“गुज़रा
हुआ ज़माना
आता नहीं
दोबारा”
– एस.
मोहिन्दर
.........शिशिर
कृष्ण शर्मा
‘गुज़रा
हुआ ज़माना
आता नहीं
दोबारा,
हाफ़िज़ ख़ुदा
तुम्हारा...!’
साल 1956
में बनी
फ़िल्म ‘शीरीं
फ़रहाद’
का ये
गीत संगीत
प्रेमियों को
हमेशा से
आकर्षित करता
आया है।
दिल को
छू लेने
वाली धुन,
ख़ूबसूरत बोल,
कानों में
मिठास घोलती
लता की
दैविक आवाज़,
नि:संदेह
ये गीत
हिंदी फ़िल्म
संगीत के
सर्वश्रेष्ठ गीतों
में से
एक है।
गुज़रे दौर
का हिंदी
फ़िल्म संगीत
मुझे भी
हमेशा से
लुभाता आया
था। साथ
ही उस
दौर के
तमाम भूले-बिसरे
कलाकारों के
बारे में
जानने की
इच्छा भी
हमेशा से
मन में
थी। मुम्बई
आने पर
सुप्रसिद्ध कहानीकार
और पत्रकार
धीरेन्द्र अस्थाना
जी से
दोस्ती हुई
तो उन्होंने
मुझे लिखने
के लिए
प्रेरित किया।
और फिर
‘साप्ताहिक
सहारा समय’
के मुम्बई
ब्यूरो प्रमुख
की कुर्सी
सम्भालते ही
उन्होंने अख़बार
के दो
स्तम्भों ‘क्या
भूलूं क्या
याद करूं’
और ‘बाकलम
ख़ुद’
के साथ
ही ‘फ़िल्म
पहेली’
की ज़िम्मेदारी
भी मुझे
सौंप दी।
भूले-बिसरे
कलाकारों से
व्यक्तिगत बातचीत
पर आधारित
कॉलम ‘क्या
भूलूं क्या
याद करूं’
के लिए
मैंने अपने
पसंदीदा गीत
‘गुज़रा
हुआ ज़माना
आता नहीं
दोबारा...’
के संगीतकार
एस.
मोहिंदर को
तलाशने की
कोशिश की
तो पता
चला वो
दशकों पहले
न सिर्फ़
हिंदी फ़िल्मोद्योग
को,
बल्कि भारत
को भी
अलविदा कहकर
अमेरिका जा
बसे हैं।
मेरे लिए
ये बेहद
निराशाजनक ख़बर
थी लेकिन
कोई रास्ता
भी तो
नहीं था।
मजबूरन मुझे
एस.
मोहिंदर के
नाम को
दिमाग़ से
झटक देना
पड़ा।
समय
गुज़रता रहा।
‘साप्ताहिक
सहारा समय’
का प्रकाशन
बन्द हो
गया। ‘राष्ट्रीय
सहारा’,
‘दैनिक भास्कर’,
‘राजस्थान पत्रिका’
और ‘नेशनल
दुनिया’
जैसे अख़बारों
और बंगलौर
निवासी मित्र
गजेन्द्र खन्ना
(चित्र में) की
वेबसाईट ‘अनमोल
फनकार डॉट
कॉम’
से जुड़े
रहने के
बाद साल
2012 के
अप्रैल माह
में मैंने
ब्लॉग ‘बीते
हुए दिन’
की शुरूआत
की,
जिसने जल्द
ही अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर
अपना एक
बहुत बड़ा
पाठकवर्ग तैयार
कर लिया।
एस.
मोहिंदर के
नाम को
मैं भूल
ही चुका
था कि
हाल ही
में एक
रोज़ अचानक
एक करिश्मा
सा हुआ।
11 अगस्त
2015 की
दोपहर ‘बीते
हुए दिन’
के एक
नियमित पाठक
और पुरानी
हिंदी फ़िल्मों
और फ़िल्म
संगीत के
प्रेमी वयोवृद्ध
श्री बख़्शीश
सिंह जी
ने मुझे
फ़ोन किया।
दिल्ली के
रहने वाले
बख़्शीश सिंह
जी मुम्बई
आए हुए
थे और
पहले से
तय कार्यक्रम
के मुताबिक़
उस शाम
हमें मिलना
था। बख़्शीश
सिंह जी
ने जो
सूचना दी
उसे सुनते
ही मैं
उछल पड़ा।
उनके मुताबिक़
संगीतकार एस.
