“ऐ ग़मे दिल क्या करूं” – सरदार मलिक
...........शिशिर कृष्ण शर्मा
हिंदी सिनेमा के इतिहास में ग़ुलाम मुहम्मद, हंसराज बहल, स्नेहल भाटकर, एस.मोहिंदर, अजीत मर्चेंट, रामलाल, जयदेव, इक़बाल क़ुरैशी, दान सिंह और जी.एस.कोहली जैसे कई गुणी संगीतकार हुए जिन्होंने मौक़ा मिलते ही बेहद सुरीली धुनें बनाकर सुनने वालों का दिल तो ज़रूर जीता, लेकिन अफ़सोस कि उनके करियर का ग्राफ़ उन ऊंचाईयों तक नहीं पहुंच पाया जिसके वो हक़दार थे। इसकी वजह शायद यही थी कि उन्हें ख़ुद को बेचना नहीं आता था। ऐसी ही तमाम हस्तियों के बीच एक संगीतकार ऐसे भी हुए जिनका करियर उड़ान भरते ही हिंदी फ़िल्म संगीत के दो दिग्गजों के अहंकार की लड़ाई का शिकार होकर ज़मीन पर आ गिरा था।
वो बेहद गुणी लेकिन बदनसीब संगीतकार थे सरदार मलिक, जिनसे मेरी मुलाक़ात अप्रैल 2004 के तीसरे हफ़्ते में मुंबई के जुहूतारा रोड की नॉर्थ बॉम्बे सोसायटी के उनके फ़्लैट पर हुई थी। हिंदी साप्ताहिक ‘सहारा समय’ के कॉलम ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ लिए किए गए उस इंटरव्यू के दौरान उन्होंने अपनी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं पर खुलकर बातचीत की थी।
13 जनवरी 1930 को कपूरथला-पंजाब में जन्मे सरदार मलिक के पिता पेंटिंग के ठेके लेते थे और उनकी मां लाहौर के एक अमीर ज़मींदार परिवार से थीं जो भाटी राजपूत कहलाते थे। सरदार मलिक के मुताबिक़ ‘मलिक’ उपनाम उन्हें ननिहाल की तरफ़ से मिला था। बचपन से ही उनकी दिलचस्पी संगीत में थी। उन्होंने अपने एक दोस्त ‘प्रकाश’ से हॉरमोनियम बजाना और गाना सीखा था और महज़ 7 साल की उम्र में वो कपूरथला महाराज के दरबारियों के बच्चों को भी सिखाने लगे थे। सरदार मलिक के मुताबिक़ उस वक़्त उन्हें हर घर से 5 रूपया महिना फ़ीस मिलती थी।
1930 के दशक के आख़िरी सालों में बिजली आयी तो सरदार मलिक के पिता ने घरों में बिजली के तार बिछाने के ठेके लेने शुरू किए। उनके मुताबिक़, ‘मैं रोज़ दोपहर पिता का खाना लेकर जाता था। इसी सिलसिले में एक रोज़ मैं कपूरथला की नामी तवायफ़ ‘मुबारक़’ के घर गया जहां मुझे उसका गाना ‘जिया मेरा लहराए छा रही काली घटा’ सुनने का मौक़ा मिला। वो गीत मुझे इतना पसंद आया कि मैंने शास्त्रीय संगीत सीखने की ठान ली। घर में सभी लोग मेरे इस शौक के ख़िलाफ़ थे इसलिए एक रोज़ मैंने चुपचाप घर छोड़ा और पैदल ही लाहौर के लिए निकल पड़ा।‘ दरअसल मुबारक के घर पर सरदार मलिक की मुलाक़ात उसके एक चाहने वाले से हुई थी जो लाहौर का रहने वाला था और पेशे से बैरिस्टर था।
सरदार मलिक के मुताबिक़, ‘उसने मुझे अपना पता देकर कहा था कि कभी भी कोई ज़रूरत हो तो मैं उससे आकर मिल लूं। सर्दियों का मौसम था और तीन रातें मैंने रास्ते में पड़ने वाली मस्जिदों में दरिएं ओढ़कर गुज़ारी थीं। बहुत उम्मीदों के साथ लाहौर पहुंचकर बैरिस्टर साहब से मिला लेकिन उन्होंने दुत्कार कर भगा दिया। उन्हीं मुश्किल हालात में मस्जिदों में रूकता हुआ वापस कपूरथला पहुंचा और मेरे इस शौक़ के आगे हार मान चुके घरवालों की इजाज़त से तबलची मुबारक अली के पास बैठने लगा। और तभी मेरी नज़र अख़बार में छपे एक विज्ञापन पर पड़ी तो मुझे एक नया रास्ता नज़र आ गया।‘
