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Tuesday, January 22, 2013

“Teri Duniya Se Door Chale Hoke Majboor” - Mahipal

तेरी दुनिया से दूर चले होके मजबूर-महीपाल  

............शिशिर कृष्ण शर्मा

राजस्थान की धरती अपने क़िलों-महलों और वीरगाथाओं के लिए तो मशहूर है ही, यहां की समृद्ध संस्कृति, कला और गीत-संगीत भी हमेशा से लोगों को आकर्षित करते आए हैं। राजस्थान की कला और गीत-संगीत से हिंदी सिनेमा भी अछूता नहीं रहा और बोलते सिनेमा के शुरूआती दिनों से ही राजस्थानी कलाकार हिंदी सिनेमा का अटूट हिस्सा बन बैठे। खेमचन्द प्रकाश, पंडित इन्द्र, पंडित भरत व्यास, बी.एम.व्यास, पंडित शिवराम, जमाल सेन, बसंत प्रकाश, मुबारक बेगम जैसे बेशुमार राजस्थानी कलाकारों ने सिनेमा के क्षेत्र में भरपूर योगदान दिया। इन्हीं में एक नाम था अभिनेता महीपाल का, जिन्होंने दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर जैसे दिग्गजों के दौर में अपनी एक अलग पहचान बनाई और पौराणिक और फ़ैंटेसी फ़िल्मों के सुपरस्टार का दर्जा हासिल किया।

चर्चगेट के क़रीब, मैरीन ड्राईव स्थित महीपाल के फ़्लैट पर हुई एक मुलाक़ात के दौरान उन्होंने अपनी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं पर खुलकर बातचीत की थी। 24 दिसम्बर 1919 को जोधपुर के एक रईस ओसवाल जैन परिवार में पैदा हुए महीपाल भंडारी महज़ 6 साल के थे कि उनकी मां गुज़र गयीं। पिता का कारोबार कोलकाता में था इसलिए महीपाल का पालन-पोषण पुश्तैनी शहर जोधपुर में अपने दादा की देखरेख में हुआ। चित्रकला और कविता में उनके दादा की गहरी दिलचस्पी थी जिसका असर महीपाल पर भी पड़ा। महीपाल के मुताबिक़ जब वो चौथी क्लास थे तोअभिमन्युनाम की नाटिका में पहली बार मंच पर उतरे थे जिसमें उन्हें मोनोएक्टिंग का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था। आगे चलकर वो स्कूल और कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेने लगे।

महीपाल के मुताबिक़, “भाषा पर मेरी गहरी पकड़ थी, जिसे देखकर कॉलेज में गणित के प्रोफ़ेसर और कवि हरनामदास सेठ ने मुझे प्रोत्साहित किया और मैं उनकी देखरेख में कविता भी लिखने लगा। साल 1937 में उदयपुर में हुए एक कवि-सम्मेलन में मैंने किसान की व्यथा पर अपनी लिखी कविताजो जग को अन्न प्रदान करेपढ़ी तो मंच पर मौजूद प्रख्यात कवि पं.सोहनलाल द्विवेदी ने उठकर मुझे गले लगा लिया। यही कविता साल 1990 में पूर्व न्यायाधीश और तत्कालीन सांसद गुमानमल लोढ़ा ने संसद में पढ़ी और इसे संसद के रेकॉर्ड में शामिल कर लिया गया।


1940 के दशक की शुरूआत में मिनर्वा मूवीटोन के स्थायी संगीतकार जी.पी.कपूर और सोहराब मोदी के सहायक पेसी बिलिमोरिया नए चेहरों की तलाश में जोधपुर आए। फ़िल्म के निर्माता लखनऊ के सेठ आनंदबिहारी लाल खंडेलवाल थे जो जी.पी.कपूर के क़रीबी दोस्त थे। निर्देशन की ज़िम्मेदारी पेसी बिलिमोरिया पर थी। महीपाल के मुताबिक़ जोधपुर में जी.पी.कपूर और पेसी बिलिमोरिया के सामने उम्मीदवारों की भीड़ उमड़ पड़ी। महीपाल के बचपन के दोस्त कैलाश उन्हें साथ लेकर जी.पी.कपूर से मिले, जहां फ़िल्म की मुख्य भूमिका में महीपाल को और एक अन्य भूमिका में कैलाश को चुन लिया गया। कैलाश अभिनेता ओम शिवपुरी के बड़े भाई थे।