मोहिंदर इन
दिनों मुम्बई
में ही
थे और
बख़्शीश सिंह
जी शाम
को उनसे
मिलने जा
रहे थे।
बख़्शीश सिंह
जी ने
मुझे भी
साथ चलने
का न्यौता
दिया। और
जो उम्मीद
मैं छोड़
चुका था
वो मौक़ा
अचानक ही
ख़ुदबख़ुद मेरी
झोली में
आ गिरा।
उस
शाम एस.
मोहिंदर जी
से महज़
औपचारिक बातचीत
हुई। इंटरव्यू
ठीक एक
हफ़्ते बाद,
18 अगस्त
की शाम
को हुआ
और ऐसा
नायाब मौक़ा
उपलब्ध कराने
का पूरा
श्रेय मैं
श्री बख्शीश
सिंह जी
को ही
देना चाहूंगा।
इस इंटरव्यू
में एस.
मोहिंदर जी
ने ब्लॉग
‘बीते
हुए दिन’
के साथ
अपनी निजी
और व्यवसायिक
ज़िंदगी के
बारे में
विस्तृत बातचीत
की। लीजिए
पेश है
एस.
मोहिंदर जी
की कहानी,
उन्हीं की
ज़ुबानी
-
“हम
लोग रहने
वाले तो
रावलपिण्डी के
हैं लेकिन
मेरा जन्म
24 फ़रवरी
1925 को
मॉण्टगुमरी ज़िले
की तहसील
पाकपतन के
गांव सिलवाला
में हुआ
था जहां
मेरे पुलिस
अधिकारी पिता
बख़्शी सुजान
सिंह सरना
एस.एच.ओ.
के पद
पर तैनात
थे।
(एस.
मोहिंदर जी
के मुताबिक़
अमेरिका के
सरकारी रेकॉर्ड
में और
वॉईस ऑफ़
अमेरिका में
उनकी ग़लत
जन्मतिथि
- 8 सितम्बर
1926 - दर्ज
है।)
पाकपतन को बारहवीं सदी के मशहूर सूफ़ी संत बाबा फ़रीद के स्थान के रूप में जाना जाता है। पिताजी का ट्रांसफ़र अलग अलग शहर-क़स्बों में होता रहता था। मॉण्टगुमरी के बाद कुछ वक़्त हम ज़िला शेखुपुरा के शाहदरा क़स्बे में रहे। बादशाह जहांगीर और नूरजहां की क़ब्रें इसी शाहदरा में हैं। पिताजी का ट्रांसफर हुआ तो हम लोग शाहदरा से ननकाना साहब चले गए। पिताजी बहुत अच्छे बांसुरीवादक थे और वो रोज़ रात को सोने से पहले बांसुरी का रियाज़ करते थे। उन्हें देखकर मेरा भी झुकाव संगीत की तरफ़ होने लगा। ननकाना साहब के गुरूद्वारे के रागी भाई समुंद सिंह जी बहुत अच्छा गाते थे। मैं रोज़ गुरूद्वारे जाकर उनका गायन सुनता था और फिर उसे दोहराता था। एक रोज़ भाई समुंद सिंह जी ने मुझे गाते सुना तो अपना शिष्य बना लिया। मैं उनसे नियमित तौर पर गायन की शिक्षा लेने लगा। हम लोग चार साल ननकाना साहब में रहे। मैंने ननकाना साहब के गुरूनानक खालसा हाईस्कूल से साल 1942 में मैट्रिक किया और उन्हीं दिनों पिताजी का ट्रांसफ़र लायलपुर हो गया।
हॉकी का मैं बेहतरीन खिलाड़ी था। ननकाना साहब में मैं स्कूल की टीम से राईट फ़ुल बैक पोज़ीशन पर खेलता था। पंजाब के तमाम स्कूलों की टीमें मेरे खेल से वाक़िफ़ थीं। हम लायलपुर पहुंचे तो वहां के गुरूनानक खालसा कॉलेज वालों ने ख़ुद ही मुझसे सम्पर्क करके अपने यहां दाख़िला लेने और कॉलेज की हॉकी टीम में शामिल होने को कहा। मैंने 11वीं से बी.