjatya was looking for two
teenage boys of 17-18 for the main lead of ‘Dosti’ which he was planning to
produce as the remake of 1959 release Bangla movie ‘Lalu-Bhulu’ in Hindi. His
daughter Rajshri had already seen me in the movie ‘Phool Bane Angaare’ and she was
very much impressed with my work. She suggested my name to her father and one
fine day, a person from Rajshri Productions came searching for me at my home.
I was introduced to director Satyen Bose and actor
Sudhir Kumar at ‘Rajshri Production’s
office. Satyen Bose took us to ‘Shri Sound Studio’ at Dadar where our makeup was
done for a screen test. Both of us were tested on camera with dialogues for the
both the roles (of the blind and the crippled). Next day we were shown the Bangla
movie ‘Lalu-Bhulu’ at Bombay Lab. Eventually I was selected for the role of
crippled and Sushir Kumar for the blind. We signed a 3 years contract with the
company for Rs.300/- per month salary.
Released in the year 1964, ‘Dosti’ was a big hit. Actor Sanjay
Khan debuted with this movie. This was the debut Hindi movie of Pune based
Marathi (?) actress Uma Raju as well. Apart from ‘The Best Movie Filmfare
Award’ for the year 1964, ‘Dosti’ also won the filmfare for the best music,
story, dialogues, playback and the lyrics. I was given the ‘Maharashtra State’s
Best Actor Award’ for the same film. I was studying in 12th standard
in ‘Jai Hind College’ at the time after passing my 11th from the
municipal school. Tarachand Badjatya had started planning for his next
production with Sudhir Kumar and me in the main lead again and we received our
salary Rs.300/- every month which used to be a handsome amount at that time.
Meanwhile Sudhir was offered a role by the ‘A.V.M.’
company of Madras in the movie ‘Ladla’ (1966) for which he got the contract
with ‘Rajshri Productions’ cancelled. He even paid the compensation as per the
terms of the contract to the ‘Rajshri Productions’. I was in Moscow at that
time for the promotion of ‘Dosti’ which was to be shown in the ‘International
Children Film Festival -1965’ being held there. Sudhir Kumar’s action compelled
‘Rajshri Productions’ to abandon the idea of making another film with both of us
actors and the company had to cancel the contract with me as well. Bur
Tarachand ji promised me that he would call me soon.
On the other hand, producer-director Devi Sharma
and producer R.Laxman called me for their films ‘Gunahon Ka Devta’ (1967) and
‘Anokhi Raat’ (1968) respectively. But despite calling me again and again they
failed to reach any decision. Due to such insecurities I started feeling
dejected from the films. I focused myself on my studies. Meanwhile as per his
promise, Tarachand Badjatya ji called me for an important role in the movie
‘Taqdeer’ which released in the year 1968 and proved to be a hit. But I had
already decided to bid adieu to the film world.
I passed B.A. from the Jay Hind College. Sometime
later I got the job of a flight purser in Air India. Though I was seen as a
flight purser in a scene which was shot inside an airplane in Dev Anand’s 1973
movie ‘Heera Panna’ I still never looked back at films.
I served for Air India from the year 1971 to 2003
and then took retirement. During my service I saw the whole world. I married my
childhood friend Koshi Kotwani who was my neighbor in Mahin and was from a well
to do family. Kotwani’s had a family business of dry fruits and an Ice factory
in Mumbai’s Masjid Bandar area.
Our only child, a daughter Kiran lives in Florida
in U.S. Her husband Ravi Nagpal is a software engineer. I and my wife live in
Mumbai though we often visit our daughter as well. My younger brother, sister,
my cousins and their families are all in Mumbai and the majority of them stay
nearby around Chembur itself.
As far as my character in ‘Dosti’ is concerned it has a
lot of resemblance with me in my real life. Like Ramnath in the movie I also faced
lots of hardships, acute poverty and sorrows in real life since my childhood. As
such I identify very closely with a song of the movie which goes something like
this – “sukh hai ik chhaaon dhalti, aati hai jaati hai, dukh to apna saathi hai.”
(Sushil Kumar ji’s wife passed away in April 2016. He has been living with his daughter in U.S. since. Though, every year he spends a
few months in Mumbai as well.)
Sudhir Kumar
(Blind singer Mohan of the movie ‘Dosti’)
Sudhir Kumar and I became close pals during the shoot of ‘Dosti’. He was around two and half
years younger to me and his full name was Sudhir Kumar Sawant. He was a Maharashtrian
and lived in Lalbaag, Parel. We were family friends who often visited each
other’s homes. Sudhir’s family consisted of his parents, one elder sister
Shobha and one younger sister Chitra. He passed S.S.C. from the Aryabhattam School.
His maternal uncle (mama) Prabhakar was the chief makeup man at V.Shantaram’s company
‘Rajkamal Kalamandir’.
Prior to ‘Dosti’, Sudhir had acted in the movie ‘Sant Gyaneshwar’ which
also released in the year 1964. Later he acted in ‘Jeene Ki Raah’ (1969) and a
Marathi movie ‘Ghar Chi Rani’ (1968) besides ‘Laadla’ (1966) but his career
failed to take off. He married by the end of the 1960’s decade. But he didn’t
get a single movie after marriage and he was almost out of the film world. On
the other hand because of my hectic job we started losing touch.
It was in the year 1994 when I met one of my
colleagues from Air India in London when I was on the way back to India from
Canada. He was also a Maharashtrian. He informed me about the death of Sudhir Kumar which came as a shock to
me. On reaching Mumbai I went to Sudhir Kumar’s home. His father had died long back. Both his
sisters had gone to their respective homes after marriage. I met his mother,
wife and daughter. His mother informed me that during 1993 Mumbai riots; Sudhir
suffered an injury to his throat due to a chicken bone being lodged in his
throat while eating food.
He couldn’t be given immediate treatment as the
area was under curfew. Subsequently his injury went from bad to worse and it
became very difficult for him to swallow food. Circumstances turned so bad that
he had to be admitted to the Tata Hospital. For months he was given liquid food
through pipe but he could not survive. Some years later I again went to
Sudhir’s home to know about the wellbeing of his mother, wife and daughter and
came to know that they had already left Mumbai long back. Sudhir’s younger
sister Chitra lived in Pune and she had taken her mother, sister in law and the
niece along.
It is said that false news about someone’s death
enhances his/her age.
Unfortunately this belief proved to be wrong for Sudhir Kumar as after the grand success of the movie ‘Dosti’ there a rumor spread that Sudhir Kumar and I had been murdered, surprisingly enough I fail to understand even today who was behind this rumor and what exactly was their motive”.