“जेंटलमैन विलेन” – के.एन.सिंह
.......शिशिर कृष्ण शर्मा
1970 के दशक तक देहरादून शहर की शक्ल किसी क़स्बे की सी थी, और शहर के निवासी भले ही एक दूसरे के नाम से परिचित न हों, लेकिन हरेक चेहरा जाना पहचाना ज़रूर होता था| बासमती, लीची, चाय और 'सेवानिवृत्त लोगों का शहर' का तमगा उस दौर के हरेभरे और सुकूनभरे देहरादून की पहचान हुआ करते थे, जिसे लेकर हरेक देहरादूनवासी ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करता था| और ठीक यही गर्व उसे उस 'नाम' पर भी था, जो उसके अपने शहर का रहने वाला था, और जिसने हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में न सिर्फ़ अपनी एक सम्मानजनक पहचान बनाई थी, बल्कि एक स्टार का दर्जा भी हासिल किया था| वो थे गुज़रे दौर के मशहूर खलनायक कृष्ण निरंजन सिंह, जिन्हें हम के.एन.सिंह के नाम से जानते हैं|
के.एन.सिंह का पुश्तैनी बंगला दून अस्पताल को ई.सी.रोड से जोड़ने वाले न्यू रोड पर हेरिटेज स्कूल के ठीक सामने आज भी अपने मूल स्वरूप में शान से सर उठाए खड़ा है, हालांकि अब उसका मालिकाना हक़ बदल चुका है| “दरअसल पीढ़ी दर पीढ़ी सिंह परिवार की शाखाएं और सदस्यों की संख्या बढ़ती गयी, और बंगला छोटा पड़ता चला गया था|”- के.एन.सिंह साहब के भतीजे राजेश्वर सिंह कहते हैं, जो देहरादून के एक जानेमाने वकील हैं, और शहर के पॉश इलाक़े डालनवाला में वेलहम स्कूल के पास रहते हैं| राजेश्वर सिंह जी से हुई बातचीत में सिंह परिवार के बारे में तमाम ज़रूरी जानकारी तो हासिल हुई ही, 'बीते हुए दिन' को उन्होंने परिवार की कुछ दुर्लभ तस्वीरें भी उपलब्ध कराईं|
5 भाई और एक बहन में के.एन.सिंह माता-पिता की सबसे बड़ी संतान थे| पिता चंडीप्रसाद सिंह जी देहरादून के जानेमाने क्रिमिनल लॉयर थे और मां लक्ष्मी देवी एक आम गृहिणी| पिता जागीरदार ख़ानदान से थे, लेकिन जागीरदारी पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था| राजेश्वर सिंह कहते हैं, "देहरादून में हमारे ख़ानदान का दर्ज इतिहास साल 1848 तक जाता है|”
सभी 6 भाई-बहन में के.एन.सिंह से छोटे भाई रणेश्वर सिंह भी पिता की ही तरह एक नामी वकील थे| राजेश्वर सिंह इन्हीं रणेश्वर सिंह जी के बेटे हैं| तीसरे नंबर पर बहन शिवरानी थीं, जो अपने इंजिनियर पति गुरुदत्त विश्नोई के साथ कोलकाता में रहती थीं| चौथे नंबर के भाई रिपुदमन सिंह उत्तरप्रदेश रोडवेज़ में कार्यरत थे| पांचवे नंबर के भाई विक्रम सिंह लम्बे समय तक फ़िल्मफेयर पत्रिका के सम्पादक और सेंसर बोर्ड के चेयरमैन रहे| सबसे छोटे यानि छठे नंबर के भाई पूरणसिंह भी पिता और बड़े भाई की तरह एक वकील थे|
के.एन.सिंह का जन्म 1 सितम्बर 1908 को देहरादून में हुआ था| उनकी स्कूली शिक्षा देहरादून के मशहूर कर्नल ब्राउन स्कूल और फिर लखनऊ में हुई, जहां से उन्होंने लैटिन विषय के साथ सीनियर कैम्ब्रिज पास किया| लैटिन इसलिए, क्योंकि आगे चलकर उन्हें बैरिस्टर एट लॉ की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेजे जाने योजना थी जहां लैटिन की जानकारी उनके लिए मददगार साबित होती| लेकिन अचानक ही के.एन.सिंह ने इंग्लैंड जाने और वकालत पढ़ने से इनकार कर दिया| और इसकी वजह थी, उनके पिता का एक ऐसे ख़तरनाक अपराधी को अदालत में निर्दोष साबित कर देना, जिसके गुनाह जगज़ाहिर थे| इस घटना ने के.एन.सिंह को वकालत के पेशे से विमुख कर दिया था|