अख़बार में छपा वो विज्ञापन मशहूर बैले-नर्तक उदयशंकर द्वारा अल्मोड़ा में स्थापित ‘इंडियन कल्चरल सेंटर’ का था। लेकिन वहां का ख़र्चा उठा पाना सरदार मलिक के लिए मुमक़िन नहीं था। ऐसे में कपूरथला महाराज के पी.ए. शिवकुमार सरदार मलिक की मदद के लिए आगे आए। उनकी 17 साल की बेटी सरदार मलिक की शागिर्द थी। शिवकुमार की सिफ़ारिश पर महाराजा ने अपने ख़र्चे पर सरदार मलिक का दाख़िला ‘इंडियन कल्चरल सेंटर’ में करा दिया।
सरदार मलिक के मुताबिक़, ‘5 साल के कोर्स के दौरान मैंने सुमित्रानंदन पंत से कविता, उदयशंकर से बैले, शंकरन नंबूदिरी से कथाकली, पिल्लै गुरूजी से भरतनाट्यम, जोहरा सहगल से योगाभ्यास, अमोबी सिंह से मणिपुरी नृत्य, और विष्णुदास शिराली से संगीत सीखा और कार्यक्रमों के सिलसिले में देशभर में घूमा।
उस्ताद अलाउद्दीन ख़ां साहब को देखदेखकर भी मैंने काफ़ी कुछ सीखा। विजयलक्ष्मी पंडित की बेटियां रीटा और तारा, लाहौर के नामी सेठ सर गंगाराम की पोतियां लाज और शांता, गुरूदत्त, मोहन सहगल वगैरह वहां पर मेरे साथ पढ़ते थे।‘
उन्हीं दिनों एक कार्यक्रम के सिलसिले में उदयशंकर का बैलेग्रुप मुंबई आया जहां सरदार मलिक का गाना ‘बीते हुए पल कुछ ऐसे हैं’ सुनकर निर्देशक रमेश सहगल और निर्माता जयंत देसाई ने उनके सामने फ़िल्म ‘रेणुका’ का संगीत निर्देशन करने का प्रस्ताव रखा। लेकिन कार्यक्रमों की व्यस्तता की वजह से सरदार मलिक को वो प्रस्ताव ठुकराना पड़ा। लेकिन कुछ ही दिनों बाद अहमदाबाद में आर्थिक वजहों से ग्रुप टूट गया तो सरदार मलिक और मोहन सहगल डांस डायरेक्टर बनने की हसरत लिए मुंबई चले आए। ये सन 1945 का वाक़या है और सरदार मलिक की उम्र उस वक़्त 15 साल थी।
सरदार मलिक के मुताबिक़, ‘मुंबई पहुंचते ही हमें बिना कोशिश किए नानाभाई भट्ट की फ़िल्म ’40 करोड़’ मिल गयी। लेकिन कुछ वजहों से हमें डांस डायरेक्शन का इरादा छोड़ देना पड़ा। मोहन सहगल आगे चलकर बहुत बड़े निर्देशक बने और मैंने संगीतनिर्देशक बनने का फ़ैसला कर लिया। रमेश सहगल और जयंत देसाई ने मेरे इस फ़ैसले का स्वागत करते हुए मुझे फ़िल्म ‘रेणुका’ के संगीत निर्देशन की ज़िम्मेदारी दे दी। साल 1947 में बनी इस फ़िल्म में क़मर जलालाबादी के लिखे बारह गीतों में से मैंने 2 सोलो और जोहराबाई के साथ मिलकर 2 डुएट भी गाए थे। लेकिन उन्हीं दिनों प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘जुगनू’ का गीत ‘यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है’ सुना तो रफ़ी की आवाज के सामने मेरा गाने का जोश ठंडा पड़ गया। हालांकि अपनी अगली फ़िल्म ‘राज़’ (1949) में भी मैंने 4 गीत गाए थे इसके बावजूद मेरा अपना पूरा ध्यान अब संगीतनिर्देशन में था।‘
