Wednesday, October 26, 2022

"Hai Duniya Usi Ki Zamana Usi Ka" - Bir Sakhuja

है दुनिया उसी की ज़माना उसी का” - बीर सखूजा

                ........शिशिर कृष्ण शर्मा

हिन्दी सिनेमा में कई कलाकार ऐसे हुए, जिन्होंने बहुत कम समय और गिनी चुनी कुछेक ही फ़िल्मों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, अच्छी ख़ासी पहचान बनाई, और फिर गुमनामी में खो गए| आज उनके बारे में उनकी फ़िल्मों के अलावा और कोई जानकारी न तो पत्र-पत्रिकाओं में मिलती है, और न ही इन्टरनेट पर या कहीं और, कि वो कहां के थे, कहां चले गए, और अब कहां, किस हाल में होंगे! दुर्भाग्य से सिनेमा से जुड़े उनके समकालीन वो लोग भी अब जीवित नहीं हैं, जिनसे उन भुलाए जा चुके कलाकारों के बारे में थोड़ा बहुत तो पता चल ही सकता था| बालम, बिमला, विजया चौधरी, परवीन चौधरी...ऐसे कलाकारों की सूची बहुत लम्बी है| ऐसे ही एक अभिनेता थे, बीर सखूजा, जिन्होंने महज़ एक दशक के अपने करियर में कुल 16 फ़िल्मों में काम किया और फिर दुर्भाग्य से सिनेमा ही नहीं, दुनिया को भी अलविदा कह गए|


फ़िल्म 'कश्मीर की कली' में शम्मी कपूर पर शराबखाने में फ़िल्माए गए सुपरहिट गीत 'है दुनिया उसी की ज़माना उसी का' में, नशे में धुत्त बीर सखूजा की ख़ामोशी और बेहद स्वाभाविक भावभंगिमाएं दर्शकों के मनोमस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं| और यही वो छाप थी, कि बीर सखूजा के बारे में जानने को मैं बेचैन था| मेरी उत्सुकताएं लगातार बढ़ती और कोशिशें नाकाम होती जा रही थीं| सम्बंधित फ़िल्म एसोसिएशनों से भी मुझे कोई जानकारी नहीं मिल पा रही थी| अचानक मुझे अनिल आहूजा जी का ख्याल आया| गुज़रे दौर के जाने-पहचाने अभिनेता-लेखक देवकिशन जी के बेटे, जिनके संपर्क में मैं देवकिशन जी की बरसों लम्बी तलाश के बाद पहुंचने में कामयाब हुआ था| कृपया संलग्न लिंक देखें - 

https://beetehuedin.blogspot.com/search/label/actor-writer%20%3ADev%20Kishan

बीर सखूजा जी के बारे में मुझे पहली बार कोई सुराग़ अनिल आहूजा जी से ही मिला| अनिल जी को बीर सखूजा के बारे में तो ज़्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन उन्होंने इतना ज़रूर बताया, कि बीर सखूजा के बड़े भाई डॉ.रमेश सखूजा का दिल्ली के पहाड़गंज में शीला टॉकीज़ के पास सखूजा क्लिनिक था और वो हमारे फैमिली डॉक्टर थे|

गूगल सर्च में सखूजा क्लिनिक मिला, क्लिनिक का लैंडलाइन नंबर मिला, क्लिनिक के स्टाफ़ ने डॉ.नवीन सखूजा का मोबाइल नंबर दिया| डॉ.नवीन सखूजा के ज़रिये मैं डॉ.रमेश सखूजा के बेटे यानी बीर सखूजा के भतीजे संजय सखूजा तक पहुंचा, और संजय जी ने बेहद गर्मजोशी के साथ मुझे बीर सखूजा जी के बारे में विस्तार से तमाम जानकारी उपलब्ध कराई|

बीर सखूजा का जन्म साल 1924 में सरगोधा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है| उनके पिता बृजलाल सखूजा रूड़की इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल-मेकैनिकल इंजीनियरिंग में पासआऊट थे| बंटवारे के बाद वो पंजाब पी.डब्ल्यू.डी. में चीफ़ इन्जिनियर रहे| उड़ीसा का हीराकुड बांध भी उन्हीं की देखरेख में बना था| बीर सखूजा की मां एक आम गृहिणी थीं| तीन बड़ी बहनों और दो भाईयों में बीर सबसे छोटे थे| उनकी मां उनके जन्म के समय ही गुज़र गयी थीं| ऐसे में बीर का पालनपोषण कराची में रहने वाले उनके चाचा डॉ.एच.एल.सखूजा और उनकी पत्नी ने किया| उधर बीर के पिता ने पत्नी के गुज़रने के बाद दूसरी शादी की, जिससे 5 बेटों और 4 बेटियों का जन्म हुआ|

बंटवारे के बाद सखूजा परिवार दिल्ली चला आया था| उधर बीर सखूजा फ़ौज में चले गए थे| अंग्रेजों के ज़माने की भारतीय फ़ौज में वो भारतीय मूल के गिनेचुने कमीशंड ऑफिसर्स में से थे और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मेजर के पद तक पहुंच गए थे| बर्मा के मोर्चे पर एक रोज़ सामने से आते गाय-भैंस के झुण्ड को रास्ता देने के लिए उन्होंने अपनी जीप को रिवर्स किया तो जीप सड़क से फिसलकर खाई में गिर गयी| इस दुर्घटना में पैर में फ्रेक्चर हो जाने की वजह से बीर को हैदराबाद के मिलिट्री अस्पताल में दाख़िल कराया गया, जहां उनके पैर में स्टील रॉड डाली गयी|

कुछ हफ़्तों बाद जब हालत थोड़ी बेहतर हुई तो बीर सखूजा को अस्पताल के गलियारे में चलने की प्रैक्टिस कराई जाने लगी| एक रोज़ प्रैक्टिस के दौरान वो चिकने फ़र्श पर फिसलकर गिर पड़े, और उनके पैर की वोही हड्डी फिर से टूट गयी| दोबारा सर्जरी हुई, प्लास्टर चढ़ाया गया| और जब प्लास्टर कटा तो पैर एक-डेढ़ इंच छोटा हो गया था| यही वजह थी कि बीर सखूजा फ़िल्म के परदे पर भी लंगड़ाकर चलते नज़र आते थे|

बीर सखूजा मेडिकली अनफ़िट घोषित हुए तो अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें फ़ौज से छुट्टी दे दी| ऐसे में वो नागपुर चले आए, जहां उन्होंने कुछ ट्रक खरीदे, और  ट्रांसपोर्ट का कारोबार शुरू कर दिया| बीर सखूजा की सबसे बड़ी बहन शकुन्तला भी नागपुर में ही रहती थीं, जहां उनके पति प्रोफेसर विष्णुदत्त खुराना एक कॉलेज में पढ़ाते थे|

बीर सखूजा बहुत अच्छा गाते थे| साथ ही हाथ की रेखाएं पढ़ने में भी उन्हें महारत हासिल थी| उनके जीजा प्रोफेसर विष्णुदत्त खुराना मशहूर निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा के क़रीबी दोस्त थे| खुराना जी ने बीर का परिचय केदार शर्मा से कराया| और साल 1953 में बीर अपना कारोबार समेटकर, फ़िल्मों में काम करने की तमन्ना लिए नागपुर से मुम्बई चले आए|

केदार शर्मा की साल 1953 में प्रदर्शित हुई फिल्म 'गुनाह' से उन्होंने फिल्मों में कदम रखा| इसके अलावा उनकी एंट्री गुरूदत्त के कैंप में भी हो गयी| गुरूदत्त के बैनर 'गुरूदत्त फ़िल्म्स' की पहली फ़िल्म साल 1954 की 'आरपार', 1955 की 'मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ और साल 1956 की 'सी.आई.डी.’ में उन्होंने बेहद अहम और खलनायक क़िस्म के किरदार किये|

क़रीब 11 साल के अपने करियर में बीर सखूजा ने कुल 16 फ़िल्मों में अभिनय किया, जिनमें 15 हिंदी और 1 पंजाबी फ़िल्म थी| वो फ़िल्में थीं -

1953 - 'गुनाह'

1954 - 'आरपार'

1955 -‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ और 'शिकार'

1956 - 'सी.आई.डी.’