ए. तक की पढ़ाई लायलपुर के गुरूनानक खालसा कॉलेज से की। उस दौरान मैं कॉलेज की और पंजाब यूनिवर्सिटी की टीम से खेलता रहा। यूनिवर्सिटी की टीम से लगातार 3 साल खेलने की वजह से साल 1945 में मुझे ट्राईकलर भी मिला था। लेकिन संगीत से मेरा जुड़ाव बना रहा। लायलपुर में मैं संगीत विद्यालय के संत सुजान सिंह जी से गायन सीखने लगा। साथ ही एक अन्य संगीत विद्यालय के पंडित श्रुतिरतन शर्मा जी से भी संगीत की शिक्षा लेता रहा। क़रीब 2 साल मैंने इन दोनों गुरूओं से शिक्षा हासिल की। उधर छुट्टियों में मैं बनारस जाकर बड़े रामदास जी से भी गायन सीखने लगा। उन्हीं दिनों मुझे रेडियो पर भी गाने के मौक़े मिलने शुरू हो गए। 30 सितम्बर 1945 को 20 साल की उम्र में मैंने लाहौर रेडियो पर अपना पहला प्रोग्राम प्रस्तुत किया था।
साल
1946 में
रिटायर होने
के बाद
पिताजी को
‘दिल्ली
क्लॉथ मिल्स’
में नौकरी
मिली तो
वो परिवार
को लायलपुर
में ही
छोड़कर दिल्ली
चले गए।
हम कुल
10 भाई-बहन
थे,
5 भाई
और 5
बहनें। मैं
दूसरे नम्बर
पर था।
मुझसे बड़े
भाई भी
पुलिस में
थे और
उनकी शादी
हो चुकी
थी। साल
1947 के
मई महिने
में मैं
रेडियो प्रोग्राम
के लिए
लायलपुर से
लाहौर आया।
मेरे बड़े
भाई-भाभी
लायलपुर में
थे और
मां और
छोटे 8
भाई-बहन
उन दिनों
पिताजी के
पास दिल्ली
गए हुए
थे। लाहौर
में एक
दीना तांगेवाला
था जो
मुझे रेलवे
स्टेशन से
रेडियो स्टेशन
लाता ले
जाता था।
प्रोग्राम के
प्रसारण के
बाद वापस
रेलवे स्टेशन
की तरफ़
जाते वक़्त
उसने मुझसे
कहा कि
शायद मुल्क़
का बंटवारा
होने वाला
है,
हालात बिगड़
रहे हैं
और जगह
जगह मारकाट
शुरू हो
गयी है।
स्टेशन
पहुंचकर मैंने
शाम 4
बजे की
लायलपुर की
ट्रेन का
टिकट लिया।
लेकिन ट्रेन
नहीं आयी।
कुली से
पूछा तो
उसने कहा,
शाहदरे की
तरफ़ जो
ट्रेन गयी
है उसमें
लाशें ही
लाशें और
ख़ून ही
ख़ून था,
तुम जल्दी
से सामने
वाली ट्रेन
में बैठ
जाओ। देखा
तो वो
ट्रेन मुम्बई
सेंट्रल जाने
वाली फ़्रंटियर
मेल थी।
जाना मुझे
लायलपुर था
और कुली
मुझे उल्टी
दिशा की
ट्रेन में
बैठने को
कह रहा
था। मुझे
असमंजस में
पड़ा देख
कुली ने
कहा,
जान प्यारी
है तो
ट्रेन में
बैठो और
भागो यहां
से। मजबूरन
मुझे उस
ट्रेन में
बैठ जाना
पड़ा। दिल्ली
स्टेशन पर
ट्रेन रूकी
लेकिन मेरे
पास पिताजी
के घर
का पता
नहीं था
इसलिए मैं
ट्रेन में
ही बैठा
रहा। और
इस तरह
10 मई
1947 को
मैं मुम्बई
पहुंच गया।
दंगों की
वजह से
मेरे माता-पिता
और भाई-बहन
लायलपुर नहीं
लौट पाए
थे। बंटवारे
के दौरान
बड़े भाई-भाभी
भी किसी
तरह जान
बचाकर दिल्ली
आ गए