सरदार मलिक ने अपने 30 साल के करियर के दौरान ‘रेणुका’ और ‘राज़’ सहित कुल 24 हिंदी फ़िल्मों ‘स्टेज’ (1951 / सह संगीतकार – हुस्नलाल भगतराम), ‘लैला मजनूं’ (1953 / सह संगीतकार – ग़ुलाम मोहम्मद), ‘ठोकर’ (1953), ‘औलाद’, ‘चोर बाज़ार’ (दोनों 1954), ‘आबे हयात’ (1955), ‘चमक चांदनी’ (1957), टैक्सी-555 (1958), ‘मां के आंसू’ (1959), ‘मेरा घर मेरे बच्चे’, ‘सारंगा’, ‘सुपरमैन’ (सभी 1960), ‘मदन मंजरी’ (1961), ‘पिक पॉकेट’ (1962), ‘बचपन’, नाग ज्योति’, ‘नाग मोहिनी’ (सभी 1963), ‘जंतर मंतर’, ‘महारानी पद्मिनी’, ‘रूपसुंदरी’ (सभी 1964), ‘पंचरत्न’ (1965) और ‘ज्ञानीजी’ और एक पंजाबी फ़िल्म ‘सतश्रीअकाल’ (दोनों 1977 / सह संगीतकार – प्रेमनाथ) में संगीत दिया।
यों तो ‘देख ली ऐ इश्क़ तेरी मेहरबानी’ (लैला मजनूं), ‘ऐ ग़मे दिल क्या करूं’ (ठोकर), ‘चंदा से प्यारे राजदुलारे’ (औलाद), ‘मैं गरीबों का दिल हूं’ (आबे हयात), ‘किसी से आंख लड़ी’ (मां के आंसू) और ‘बहारों से पूछो’ (मेरा घर मेरे बच्चे) जैसे उनके तमाम गाने बेहद हिट हुए लेकिन फ़िल्म ‘सारंगा’ के गीतों की बेतहाशा लोकप्रियता ने उनके करियर को एकदम से नई ऊंचाईयों पर पहुंचा दिया। लेकिन फिर अचानक ही उनका करियर दो दिग्गजों के अहंकार की लड़ाई का शिकार हो गया।
(सरदार मलिक की शर्त थी कि वो अपने दौर की महानतम गायिका के बारे में कोई बात नहीं करेंगे, जिसे मानने के अलावा मेरे पास कोई और रास्ता ही नहीं था। साफ़तौर से उनका इशारा लता मंगेशकर की तरफ़ था। और जैसा कि उस दौर के सिनेमा से जुड़े कई लोगों से मैं पहले भी सुन चुका था और आज भी कभीकभार ये बात सुनने को मिल ही जाती है, वो झगड़ा लता मंगेशकर और साहिर लुधियानवी के बीच का था।
जैसा कि लोग बताते हैं, सरदार मलिक की किसी रेकॉर्डिंग के दौरान लता ने साहिर को गीत की कोई पंक्ति या शब्द बदलने की सलाह दी। साहिर, जो बेहद मुंहफट थे, तुरंत बोल पड़े, ‘ये काम पढ़ेलिखों का होता है’। इस बात पर नाराज़ होकर लता रेकॉर्डिंग छोड़कर चली गयीं। साहिर का तो वो कुछ नहीं बिगाड़ सकीं लेकिन जैसा कि जानकार लोग बताते हैं, लता का सारा ग़ुस्सा सरदार मलिक पर टूटा, और वो इसलिए कि सरदार मलिक ने साहिर की बात का विरोध क्यों नहीं किया।)
बातचीत के दौरान जब सरदार मलिक थोड़ा खुले तो उन्होंने बिना किसी का नाम लिए इतना ज़रूर कहा कि - ‘सारंगा की कामयाबी के बाद मेरा अच्छा समय आया ही था कि बड़े लोगों की लड़ाई में मैं बिना किसी ग़लती के पिस गया। मेरे नाम से ही रेकॉर्डिंग रूम्स की बुकिंग मिलनी बंद हो गयी। नतीजतन हाथ आयी फ़िल्में भी चली गयीं। बच्चों की पढ़ाई और घर के खर्चों के चलते एक एक करके पत्नी के ज़ेवर और मक़ान सब बिकते चले गए।
उन्हीं दिनों निर्माता विनोद देसाई की फ़िल्म ‘नागनंदिनी’ के लिए मैंने मुकेश की आवाज़ में एक गीत ‘चंदन सा बदन चेहरा ग़ुलाब’ रेकॉर्ड कराया था। गीत फ़िल्माया भी जा चुका था कि वो फ़िल्म बीच ही में बंद हो गयी। फिर अचानक एक रोज़ पता चला मेरी वो धुन फ़िल्म ‘सरस्वतीचंद्र’ में हूबहू इस्तेमाल कर ली गयी। अनजान के लिखे बोलों में भी थोड़ी-बहुत हेरफेर कराकर नया गीत ‘चंदन सा बदन चंचल चितवन’ लिखाया जा चुका था। शिकायत करने के बावजूद हमारी एसोसिएशन ने भी मेरी शिकायत को लेकर कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई।‘
उस बुरे वक़्त में सरदार मलिक को अपनी पत्नी के भाई ‘हसरत जयपुरी’ और शायर ‘जोश मलीहाबादी’ के अलावा अपने गुरू विष्णुदास शिराली का भरपूर सहयोग मिला। आज उनके दो बेटे अन्नू मलिक और डब्बू मलिक जानेमाने संगीतकार हैं और तीसरा अबू मलिक देश-विदेश में शोज़ का एक बड़ा आयोजक है।