1958 - ‘काला पानी' और ‘सोलहवां साल'

1960 - ‘एक फूल चार कांटे' और ‘मासूम'

1961 - ‘काला समुन्दर’

1962 - ‘प्रोफ़ेसर’

1963 - ‘जब से तुम्हें देखा है’ और ‘शिकारी’ '

1964 - चांदी की दीवार’, 'कश्मीर की कली' और 'गीत बहारां दे' (पंजाबी) 

फ़िल्म ‘कश्मीर की कली' में फ़ौजी कर्नल के छोटे से किरदार में बीर सखूजा ने अपनी ऐसी छाप छोड़ी कि दर्शक आज तक उन्हें भुला नहीं पाए हैं| लेकिन ‘कश्मीर की कली' उनके करियर की आख़िरी फ़िल्म साबित हुई|

दरअसल बीर सखूजा ने अपनी हस्तरेखाएं देखकर भविष्यवाणी की थी कि उनकी ज़िंदगी सिर्फ़ 40 साल की है| और इसीलिये शादी के तमाम प्रस्तावों को वो ये कहकर ठुकरा देते थे कि मैं किसी लड़की की ज़िंदगी ख़राब नहीं करना चाहता| साथ ही वो ये भी कहते थे कि अगर वो 40 की उम्र पार कर गए, तो फिर वो शादी कर लेंगे| बीर के छोटे जीजा यानी उनकी तीनों बहनों में तीसरी बहन प्रीतम के पति देसराज सोबती दिल्ली में रेलवे बोर्ड में महत्वपूर्ण पद पर थे, और बीर की ही तरह ख़ुद भी उच्चकोटि के हस्तरेखाशास्त्री थे| अपनी गणना के आधार पर वो भी बीर के भविष्यकथन से सहमत थे| 


बीर सखूजा मुम्बई के बांदरा में पेइंग गेस्ट के तौर पर अकेले रहते थे| देव आनंद, गुरूदत्त, वहीदा रहमान, शम्मी कपूर, जॉनी वॉकर, लेख टंडन और भप्पी सोनी उनके क़रीबी दोस्तों में से थे| स्वास्थ्य की दृष्टि से बीर सखूजा पूरी तरह फ़िट थे| इसके बावजूद अपनी अल्पायु को लेकर उनका कथन सही साबित हुआ| 10 मार्च 1964 को उन्हें ज़बरदस्त हार्ट अटैक पड़ा और उनका निधन हो गया| उस वक़्त वो उम्र के चालीसवें साल में थे| बीर सखूजा जी के निधन की ख़बर मिलते ही उनके बड़े भाई डॉ.रमेश सखूजा मुम्बई पहुंचे थे, और उन्होंने ही छोटे भाई के अंतिम संस्कार से जुड़ी तमाम रस्में पूरी की थीं|

Dr.Ramesh Sakhuja


डॉ.रमेश सखूजा के बेटे संजय सखूजा उस वक़्त बहुत छोटे थे, इसलिए उनको अपने चाचा की  धुंधली सी ही याद है| और इसीलिये उन्होंने ये तमाम जानकारी बीर साहब के भांजे श्री कैलाश डावर की मदद से उपलब्ध कराईं, जो बीर साहब के निधन के समय तक युवावस्था में कदम रख चुके थे और जिनके ज़हन में मामा की तमाम यादें आज भी ताज़ा हैं| कैलाश जी बीर साहब की दूसरे नंबर की बहन सुशीला जी के बेटे हैं|

श्रीमती सुशीला डावर विज्ञान-अनुसंधानकर्ता होने के साथ साथ एक बेहतरीन कलाकार और संगीतज्ञ भी थीं| उनके पति डॉ.एच.आर.डावर लगातार सात सालों तक इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन (आई.एम.ए) के मानद कोषाध्यक्ष रहे| कैलाश जी कहते हैं, “मैं आई.आई.टी. खड़गपुर में इलैक्ट्रिकल इंजिनियरिंग पढ़ रहा था और मेरा कोर्स पूरा होने वाला था| बीर मामा बेसब्री से मेरे फाइनल रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहे थे| जैसे ही मेरा रिज़ल्ट आया, मैंने मामा को टेलीग्राम के ज़रिये ये ख़ुशख़बरी भेजी| बदकिस्मती से उसी रोज़ हमें उनके निधन का टेलीग्राम भी मिला|”

Shri Kailash Dawar


श्री कैलाश डावर ने बिड़ला, एस्कोर्ट्स, टी.वी.एस. जैसी कई बड़ी कंपनियों के साथ काम करने के बाद अपना कारोबार शुरू किया, और अब पिछले 20 सालों से दिल्ली में रहकर सेवानिवृत्त जीवन जी रहे हैं|

बीर सखूजा के भतीजे, चार्टर्ड अकाउंटेंट संजय सखूजा नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनी ‘एम्बिट फिनवेस्ट' के एग्जीक्यूटिव चेयरमैन हैं| संजय जी मुम्बई में रहते हैं| उनके पिता यानी बीर साहब के बड़े भाई डॉ.रमेश सखूजा का निधन 3 अप्रैल 2005 को 83 साल की उम्र में हुआ था|

नयी दिल्ली के पहाड़गंज स्थित सखूजा क्लिनिक के डॉ.नवीन सखूजा एक नेत्रचिकित्सक हैं| वो बीर सखूजा के चाचा डॉ.एच.एल.सखूजा के पौत्र हैं, जिन्होंने बीर सखूजा को पालपोसकर बड़ा किया था| डॉ.नवीन सुखेजा गोल्फ़ कोर्स – दिल्ली में अपने दादा के बनवाए पुश्तैनी मकान में रहते हैं|

अभिनेता (स्वर्गीय) बीर सखूजा जी के सम्बन्ध में तमाम जानकारी और दुर्लभ पारिवारिक तस्वीरें उपलब्ध कराने के लिए 'बीते हुए दिन' श्री कैलाश डावर, श्री संजय सखूजा और डॉ.नवीन सखूजा का  आभार व्यक्त करता है| 

बीर सखूजा जी के परिजनों तक हमें पहुंचाने के लिए श्री अनिल आहूजा विशेष रूप से धन्यवाद के पात्र हैं| 

Thanks to -

Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Mr. Gajendra Khanna for English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.

Special Thanks to Shri Anil Ahuja, Shri Kailash Dawar, Shri Sanjay Sakhuja & Dr.Navin Sakhuja for their kind support. 


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Friday, July 29, 2022

"Gentleman Villain" - K.N.Singh

 

जेंटलमैन विलेन” – के.एन.सिंह  

                .......शिशिर कृष्ण शर्मा 

1970 के दशक तक देहरादून शहर की शक्ल किसी क़स्बे की सी थी, और शहर के निवासी भले ही एक दूसरे के नाम से परिचित न हों, लेकिन हरेक चेहरा जाना पहचाना ज़रूर होता था| बासमती, लीची, चाय और 'सेवानिवृत्त लोगों का शहर' का तमगा उस दौर के हरेभरे और सुकूनभरे देहरादून की पहचान हुआ करते थे, जिसे लेकर हरेक देहरादूनवासी ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करता था| और ठीक यही गर्व उसे उस 'नाम' पर भी था, जो उसके अपने शहर का रहने वाला था, और जिसने हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में न सिर्फ़ अपनी एक सम्मानजनक पहचान बनाई थी, बल्कि एक स्टार का दर्जा भी हासिल किया था| वो थे गुज़रे दौर के मशहूर खलनायक कृष्ण निरंजन सिंह, जिन्हें हम के.एन.सिंह के नाम से जानते हैं|

के.एन.सिंह का पुश्तैनी बंगला दून अस्पताल को ई.सी.रोड से जोड़ने वाले न्यू रोड पर हेरिटेज स्कूल के ठीक सामने आज भी अपने मूल स्वरूप में शान से सर उठाए खड़ा है, हालांकि अब उसका मालिकाना हक़ बदल चुका है| “दरअसल पीढ़ी दर पीढ़ी सिंह परिवार की शाखाएं और सदस्यों की संख्या बढ़ती गयी, और बंगला छोटा पड़ता चला गया था|”- के.एन.सिंह साहब के भतीजे राजेश्वर सिंह कहते हैं, जो देहरादून के एक जानेमाने वकील हैं, और शहर के पॉश इलाक़े डालनवाला में वेलहम स्कूल के पास रहते हैं| राजेश्वर सिंह जी से हुई बातचीत में सिंह परिवार के बारे में तमाम ज़रूरी जानकारी तो हासिल हुई ही, 'बीते हुए दिन' को उन्होंने परिवार की कुछ दुर्लभ तस्वीरें भी उपलब्ध कराईं|

5 भाई और एक बहन में के.एन.सिंह माता-पिता की सबसे बड़ी संतान थे| पिता चंडीप्रसाद सिंह जी देहरादून के जानेमाने क्रिमिनल लॉयर थे और मां लक्ष्मी देवी एक आम गृहिणी| पिता जागीरदार ख़ानदान से थे, लेकिन जागीरदारी पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था| राजेश्वर सिंह कहते हैं, "देहरादून में हमारे ख़ानदान का दर्ज इतिहास साल 1848 तक जाता है|”

