Friday, July 29, 2022

"Gentleman Villain" - K.N.Singh

 

जेंटलमैन विलेन” – के.एन.सिंह  

                .......शिशिर कृष्ण शर्मा 

1970 के दशक तक देहरादून शहर की शक्ल किसी क़स्बे की सी थी, और शहर के निवासी भले ही एक दूसरे के नाम से परिचित न हों, लेकिन हरेक चेहरा जाना पहचाना ज़रूर होता था| बासमती, लीची, चाय और 'सेवानिवृत्त लोगों का शहर' का तमगा उस दौर के हरेभरे और सुकूनभरे देहरादून की पहचान हुआ करते थे, जिसे लेकर हरेक देहरादूनवासी ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करता था| और ठीक यही गर्व उसे उस 'नाम' पर भी था, जो उसके अपने शहर का रहने वाला था, और जिसने हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में न सिर्फ़ अपनी एक सम्मानजनक पहचान बनाई थी, बल्कि एक स्टार का दर्जा भी हासिल किया था| वो थे गुज़रे दौर के मशहूर खलनायक कृष्ण निरंजन सिंह, जिन्हें हम के.एन.सिंह के नाम से जानते हैं|

के.एन.सिंह का पुश्तैनी बंगला दून अस्पताल को ई.सी.रोड से जोड़ने वाले न्यू रोड पर हेरिटेज स्कूल के ठीक सामने आज भी अपने मूल स्वरूप में शान से सर उठाए खड़ा है, हालांकि अब उसका मालिकाना हक़ बदल चुका है| “दरअसल पीढ़ी दर पीढ़ी सिंह परिवार की शाखाएं और सदस्यों की संख्या बढ़ती गयी, और बंगला छोटा पड़ता चला गया था|”- के.एन.सिंह साहब के भतीजे राजेश्वर सिंह कहते हैं, जो देहरादून के एक जानेमाने वकील हैं, और शहर के पॉश इलाक़े डालनवाला में वेलहम स्कूल के पास रहते हैं| राजेश्वर सिंह जी से हुई बातचीत में सिंह परिवार के बारे में तमाम ज़रूरी जानकारी तो हासिल हुई ही, 'बीते हुए दिन' को उन्होंने परिवार की कुछ दुर्लभ तस्वीरें भी उपलब्ध कराईं|

5 भाई और एक बहन में के.एन.सिंह माता-पिता की सबसे बड़ी संतान थे| पिता चंडीप्रसाद सिंह जी देहरादून के जानेमाने क्रिमिनल लॉयर थे और मां लक्ष्मी देवी एक आम गृहिणी| पिता जागीरदार ख़ानदान से थे, लेकिन जागीरदारी पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था| राजेश्वर सिंह कहते हैं, "देहरादून में हमारे ख़ानदान का दर्ज इतिहास साल 1848 तक जाता है|”

सभी 6 भाई-बहन में के.एन.सिंह से छोटे भाई रणेश्वर सिंह भी पिता की ही तरह एक नामी वकील थे| राजेश्वर सिंह इन्हीं रणेश्वर सिंह जी के बेटे हैं| तीसरे नंबर पर बहन शिवरानी थीं, जो अपने इंजिनियर पति गुरुदत्त विश्नोई के साथ कोलकाता में रहती थीं| चौथे नंबर के भाई रिपुदमन सिंह उत्तरप्रदेश रोडवेज़ में कार्यरत थे| पांचवे नंबर के भाई विक्रम सिंह लम्बे समय तक फ़िल्मफेयर पत्रिका के सम्पादक और सेंसर बोर्ड के चेयरमैन रहे| सबसे छोटे यानि छठे नंबर के भाई पूरणसिंह भी पिता और बड़े भाई की तरह एक वकील थे|