थे। उधर
मैं मुम्बई
के वर्सोवा
गांव स्थित
काकोरी कैम्प
में नेवी
की बैरेक्स
में बतौर
पेईंग गेस्ट
रहने लगा।
चूंकि मैं सिर्फ़ गाना ही जानता था सो मैंने फ़िल्मों में गायक बनने की कोशिश की। बहुत संघर्ष किया, बहुत धक्के खाए लेकिन सफलता नहीं मिली। फिर महसूस हुआ कि गायक से ज़्यादा अहमियत संगीतकार की होती है तो संगीतकार बनने की कोशिश करने लगा। अभिनेता गोविंदा की मां निर्मला देवी मुझे बनारस से जानती थीं। एक रोज़ पता चला कि वो और उनके पति अरूण आहूजा (चित्र में) फ़िल्म बना रहे हैं तो मैंने उनके घर जाकर ये कहते हुए फ़िल्म मांग ली कि इसमें मैं संगीत दूंगा। उन्होंने मेरी बनाई कुछ धुनें सुनीं जो उन्हें बेहद पसंद आयीं। इस तरह साल 1948 में बनी ‘अरूण प्रोडक्शंस’ की फ़िल्म ‘सेहरा’ से बतौर संगीतकार मेरा करियर शुरू हुआ। इसका मुझे दो हज़ार रूपए मेहनताना मिला था। मैंने इस फ़िल्म में एक सोलो गीत ‘ऐ दिल उड़ा के ले चल मख़्मूर फ़िज़ाओं में’ भी गाया था। लेकिन ये फ़िल्म नहीं चली।
‘प्रकाश पिक्चर्स’ के शंकरभाई भट्ट और विजय भट्ट ने फ़िल्म ‘सेहरा’ का ट्रायल देखा। उन्हें फ़िल्म के गीत बेहद पसंद आए। उन्होंने अरूण आहूजा से कहकर मुझे मिलने के लिए बुलाया। मैं अगले ही दिन उनके स्टूडियो पहुंचा तो पठान दरबान ने मुझे गेट पर ही रोक लिया। उसने कहा, दोनों सेठ सामने खड़े हैं, मैं बिना उनसे पूछे तुम्हें अंदर नहीं भेज सकता। पठान उनके पास गया, भट्ट बन्धुओं ने दूर से मेरी तरफ़ देखकर पठान से कह दिया, सरदार जी से कह दो, यहां कारपेंटर की ज़रूरत नहीं है। दरअसल उस ज़माने में सेट बनाने वाले ज़्यादातर सिख हुआ करते थे और मुझे देखकर भट्ट बन्धु समझे कि मैं काम की तलाश में आया हुआ कोई कारपेंटर हूं। बहरहाल पठान को किनारे धकेलता हुआ मैं सीधा भट्ट बन्धुओं के पास पहुंचा और उनसे कहा, ‘मुझे आप ही ने बुलाया है, अरूण आहूजा ने भेजा है मुझे।‘
सारी
बात पता
चलने के
बाद भी
भट्ट बन्धुओं
का शक़
ख़त्म नहीं
हुआ। वो
मुझे म्यूज़िक
रूम में
ले गए,
मेरी बनाई
धुनें सुनीं
और फ़िल्म
‘शादी
की रात’
के लिए
3 धुनें
पसन्द कर
लीं। दरअसल
उस फ़िल्म
के संगीतकार
पंडित गोविंदराम
ने भट्ट
बन्धुओं से
झगड़े की
वजह से
फ़िल्म बीच
ही में
छोड़ दी
थी। मैंने
जो पहला
गीत रेकॉर्ड
कराया,
वो लता
की आवाज़
में ‘हम
दिल की
कहानी क्या
कहते’
था। बाक़ी
दो गीत
थे सुरिंदर
कौर और
तलत महमूद
का गाया
‘पूछ
रहे थे
यार कि
बीवी कैसी
हो’
और ‘अमीरबाई
कर्नाटकी का
गाया ‘शहर
अनोखा शहर
रंगीला देहली’।
भट्ट बन्धुओं
ने लता
से पूछा
कैसा संगीतकार
है?