सरदार मलिक का निधन 76 साल की उम्र में, 27 जनवरी 2006 को जुहू-मुंबई के आरोग्यनिधि अस्पताल में हुआ।
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Akhsher Apoorva for the English translation of the write up.
Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Sardar Malik on YT Channel BHD
“Aye Ghame Dil Kya Karoon” – Sardar Malik
..............Shishir Krishna Sharma
The history of Indian cinema can boast of many gifted composers like Ghulam Mohammad, Hansraj Behl, Snehal Bhatkar, S.Mohindar, Ajeet Merchant, Ramlal, Jaidev, Iqbal Qureshi, Dan Singh and G.S.Kohli who grabbed every given opportunity to compose melodious tunes that won over the hearts of their audiences but alas this could not catapult their career graphs to the zenith they so deserved. The reason probably being, that, they didn’t know how to market themselves. Among such celebrities was a composer whose career was shot down before it could take flight because of ego clashes of two bigwigs of the Hindi film music. This extremely talented but unfortunate composer was Sardar Malik, who I met during the third week of April 2004 in Mumbai at his Juhu Tara Road’s North Bombay Society flat. During this interview, taken for Hindi Weekly ‘Sahara Samay’’s column ‘kya bhooloon kya yaad karoon’, he spoke very uninhibitedly about various aspects of his life.
Born on 13th January 1930 in Kapurthala-Panjab, Sardar Malik’s father used to undertake painting contracts and his mother hailed from a rich seigneur family of Lahore who were called the Bhati Rajputs. According to Sardar Malik, his pseudonym ‘Malik’ comes from the maternal side of his family. He was fond of music since early childhood. His friend ‘Prakash’ had taught him to pay the harmonium and to sing and at the very tender age of 7 he had started tutoring children of courtiers of the Kapurthala Maharaj’s court. As per Sardar Malik, he used to get a fee of Rs. 5 per month from every house he taught at.
When electricity came in the last years of the 1930’s decade, Sardar Malik’s father took on contracts of laying electricity cables in people’s houses. According to him, “Every afternoon, I used to bring lunch for my father. And it so happened that once I had to go to the house of Kapurthala’s famous harlot ‘Mubarak’ and there I heard her singing the song ‘jiya mera lehraye chhaai kaali ghata’. I liked that song so much that I decided to learn classical music. Everyone at home was dead against my decision and hence one day, very quietly, I left home and went afoot to Lahore.”