के.एन.सिंह का जन्म 1 सितम्बर 1908 को देहरादून में हुआ था|  उनकी स्कूली शिक्षा देहरादून के मशहूर कर्नल ब्राउन स्कूल और फिर लखनऊ में हुई, जहां से उन्होंने लैटिन विषय के साथ सीनियर कैम्ब्रिज पास किया| लैटिन इसलिए, क्योंकि आगे चलकर उन्हें बैरिस्टर एट लॉ की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेजे जाने  योजना थी जहां लैटिन की जानकारी उनके लिए मददगार साबित होती| लेकिन अचानक ही के.एन.सिंह ने इंग्लैंड जाने और वकालत पढ़ने से इनकार कर दिया| और इसकी वजह थी, उनके पिता का एक ऐसे ख़तरनाक अपराधी को अदालत में निर्दोष साबित कर देना, जिसके गुनाह जगज़ाहिर थे| इस घटना ने के.एन.सिंह को वकालत के पेशे से विमुख कर दिया था| 


(कहा जाता है कि वो अपराधी कुख्यात सुल्ताना डाकू था, जो आम धारणा के विपरीत एक वास्तविक चरित्र था और आज से क़रीब सौ साल पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद-बिजनौर और आसपास के तराई के इलाकों में सक्रिय था| उसका जन्म मुरादाबाद के हरथला गांव में, एक घुमंतू जनजाति में हुआ था| देहरादून भी उसके कार्यक्षेत्र का ही एक हिस्सा था जहां उसके छिपने के ठिकाने को अंग्रेज़ों ने रॉबर्स  केव का नाम दिया था| रॉबर्स केव आज देहरादून के मशहूर पिकनिक स्पॉट्स में शामिल है| कहा ये भी जाता है कि सुल्ताना डाकू को अदालत से बरी कराने के बाद चंडीप्रसाद जी ने कुछ समय के लिए अपने घर में पनाह दी थी, हालांकि 'बीते हुए दिन' के लिए इन तमाम बातों की पुष्टि कर पाना संभव नहीं है| सुल्ताना डाकू को अंग्रेज़ सरकार ने 8 जून 1924 को बरेली जेल में फांसी दे दी थी| उस समय सुल्ताना डाकू की उम्र 25-26 साल के आसपास थी|)

के.एन.सिंह एक बेहतरीन खिलाड़ी भी थे| साल 1936 के बर्लिन ओलम्पिक्स में शॉटपुट और जैवलिन थ्रो के लिए उनके चयन की प्रक्रिया काफ़ी हद तक पूरी हो चुकी थी, कि उन्हें अपनी बहन शिवरानी की देखभाल के लिए कोलकाता जाना पड़ा, जिनकी आंख की सर्जरी होने वाली थी| शिवरानी के पति गुरुदत्त विश्नोई  उन दिनों इंग्लैंड में थे| कोलकाता में के.एन.सिंह की मुलाक़ात अपने पारिवारिक मित्र पृथ्वीराज कपूर से हुई जो तब तक फिल्मों में अपनी थोड़ी बहुत पहचान बना चुके थे| इस मुलाक़ात के बाद के.एन.सिंह की ज़िंदगी ने ऐसा मोड़ ले लिया जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था|

दरअसल पृथ्वीराज कपूर के ज़रिये के.एन.सिंह का परिचय उस दौर के मशहूर फ़िल्म निर्देशक देवकी बोस से हुआ, जो उन दिनों कोलकाता स्थित 'ईस्ट इंडिया फ़िल्म कंपनी' के लिए फ़िल्म 'सुनहरा संसार' बना रहे थे| के.एन.सिंह के व्यक्तित्व और बातचीत से प्रभावित होकर देवकी बोस ने उन्हें 'सुनहरा संसार' में डॉक्टर का एक छोटा सा रोल ऑफ़र किया| के.एन.सिंह साहब ने बरसों पहले एक इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने पहली बार कैमरे का सामना 9 सितम्बर 1936 को किया था| फ़िल्म 'सुनहरा संसार' साल 1936 में प्रदर्शित हुई थी|

'सुनहरा संसार' के बाद के.एन.सिंह ने कोलकाता में बनी 4 और फ़िल्मों  मॉडर्न इंडिया टॉकीज़ की 'हवाई डाकू' उर्फ़ 'बैंडिट ऑफ़ द एयर’ (1936), न्यू थिएटर्स की ‘अनाथ आश्रम' और ‘विद्यापति', और मोतीमहल थिएटर्स की 'मिलाप' (तीनों 1937) में काम किया| फ़िल्म 'मिलाप' के निर्देशक ए.आर.कारदार थे| इस फ़िल्म में वकील बने के.एन.सिंह ने चार पन्नों का डायलाग एक ही ओके शॉट में बोला था| इससे कारदार इतने प्रभावित हुए कि 'मिलाप' के बाद जब वो साल 1937 में ही मुम्बई शिफ्ट हुए तो के.एन.सिंह को भी अपने साथ लेते आए| 