महीपाल के मुताबिक़, “उन दिनों मेरा बी..का रिज़ल्ट आया ही था। फ़िल्म कंपनी में मेरा वेतन 125/- रूपए प्रतिमाह तय हुआ, जो उस ज़माने के हिसाब से बहुत बड़ी रक़म थी। मैंने बेहद डरते हुए इस बात की सूचना दादाजी को दी तो उम्मीद के विपरीत उन्होंने सहर्ष मुझे फ़िल्म में काम करने की इजाज़त दे दी। तमाम रिश्तेदारों ने ताने दिए कि भंडारी ख़ानदान के लोग अब तवायफ़ों और भांडों के साथ नाचेंगे-गाएंगे लेकिन दादाजी मेरे पक्ष में डटे रहे। कांट्रेक्ट के तहत हम लोगों ने एक महिना लखनऊ में रहकर रिहर्सल की और फिर पूरी यूनिट शूटिंग के लिए पूना गयी। लेकिन जी.पी.कपूर और पेसी बिलिमोरिया में किसी बात को लेकर अनबन हो गयी और निर्देशन जी.पी.कपूर ने संभाल लिया। नायिका की भूमिका में भी अब स्वर्णलता की जगह भी अभिनेत्री अनुराधा गयी थीं। 

फ़िल्म के एक दृश्य में हज़ारों दिए जलाए गए जिसमें कुल 56 मन तेल लगा। बढ़ते ख़र्चों से परेशान सेठ आनंदबिहारी लाल खंडेलवाल ने जी.पी.कपूर से नाराज़गी ज़ाहिर की तो मैं बीच ही में बोल पड़ा, ‘राधाके लिए नौ मन तेल चाहिए, यहां तो हिरोईनअनुराधाहै। नतीजतन सेठ आनंदबिहारी लाल खंडेलवाल की बंदूक जी.पी.कपूर से हटकर मुझ पर तन गयी।

हिंदी मेंनज़रानाऔर मारवाड़ी मेंनिजराणोके नाम से साल 1942 में प्रदर्शित हुई ये द्विभाषी फ़िल्म फ्लॉप रही। नतीजतन महीपाल की नौकरी छूट गयी और वो मुंबई चले आए। मुंबई में महीपाल के कुछ दिन बेहद तक़लीफ़ में गुज़रे। फिर लेखक पंडित इंद्र के ज़रिए एक रोज़ उनकी मुलाक़ात निर्देशक चतुर्भुज दोषी से हुई, जिन्होंने फ़िल्मशंकर-पार्वतीमें उन्हें कामदेव की भूमिका दे दी।रणजीत मूवीटोनके बैनर में बनी ये फ़िल्म साल 1943 में प्रदर्शित हुई थी और महीपाल को इसके लिए 400 रूपए मेहनताना मिला था। उन्हीं दिनों महीपाल की मुलाक़ात वी.शांताराम से हुई जिन्होंने 100 रूपया महिने के वेतन पर उन्हेंराजकमल कलामंदिरमें नौकरी पर रख लिया।

राजकमलके बैनर में बनी फ़िल्ममाली(1944) में महीपाल ने सिर्फ़विष्णुकी भूमिका की बल्कि उन्होंने इस फिल्म का शीर्षक गीतहम तो भोले-भाले मालीभी लिखा, जिसका संगीत मास्टर कृष्णराव ने तैयार किया था। नौकरी के दौरान उन्होंने कलाकारों को हिंदी का उच्चारण सिखाया, कुछ दिन अभिनेत्री नंदा के पिता मास्टर विनायक के सहायक रहे और राजकमलकी फ़िल्मोंअंधों की दुनिया(1947) औरबनवासी(1948) में नायक की भूमिका की।

उसी दौरान महीपाल नेचन्द्रमा पिक्चर्सके बैनर में बनी फ़िल्मआपकी सेवा में(1947) के लिए 8 गीत भी लिखे। फ़िल्म आपकी सेवा मेंको इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि ये लता मंगेशकर की बतौर पार्श्वगायिका पहली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के लिए महीपाल की लिखी, संगीतकार दत्ता डावजेकर द्वारा संगीतबद्ध और अभिनेत्री रोहिणी भाटे पर फ़िल्माई गयी ठुमरीपा लागूं करजोरी रेलता मंगेशकर का रेकॉर्ड किया पहला हिंदी पार्श्वगीत था।