सभी 6 भाई-बहन में के.एन.सिंह से छोटे भाई रणेश्वर सिंह भी पिता की ही तरह एक नामी वकील थे| राजेश्वर सिंह इन्हीं रणेश्वर सिंह जी के बेटे हैं| तीसरे नंबर पर बहन शिवरानी थीं, जो अपने इंजिनियर पति गुरुदत्त विश्नोई के साथ कोलकाता में रहती थीं| चौथे नंबर के भाई रिपुदमन सिंह उत्तरप्रदेश रोडवेज़ में कार्यरत थे| पांचवे नंबर के भाई विक्रम सिंह लम्बे समय तक फ़िल्मफेयर पत्रिका के सम्पादक और सेंसर बोर्ड के चेयरमैन रहे| सबसे छोटे यानि छठे नंबर के भाई पूरणसिंह भी पिता और बड़े भाई की तरह एक वकील थे|


के.एन.सिंह का जन्म 1 सितम्बर 1908 को देहरादून में हुआ था|  उनकी स्कूली शिक्षा देहरादून के मशहूर कर्नल ब्राउन स्कूल और फिर लखनऊ में हुई, जहां से उन्होंने लैटिन विषय के साथ सीनियर कैम्ब्रिज पास किया| लैटिन इसलिए, क्योंकि आगे चलकर उन्हें बैरिस्टर एट लॉ की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेजे जाने  योजना थी जहां लैटिन की जानकारी उनके लिए मददगार साबित होती| लेकिन अचानक ही के.एन.सिंह ने इंग्लैंड जाने और वकालत पढ़ने से इनकार कर दिया| और इसकी वजह थी, उनके पिता का एक ऐसे ख़तरनाक अपराधी को अदालत में निर्दोष साबित कर देना, जिसके गुनाह जगज़ाहिर थे| इस घटना ने के.एन.सिंह को वकालत के पेशे से विमुख कर दिया था| 


(कहा जाता है कि वो अपराधी कुख्यात सुल्ताना डाकू था, जो आम धारणा के विपरीत एक वास्तविक चरित्र था और आज से क़रीब सौ साल पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद-बिजनौर और आसपास के तराई के इलाकों में सक्रिय था| उसका जन्म मुरादाबाद के हरथला गांव में, एक घुमंतू जनजाति में हुआ था| देहरादून भी उसके कार्यक्षेत्र का ही एक हिस्सा था जहां उसके छिपने के ठिकाने को अंग्रेज़ों ने रॉबर्स  केव का नाम दिया था| रॉबर्स केव आज देहरादून के मशहूर पिकनिक स्पॉट्स में शामिल है| कहा ये भी जाता है कि सुल्ताना डाकू को अदालत से बरी कराने के बाद चंडीप्रसाद जी ने कुछ समय के लिए अपने घर में पनाह दी थी, हालांकि 'बीते हुए दिन' के लिए इन तमाम बातों की पुष्टि कर पाना संभव नहीं है| सुल्ताना डाकू को अंग्रेज़ सरकार ने 8 जून 1924 को बरेली जेल में फांसी दे दी थी| उस समय सुल्ताना डाकू की उम्र 25-26 साल के आसपास थी|)

के.एन.सिंह एक बेहतरीन खिलाड़ी भी थे| साल 1936 के बर्लिन ओलम्पिक्स में शॉटपुट और जैवलिन थ्रो के लिए उनके चयन की प्रक्रिया काफ़ी हद तक पूरी हो चुकी थी, कि उन्हें अपनी बहन शिवरानी की देखभाल के लिए कोलकाता जाना पड़ा, जिनकी आंख की सर्जरी होने वाली थी| शिवरानी के पति गुरुदत्त विश्नोई  उन दिनों इंग्लैंड में थे| कोलकाता में के.एन.सिंह की मुलाक़ात अपने पारिवारिक मित्र पृथ्वीराज कपूर से हुई जो तब तक फिल्मों में अपनी थोड़ी बहुत पहचान बना चुके थे| इस मुलाक़ात के बाद के.एन.सिंह की ज़िंदगी ने ऐसा मोड़ ले लिया जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था|

दरअसल पृथ्वीराज कपूर के ज़रिये के.एन.सिंह का परिचय उस दौर के मशहूर फ़िल्म निर्देशक देवकी बोस से हुआ, जो उन दिनों कोलकाता स्थित 'ईस्ट इंडिया फ़िल्म कंपनी' के लिए फ़िल्म 'सुनहरा संसार' बना रहे थे| के.एन.सिंह के व्यक्तित्व और बातचीत से प्रभावित होकर देवकी बोस ने उन्हें 'सुनहरा संसार' में डॉक्टर का एक छोटा सा रोल ऑफ़र किया| के.एन.सिंह साहब ने बरसों पहले एक इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने पहली बार कैमरे का सामना 9 सितम्बर 1936 को किया था| फ़िल्म 'सुनहरा संसार' साल 1936 में प्रदर्शित हुई थी|

'सुनहरा संसार' के बाद के.एन.सिंह ने कोलकाता में बनी 4 और फ़िल्मों  मॉडर्न इंडिया टॉकीज़ की 'हवाई डाकू' उर्फ़ 'बैंडिट ऑफ़ द एयर’ (1936), न्यू थिएटर्स की ‘अनाथ आश्रम' और ‘विद्यापति', और मोतीमहल थिएटर्स की 'मिलाप' (तीनों 1937) में काम किया| फ़िल्म 'मिलाप' के निर्देशक ए.आर.कारदार थे| इस फ़िल्म में वकील बने के.एन.सिंह ने चार पन्नों का डायलाग एक ही ओके शॉट में बोला था| इससे कारदार इतने प्रभावित हुए कि 'मिलाप' के बाद जब वो साल 1937 में ही मुम्बई शिफ्ट हुए तो के.एन.सिंह को भी अपने साथ लेते आए| 

मुम्बई आकर कारदार ने फ़िल्म 'बागबान' निर्देशित की, जिसमें के.एन.सिंह को उन्होंने विलेन का रोल दिया| साल 1937 में प्रदर्शित हुई इस फ़िल्म ने गोल्डन जुबिली मनाई और के.एन.सिंह के करियर ने रफ़्तार पकड़ ली| इसके बाद उनकी 'इंडस्ट्रियल इंडिया' (1938) और 'पति पत्नी' (1939) भी हिट रहीं| साल 1940 की फ़िल्म 'अपनी नगरिया' में भी उन्हें बतौर विलेन बेहद पसंद किया गया| और फिर वो 500/- रूपये मासिक के वेतन पर सोहराब मोदी की कंपनी 'मिनर्वा मूवीटोन' से जुड़ गए| उन्होंने इस बैनर की  फ़िल्मों 'सिकंदर' (1941), ‘फिर मिलेंगे' (1942),‘पृथ्वीवल्लभ' (1943) और 'पत्थरों का सौदागर' (1944) में काम किया और फिर देविका रानी के बुलावे और 1600/- रूपये मासिक के वेतन पर 'बॉम्बे टॉकीज़' में चले गए| उन्होंने इस बैनर की 'ज्वार भाटा' (1944) में काम किया, जिससे दिलीप कुमार ने डेब्यू किया था|   

राज कपूर की 'बरसात' (1949) और 'आवारा' (1951) में के.एन.सिंह ने बेहद अहम रोल्स किये थे| लेकिन उसके बाद उन्होंने आर.के. की किसी भी फ़िल्म में काम नहीं किया| कहा जाता है कि इसकी वजह थी, दो दिग्गजों के बीच अहं का टकराव, क्योंकि के.एन.सिंह को अपने दोस्त के उस बेटे को 'राज साहब' कहना मंजूर नहीं था, जो उनकी गोद में खेलकर बड़ा हुआ था|

60 साल के अपने करियर में के.एन.सिंह साहब ने क़रीब 250 फ़िल्मों में काम किया| उनके व्यक्तित्व में एक ख़ास तरह की  शालीनता थी, अभिनय में ठहराव था, वो शायद इकलौते ऐसे विलेन थे, जो सूटबूट में नज़र आता था, चीखता चिल्लाता नहीं था, जिसके डायलाग्स में अपशब्द नहीं होते थे, और जिसकी ख़ामोशी, आंखों के भाव और भवों का उतारचढ़ाव ही दर्शकों को दहला देने के लिए काफ़ी होते थे| और इसीलिये उन्हें 'जेंटलमैन विलेन' कहा जाता था|