(कहा जाता है कि वो अपराधी कुख्यात सुल्ताना डाकू था, जो आम धारणा के विपरीत एक वास्तविक चरित्र था और आज से क़रीब सौ साल पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद-बिजनौर और आसपास के तराई के इलाकों में सक्रिय था| उसका जन्म मुरादाबाद के हरथला गांव में, एक घुमंतू जनजाति में हुआ था| देहरादून भी उसके कार्यक्षेत्र का ही एक हिस्सा था जहां उसके छिपने के ठिकाने को अंग्रेज़ों ने रॉबर्स केव का नाम दिया था| रॉबर्स केव आज देहरादून के मशहूर पिकनिक स्पॉट्स में शामिल है| कहा ये भी जाता है कि सुल्ताना डाकू को अदालत से बरी कराने के बाद चंडीप्रसाद जी ने कुछ समय के लिए अपने घर में पनाह दी थी, हालांकि 'बीते हुए दिन' के लिए इन तमाम बातों की पुष्टि कर पाना संभव नहीं है| सुल्ताना डाकू को अंग्रेज़ सरकार ने 8 जून 1924 को बरेली जेल में फांसी दे दी थी| उस समय सुल्ताना डाकू की उम्र 25-26 साल के आसपास थी|)
के.एन.सिंह एक बेहतरीन खिलाड़ी भी थे| साल 1936 के बर्लिन ओलम्पिक्स में शॉटपुट और जैवलिन थ्रो के लिए उनके चयन की प्रक्रिया काफ़ी हद तक पूरी हो चुकी थी, कि उन्हें अपनी बहन शिवरानी की देखभाल के लिए कोलकाता जाना पड़ा, जिनकी आंख की सर्जरी होने वाली थी| शिवरानी के पति गुरुदत्त विश्नोई उन दिनों इंग्लैंड में थे| कोलकाता में के.एन.सिंह की मुलाक़ात अपने पारिवारिक मित्र पृथ्वीराज कपूर से हुई जो तब तक फिल्मों में अपनी थोड़ी बहुत पहचान बना चुके थे| इस मुलाक़ात के बाद के.एन.सिंह की ज़िंदगी ने ऐसा मोड़ ले लिया जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था|
दरअसल पृथ्वीराज कपूर के ज़रिये के.एन.सिंह का परिचय उस दौर के मशहूर फ़िल्म निर्देशक देवकी बोस से हुआ, जो उन दिनों कोलकाता स्थित 'ईस्ट इंडिया फ़िल्म कंपनी' के लिए फ़िल्म 'सुनहरा संसार' बना रहे थे| के.एन.सिंह के व्यक्तित्व और बातचीत से प्रभावित होकर देवकी बोस ने उन्हें 'सुनहरा संसार' में डॉक्टर का एक छोटा सा रोल ऑफ़र किया| के.एन.सिंह साहब ने बरसों पहले एक इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने पहली बार कैमरे का सामना 9 सितम्बर 1936 को किया था| फ़िल्म 'सुनहरा संसार' साल 1936 में प्रदर्शित हुई थी|
'सुनहरा संसार' के बाद के.एन.सिंह ने कोलकाता में बनी 4 और फ़िल्मों मॉडर्न इंडिया टॉकीज़ की 'हवाई डाकू' उर्फ़ 'बैंडिट ऑफ़ द एयर’ (1936), न्यू थिएटर्स की ‘अनाथ आश्रम' और ‘विद्यापति', और मोतीमहल थिएटर्स की 'मिलाप' (तीनों 1937) में काम किया| फ़िल्म 'मिलाप' के निर्देशक ए.आर.कारदार थे| इस फ़िल्म में वकील बने के.एन.सिंह ने चार पन्नों का डायलाग एक ही ओके शॉट में बोला था| इससे कारदार इतने प्रभावित हुए कि 'मिलाप' के बाद जब वो साल 1937 में ही मुम्बई शिफ्ट हुए तो के.एन.सिंह को भी अपने साथ लेते आए|