महीपाल के मुताबिक़, “साढ़े तीन साल तक नौकरी करने के बाद भी वेतन नहीं बढ़ा तो मैंने चुपचाप सोहराब मोदी की कंपनीमिनर्वा मूवीटोनकी दो फ़िल्मेंनरसिंह अवतारऔरदौलतसाईन करकेराजकमल कलामंदिरकी नौकरी छोड़ दी। फ़िल्मदौलतमें मेरी नायिका मधुबाला थीं और ये दोनों ही फ़िल्में साल 1949 में प्रदर्शित हुई थीं। फ़िल्में तो ठीकठाक चलीं लेकिन मैं फिर से बेरोजगार हो गया था। उधर एक साल के अंदर ही दादाजी और पिताजी भी गुज़र गए। मेरी पत्नी जोधपुर में ही रहती थीं, मुंबई में रहने का कोई ठौर-ठिकाना था नहीं इसलिए पत्नी को चाचा की देखरेख में छोड़ा और काम की तलाश में मैं वापस मुंबई चला आया।

अचानक एक रोज़ महीपाल को निर्माता-निर्देशक होमी वाडिया ने बुलाया और अपने बैनरबसंत पिक्चर्सके तहत बनने वाली फ़िल्मगणेश महिमामें कृष्ण की भूमिका में साईन कर लिया। इस फ़िल्म की नायिका मीना कुमारी थीं। साल 1950 में प्रदर्शित हुई ये फ़िल्म जुबली हिट हुई और महीपाल को पौराणिक फिल्मों के स्टार का दर्जा हासिल हो गया। मीना कुमारी और महीपाल की जोड़ी की, ‘बसंत पिक्चर्सके बैनर में बनीं फिल्मेंहनुमान पाताल विजय’, ‘लक्ष्मीनारायण(दोनों साल 1951) औरअलादीन और जादुई चिराग़(1952) भी ज़बर्दस्त हिट रहीं और महीपाल पौराणिक के साथ-साथ फ़ैंटेसी फ़िल्मों में भी व्यस्त हो गए।

महीपाल के मुताबिक़, “कम्बोडिया, जावा-सुमात्रा जैसे पूर्वी एशियाई देशों में मेरी पौराणिक, तो मध्य-पूर्व और खाड़ी के देशों में फ़ैंटेसी फ़िल्में बेहद चाव से देखी जाने लगीं। एक रोज़ मुझे वी.शांताराम जी ने बुलाया, अगली फ़िल्म की कहानी सुनाई और पूछा, ‘मुख्य भूमिका करने का क्या लोगे’? मैंने कहा, ‘मेरे करियर को सही दिशा आपने ही दी, ऐसे में मैं कैसे आपसे कुछ मांग सकता हूं, बस सवा रूपया और एक नारियल दे दीजिए वो फ़िल्मनवरंग(1959) एक साल में बनकर तैयार हुई और हिंदी सिनेमा के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अपना नाम दर्ज करा गयी।” 

महीपाल के मुताबिक़, क़रीब 4 दशकों के अपने करियर के दौरान उन्होंने कुल 130 फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें से 108 फ़िल्मों में वो नायक थे। ज़्यादातर पौराणिक फ़िल्मों में उनकी नायिका मीना कुमारी, अनीता गुहा या निरूपा राय हुआ करती थीं तो फ़ैंटेसी फ़िल्मों में शकीला, चित्रा या श्यामा। 1960 के दशक के मध्य तक उनका करियर बुलंदियों पर रहा। लेकिन 1970 का दशक आते आते पौराणिक और फ़ैंटेसी फ़िल्मों में दर्शकों की दिलचस्पी कम होने लगी। ऐसे में बजाय छोटी-मोटी भूमिकाएं करने के महीपाल ने अभिनय से सन्यास ले लेना बेहतर समझा।गंगासागर(1978) औरबद्रीनाथधाम(1980) उनकी आख़िरी फ़िल्मों में से थीं।

महीपाल की दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी। रिटायरमेंट के बाद महीपाल अपना वक़्त लिखने-पढ़ने में गुज़ारते थे। पैदल चलने का उन्हें बेहद शौक़ था और हर रोज़ वो क़रीब 8-10 किलोमीटर पैदल चलते थे। यही वजह है कि शारीरिक और मानसिक तौर पर वो आख़िरी समय तक स्वस्थ और सजग बने रहे। 15 मई 2005 की सुबह 9 बजे जब 86 साल की उम्र में अचानक ही महीपाल का निधन हुआ तो वो सुबह की सैर से घर वापस लौटे ही थे।

महीपाल को गुज़रे हुए 8 साल होने जा रहे हैं। लेकिन हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर के दर्शकों के ज़हन में उनकी यादें आज भी ताज़ा हैं और हमेशा ताज़ा बनी रहेंगी।  

We are thankful to –

Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. Sanjeev Tanwar for providing Chaturbhuj Doshi’s picture. 