'हलचल' (1951),  ‘जाल' (1952), ‘शिकस्त' (1953), 'सी.आई.डी.’(1956), ‘इंस्पेक्टर' (1957) , ‘हावड़ा ब्रिज' (1958), ‘चलती का नाम गाड़ी' (1958), ‘सिंगापुर' (1960), ‘हांगकांग' (1962), ‘वोह कौन थी' (1964),  ‘एन इवनिंग इन पेरिस' (1967), ‘हाथी मेरे साथी' (1971), ‘मेरे जीवन साथी' (1972) और 'लोफ़र' (1973) उनकी कुछ और उल्लेखनीय फ़िल्में हैं| 1970 के दशक के मध्य से के.एन.सिंह ज़्यादातर कैमियो और गेस्ट रोल्स करते नज़र आए| कहा जाता है कि के.एन.सिंह की बढ़ती उम्र के बावजूद निर्माता-निर्देशक उनके लिए कैमियो और गेस्ट रोल्स ख़ासतौर से इसलिए लिखवाते थे, क्योंकि फ़िल्मी दुनिया में उनका सम्मान और दबदबा हमेशा बना रहा और सेट पर उनकी मौजूदगी बड़े बड़े सितारों तक को अनुशासन में रखने के लिए काफ़ी होती थी| साल 1996 में प्रदर्शित हुई 'दानवीर' के.एन.सिंह की आख़िरी फ़िल्म थी, और इस फ़िल्म में भी वो स्पेशल एपियरेंस में थे| 

ज़िंदगी के आख़िरी कुछ सालों में के.एन.सिंह साहब की आंखों की रोशनी पूरी तरह चली गयी थी| उनकी पहली पत्नी एक 'विश्नोई' परिवार से थीं जो शादी के कुछ ही समय बाद गुज़र गयी थीं| के.एन.सिंह की दूसरी पत्नी चांदरानी नेपाली मूल की थीं| के.एन.सिंह की अपनी कोई संतान नहीं थी और उन्होंने अपने छोटे भाई विक्रम सिंह के बेटे पुष्कर को गोद लिया था| पुष्कर सिंह टेलिविज़न कार्यक्रमों के निर्माता हैं| देहरादून की सुप्रसिद्ध 'डॉ. द्विजेन  सेन मेमोरियल कलाकेन्द्र एकेडमी ऑफ़ फ़ाईन आर्ट्स' पुष्कर के ननिहाल अर्थात विक्रम सिंह जी के ससुरालपक्ष की संपत्ति है| उल्लेखनीय है कि पुष्कर की नानी भगतसिंह के साथी अमर शहीद सुखदेव (थापर) की बहन थीं| 

के.एन.सिंह के सम्बन्ध में हुई इस बातचीत के लिए उनके भतीजे एडवोकेट राजेश्वर सिंह जी से मेरा परिचय देहरादून के मशहूर रंगकर्मी (अभिनेता और निर्देशक), एक  उत्कृष्ट गायक और स्कूल के मेरे सहपाठी मित्र अतुल विश्नोई ने कराया था| के.एन.सिंह साहब की पहली पत्नी और उनके छोटे भाई  एडवोकेट रणेश्वर सिंह की पत्नी अर्थात एडवोकेट राजेश्वर सिंह की मां रिश्ते में अतुल की बुआएं थीं| सिंह और विश्नोई परिवारों  के बीच हमेशा से बेहद क़रीबी रिश्ते रहे हैं| अतुल के पिता (स्व.) श्री हरिश्चंद्र विश्नोई और (स्व.) श्री के.एन.सिंह प्रगाढ़ मित्र थे| अतुल विश्नोई को हम फ़िल्म 'बत्ती गुल मीटर चालू', ‘कश्मीर फ़ाईल्स' और हाल ही में रिलीज़ हुई 'फॉरेंसिक' में तो देख ही चुके हैं, उनकी आवाज़ को अक्सर विज्ञापनों में भी सुनते रहते हैं| 

देहरादून के गौरव श्री कृष्ण निरंजन सिंह अर्थात के.एन.सिंह साहब का निधन 31 जनवरी 2000 को 92 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ|

Thanks to -

Mr. Harish Raghuvanshi Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Mr. Gajendra Khanna for English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.

Special Thanks to Dehradun based Adv. Rajeshwar Singh & Mr. Atul Vishnoi for their kind support. 


K.N.Singh on YT Channel BHD



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Sunday, July 3, 2022

"Leke Pehla Pehla Pyar Bhar Ke Ankhon Me Khumar - Sheela Vaz

"लेके पहला पहला प्यार भर के आंखों में ख़ुमार" - शीला वाज़

                                                       …...शिशिर कृष्ण शर्मा 


शीला वाज़! 1950 के दशक की हिन्दी फ़िल्मों की जानीमानी नर्तकी, जिनका करियर भले ही महज़ 8 साल और बामुश्किल 40-45 फिल्मों तक सीमित रहा हो, लेकिन उनके मनमोहक नृत्य और मुस्कुराते चेहरे को उस दौर के दर्शक आज भी भूले नहीं हैं| शीला वाज़ ने साल 1954 में रिलीज़ हुई किशोर साहू की फ़िल्म 'मयूरपंख' के सुपरहिट गीत 'ठंडाना ठंडाना ठंडाना, मुश्किल है प्यार छुपाना' पर नृत्य से फ़िल्मों में कदम रखा था, और साल 1960 में शादी करके फिल्मों को अलविदा भी कह दिया था| क़रीब पांच दशकों की गुमनामी के बाद शीला वाज़ की यादें एक बार फिर से उनके प्रशंसकों के ज़हन में ताज़ा हो उठीं थीं, जब साल 2009 में इंटरनेट पर उनका एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ|

शीला वाज़ का जन्म 18 अक्टूबर 1934 को दादर- मुम्बई के एक कैथोलिक परिवार में हुआ था, जो मूल रूप से गोवा का रहने वाला था| शीला वाज़ को बचपन से ही नृत्य का शौक था, जो घर में किसी को भी पसंद नहीं था| उनके परिवार की नापन्दगी तब विरोध में बदल गयी थी, जब शीला वाज़ को फ़िल्म "मयूरपंख" में नृत्य का ऑफ़र मिला| हालांकि ये विरोध ज़्यादा टिक नहीं पाया और अंततः शीला वाज़ को "मयूरपंख" में काम करने की अनुमति मिल ही गयी|    

शीला वाज़ की अगली फ़िल्म केदार शर्मा की 'गुनाह’ थी जो 'मयूरपंख' से पहले, साल 1953 में रिलीज़ हुई थी, और इसीलिए 'गुनाह' को उनकी पहली फ़िल्म माना जाता है| 

शीला वाज़ को पहचान मिली, साल 1956 की फ़िल्म ‘सी.आई.डी.’ के गीत 'लेके पहला पहला प्यार’ और 'श्री 420’ के गीतों 'रमैया वस्तावैया' और 'दिल का हाल सुने दिल वाला' पर किये नृत्यों से|  आने वाले 4-5 सालों में उन्होंने 'दम है बाक़ी तो ग़म नहीं' ('घर नंबर 44’/ 1956), 'रात अंधेरी डर लागे मोहे छोड़ न जाना जी' ('दुर्गेश नंदिनी’/1956), 'झुकी झुकी प्यार की नज़र' ('जॉनी वॉकर'/1956), ‘छुपने वाले सामने आ' (‘तुमसा नहीं देखा'/1957), 'दिल तेरा दीवाना ओ मस्तानी बुलबुल' ('मिस्टर कार्टून एम.ए.’/1958), ‘देखो जी मेरा हाल, बदल गयी चाल...मोहे लागा सोलवां साल' (‘सोलवां साल'/1958), ‘निकला है गोरा गोरा चांद रे सजनवा' (गेस्ट हाउस'/1959), 'मेरी गल सुन कजरेवालिये' ('बंटवारा'/1961) और ‘घर आजा घिर आये बदरा सांवरिया' (‘छोटे नवाब'/1961) जैसे कई हिट गीतों पर नृत्य किया|  

साल 1960 में शीला वाज़ ने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया था| और इसकी वजह थी, शादी करके उनका घर-गृहस्थी में व्यस्त हो जाना| उनकी 5-6 फ़िल्में  जैसे ‘मॉडर्न गर्ल', ‘रामू दादा', 'बंटवारा और 'छोटे नवाब' उनकी शादी के बाद प्रदर्शित हुई थीं| शीला वाज़ के पति रमेश लखनपाल एक फ़िल्म निर्देशक थे, जिन्होंने साल 1974 की फ़िल्म 'पॉकेटमार' और 1978 की ‘काला आदमी’ का निर्देशन किया था| शादी के बाद शीला वाज़ को नया नाम मिला था, 'श्रीमती रमा लखनपाल', जो आगे चलकर उनकी पहचान बना| और फिर जल्द ही वो एक बेटे और एक बेटी की मां भी बन गयीं|  

शीला वाज़ का बेटा अमेरिका की एक एयरलाइन्स में पायलट हैं और बेटी अपने पति और बच्चों के साथ टोरंटो (कनाडा) में रहती हैं| मैं कई सालों से शीला वाज़ से मिलने और उनका इंटरव्यू करने की कोशिश में था, लेकिन उनके बारे में सिर्फ़ इतनी ही जानकारी मिलती रही, कि वो जुहू में कहीं रहती हैं| उनका फ़ोन नंबर या घर का पता मुझे कोई नहीं बता पाया| और मेरी तलाश को तब ब्रेक लग गया, जब मैंने इंटरनेट पर कहीं पढ़ा और यूट्यूब पर किसी विडियो में भी देखा कि उनका निधन 4 दिसंबर 2014 को ही हो गया था| लेकिन ये सूचना सिरे से ग़लत निकली|  


