“दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया”- उमादेवी (टुनटुन)
................शिशिर कृष्ण शर्मा
हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में पहला कदम उन्होंने एक गायिका के रूप में रखा था। उनके पहले ही गीत ने क़ामयाबी की तमाम बुलन्दियां पार कीं। लेकिन बामुश्क़िल 40-45 गीत गाने के बाद घरेलू वजहों से उन्हें फिल्मोद्योग से अलग हो जाना पड़ा। फिर कुछ ही समय बाद पैसे की मजबूरी उन्हें वापस इस चमक-दमक भरी दुनिया में खींच लाई। लेकिन तब तक प्लेबैक के क्षेत्र का दृश्य इतना बदल चुका था कि उन्हें बतौर गायिका काम मिलना आसान नहीं रह गया था। मजबूरन उन्हें पैसा कमाने के लिए कैमरे के सामने आना पड़ा। ये था मुक़द्दर का खेल ! अभिनेत्री टुनटुन बनकर उन्होंने जो लोकप्रियता हासिल की वैसी लोकप्रियता गायिका उमादेवी के तौर पर उन्हें शायद ही कभी मिल पाती। पचास और साठ के दशक की हिन्दी फिल्मों के दर्शक गवाह हैं इस बात के कि टुनटुन वो एकमात्र महिला कॉमेडियन थीं जिनके परदे पर आने मात्र से सिनेमाहॉल में ठहाके गूंजने लगते थे। उनकी लोकप्रियता का आलम कुछ ऐसा था कि उस दौर में वो हर दूसरी-तीसरी फिल्म में नज़र आती थीं, भले ही उनकी भूमिका नगण्य सी और एक-दो दृश्यों की ही क्यों न हो। अक्सर कहा जाता है कि कोई ज़रूरी नहीं कि एक अभिनेता की परदे पर नज़र आने वाली इमेज उसकी असल ज़िंदगी से मेल खाए। काफी हद तक ये बात सच भी है। लेकिन टुनटुन इसकी अपवाद थीं। वो असल ज़िन्दगी में भी उतनी ही मस्तमौला और हंसने-हंसाने वाली महिला थीं जितनी कि फिल्म के परदे पर नज़र आती थीं। लेकिन ये उनकी शख़्सियत का सिर्फ एक पहलू था।
मेरी पीढ़ी के होश सम्भालने तक भारतीय सिनेमा लगभग पूरी तरह से रंगीन हो चला था। इसके बावजूद ब्लैक एण्ड व्हाईट सिनेमा का दौर मुझे हमेशा ही दीवानगी की हद तक आकर्षित करता रहा और आज भी करता है। साफ-सुथरी सोद्देश्य फिल्में, उन फिल्मों का कर्णप्रिय गीत-संगीत, मंझे हुए अभिनेता-अभिनेत्रियां, गुणी लेखक-गीतकार-संगीतकार, उत्कृष्ट भाषा और भारतीयता से ओत-प्रोत सादगी जैसी विशेषताओं की वजह से ही वो दौर हिन्दी सिनेमा का स्वर्णकाल कहलाता है। क़रीब सत्रह साल पहले मुम्बई आया तो सोचा भी नहीं था कि मेरी ये दीवानगी मेरे लिए अवसरों के नए दरवाज़े खोल देगी। क़रीबी दोस्त और मशहूर लेखक और पत्रकार धीरेन्द्र अस्थाना (चित्र में) को मेरे भीतर छुपा वो लेखक नज़र आया जिसका पता तब तक मुझे भी नहीं था। उस लेखक को बढ़ावा देते हुए धीरेन्द्र जी ने जनसत्ता सबरंग, जागरण सखी और जागरण उदय जैसी हर उस पत्रिका में कहानी-लेख आदि लिखने के लिए प्रेरित किया जिससे समय के साथ-साथ वो जुड़ते गए। हिन्दी सिनेमा के सुनहरी दौर से मेरे भावनात्मक