मुम्बई आकर कारदार ने फ़िल्म 'बागबान' निर्देशित की, जिसमें के.एन.सिंह को उन्होंने विलेन का रोल दिया| साल 1937 में प्रदर्शित हुई इस फ़िल्म ने गोल्डन जुबिली मनाई और के.एन.सिंह के करियर ने रफ़्तार पकड़ ली| इसके बाद उनकी 'इंडस्ट्रियल इंडिया' (1938) और 'पति पत्नी' (1939) भी हिट रहीं| साल 1940 की फ़िल्म 'अपनी नगरिया' में भी उन्हें बतौर विलेन बेहद पसंद किया गया| और फिर वो 500/- रूपये मासिक के वेतन पर सोहराब मोदी की कंपनी 'मिनर्वा मूवीटोन' से जुड़ गए| उन्होंने इस बैनर की  फ़िल्मों 'सिकंदर' (1941), ‘फिर मिलेंगे' (1942),‘पृथ्वीवल्लभ' (1943) और 'पत्थरों का सौदागर' (1944) में काम किया और फिर देविका रानी के बुलावे और 1600/- रूपये मासिक के वेतन पर 'बॉम्बे टॉकीज़' में चले गए| उन्होंने इस बैनर की 'ज्वार भाटा' (1944) में काम किया, जिससे दिलीप कुमार ने डेब्यू किया था|   

राज कपूर की 'बरसात' (1949) और 'आवारा' (1951) में के.एन.सिंह ने बेहद अहम रोल्स किये थे| लेकिन उसके बाद उन्होंने आर.के. की किसी भी फ़िल्म में काम नहीं किया| कहा जाता है कि इसकी वजह थी, दो दिग्गजों के बीच अहं का टकराव, क्योंकि के.एन.सिंह को अपने दोस्त के उस बेटे को 'राज साहब' कहना मंजूर नहीं था, जो उनकी गोद में खेलकर बड़ा हुआ था|

60 साल के अपने करियर में के.एन.सिंह साहब ने क़रीब 250 फ़िल्मों में काम किया| उनके व्यक्तित्व में एक ख़ास तरह की  शालीनता थी, अभिनय में ठहराव था, वो शायद इकलौते ऐसे विलेन थे, जो सूटबूट में नज़र आता था, चीखता चिल्लाता नहीं था, जिसके डायलाग्स में अपशब्द नहीं होते थे, और जिसकी ख़ामोशी, आंखों के भाव और भवों का उतारचढ़ाव ही दर्शकों को दहला देने के लिए काफ़ी होते थे| और इसीलिये उन्हें 'जेंटलमैन विलेन' कहा जाता था|

'हलचल' (1951),  ‘जाल' (1952), ‘शिकस्त' (1953), 'सी.आई.डी.’(1956), ‘इंस्पेक्टर' (1957) , ‘हावड़ा ब्रिज' (1958), ‘चलती का नाम गाड़ी' (1958), ‘सिंगापुर' (1960), ‘हांगकांग' (1962), ‘वोह कौन थी' (1964),  ‘एन इवनिंग इन पेरिस' (1967), ‘हाथी मेरे साथी' (1971), ‘मेरे जीवन साथी' (1972) और 'लोफ़र' (1973) उनकी कुछ और उल्लेखनीय फ़िल्में हैं| 1970 के दशक के मध्य से के.एन.सिंह ज़्यादातर कैमियो और गेस्ट रोल्स करते नज़र आए| कहा जाता है कि के.एन.सिंह की बढ़ती उम्र के बावजूद निर्माता-निर्देशक उनके लिए कैमियो और गेस्ट रोल्स ख़ासतौर से इसलिए लिखवाते थे, क्योंकि फ़िल्मी दुनिया में उनका सम्मान और दबदबा हमेशा बना रहा और सेट पर उनकी मौजूदगी बड़े बड़े सितारों तक को अनुशासन में रखने के लिए काफ़ी होती थी| साल 1996 में प्रदर्शित हुई 'दानवीर' के.एन.सिंह की आख़िरी फ़िल्म थी, और इस फ़िल्म में भी वो स्पेशल एपियरेंस में थे| 