दरअसल आज से चार दिन पहले यानि 30 जून 2022 को मुझे दिल्ली के एक फ़िल्मप्रेमी मित्र संदीप पाहवा जी का मैसेज मिला, कि कल, अर्थात 29 जून 2022 को, शीला वाज़ का निधन हो गया है| ज़ाहिर है मेरे लिए ये सूचना इसलिए भी किसी झटके से कम नहीं थी क्योंकि इंटरनेट और यूट्यूब पर दी गयी सूचना के आधार पर मैं शीला वाज़ को कभी का मृत मान चुका था| बहरहाल अपने स्तर पर छानबीन शुरू की तो संदीप पाहवा जी द्वारा दी गयी सूचना सही निकली|   

उक्त छानबीन के दौरान गुज़रे दौर के सुप्रसिद्ध अभिनेता (स्वर्गीय) जानकीदास जी के बेटे श्री बब्बू मेहरा और पूर्वपरिचित-वयोवृद्ध फ़िल्म और टी.वी. निर्देशक श्री रमेश गुप्ता जी से संपर्क हुआ, तो शीला वाज़ से सम्बंधित जानकारियों की छूटी हुई कड़ियां भी जुड़ती चली गयीं| शीला वाज़ जुहू की मशहूर नॉर्थ बॉम्बे सोसायटी में रहती थीं| श्री बब्बू मेहरा भी जुहू में ही रहते हैं और लखनपाल परिवार से परिचित हैं| मुम्बई में श्री मेहरा का अपना एक स्टूडियो है, जिसमें फ़िल्मों और टी.वी. शोज़ के पोस्टप्रोडक्शन का काम होता है| 

वरिष्ठ फ़िल्म निर्देशक श्री रमेश गुप्ता जी पूना फ़िल्म इंस्टिट्यूट के दूसरे, और साल 1962 से 1965 के बैच के पासआउट हैं| उन्हें साल 1978 की चर्चित फ़िल्म 'त्यागपत्र' और साल 1986 की 'मंगलदादा' के अलावा, 'गुल गुलशन गुलफ़ाम', ‘जूनून', ‘यूल लव स्टोरीज़', 'कर्ज़' और 'परम्परा' जैसे भारी भरकम और सुपरहिट टी.वी. धारावाहिकों के निर्देशन के लिए जाना जाता है| शीला वाज़ के पति (स्वर्गीय) श्री रमेश लखनपाल श्री रमेश गुप्ता के मित्र थे| श्री बब्बू मेहरा और श्री रमेश गुप्ता जी से हमें लखनपाल परिवार से जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं जिसके लिए 'बीते हुए दिन' श्री मेहरा और श्री गुप्ता का आभार व्यक्त करता है|  

दिनांक 18 अक्टूबर 1934 को जन्मी और 29 जून 2022 को इस दुनिया को अलविदा कह गयीं शीला वाज़ अर्थात श्रीमती रमा लखनपाल ने 88 साल की अपनी ज़िंदगी के केवल 8 साल फ़िल्मों को दिए| लेकिन ज़िंदगी के इस छोटे से हिस्से में फ़िल्म के परदे पर जादुई नृत्यों का उनका योगदान हिन्दी सिनेमा के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो चुका है|

(विशेष सूचना :- इस आलेख में ‘बीते हुए दिन' के प्रमुख नियम अर्थात 'सम्बंधित कलाकार अथवा उनके किसी निकट परिजन से की गयी व्यक्तिगत बातचीत' का पालन कुछ ख़ास वजहों से नहीं हो पाया, जिसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं| और इसी वजह से न तो शीला वाज़ के बेटे-बेटी का नाम, बिना उनकी अनुमति के, सार्वजनिक करना हमें उचित लगा,  और न ही आलेख में दिए गए तथ्यों की पुष्टि कर पाने में हम समर्थ हैं| आशा है सम्मानित पाठकगण हमारी मजबूरी को समझेंगे, धन्यवाद|) 

Mr. Harish Raghuvanshi Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Mr. Gajendra Khanna for English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.

Sheela Vaz on YT Channel 'Beete Hue Din'



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Wednesday, June 1, 2022

"Bhool Gaya Sab Kuchh Yaad Nahi Ab Kuchh" - Vikram

 "भूल गया सब कुछ याद नहीं अब कुछ" – विक्रम

                          ……..शिशिर कृष्ण शर्मा  


'शोले’, ‘धर्मात्मा', ‘दीवार', 'सन्यासी', ‘प्रतिज्ञा' और 'जय संतोषी मां'! साल 1975 में प्रदर्शित हुई इन ब्लॉकबस्टर फिल्मों के बीच बिल्कुल नए और अनजाने से कलाकारों वाली एक और फ़िल्म अपनी धमाकेदार मौजूदगी दर्ज कराने में कामयाब हुई थी| और वो थी ‘जूली', जिसने नवागंतुक हीरो विक्रम और साऊथ से आयी हिरोईन लक्ष्मी को हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के बीच पहचान तो दी ही, महमूद की फ़िल्म 'कुंवारा बाप' से डेब्यू करने वाले संगीतकार राजेश रोशन को अपनी इस दूसरी ही फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीत का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी दिलाया था| 

फ़िल्म 'जूली' के हीरो विक्रम ने 'पूना फ़िल्म इंस्टिट्यूट' से अभिनय में प्रशिक्षण लेकर, साल 1973 की फ़िल्म 'प्यासी नदी' से फ़िल्मों में कदम रखा था| 'बीते हुए दिन' के लिए विक्रम जी से हमारी ये मुलाक़ात 8 फ़रवरी 2022 की शाम फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव (पूर्व) की उनकी हाउसिंग सोसाइटी के कार्यालय में हुई थी| मूलतः हुबली-कर्नाटक के रहने वाले विक्रम जी का जन्म 31 मई 1947 को अपने ननिहाल गडग में हुआ था, जो हुबली से 60 किलोमीटर पूर्व में हैं| उनके पिता एक ट्रांसपोर्टर थे, उनकी एक बेकरी भी थी और साथ ही वो चीनी-मैदे का होलसेल का कारोबार भी करते थे| 8 भाई और 3 बहनों में विक्रम सबसे बड़े थे| उनकी मां एक आम गृहिणी थीं|

विक्रम का असली नाम मोईनुद्दीन मकानवाला है| उन्होंने हुबली के सेंट मेरी स्कूल से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद आगे की पढाई के लिए हुबली के ही पी.सी.जबीन कॉलेज में दाख़िला ले लिया था| वो कहते हैं, “कॉलेज के सेकण्ड यीअर में मैं स्टूडेंट यूनियन का जनरल सेक्रेटरी चुना गया| पढ़ाई-लिखाई में मेरी ज़्यादा दिलचस्पी थी नहीं| अचानक एक रोज़ मेरे मन में सवाल उठा, 'मैं साइंस क्यों पढ़ रहा हूं?’ और मैंने   कामत रेस्टोरेंट में अपने तमाम समर्थकों को बुलाया, उन्हें पार्टी दी और फिर घोषणा कर दी, कि मैं कॉलेज छोड़ रहा हूं|”

पढ़ाई बीच ही में छोड़ने के बाद विक्रम जी ने ऑटोमोबाइल का काम शुरू करने की योजना बनाई| लेकिन योजना आगे नहीं बढ़ पायी| फिर उन्होंने बंगलौर के एक संस्थान से 'बेकरी और कन्फेक्शनरी' से डिप्लोमा कोर्स किया| वो बताते हैं, “मुझे फ़िल्मी पत्रिका स्क्रीन पढ़ने का बहुत शौक़ था| उसमें छपने वाले 'हीरो चाहिए' टाइप विज्ञापनों में मैं बिला नागा फ़ीस और अपनी तस्वीरें भेजता था| इस काम के लिए मैंने एक हज़ार रूपये प्रतिमाह का बजट तय किया हुआ था, और अपनी तस्वीरों के बण्डल भी बनाकर रखे हुए थे| उन्हीं दिनों मुझे एक विज्ञापन ऐसा नज़र आया, जिसमें पैसे की मांग नहीं की गई थी| वो विज्ञापन 'पूना फ़िल्म इंस्टिट्यूट' का था|”