जुड़ाव से भी वो अच्छी तरह वाक़िफ थे। इसलिए ‘सहारा समय’ के प्रकाशन के समय मुम्बई ब्यूरो-प्रमुख की कुर्सी सम्भालते ही उन्होंने उस हिन्दी साप्ताहिक पत्र का एक समूचा पेज मेरे नाम कर दिया। फिल्म पहेली और स्तम्भ ‘बाकलम खुद’ के अलावा उस पेज पर स्तम्भ ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ से मेरे विधिवत लेखन की शुरुआत हुई। समय के साथ गुमनामी में खो चुके, सुनहरी दौर के मशहूर लोगों के बारे में जानने की उत्सुकता तो मन में हमेशा से थी ही, अब मेरे पास एक मक़सद भी था सो मैं जुट पड़ा उन खोए हुए कलाकारों की तलाश में। श्यामा, शशिकला, शारदा, महिपाल, जॉय मुकर्जी, राजेन्द्रनाथ, अनिता गुहा, दुलारी, पूर्णिमा, सुधा मल्होत्रा...ऐसे नामों की सूची अंतहीन थी।
वयोवृद्ध अभिनेता चन्द्रशेखरजी और ‘सिने एण्ड टी.वी.आर्टिस्ट एसोसिएशन’ के ऑफिस में कार्यरत अनिल गणपत गायकवाड़ और सुखदेव बापू जाधव ने इस मुहिम में मेरी भरपूर मदद की। जहां एक ओर चन्द्रशेखरजी ने ऐसे कई भूले-बिसरे कलाकारों के नाम मुझे सुझाए, वहीं अनिल और सुखदेव एसोसिएशन के रेकॉर्ड में से ढूंढकर लगातार मुझे उनके पते और फोन नम्बर देते रहे। टुनटुन उन कलाकारों में से थीं जिनके मौजूदा हालात जानने के लिए मैं हमेशा से बेताब था। लेकिन मेरे पास उनका सही पता नहीं था। अगर होता तो उनका इण्टरव्यू मैं ‘सहारा समय’ के प्रकाशन की शुरुआत में ही कर चुका होता। एसोसिएशन के रजिस्टर में दर्ज उनके पते पर मैं अंधेरी (पश्चिम) स्थित यारी रोड के इलाक़े में पहुंचा तो पता चला था कि वो तो साल भर पहले ही अपना फ्लैट बेचकर जा चुकी थीं। कहां गयीं, ये किसी को नहीं पता था। सिने एण्ड टी.वी.आर्टिस्ट एसोसिएशन से भी उन्होंने लम्बे समय से सम्पर्क नहीं किया था।
क़रीब चार-पांच महिने बाद अचानक अनिल ने मुझे फोन किया। बेहद उत्साह भरे स्वर में अनिल ने बताया कि अभी-अभी टुनटुनजी का फोन आया था, अब वो बान्द्रा-पश्चिम के पाली विलेज में अपनी छोटी बेटी के साथ रहती हैं और उन्होंने जल्द ही होने जा रही एसोसिएशन की सालाना जनरल बॉडी मीटिंग में हिस्सा लेने का वादा किया है। मैं तय समय पर उस मीटिंग में पहुंचा। मंच पर बैठी दुबली-पतली, बुज़ुर्ग टुनटुन को सामने देखते ही उनकी वो इमेज भरभराकर ढह पड़ी जिसे मैं अभी तक सिनेमा के परदे पर देखता आया था। मंच पर मौजूद दिलीप कुमार, चन्द्रशेखरजी, धर्मेन्द्र, अमरीश पुरी और दारासिंह जैसे वरिष्ठ कलाकारों को उनके साथ बेहद अदब से पेश आते देखा। इतनी उम्र हो जाने के बावजूद टुनटुन की चुहलबाज़ी, गर्मजोशी और चुटीली बातों में कोई कमी नहीं आई थी। मैंने उन्हें अपना परिचय देते हुए उनका इण्टरव्यू करने की इच्छा ज़ाहिर की तो उन्होंने तुरंत हामी भर दी। तय समय के अनुसार 