ज़िंदगी के आख़िरी कुछ सालों में के.एन.सिंह साहब की आंखों की रोशनी पूरी तरह चली गयी थी| उनकी पहली पत्नी एक 'विश्नोई' परिवार से थीं जो शादी के कुछ ही समय बाद गुज़र गयी थीं| के.एन.सिंह की दूसरी पत्नी चांदरानी नेपाली मूल की थीं| के.एन.सिंह की अपनी कोई संतान नहीं थी और उन्होंने अपने छोटे भाई विक्रम सिंह के बेटे पुष्कर को गोद लिया था| पुष्कर सिंह टेलिविज़न कार्यक्रमों के निर्माता हैं| देहरादून की सुप्रसिद्ध 'डॉ. द्विजेन  सेन मेमोरियल कलाकेन्द्र एकेडमी ऑफ़ फ़ाईन आर्ट्स' पुष्कर के ननिहाल अर्थात विक्रम सिंह जी के ससुरालपक्ष की संपत्ति है| उल्लेखनीय है कि पुष्कर की नानी भगतसिंह के साथी अमर शहीद सुखदेव (थापर) की बहन थीं| 

के.एन.सिंह के सम्बन्ध में हुई इस बातचीत के लिए उनके भतीजे एडवोकेट राजेश्वर सिंह जी से मेरा परिचय देहरादून के मशहूर रंगकर्मी (अभिनेता और निर्देशक), एक  उत्कृष्ट गायक और स्कूल के मेरे सहपाठी मित्र अतुल विश्नोई ने कराया था| के.एन.सिंह साहब की पहली पत्नी और उनके छोटे भाई  एडवोकेट रणेश्वर सिंह की पत्नी अर्थात एडवोकेट राजेश्वर सिंह की मां रिश्ते में अतुल की बुआएं थीं| सिंह और विश्नोई परिवारों  के बीच हमेशा से बेहद क़रीबी रिश्ते रहे हैं| अतुल के पिता (स्व.) श्री हरिश्चंद्र विश्नोई और (स्व.) श्री के.एन.सिंह प्रगाढ़ मित्र थे| अतुल विश्नोई को हम फ़िल्म 'बत्ती गुल मीटर चालू', ‘कश्मीर फ़ाईल्स' और हाल ही में रिलीज़ हुई 'फॉरेंसिक' में तो देख ही चुके हैं, उनकी आवाज़ को अक्सर विज्ञापनों में भी सुनते रहते हैं| 

देहरादून के गौरव श्री कृष्ण निरंजन सिंह अर्थात के.एन.सिंह साहब का निधन 31 जनवरी 2000 को 92 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ|

Thanks to -

Mr. Harish Raghuvanshi Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Mr. Gajendra Khanna for English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.

Special Thanks to Dehradun based Adv. Rajeshwar Singh & Mr. Atul Vishnoi for their kind support. 


K.N.Singh on YT Channel BHD



ENGLISH VERSION FOLLOWS...

Sunday, July 3, 2022

"Leke Pehla Pehla Pyar Bhar Ke Ankhon Me Khumar - Sheela Vaz

"लेके पहला पहला प्यार भर के आंखों में ख़ुमार" - शीला वाज़

                                                       …...शिशिर कृष्ण शर्मा 


शीला वाज़! 1950 के दशक की हिन्दी फ़िल्मों की जानीमानी नर्तकी, जिनका करियर भले ही महज़ 8 साल और बामुश्किल 40-45 फिल्मों तक सीमित रहा हो, लेकिन उनके मनमोहक नृत्य और मुस्कुराते चेहरे को उस दौर के दर्शक आज भी भूले नहीं हैं| शीला वाज़ ने साल 1954 में रिलीज़ हुई किशोर साहू की फ़िल्म 'मयूरपंख' के सुपरहिट गीत 'ठंडाना ठंडाना ठंडाना, मुश्किल है प्यार छुपाना' पर नृत्य से फ़िल्मों में कदम रखा था, और साल 1960 में शादी करके फिल्मों को अलविदा भी कह दिया था| क़रीब पांच दशकों की गुमनामी के बाद शीला वाज़ की यादें एक बार फिर से उनके प्रशंसकों के ज़हन में ताज़ा हो उठीं थीं, जब साल 2009 में इंटरनेट पर उनका एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ|