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Ms. Maithri Manthan for the English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.


Actor Mahipal on YT Channel BHD

Teri Duniya Se Door Chale Hoke Majboor” - Mahipal

              …….Shishir Krishna Sharma

Apart from being famous for its forts-n-palaces and stories of great heroism-n-valor, the land of Rajasthan also attracts people for its rich cultural heritage. Hindi Cinema too has not remained untouched by its culturally rich art and music. Since the advent of talkies, artists from Rajasthan have been an integral part of Hindi Cinema. Artists like Khem Chand Prakash, Pandit Indra, Pandit Bharat Vyas, B.M.Vyas, Pandit Shivram, Jamal Sen, Basant Prakash, Mubarak Begum and many others have given immense contribution in the field of cinema. Among these was an actor named Mahipal, who created an identity of his own in the era of giants like Dilip Kumar, Raj Kapoor & Dev Anand and became a super star in mythological and fantasy films.

During our meeting at his Marine Drive residence, Mahipal openly discussed about various aspects of his life. Mahipal Bhandari was born in a rich Oswal Jain household on 24th December 1919 in Jodhpur. He was just six years old when his mother died. Since his Father's business was based in Kolkata, Mahipal was raised by his grandfather in their native city, Jodhpur. His grandfather had keen interest in painting and poetry; this influenced young Mahipal to a great extent. According to Mahipal, he first faced the stage when he was in his 4th grade. He had participated in a play called 'Abhimanyu' and won the best actor for mono acting. Later he actively participated in his school and collage cultural programs.

Mahipal said “My Mathematics Professor and Poet Harnam Dass Seth, observed my good hold over the language. He encouraged me and under his guidance I started writing poems. In 1937, I attended a Kavi Sammelan held in Udaypur. When I read my poem ‘Jo Jag Ko Ann Pradan Kare’ written about the plight of farmers, Poet Pandit Sohanlal Dwivedi, who was present on stage hugged me in appreciation. In 1990, the same poem was read by Judge and then MP Gumanmal Lodha in the Parliament and has been included in the Parliamentary Records.”

In the beginning of 1940s, G.P.Kapoor, music director for Minerva Movietone and Sohrab Modi’s assistant Pasy Billimoria came to Jodhpur looking for new faces. The film’s producer Seth Anand Bihari Lal Khandelwal hailing from Lucknow was a close friend of G.P.Kapoor while Pasy Billimoria was the director. Mahipal recalled that a huge crowd had turned out in front of G.P.Kapoor and Pasy Billimoria for auditions. Mahipal’s childhood friend, Kailash took him to meet G.P.Kapoor, where Mahipal was chosen for the leading role while Kailash was chosen for a supporting role. Kailash was the elder brother of actor Om Shivpuri.

Mahipal said, “In those days my BA result was just out. I was appointed by the film company at a monthly salary of Rs 125/-, which was a hefty amount then. I was very apprehensive when I informed my grandfather about the same but to my surprise, he happily gave me permission to work in the film. All our relatives we against the idea of someone from the Bhandari clan singing and dancing onscreen but my grandfather was by my side. As per contract we first went to Lucknow where we rehearsed for a month and then the entire film unit reached Pune for the shoot. But due to some misunderstanding between G.P.Kapoor and Pasy Billimoria, G.P.Kapoor took the charge of direction. Even the leading lady was changed and now Anuradha stepped in the place of Swarnlata.

For one of the scenes thousands of lamps were lit and total 56 ‘manns’ of oil was burnt. Due to the increasing budget producer Seth Anand Bihari Lal Khandelwal was conveying his displeasure to G.P.Kapoor. I unnecessarily jumped in between and said, ‘Radha required 9 ‘manns’ of oil but here the heroine is ‘Anuradha’ (reference: Hindi saying – na nau mann tel hoga na Radha nachegi).  As a result Seth Anand Bihari Lal Khandelwal’s focus shifted from G.P.Kapoor to me and I had to face his wrath.”