In fact, at Mubarak’s house, Sardar Malik had met a patron of Mubarak who lived in Lahore and was a barrister by profession. As per Sardar Malik, “he had given me his address and had told me that if I am ever in need of anything, I should come and meet him. It was winter and I spent three cold nights, covering myself under carpets, at the masjids that were along the way to Lahore. On reaching Lahore, with a lot of hope, I met barrister sahib, but he immediately spurned me away. Once again facing the same difficult conditions, I made my way back to Karurthala, camping at Masjid’s along the way and on reaching home found that my family had given in to my demands and now with their permissions I started sitting with table player Mubarak Ali. And then I saw an ad that was in the newspapers and suddenly I could see a new prospect opening up for me.”
That ad published in the newspaper was by the famous ballet-dancer Uday Shankar for the ‘Indian Cultural Centre’ situated in Almora. But it was not possible for Sardar Malik to bear all the expenses. At such a time, Kapurthala Maharaja’s P.A. Shiv Kumar came forward to help Sardar Malik. His 17-year-old daughter was Sardar Malik’s apprentice. On Shiv Kumar’s recommendation, the Maharaja bore all the expenses and Sardar Malik was enrolled in the ‘Indian Cultural Centre’.
According to Sardar Malik, “During the 5 year course, I learned poetry from Sumitra Nandan Pant, ballet from Uday Shankar, Kathakali from Shankaran Namboodiri, Bharat Natyam from Pillai Guruji, yoga from Johra Sehgal, Manipuri Dance from Amobi Singh and music from Vishnudas Shirali and also travelled all over the country for programs. I learned a lot from observing Ustad Alauddin Khan. Vijaylaxmi Pandit’s daughters Reeta and Tara, Laaj and Shanta - Granddaughters of the famous Lahore merchant Sir Gangaram, Guru Dutt, Mohan Sehgal etc were my classmates.
During those days Uday Shankar’s ballet group came to Mumbai for a program where Director Ramesh Sehgal and producer Jayant Desai heard Sardar Malik’s song ‘beete hue pal kuchh aise hain’ and they presented him with the offer of composing for the film ‘Renuka’. But due to his already packed schedule of program, Sardar Malik had to decline the offer. But in the coming days, due to monetary reasons, the group broke apart in Ahmedabad and filled with dreams of becoming a dance-director; Sardar Malik and Mohan Sehgal came to Mumbai. This incident is of 1945 and at that time Sardar Malik was just 15 years old.
According to Sardar Malik, “As soon as we reached mumbai, without too much effort, we immediately got Nanabhai Bhatt’s film ‘40 Karod’. But due to some reasons; we had to drop the idea of dance direction. Later, Mohan Sehgal became a very big director and I decided to become a music director. Ramesh Sehgal and Jayant Desai welcomed this decision and gave me the responsibility of providing music direction to the film ‘Renuka’. Made in 1947 and lyricized by Qamar jalalabadi, of the 12 songs, I sung 2 solos and 2 duets with Zohra Bai. But when I heard the song, ‘yahan badla wafa ka bewafaai ke siva kya hai’, from the then recently released film ‘Jugnu’; I thought that I fell short in comparison to Rafi’s voice. Although I sang 4 songs in my next film ‘Raaz’ (1949), now my full attention was towards music direction.