शीला वाज़ का जन्म 18 अक्टूबर 1934 को दादर- मुम्बई के एक कैथोलिक परिवार में हुआ था, जो मूल रूप से गोवा का रहने वाला था| शीला वाज़ को बचपन से ही नृत्य का शौक था, जो घर में किसी को भी पसंद नहीं था| उनके परिवार की नापन्दगी तब विरोध में बदल गयी थी, जब शीला वाज़ को फ़िल्म "मयूरपंख" में नृत्य का ऑफ़र मिला| हालांकि ये विरोध ज़्यादा टिक नहीं पाया और अंततः शीला वाज़ को "मयूरपंख" में काम करने की अनुमति मिल ही गयी|    

शीला वाज़ की अगली फ़िल्म केदार शर्मा की 'गुनाह’ थी जो 'मयूरपंख' से पहले, साल 1953 में रिलीज़ हुई थी, और इसीलिए 'गुनाह' को उनकी पहली फ़िल्म माना जाता है| 

शीला वाज़ को पहचान मिली, साल 1956 की फ़िल्म ‘सी.आई.डी.’ के गीत 'लेके पहला पहला प्यार’ और 'श्री 420’ के गीतों 'रमैया वस्तावैया' और 'दिल का हाल सुने दिल वाला' पर किये नृत्यों से|  आने वाले 4-5 सालों में उन्होंने 'दम है बाक़ी तो ग़म नहीं' ('घर नंबर 44’/ 1956), 'रात अंधेरी डर लागे मोहे छोड़ न जाना जी' ('दुर्गेश नंदिनी’/1956), 'झुकी झुकी प्यार की नज़र' ('जॉनी वॉकर'/1956), ‘छुपने वाले सामने आ' (‘तुमसा नहीं देखा'/1957), 'दिल तेरा दीवाना ओ मस्तानी बुलबुल' ('मिस्टर कार्टून एम.ए.’/1958), ‘देखो जी मेरा हाल, बदल गयी चाल...मोहे लागा सोलवां साल' (‘सोलवां साल'/1958), ‘निकला है गोरा गोरा चांद रे सजनवा' (गेस्ट हाउस'/1959), 'मेरी गल सुन कजरेवालिये' ('बंटवारा'/1961) और ‘घर आजा घिर आये बदरा सांवरिया' (‘छोटे नवाब'/1961) जैसे कई हिट गीतों पर नृत्य किया|  

साल 1960 में शीला वाज़ ने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया था| और इसकी वजह थी, शादी करके उनका घर-गृहस्थी में व्यस्त हो जाना| उनकी 5-6 फ़िल्में  जैसे ‘मॉडर्न गर्ल', ‘रामू दादा', 'बंटवारा और 'छोटे नवाब' उनकी शादी के बाद प्रदर्शित हुई थीं| शीला वाज़ के पति रमेश लखनपाल एक फ़िल्म निर्देशक थे, जिन्होंने साल 1974 की फ़िल्म 'पॉकेटमार' और 1978 की ‘काला आदमी’ का निर्देशन किया था| शादी के बाद शीला वाज़ को नया नाम मिला था, 'श्रीमती रमा लखनपाल', जो आगे चलकर उनकी पहचान बना| और फिर जल्द ही वो एक बेटे और एक बेटी की मां भी बन गयीं|  

शीला वाज़ का बेटा अमेरिका की एक एयरलाइन्स में पायलट हैं और बेटी अपने पति और बच्चों के साथ टोरंटो (कनाडा) में रहती हैं| मैं कई सालों से शीला वाज़ से मिलने और उनका इंटरव्यू करने की कोशिश में था, लेकिन उनके बारे में सिर्फ़ इतनी ही जानकारी मिलती रही, कि वो जुहू में कहीं रहती हैं| उनका फ़ोन नंबर या घर का पता मुझे कोई नहीं बता पाया| और मेरी तलाश को तब ब्रेक लग गया, जब मैंने इंटरनेट पर कहीं पढ़ा और यूट्यूब पर किसी विडियो में भी देखा कि उनका निधन 4 दिसंबर 2014 को ही हो गया था| लेकिन ये सूचना सिरे से ग़लत निकली|  