जवाब मिला,
‘वैसे तो
अच्छा है
लेकिन मुश्किल
गाने बनाता
है’।
साल 1950
में प्रदर्शित
हुई फ़िल्म
‘शादी
की रात’
में कांट्रेक्ट
की वजह
से परदे
पर सिर्फ़
पंडित गोविंदराम
का नाम
दिया गया
था। मेरा
नाम फ़िल्म
के रेकॉर्ड्स
में था,
परदे पर
नहीं। उसी
दौरान मुझे
फ़िल्म ‘जीवन
साथी’
में भी
संगीत देने
का मौक़ा
मिला जो
साल 1949
में बनी
थी।
फ़िल्म
‘शादी
की रात’
के गाने
‘रणजीत
स्टूडियो’
के मालिक
सरदार चन्दूलाल
शाह (चित्र
में)
को बहुत
पसंद आए।
उन्होंने विजय
भट्ट से
मेरे बारे
में पूछा
और मुझे
मिलने के
लिए बुलाया।
वो अपनी
अगली फ़िल्म
‘नीली’
के लिए
मुझे साईन
करना चाहते
थे लेकिन
शर्त ये
थी कि
मेरे गाने
फ़िल्म की
हिरोईन सुरैया
को पसन्द
आने चाहिएं।
सुरैया को
धुनें सुनाने
के लिए
उन्होंने मुझे
अगली सुबह
फिर से
आने को
कहा। लेकिन
मैं उसी
शाम सुरैया
के घर
पहुंच गया।
सुरैया
से मैं
पहले भी
मिल चुका
था। हमारी
पहली मुलाक़ात
साल 1946
में लाहौर
में हुई
थी। वो
फ़िल्म ‘अनमोल
घड़ी’
के प्रदर्शन
के तुरंत
बाद लाहौर
रेडियो पर
आयी थीं।
रेडियो पर
मुझे गाता
सुना तो
प्रभावित होकर
उन्होंने मुझे
मुम्बई आने
का न्यौता
दिया था।
साथ में
उनके मामा
एम.ज़हूर
भी थे।
हमारी दूसरी
मुलाक़ात उनके
घर पर
हुई थी
जब मैं
मुम्बई आने
के फ़ौरन
बाद उनसे
मिलने गया
था। एम.ज़हूर
ने दरवाज़े
से झांका
और मुझे
देखा तो
घर में
मौजूद सुरैया
से कहा
था कि
लाहौर रेडियो
वाले सरदार
जी आए
हैं। सुरैया
मेरे साथ
बेहद इज़्ज़त
से पेश
आयीं और
उन्होंने मुझसे
कहा था
कि कभी
भी कोई
ज़रूरत हो,
कोई सिफ़ारिश
करनी हो
तो बेझिझक
कहना। इसीलिए
आज मैं
दोबारा उनके
घर चला
आया था।
मैंने
सुरैया को
दो गीतों
‘फूल
खिले हैं
गुलशन में’
और ‘चोरी
चोरी आना
हो राजा
मोरे दिल
के’
की धुनें
सुनाईं जो
उन्हें बेहद
पसन्द आयीं।
उन्होंने मुझे
हिदायत दी
कि कल
जब मैं
धुनें सुनने
आऊंगी तो
आप मेरी
आंखों में
मत देखना,
सेठ चन्दूलाल
शाह को
पता नहीं
चलना चाहिए
कि हम
मिल चुके
हैं। अगली
सुबह सेठ
चन्दूलाल शाह
के ऑफ़िस
में सिटिंग
हुई। मैंने
दोनों धुनें
सुनाईं। साथ
ही सुरैया
की दी
हुई हिदायत
का भी
पूरा ख़्याल
रखा। सेठ
जी ने
पूछा गाने
कैसे लगे
तो सुरैया
ने कहा,
इनके सामने
कैसे बताऊं?