मुम्बई आकर कारदार ने फ़िल्म 'बागबान' निर्देशित की, जिसमें के.एन.सिंह को उन्होंने विलेन का रोल दिया| साल 1937 में प्रदर्शित हुई इस फ़िल्म ने गोल्डन जुबिली मनाई और के.एन.सिंह के करियर ने रफ़्तार पकड़ ली| इसके बाद उनकी 'इंडस्ट्रियल इंडिया' (1938) और 'पति पत्नी' (1939) भी हिट रहीं| साल 1940 की फ़िल्म 'अपनी नगरिया' में भी उन्हें बतौर विलेन बेहद पसंद किया गया| और फिर वो 500/- रूपये मासिक के वेतन पर सोहराब मोदी की कंपनी 'मिनर्वा मूवीटोन' से जुड़ गए| उन्होंने इस बैनर की फ़िल्मों 'सिकंदर' (1941), ‘फिर मिलेंगे' (1942),‘पृथ्वीवल्लभ' (1943) और 'पत्थरों का सौदागर' (1944) में काम किया और फिर देविका रानी के बुलावे और 1600/- रूपये मासिक के वेतन पर 'बॉम्बे टॉकीज़' में चले गए| उन्होंने इस बैनर की 'ज्वार भाटा' (1944) में काम किया, जिससे दिलीप कुमार ने डेब्यू किया था|
राज कपूर की 'बरसात' (1949) और 'आवारा' (1951) में के.एन.सिंह ने बेहद अहम रोल्स किये थे| लेकिन उसके बाद उन्होंने आर.के. की किसी भी फ़िल्म में काम नहीं किया| कहा जाता है कि इसकी वजह थी, दो दिग्गजों के बीच अहं का टकराव, क्योंकि के.एन.सिंह को अपने दोस्त के उस बेटे को 'राज साहब' कहना मंजूर नहीं था, जो उनकी गोद में खेलकर बड़ा हुआ था|
60 साल के अपने करियर में के.एन.सिंह साहब ने क़रीब 250 फ़िल्मों में काम किया| उनके व्यक्तित्व में एक ख़ास तरह की शालीनता थी, अभिनय में ठहराव था, वो शायद इकलौते ऐसे विलेन थे, जो सूटबूट में नज़र आता था, चीखता चिल्लाता नहीं था, जिसके डायलाग्स में अपशब्द नहीं होते थे, और जिसकी ख़ामोशी, आंखों के भाव और भवों का उतारचढ़ाव ही दर्शकों को दहला देने के लिए काफ़ी होते थे| और इसीलिये उन्हें 'जेंटलमैन विलेन' कहा जाता था|
के.एन.सिंह के सम्बन्ध में हुई इस बातचीत के लिए उनके भतीजे एडवोकेट राजेश्वर सिंह जी से मेरा परिचय देहरादून के मशहूर रंगकर्मी (अभिनेता और निर्देशक), एक उत्कृष्ट गायक और स्कूल के मेरे सहपाठी मित्र अतुल विश्नोई ने कराया था| के.एन.सिंह साहब की पहली पत्नी और उनके छोटे भाई एडवोकेट रणेश्वर सिंह की पत्नी अर्थात एडवोकेट राजेश्वर सिंह की मां रिश्ते में अतुल की बुआएं थीं| सिंह और विश्नोई परिवारों के बीच हमेशा से बेहद क़रीबी रिश्ते रहे हैं| अतुल के पिता (स्व.) श्री हरिश्चंद्र विश्नोई और (स्व.) श्री के.एन.सिंह प्रगाढ़ मित्र थे| अतुल विश्नोई को हम फ़िल्म 'बत्ती गुल मीटर चालू', ‘कश्मीर फ़ाईल्स' और हाल ही में रिलीज़ हुई 'फॉरेंसिक' में तो देख ही चुके हैं, उनकी आवाज़ को अक्सर विज्ञापनों में भी सुनते रहते हैं|
देहरादून के गौरव श्री कृष्ण निरंजन सिंह अर्थात के.एन.सिंह साहब का निधन 31 जनवरी 2000 को 92 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ|
Thanks to -
Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Mr. Gajendra Khanna for English translation of the write up.
Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Special Thanks to Dehradun based Adv. Rajeshwar Singh & Mr. Atul Vishnoi for their kind support.
K.N.Singh on YT Channel BHD
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