In a career spanning 30 years, along with films ‘Renuka’ and ‘Raaz’, Sardar Malik has given music to 24 Hindi films viz., ‘Stage’ (1951 / co-composer – Husnlal Bhagatram), ‘Laila Majnu’ (1953 / co-composer – Ghulam Mohammad), ‘Thokar’ (1953), ‘Aulaad’, ‘Chor Bazar’ (both 1954), ‘Aab-e-Hayat’ (1955), ‘Chmak Chandni’ (1957), ‘Taxi-555’ (1958), ‘Maa ke Ansoo’ (1959), ‘Mera Ghar Mere Bachche’, ‘Saranga’, ‘Superman’ (all 1960), ‘Madan Manjari’ (1961), ‘Pick Pocket’ (1962), ‘Bachpan’, ‘Naag Jyoti’, ‘Naag Mohini’ (all 1963), ‘Jantar Mantar’, ‘Maharani Padmini’, ‘Roop Sundari’ (all 1964), ‘Panchratna’ (1965) and ‘Gyaniji’ and one Panjabi movie ‘Sat Shri Akal’ (both 1977 / co-composer – Prem Nath). Whereas his songs like ‘dekh li aye ishq teri meharbaani’ (Laila Majnu), ‘aye ghame dil kya karoon’ (Thokar), ‘chanda se pyare rajdulaare’ (Aulaad), ‘mai ghareebon ka dil hoon’ (Aab-e-Hayat), ‘kisi se aankh ladi’ (Maa ke Ansoo) and ‘bahaaron se poochho’ (Mera Ghar Mere Bachche) were complete hits, it were the songs of the movie ‘Saranga’ which had become so popular that his career instantly took off towards newer heights. And just as suddenly, his career was crushed between the egos of two bigwigs of the industry.
(Sardar Malik’s condition for our interview was that he won’t discuss the heavy weight singer of his era, and I had no choice but to oblige to this condition. Very clearly his reference was towards Lata Mangeshkar. And like I had heard before from people associated to that era and still do hear this from many till date is that, that clash had occurred between Lata Mangeshkar and Sahir Ludhiyanvi. As hearsay goes, during a Sardar Malik recording, Lata advised Sahir to change some lines (or maybe a word) of some song. Sahir, who was very blunt, immediately retorted, “Leave such things to educated people”. Lata got upset at this and left the recording midway. She couldn’t touch Sahir’s reputation but, the insiders say, Lata unleashed her rage on Sardar Malik reasoning that why hadn’t Sardar Malik stood up to Sahir.)
Once Sardar Malik got a little comfortable during our conversation, he did say, without taking any names that, “After ‘Saranga’s’ success my good time had just started that I was dragged in a fight that was between two well established people of the time and that too for no fault of mine. On hearing my name people refused to give me bookings for recording rooms. As a result, I lost the films that were in my hand. One by one I had to sell off my wife’s jewelry and later my home to sustain my children’s education and household expenses. In those days I had recorded a song ‘chandan sa badan chehra ghulaab’ in Mukesh’s voice for producer Vinod Desai’s film ‘Naag Nandini’. The song had been picturised as well and just like that the film was stopped midway. Then suddenly one day I came to know that the same tune had been used in the film ‘Saraswati chandra’. Even a few words that were originally written by Anjaan were changed here and there and the song ‘chandan sa badan chanchal chitvan’ had been readied. Even after filing a complaint, our association was least interested in doing anything about it.”
During this downward spiral, Sardar Malik received some support from his wife’s brother ‘Hasrat Jaipuri’ and from Shayar ‘Josh Malihabadi’, even his guru Vishnudas Shirali supported him as well. Today his two sons Anu Malik and Dabboo Malik are well known music directors and his third son; Abu Malik is a big name in organizing national and international shows.
Sardar Malik died aged 76 on 27th January 2006 at Juhu-Mumbai’s Arogyanidhi Hospital.
Sardar Malik ka swarbaddhya kiya hua film Bachpan ka geet, "Mujhe Tumse Mohabbat Hai..." mere favourite geeton mein se ek hai. Kabhi-Kabhi to is filmi duniya ke 'Hijdepan' se jee bahut jalta hai. Hijde bhi prativaad kar dete hain...lekin Shayad filmi duniyan, Swaarthee logon ki ek bastee hai, jahaan har ghar doosre ghar ko jalta hua dekhta rahta hai. Warna Lata ne na jaane kitne pratibhaaon ka khoon kiya hai. Husnlal-Bhagatram bhi unke kayee shikaaron me se hain. Khair, Sardar Malik sahab ka naam dekh kar main is lekh ko padhne ka lobh naheen rok paaya. Sundar lekh likhne ke liye aur iske maadhyam se bhoole-bisre logon ko yaad karne ke liye aap aur aapki team ke sadasya badhaai ke paatra hain.
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