This bilingual, released as ‘Nazrana’ in Hindi and ‘Nijrano’ in Marwadi in 1942 was a flop. As a result, Mahipal lost his job. He then decided to move to Mumbai. Mahipal faced difficult times on reaching Mumbai. Then one day he met director Chaturbhuj Doshi through writer Pandit Indra who gave him the role of Kamdev in his film ‘Shankar Parvati’. This film made under the banner of ‘Ranjit Movietone’ was released in 1943. Mahipal was paid Rs 400/- for this role. Around the same time Mahipal met V.Shantaram who gave him a job in Rajkamal Kalamandir’ at a monthly salary of Rs. 100/-.

In the film ‘Maali’ (1944) produced by ‘Rajkamal Kalamandir’, Mahipal not only played the part of Lord Vishnu but also wrote the title song ‘hum to bhole bhaale maali’ which was composed by Master Krishna Rao. During his tenure in ‘Rajkamal Kalamandir’ he helped other actors with their Hindi Diction, worked as an assistance to actress Nanda’s father Master Vinayak and played the leading man in ‘Andhon Ki Duniya’ (1947) and ‘Banwasi’ (1948).

Around the same time Mahipal wrote eight songs for ‘Aapki Sewa Me’ (1947) made under the banner of ‘Chandrama Pictures’. The film ‘Aapki Sewa Me’ is also remembered for being Lata Mangeshkar’s first Hindi film as a playback singer. The Thumri ‘Paa Lagoon Kar Jori Re’, written by Mahipal, composed by Datta Dawjekar and picturized on actress Rohini Bhate was Lata Mangeshkar’s first Hindi playback song.

Mahipal said “When my salary did not increase even after working in the company for three and half years, I went ahead and signed two films ‘Nrisinh Awtar’ and ‘Daulat’ made under Sohrab Modi’ banner ‘Minerva Movietone’ and quit my job in ‘Rajkamal Kalamandir’. Madhubala was my leading lady in ‘Daulat’ and both these films were released in 1949. The films did average business, but I left unemployed again. On the other side both my grandfather and father passed away within a year. My wife was staying in Jodhpur and it was not possible to bring her to Mumbai then, so I left her in the custody of my Uncle and came back to Mumbai to find work.”

Suddenly one day producer-director Homi Wadia called Mahipal and signed him for the role of Lord Krishna in his next film 'Ganesh Mahima' to be produced under his banner 'Basant Pictures'. Meena Kumari was the leading lady. This film released in 1950 was a jubilee hit and helped Mahipal achieve star status in mythological films. The onscreen pair of Mahipal and Meena Kumari gave big hits like 'Hanuman Patal Vijay', 'Laxmi Narayan' (both 1951) and 'Aladin Aur Jadui Chiraag' (1952) made under the banner of 'Basant Pictures'. Thus, apart from mythological, Mahipal got busy with fantasy films as well.

Mahipal said, “My mythological films in East-Asian Countries like Cambodia, Java-Sumatra and my fantasy films in Middle-East and Gulf countries were highly appreciated. One day V. Shantaram called me, narrated the story of his next film and asked me ‘how much will you charge to play the leading role?’ I said, ‘You the one who gave my career the right direction, what more can I ask for, just give 1 Rupee, 25 Paise and a coconut.’ That film was ‘Navrang’ (1959) which was in the making for a year and has left a permanent mark in the history of Hindi Cinema.”

According to Mahipal, in a career spanning almost four decades he had participated in 130 films and among them in 108 films he played the leading man. In mythological films usually his leading ladies were Meena Kumari, Anita Guha or Nirupa Roy while in fantasy films he usually co-starred with Shakila, Chitra or Shyama. His career was at its peak in the mid-1960s. With passage of time towards the end of 1970s, viewers started losing interest in mythological and fantasy films. In such times Mahipal preferred to retire from acting rather than doing small insignificant roles. ‘Ganga Sagar’ (1978) and ‘Badrinath Dham’ (1980) were among his last films.

By then both his daughters were married. He lived with his wife at his Marine Drive flat. Post retirement Mahipal mostly spent his time in reading and writing. He was extremely fond of going for long walks and would almost cover 8-10 Kilometers every day. That's why he remained physically and mentally fit till the end. On 15th May 2005, Mahipal had returned from his morning walk when he suddenly died at the age of 86.

It’s almost 8 years since Mahipal passed away but his memories are still fresh among the viewers of the golden age of Hindi Cinema.