सेठ जी
ने मुझे
बाहर इंतज़ार
करने को
कहा। बाद
में पता
चला सुरैया
ने उनसे
कहा था,
ये दोनों
गाने फ़िल्म
को हिट
करा देंगे,
इन्हें फौरन
रेकॉर्ड कराओ।
फ़िल्म
‘नीली’
के गानों
का मुझे
7 हज़ार
रूपए मेहनताना
मिला था
जो उस
ज़माने में
बहुत बड़ी
रकम हुआ
करती थी।
असिस्टेंट्स का
3 हज़ार
रूपए अलग
से भुगतान
किया गया
था। साल
1950 में
प्रदर्शित हुई
इस फ़िल्म
में सुरैया
के हीरो
देवआनंद थे।
बंटवारे से
पहले लाहौर
से ‘चित्रा’
नाम की
उर्दू की
एक साप्ताहिक
फ़िल्म पत्रिका
प्रकाशित होती
थी जिसके
मालिक कोई
पुरी साहब
थे। बंटवारे
के बाद
वो पत्रिका
दिल्ली से
प्रकाशित होने
लगी थी।
मुम्बई में
उसका काम
एक बख़्शी
जी देखते
थे। उधर
हमारे पूर्वजों
को महाराजा
रणजीत सिंह
जी के
ज़माने में
‘बख़्शी’
के ख़िताब
से नवाज़ा
गया था
और हमारा
सरनेम ‘सरना’
है। इस
तरह मेरा
पूरा नाम
था ‘बख़्शी
मोहिंदर सिंह
सरना’।
‘चित्रा’
वाले बख़्शी
जी ने
मुझसे कहा,
इतना लम्बा
नाम?
इसे छोटा
करो,
या तो
‘सरना
मोहिंदर’
लिखो या
सिर्फ़ ‘एस.
मोहिंदर ’।
और इस
तरह फ़िल्म
‘नीली’
से मैं
‘एस.
मोहिंदर ’
हो गया।
साल
1952 में
बनी फ़िल्म
‘श्रीमतीजी’
से मेरी
एंट्री मासिक
वेतन पर
‘फ़िल्मिस्तान’
कम्पनी में
हुई। इस
फ़िल्म में
कुल 10
गीत थे
जिनमें से
संगीतकार जिम्मी
ने 8,
बसंत प्रकाश
ने 2
और मैंने
1 गीत
की धुन
बनाई थी।
मेरी धुन
पर हेमंत
कुमार और
गीतादत्त का
गाया गीत
‘दो
नैना तुम्हारे
प्यारे प्यारे
गगन के
तारे’
अपने दौर
का बहुत
बड़ा हिट
था। साल
1953 में
‘फ़िल्मिस्तान’
के शशधर
मुकर्जी ने
मुझे फिल्म
‘अनारकली’
के संगीत
की ज़िम्मेदारी
दी। लेकिन
मेरी बनाई
पहली ही
धुन उन्होंने
‘क्या
बकवास धुन
है...कुछ
और बना
के लाओ’
कहते हुए
ठुकरा दी।
उन्हीं दिनों
मुझे सरदार
चंदूलाल शाह
ने अपनी
अगली फ़िल्म
‘पापी’
के लिए
बुलाया। मैंने
उन्हें ‘अनारकली’
के लिए
बनाई धुन
सुनाई। उस
वक़्त वहां
‘पापी’
के हीरो
राज कपूर
भी बैठे
थे। उन्हें
वो धुन
बेहद पसंद
आयी और
जल्द ही
उस पर
हसरत जयपुरी
से बोल
लिखवाकर गीत
रेकॉर्ड कर
लिया गया।
वो गीत
था ‘ऐ
जज़्बा-ए-मोहब्बत,
इतना असर
दिखा दे’।
साल 1953
में बनी
‘पापी’
में राज
कपूर ने
पहली और
आख़िरी बार
डबल रोल
किया था।
फ़िल्म तो
ज़्यादा नहीं
चली लेकिन
इसका गीत-संगीत
बेहद लोकप्रिय
हुआ था।
उधर
कुछ दिनों
बाद शशधर
मुकर्जी ने
मुझे बुलाकर
उसी धुन
पर गीत
रेकॉर्ड कराने
को कहा। उस
वक़्त वहां
आई.एस.जौहर
भी बैठे
थे। मेरे
यह कहते
ही कि
‘आपको
धुन पसन्द
नहीं आयी
इसलिए वो
तो मैंने
सेठ चंदूलाल
शाह को
दे दी’,
जौहर हंस
पड़े। कहने
लगे,
कैसे अनाड़ी
हो तुम?
तुम्हें नहीं
पता कि
मुकर्जी साहब
के ‘बकवास’
कहने का
अर्थ होता
है,
उन्हें वो
चीज़ पसंद
आई है?