विक्रम जी ने फ़ार्म भरकर भेजा और उन्हें इंटरव्यू का बुलावा भी आ गया| वो बताते हैं, “इंटरव्यू चेन्नई के शारदा स्टूडियो में था| लगभग 500 लड़के-लड़कियां लाइन में खड़े थे| मेरा नंबर आया तो सामने बड़े बड़े डायरेक्टर बैठे नज़र आए| मैंने उन्हें अभिनय करके दिखाया| आख़िर में रोशन तनेजा ने बाहर आकर रिज़ल्ट की घोषणा की| सिर्फ़ दो उम्मीदवार पास हुए थे, एक मैं, और एक लड़की जयलक्ष्मी| हमारा स्क्रीनटेस्ट हुआ| और फिर 15 दिनों बाद हमें कॉल आ गयी| घर का मुझे पूरा सहयोग था| साल 1970 से ‘72 के हमारे बैच में महेंद्र संधु, आशा सचदेव, रोमेश शर्मा और किशोर नमित कपूर जैसे कलाकार मेरे सहपाठी थे|” 

साल 1972 में पासआउट होते ही विक्रम ने मुम्बई आकर बांद्रा के मशहूर मरीना गेस्ट हाउस को अपना ठिकाना बना लिया| उन्हीं दिनों पी.आर.ओ.के ज़रिये उन्हें अपनी डेब्यू फ़िल्म 'प्यासी नदी' मिली| इस फ़िल्म में उनकी नायिका थीं वाणी गणपति| इस फ़िल्म से जुड़ी अपनी यादों को ताज़ा करते हुए विक्रम जी बताते हैं, “प्रोड्यूसर के प्रतिनिधि से मेरी मुलाक़ात कराई गयी| मुझे एडवांस पैसा दिया गया| मुहूर्त शॉट महबूब स्टूडियो में होने वाला था| मैं लगातार सुन रहा था कि मुहूर्त में साहब आएंगे| मन में उत्सुकता थी कि 'साहब कौन’? और जब साहब आए, तो देखा दिलीप कुमार| उनका आना मेरे लिए एक चैलेन्ज हो गया, कि मुझे उनके सामने ख़ुद को साबित करना है| और मुहूर्त शॉट में पूरा एक पेज का डायलॉग मैं बेरोकटोक बोल गया|” 

फ़िल्म 'प्यासी नदी' की शूटिंग बड़ौदा में होने वाली थी| विक्रम और वाणी गणपति को  प्राइवेट जेट से बड़ौदा ले जाया गया| शूट गायकवाड़ पैलेस में होना था| विक्रम कहते हैं, “हमारा ठहरने का इंतज़ाम भी पैलेस में ही था| मेरे लिए बहुत बड़ा बेडरूम, बड़ा सा बाथरूम, इतना आलीशान कि मुझे रातभर नींद ही नहीं आयी| अगली सुबह हेलन से मुलाक़ात हुई| वो महारानी के कमरे में ठहरी हुई थीं| मुझे देखकर वो बहुत ख़ुश हुईं| और उन्होंने जो कहा, वो मेरे लिए खून को कई गुना बढ़ाने वाला था| उन्होंने कहा था, 'इंडस्ट्री में बहुत स्मार्ट हीरो आया है|’ और फिर हमें मिलवाया गया, फ़िल्म के प्रोड्यूसर से| बेमिसाल शानोशौकत, ज़बरदस्त दबदबा| वो थे उस ज़माने के कुख्यात तस्कर सुकुर नारायण बकिया|”

‘प्यासी नदी' की शूटिंग के दौरान भी विक्रम का फ़िल्मी हस्तियों के पसंदीदा गेलॉर्ड रेस्टोरेंट में आना-जाना और लोगों से मिलना-जुलना, यानि स्ट्रगल जारी था| और इसी स्ट्रगल के चलते उन्हें फ़िल्म 'कॉलगर्ल' मिली| इस फ़िल्म के प्रोड्यूसर, अभिनेता मुकेश खन्ना के भाई वेद खन्ना थे| निर्देशन विजय कपूर का था जो मशहूर अभिनेता त्रिलोक कपूर के बेटे थे| फ़िल्म 'प्यासी नदी' साल 1973 और 'कॉलगर्ल' 1974 में रिलीज़ हुई थीं| 

विक्रम बताते हैं, “फ़िल्म 'कॉलगर्ल' हिट हुई और मेरे सामने प्रोड्यूसरों की लाइन लग गयी| और मैंने भी बिना सोचे-समझे 24-25 फ़िल्में साईन कर लीं| ‘दो चट्टानें, 'तूफ़ान' 'संकोच', ‘रंगाखुश' और 'जब अन्धेरा होता है' उसी दौर की फ़िल्में थीं| एक रोज़ 'संकोच' के डायरेक्टर अनिल गंगुली ने मुझे साउथ के प्रोड्यूसर बी.नागीरेड्डी से मिलने के लिए भेजा, जो ताज होटल में ठहरे हुए थे| मैं उनसे मिलने पहुंचा तो देखा, एक तरफ़ बी.नागीरेड्डी और उनके साथ दूसरी तरफ़ डायरेक्टर सेतुमाधवन बैठे थे| नागीरेड्डी ने मुझे अपने सामने रखी कुर्सी पर बैठने को कहा| और मेरे बैठते ही दोटूक  शब्दों में बोले, फ़िल्म का टाइटल है 'जूली', हीरो का रोल है और फ़ीस है, ‘50 थाउजेंड’| और मेरा गला सूख गया| 'इतना पैसा?’ मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ| मेरी आवाज़ गले में ही अटक गयी| उन्हें लगा, 50 हज़ार सुनकर शायद मैं ख़ुश नहीं हूं| बोले ‘75 थाउजेंड’? और मेरा गला पूरी तरह बंद हो गया| आख़िर में वो बोले, ‘वन लैक'| इससे ज़्यादा एक भी पैसा नहीं|...मेरी ख़ामोशी कमाल कर गयी थी|”

'जूली' की शूटिंग लिए विक्रम जी चेन्नई के विजयवाहिनी स्टूडियो पहुंचे| उनके अनुसार, सेट पर पहुंचते ही उन्हें कैमरे के सामने खड़ा कर दिया गया| न कोई ब्रीफ़िंग, न रिहर्सल, सीधे शूट| बस इतना पता चला कि कोई गाना करना है| विक्रम जी ने कहा, एक बार गाना तो सुना दो| लेकिन सेतुमाधवन ने कह दिया, सीधे शूट करेंगे| शूट शुरू हुआ| विक्रम जी के शब्दों में, "एक तरफ़ मुझे अनसुने शब्दों से जूझना था, तो दूसरी तरफ़ लक्ष्मी के अक्खड़पन के साथ भी तालमेल बैठाना था, कहां वो साउथ की सुपरस्टार और कहां मैं हिन्दी सिनेमा का एक नया नया हीरो| बहरहाल पहला ही शॉट ओके हुआ, तो मेरी जान में जान आयी| वो गीत था, फ़िल्म का टाइटल सॉन्ग - 'भूल गया सब कुछ याद नहीं अब कुछ'| ‘जूली' रिलीज़ हुई, और साल 1975 की सफलतम फ़िल्मों में गिनी गयी| 

निर्माता-निर्देशक देवेन्द्र गोयल की साल 1977 की फ़िल्म 'आदमी सड़क का' के लिए विक्रम जी का कहना था, "पहले इस फ़िल्म का नाम 'आनंद भवन' रखा गया था| जब इसके लिए शत्रुघ्न सिन्हा को कास्ट किया गया तो उन्हें ये नाम कुछ जमा नहीं| कहने लगे, 'सवाल उठेगा, शत्रु आनंद भवन में क्या कर रहा है? इसलिए इसका टाईटल बदलो|’ तब फ़िल्म का नाम बदलकर 'आदमी सड़क का' रखा गया था|”

विक्रम जी ने फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में हाथ आज़माते हुए साल 1982 में फ़िल्म 'सितम' बनाई| इस फ़िल्म के लेखक-निर्देशक थे, अरूणा-विकास| मेनलीड में थे, ख़ुद विक्रम, नसीरुद्दीन शाह और स्मिता पाटिल| गीत गुलज़ार के और संगीत जगजीत सिंह का था| बतौर निर्माता अपनी इस पहली और आख़िरी फिल्म को विक्रम जी खैराती फ़िल्म कहते हैं, क्योंकि उनके अनुसार इस फ़िल्म में सभी लोगों ने बिना पैसे के, महज़ यारी-दोस्ती में ही काम किया था| 

निर्माता-निर्देशक राजकुमार कोहली की साल 1979 की फ़िल्म 'जानी दुश्मन' में विक्रम गेस्ट-अपीयरेंस में थे| राजकुमार कोहली ने निर्माता अनिल सूरी की साल 1984 की  मल्टीस्टारर फ़िल्म 'राजतिलक' में विक्रम को एक बार फिर से रिपीट किया, हालांकि उन्हें ये फ़िल्म दिलाने में अभिनेता राजकुमार का भी ख़ासा योगदान था| उस मज़ेदार घटना को याद करते हुए विक्रम कहते हैं, “राजकुमार साहब ने मुझसे कहा, 'कोहली से जाकर मिलो, वरना वो कहीं उस रोल के किये 'फ़लां-फ़लां' को न उठा लाए| और फ़ीस पूछेगा, तो 4 लाख मांगना|’ मैं राजकुमार कोहली से मिला, रोल ओके हुआ, कोहली जी ने पैसा पूछा, तो मैंने 4 लाख कह दिया| कोहली जी ने 2 लाख कहा तो मैंने बिना नानुकुर मान लिया| लेकिन उनसे इतना ज़रूर कहा, 'अगर राजकुमार साहब पूछें तो उन्हें बताना कि आप मुझे 4 लाख दे रहे हैं|’ दो दिग्गजों के बीच पिसने से बचने का और रास्ता ही क्या था मेरे पास?”