दरअसल आज से चार दिन पहले यानि 30 जून 2022 को मुझे दिल्ली के एक फ़िल्मप्रेमी मित्र संदीप पाहवा जी का मैसेज मिला, कि कल, अर्थात 29 जून 2022 को, शीला वाज़ का निधन हो गया है| ज़ाहिर है मेरे लिए ये सूचना इसलिए भी किसी झटके से कम नहीं थी क्योंकि इंटरनेट और यूट्यूब पर दी गयी सूचना के आधार पर मैं शीला वाज़ को कभी का मृत मान चुका था| बहरहाल अपने स्तर पर छानबीन शुरू की तो संदीप पाहवा जी द्वारा दी गयी सूचना सही निकली|   

उक्त छानबीन के दौरान गुज़रे दौर के सुप्रसिद्ध अभिनेता (स्वर्गीय) जानकीदास जी के बेटे श्री बब्बू मेहरा और पूर्वपरिचित-वयोवृद्ध फ़िल्म और टी.वी. निर्देशक श्री रमेश गुप्ता जी से संपर्क हुआ, तो शीला वाज़ से सम्बंधित जानकारियों की छूटी हुई कड़ियां भी जुड़ती चली गयीं| शीला वाज़ जुहू की मशहूर नॉर्थ बॉम्बे सोसायटी में रहती थीं| श्री बब्बू मेहरा भी जुहू में ही रहते हैं और लखनपाल परिवार से परिचित हैं| मुम्बई में श्री मेहरा का अपना एक स्टूडियो है, जिसमें फ़िल्मों और टी.वी. शोज़ के पोस्टप्रोडक्शन का काम होता है| 

वरिष्ठ फ़िल्म निर्देशक श्री रमेश गुप्ता जी पूना फ़िल्म इंस्टिट्यूट के दूसरे, और साल 1962 से 1965 के बैच के पासआउट हैं| उन्हें साल 1978 की चर्चित फ़िल्म 'त्यागपत्र' और साल 1986 की 'मंगलदादा' के अलावा, 'गुल गुलशन गुलफ़ाम', ‘जूनून', ‘यूल लव स्टोरीज़', 'कर्ज़' और 'परम्परा' जैसे भारी भरकम और सुपरहिट टी.वी. धारावाहिकों के निर्देशन के लिए जाना जाता है| शीला वाज़ के पति (स्वर्गीय) श्री रमेश लखनपाल श्री रमेश गुप्ता के मित्र थे| श्री बब्बू मेहरा और श्री रमेश गुप्ता जी से हमें लखनपाल परिवार से जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं जिसके लिए 'बीते हुए दिन' श्री मेहरा और श्री गुप्ता का आभार व्यक्त करता है|  

दिनांक 18 अक्टूबर 1934 को जन्मी और 29 जून 2022 को इस दुनिया को अलविदा कह गयीं शीला वाज़ अर्थात श्रीमती रमा लखनपाल ने 88 साल की अपनी ज़िंदगी के केवल 8 साल फ़िल्मों को दिए| लेकिन ज़िंदगी के इस छोटे से हिस्से में फ़िल्म के परदे पर जादुई नृत्यों का उनका योगदान हिन्दी सिनेमा के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो चुका है|

(विशेष सूचना :- इस आलेख में ‘बीते हुए दिन' के प्रमुख नियम अर्थात 'सम्बंधित कलाकार अथवा उनके किसी निकट परिजन से की गयी व्यक्तिगत बातचीत' का पालन कुछ ख़ास वजहों से नहीं हो पाया, जिसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं| और इसी वजह से न तो शीला वाज़ के बेटे-बेटी का नाम, बिना उनकी अनुमति के, सार्वजनिक करना हमें उचित लगा,  और न ही आलेख में दिए गए तथ्यों की पुष्टि कर पाने में हम समर्थ हैं| आशा है सम्मानित पाठकगण हमारी मजबूरी को समझेंगे, धन्यवाद|) 

Mr. Harish Raghuvanshi Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

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Sheela Vaz on YT Channel 'Beete Hue Din'



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