लेकिन मुकर्जी
मुझपर बरस
पड़े। कहने
लगे,
वो धुन
ले के
आओ वरना
दोबारा यहां
मत आना।
इस तरह
न सिर्फ़
‘अनारकली’
बल्कि ‘फ़िल्मिस्तान’
की नौकरी
भी मेरे
हाथ से
निकल गयी।
साल 1953 में ‘पापी’ के अलावा ‘रणजीत मूवीटोन’ की एक और फ़िल्म ‘बहादुर’ में भी मैंने संगीत दिया। मेरे दो असिस्टेंट थे, इंदरजीत सिंह और पंडित किशन। इंदरजीत सिंह आज के मशहूर गायक दलेर मेहंदी के मामा थे और पंडित किशन संगीतकार हुस्नलाल और भगतराम के भांजे। ये दोनों साल 1969 में बनी फ़िल्म ‘नानक नाम जहाज़ है’ तक मेरे साथ रहे। बदकिस्मती से उसके बाद दोनों का ही कम उम्र में निधन हो गया था।
शुरूआती
कुछ फ़िल्मों
में मैंने
सुरजीत सेठी,
सरशार सैलानी,
नाज़िम पानीपती,
फ़ीरोज़ जालन्धरी,
राजा मेहन्दी
अली ख़ान,
राजेन्द्र कृष्ण,
हसरत जयपुरी
और पंडित
इन्द्र जैसे
गीतकारों के
साथ काम
किया। साल
1955 में
बनी फ़िल्म
‘नाता’
में गीतकार
तनवीर नक़वी
(चित्र में)
ने पहली
बार मेरे
लिए गीत
लिखे। 1940
के दशक
में तनवीर
नक़वी संगीतकार
नौशाद,
फ़ीरोज़ निज़ामी,
गुलशन सूफ़ी
और ग़ुलाम
मोहम्मद के
लिए ‘नई
दुनिया’,
‘आईना’,
‘पिया मिलन’,
‘दरबान’,
‘शरबती आंखें’,
‘अनमोल घड़ी’
और ‘पराई
आग’
जैसी फ़िल्मों
में गीत
लिख चुके
थे। बंटवारा
हुआ तो
वो पाकिस्तान
चले गए।
1950 के
दशक के
शुरू में
के.आसिफ़
ने ‘मुग़ले
आज़म’
के गीत
लिखने के
लिए तनवीर
नक़वी को
पाकिस्तान से
बुलाया था।
लेकिन तब
तक नौशाद
की टीम
शक़ील बदायुंनी
के साथ
बन चुकी
थी। के.आसिफ़
के आग्रह
के बावजूद
नौशाद ने
‘मुग़ले
आज़म’
में तनवीर
नक़वी से
गीत लिखवाने
से इंकार
कर दिया
जबकि ये
जोड़ी ‘अनमोल
घड़ी’
जैसी म्यूज़िकल
हिट फ़िल्म
दे चुकी
थी।
मेरी
फ़िल्म ‘नाता’
उन दिनों
फ़्लोर पर
थी और
‘शीरीं
फ़रहाद’
की तैयारियां
चल रही
थीं। तनवीर
नक़वी से
मुझे ‘शीरीं
फरहाद’
के लेखक
हकीम लाटा
ने मिलवाया।
‘मुगले
आज़म’
से बाहर
कर दिए
जाने के
बाद उन्होंने
‘बाराती’,
‘महबूबा’,
‘रूख़साना’,
‘ख़ानदान’
और ‘यास्मीन’
जैसी फ़िल्मों
में कुछ
गीत लिखे
थे और
अब वो
मायूस होकर
पाकिस्तान वापस
जाने की
तैयारी में
थे। मैंने
उनसे कहा,
मैं आपका
फ़ैन हूं
और आपको
वापस नहीं
जाने दूंगा,
अब आप
मेरे साथ
काम करेंगे।
फ़िल्म ‘नाता’
तो नहीं
चली लेकिन
उसके गाने
बेहद कामयाब
रहे। 1955
में प्रदर्शित
हुई फ़िल्म
‘नाता’
का निर्माण
मधुबाला ने
किया था
और वो
मेरी बहुत
अच्छी दोस्त
बन गयी
थीं। साल
1960 में
उन्होंने फ़िल्म
‘महलों
के ख़्वाब’
का निर्माण
किया तो
उसके संगीत
की ज़िम्मेदारी
भी मुझे
ही दी।
‘नाता’ के बाद तनवीर नक़वी ने मेरे लिए ‘अल्लादीन का बेटा’, ‘शहज़ादा’ (दोनों 1955), ‘कारवां’, ‘शीरीं