('फ़लां-फ़लां कौन थे?’ - पूछने पर विक्रम जी ने नाम बताने से इनकार कर दिया, जो उन कलाकार के सम्मान को बनाए रखने के लिए ज़रूरी भी था| लेकिन विक्रम जी की बातों से इस बात का आभास ज़रूर होता था कि राजकुमार उस ज़माने की लो-बजट और साफ़-सुथरी पारिवारिक फ़िल्मों के स्टार के विषय में कह रहे होंगे| दरअसल फिल्म 'राजतिलक' में उन अभिनेता के कई सीन राजकुमार के साथ होने थे, और अपनी पसंद-नापसंद को लेकर राजकुमार की बेबाक़ी जगज़ाहिर थी| विक्रम जी राजकुमार साहब की इसी चुटीली-चटपटी बेबाक़ी को हाईलाईट करना चाहते थे|)

विक्रम जी की शादी साल 1985 में हुई| उनकी पत्नी फ़रियाल मसूरी की रहने वाली हैं और मेरठ में भी उनका घर है| विक्रम जी बताते हैं, “मैं 1857 की क्रांति पर बन रही एक फ़िल्म की शूटिंग के लिए मेरठ में था| वहां हमें जिस कोठी में ठहराया गया था, वो वाद्ययंत्रों के निर्माण के लिए मशहूर, 135 साल पुरानी 'नादिर अली एंड कंपनी' के मालिक की थी| 

फ़रियाल उन्हीं की बेटी हैं और वो भी उन दिनों मसूरी से मेरठ आयी हुई थीं| मैं उन्हें अक्सर आते-जाते देखता था| वो मुझे पहली ही नज़र में भा गयी थीं| मैंने उनके भाई से दोस्ती की, उनकी मां के साथ बेहद सम्मान से पेश आया, और जब लगा कि इम्प्रेशन पूरी तरह जम चुका है, तो उनकी सहेली से सिफ़ारिश की| पैग़ाम का जवाब भी जल्द ही आ गया| मैं शराब-सिगरेट से दूर था, हम दोनों ही संभ्रांत मुस्लिम परिवारों से थे, इसलिए कहीं किसी तरह का सवाल ही नहीं उठा| हफ़्तेभर में सगाई और महीनेभर में शादी, यानी 'चट मंगनी पट ब्याह' संपन्न हुआ|" 

क़रीब 35 साल के करियर में विक्रम ने 40 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम किया| उनकी अभी तक की आख़िरी फ़िल्म साल 2008 की 'तुलसी' है, जिसकी मेनलीड में इरफ़ान खान और मनीषा कोईराला थे| व्यापार की बारीक़ियों से विक्रम जी बचपन से ही परिचित थे, इसलिए अभिनय के साथ साथ वो विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में भी हाथ आज़माते रहे| आज वो चाईनीज़ रेस्टोरेंट, ऑटोमोबाइल, प्रॉपर्टी डीलिंग से जुड़े व्यवसायों में व्यस्त हैं, तो एक इंटरनेशनल इवेंट कंपनी के अलावा विदेशी पर्यटकों के लिए 'बॉलीवुड टूर्स' जैसी कंपनी का संचालन भी करते हैं| 

विक्रम जी के परिवार में पत्नी और एक बेटा-बहू हैं| बेटा कॉर्पोरेट सेक्टर में, एक अमेरिकी कंपनी के साथ जुड़ा हुआ है और बहू डॉक्टर हैं| कुल मिलाकर एक 'छोटा परिवार, सुखी परिवार’! 


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Saturday, March 19, 2022

"Samajh Gaya...Mai Samajh Gaya" - Dev Kishan

समझ गया...मैं समझ गया” - देवकिशन

                          ........ शिशिर कृष्ण शर्मा  


‘महल’, ‘मधुमती’, ‘बीस साल बाद’, ‘वो कौन थी’!.... ये सभी मेरी पसंदीदा फ़िल्में हैं, और इनमें भी सबसे पसंदीदा ‘बीस साल बाद’ इसलिए, क्योंकि मेरी ज़िंदगी की ये वो पहली फ़िल्म है जो मैंने सिनेमाहॉल में अकेले जाकर देखी थी, और जिसने 15 साल की उम्र में मुझे मेरे बड़े होने का एहसास दिलाया था| वैसे भी रहस्य-रोमांच, सुनसान-बियाबान जगहें, पुरानी इमारतें-क़िले-महल हमेशा से मुझे अपनी ओर आकर्षित करते आये हैं, और साथ ही इन विषयों अथवा इनकी पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्में भी| फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ को लेकर अपना अनुभव मैं बरसों पहले ‘रेडियो प्लैबैक इंडिया’ नाम की एक सम्मानित वेबसाईट पर भी लिख चुका हूं, और वो लेख मेरे ग़ैरफ़िल्मी, साहित्यिक ब्लॉग ‘व्यंग्योपासना’ पर भी उपलब्ध है, कृपया संलग्न लिंक देखें -

रहस्य-रोमांच से भरी ऐसी सभी फ़िल्मों में अमूमन एक किरदार दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खासतौर से आकृष्ट करता है, और वो है भुतहा हवेली, महल या क़िले में अकेला रहने वाला, रहस्यों में लिपटा हुआ चौकीदार, जैसे ‘बीस साल बाद’ का लक्ष्मण...रहस्यमय अंदाज़ में ‘समझ गया...मैं समझ गया’ कहता हुआ| लक्ष्मण का ये किरदार निभाया था देवकिशन जी ने, जो एक उत्कृष्ट लेखक भी थे और जिन्होंने फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ के संवाद भी लिखे थे| 

एक फ़ैन होने के नाते देवकिशन जी के बारे में जानने, उनसे मिलने और उनका इंटरव्यू करने की मेरी बहुत इच्छा थी, हालांकि उनकी उम्र को देखते हुए मन में कहीं न कहीं शंका भी थी कि पता नहीं वो अब होंगे भी, या नहीं| लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद उनके या उनके परिवार के बारे में किसी भी तरह की कोई ठोस जानकारी नहीं मिल पा रही थी| अलबत्ता कभी कभार अपुष्ट सूचनाएं ज़रूर मिल जाती थीं जैसे, ‘वो शायद राजस्थानी थे’ या ‘वो यू.पी. के रहने वाले थे और उनका सरनेम शर्मा था’ इत्यादि| लेकिन संयोग से अचानक ही एक रोज़ मुझे उनके बेटे का फ़ोन नंबर मिल गया| उनसे बात हुई, और फिर जल्द ही मुलाक़ात और पिता के बारे में पुत्र से, विस्तार से बातचीत भी हो ही गयी| 

देवकिशन जी का जन्म 3 जनवरी 1922 को सरगोधा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है| उनके पिता दीवान बहादुरचंद आहूजा थानेदार थे| पिता ने तीन शादियां की थीं| पहली शादी से दो बेटियां थीं| दूसरी शादी से देवकिशन जी का जन्म हुआ| देवकिशन जी बहुत छोटे थे जब उनकी मां गुज़र गयीं| ऐसे में पिता को पत्नी की बहन यानि देवकिशन जी की मौसी से तीसरी शादी कर लेनी पड़ी| इस शादी से देवकिशन जी के तीन भाई और तीन बहनों का जन्म हुआ|  

देवकिशन जी के ननिहाल के ज़्यादातर लोग जूतों के कारोबार में थे| उनकी एक मौसी की शादी लखनऊ की मशहूर ‘अल्फ़ा शू कंपनी’ वाले परिवार में हुई थी, तो दूसरी मौसी के ससुराल वाले दिल्ली की जानीमानी ‘बालूजा शू कंपनी’ के मालिक थे| सरगोधा से बी.ए. तक की पढ़ाई करने के बाद  देवकिशन जी अपना कारोबार शुरू करने के उद्देश्य से लखनऊ चले आये| मौसी के परिवार की मदद से देवकिशन जी ने कानपुर में जूतों का कारोबार शुरू किया, लेकिन दुकान चल नहीं पायी| उन्हीं दिनों देश का बंटवारा हुआ तो समूचा आहूजा परिवार सरगोधा से दिल्ली चला आया, जहां उन्हें ‘बालूजा शू कंपनी’ वाले रिश्तेदारों के यहां पनाह मिल गयी| तब तक देवकिशन जी भी कानपुर की दुकान बंद करके दिल्ली आ चुके थे|   

देवकिशन जी ने कनाटप्लेस में जूतों का कारोबार शुरू किया, जिसमें उनके दो छोटे भाई भी उनकी मदद करने लगे| लेकिन देवकिशन जी का मन इस काम में नहीं लगा| उनकी दिलचस्पी लेखन और कला में कहीं ज़्यादा थी| इसलिए कारोबार अपने भाईयों को सौंपकर वो रेडियो के लिए लिखने लगे| और फिर उन्हें ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी भी मिल गई| 1950 के दशक के शुरूआती सालों में उनका लिखा रेडियो धारावाहिक ‘वहमी’ बहुत लोकप्रिय हुआ था| लेखन के साथ साथ उन्होंने कई रेडियो नाटकों में हिस्सा भी लिया|  

देवकिशन जी की शादी साल 1942 में लखनऊ के एक हिंदीभाषी अरोड़ा खत्री परिवार में हुई थी| उस शादी से वो दो बेटों और एक बेटी के पिता बने| ’बीते हुए दिन’ के लिए हमारी ये बातचीत उनके बड़े बेटे श्री अनिल आहूजा से हुई थी, और इस सहयोग के लिए हम अनिल जी के आभारी हैं| 

1950 के दशक की शुरूआत में देवकिशन जी के साले का रिश्ता मुंबई स्थित मशहूर फ़िल्म निर्माता भगवानदास वर्मा के बड़े भाई विलायतीराम वर्मा की बेटी दर्शना से तय हुआ| वर्मा बंधु छह भाई थे, जिनमें विलायतीराम दूसरे और भगवानदास वर्मा पांचवे नंबर पर थे| ये सभी भाई अपनी पारिवारिक कंपनी ‘वर्मा फ़िल्म्स’ में बराबर  के साझेदार थे| 

(1940 और 50 के दशक की मशहूर कंपनी ‘वर्मा फ़िल्म्स‘ के बैनर में  ‘पतंगा’, ‘सगाई’,  ‘बादल’, ‘औरत’, ‘पूजा’ और ‘मैं नशे में हूं’ जैसी कई हिट फ़िल्मों का निर्माण हुआ था| निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट की मौसी और अभिनेता इमरान हाशमी की दादी अभिनेत्री पूर्णिमा ने भगवानदास वर्मा से शादी की थी, और उन दोनों की ही ये दूसरी शादी थी| इमरान हाशमी के दादा पूर्णिमा के पहले पति थे|) 

देवकिशन जी अपने साले की शादी में मुंबई आये तो वर्मा बंधुओं में सबसे छोटे, संतराम वर्मा से उनकी दोस्ती हो गई| और इसके साथ ही उनके भीतर का लेखक भी मुंबई में किस्मत आज़माने के लिए छटपटाने लगा| ऐसे में संतराम वर्मा ने उन्हें सहारा दिया और साल 1953 में देवकिशन जी हमेशा के लिए मुंबई चले आये| संतराम वर्मा ने दादर के श्रीसाउन्ड स्टूडियो में स्थित अपना हिस्सा देवकिशन जी को रहने के लिए दे दिया| और फिर साल 1955 में देवकिशन जी ने पत्नी-बच्चों को भी दिल्ली से मुंबई बुलवा लिया| रोज़मर्रा की ज़रूरतों की तरफ़ से वो निश्चिंत थे, क्योंकि दिल्ली की दुकान से उन्हें हर महीने पर्याप्त  पैसा मिल जाता था| 

देवकिशन जी ने कुछ पंजाबी फ़िल्मों के अलावा ‘औरत’, ‘लाडला’ और ‘बंदिश’ जैसी हिन्दी फ़िल्मों में छोटी छोटी भूमिकाओं से अपना करियर शुरू किया| लेकिन लेखन में उनका मन कहीं ज़्यादा रमता था| उन्हीं दिनों श्रीसाउन्ड स्टूडियो में एक नयी फ़िल्म कंपनी ‘मूवीस्टार्स प्रोडक्शन्स’ का ऑफिस खुला| इस कंपनी के मालिक थे, उस दौर के जाने माने अभिनेता शेखर, जो बतौर हीरो ‘आंखें’, ‘आस’, ‘हमदर्द’, ‘नयाघर’, ‘आंसू’ और ‘चांदनी चौक’ जैसी क़रीब डेढ़ दर्जन फ़िल्में करने के बाद अब फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में हाथ आज़माना चाहते थे|  

देवकिशन जी शेखर से मिले और उन्हें अपनी लिखी एक कहानी सुनाई जो शेखर को बेहद पसंद आयी| शेखर ने  उस कहानी पर फ़िल्म ‘छोटे बाबू’ बनाई, जो साल 1957 में रिलीज़ हुई थी| देवकिशन जी इस फ़िल्म के प्रोडक्शन कंट्रोलर भी थे| उन्होंने शेखर द्वारा निर्मित अगली दो फिल्में, साल 1958 की ‘आखिरी दांव’ और 1959 की ‘बैंक  मैनेजर’ भी लिखीं| फ़िल्म ‘आखिरी दांव’ का प्रोडक्शन संभालने के साथ ही इस फ़िल्म में देवकिशन जी ने एक भूमिका भी की थी| फ़िल्म ‘बैंक मैनेजर’ की उन्होंने कहानी और संवाद लिखे थे| निर्देशक महेश कौल की, साल 1961 की फ़िल्म ‘सौतेला भाई’ के भी वो पटकथा और संवाद लेखक थे|    

साल 1962 की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ ने देवकिशन जी को एक अभिनेता के तौर पर खासी पहचान दी| और एक लेखक के तौर पर भी| आगे चलकर देवकिशन जी ने ‘बिन बादल बरसात’ (1963), ‘फ़रार’ (1965), 'महाचोर’ (1976) और ‘बंद दरवाज़ा’ (1990) जैसी फ़िल्मों का लेखन किया| साथ ही वो अभिनय भी करते रहे| ‘बिन बादल बरसात’ में वो खलनायक थे| ‘आनंद’ (1971) और ‘चुपके चुपके’ (1975) में भी उनके अभिनय को बहुत पसंद किया गया था| उन्होंने 30 से ज़्यादा फ़िल्मों में अभिनय किया था| इसके अलावा उन्होंने निर्देशन में भी हाथ आज़माया था, और वो फ़िल्म थी साल 1973 में प्रदर्शित हुई  ’वोही रात वोही आवाज़’| ये एक हॉरर फ़िल्म थी, जिसकी मुख्य भूमिकाओं में राधा सलूजा, समित भंज, सोनिया साहनी और सुजीत कुमार थे| 

देवकिशन जी के बड़े बेटे श्री अनिल आहूजा एक निर्देशक हैं, जिन्होंने साल 1965 की फ़िल्म ‘फ़रार’ से एक अप्रेंटिस के तौर पर करियर शुरू किया था| उसके बाद उन्होंने असित सेन को फ़िल्म ‘अनोखी रात’, ‘खामोशी’, ‘मां और ममता’, ‘शराफ़त’, ‘बैराग’ और ‘वकील बाबू‘ में और रवि टंडन को ‘झूठा कहीं का’ से लेकर ‘एक मैं और एक तू’ तक लगभग 10 फ़िल्मों में असिस्ट किया| अनिल जी द्वारा निर्देशित दूरदर्शन धारावाहिक ‘काला जल‘, ‘सरसों के फूल’ और ‘लहू के फूल’ अपने दौर में बेहद लोकप्रिय हुए थे|  

देवकिशन जी के छोटे बेटे श्री दीपक आहूजा चंडीगढ़ में रहते हैं, और वो एक व्यवसायी हैं| देवकिशन जी की बेटी सुनीता जी का विवाह लखनऊ के एक संभ्रांत गुलाटी परिवार में हुआ| उनके पति डॉ.नरेंद्र गुलाटी लखनऊ के एक जानेमाने चिकित्सक हैं|  

देवकिशन जी जीवन के अंतिम सालों में पुट्टपार्थी के श्री सत्य साईंबाबा के परम भक्त हो गए थे| उनका लेखन पूरी तरह से अपने आराध्य के प्रति भक्तिभाव पर केंद्रित हो गया था| उन दिनों उनके छोटे बेटे श्री दीपक आहूजा मुंबई में, मीरा रोड पर रहते थे, और देवकिशन जी भी दीपक जी के साथ रहते थे|  

देवकिशन जी का निधन 82 साल की उम्र में, 5 नवंबर 2003 की रात सोते समय नींद में ही, दीपक जी के घर पर हुआ|   

We are thankful to –

Mr. Harish Raghuvanshi &  Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Mr. Gajendra Khanna for the English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.     

             

                                                               Actor-Writer Devkishan On YouTube Channel BHD




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