27 अक्टूबर 2003 की शाम ठीक 6 बजे मैं अपने फोटोग्राफर साथी अनिल मुरारका के साथ टुनटुन के पाली विलेज स्थित घर पर पहुंचा। मस्तमौला स्वभाव, चुटीली बातें, बात-बात पर हंसना-हंसाना भले ही उनके व्यक्तित्व का जगज़ाहिर पहलू था लेकिन वास्तव में उसके पीछे अथाह दर्द छुपा हुआ था। ज़िन्दगी में उन्होंने शायद ही कभी कोई सुख देखा हो। उनका ये एक रेकॉर्डेड इण्टरव्यू था जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है। लीजिए पेश है टुनटुन की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी -
‘मुझे याद नहीं कि मेरे माता-पिता कौन थे और कैसे दिखते थे। मैं दो-ढाई बरस की रही होंगी जब वो ग़ुज़रे थे। घर में मुझसे आठ-नौ साल बड़ा एक भाई था जिसका नाम हरि था। मुझे बस इतना याद था कि हम लोग अलीपुर नाम के गांव में रहते थे। गांव के बीच में एक तालाब था जिसमें बत्तखें तैरती रहती थीं। मेरा भाई गांव की रामलीला में भाग लेता था। एक रोज़ मैं किसी घर की छत पर बैठी रामलीला देख रही थी कि मुझे नींद आ गयी और मैं लुढ़ककर नीचे गिर पड़ी। भाई मेरा इतना ख्याल रखता था कि वो रामलीला के बीच में ही मंच छोड़कर मुझे उठाने के लिए दौड़ पड़ा था। उस वक़्त मैं तीन-चार बरस की और भाई बारह-तेरह बरस का रहा होगा। लेकिन एक रोज़ भाई भी ग़ुज़र गया और दो वक़्त की रोटी के एवज़ में रिश्तेदारों के लिए चौबीस घण्टे की नौकरानी छोड़ गया। अब रिश्तेदारी-बिरादरी में जहां कहीं भी शादी-ब्याह-जीना-मरना हो काम के लिए मुझे भेजा जाने लगा। मेरा अन्दाज़ा है कि अलीपुर शायद दिल्ली के आसपास कहीं था क्योंकि अक्सर घरेलू काम के सिलसिले में मुझे दिल्ली के दरियागंज इलाक़े में किसी रिश्तेदार के घर आते-जाते रहना पड़ता था। उसी दौरान एक रोज़ पड़ोसियों से पता चला था कि अलीपुर में हमारी काफी ज़मीनें थीं जिन्हें हड़पने के लिए पहले मेरे माता-पिता का और फिर भाई का क़त्ल कर दिया गया था।
गाने का शौक़ मुझे बचपन से था लेकिन गुनगुनाते हुए भी डर लगता था क्योंकि उन लोगों में से अगर कोई गाते हुए सुन लेता था तो मार पड़ती थी। उन्हीं दिनों दिल्ली में मेरी मुलाक़ात एक्साईज़ विभाग में इंस्पेक्टर अख्तर अब्बास काज़ी से हुई। उन्होंने मुझे सहारा दिया तो मेरा आत्मविश्वास बढ़ने लगा। लेकिन तभी मुल्क़ का बंटवारा हुआ और काज़ी साहब लाहौर चले गए। इधर हालात से तंग आकर फिल्मों में गाने का ख्वाब लिए मैं एक रोज़ चुपचाप मुम्बई भाग आयी। दिल्ली में किसी ने निर्देशक नितिन बोस के असिस्टेण्ट जव्वाद हुसैन का पता दिया था सो उनसे आकर मिली और उन्होंने मुझे अपने यहां पनाह दे दी। उस वक़्त मेरी उम्र चौदह बरस की थी। उधर काज़ी साहब का मन लाहौर में नहीं लगा इसलिए मौक़ा पाते ही वो भी मुम्बई चले आए और फिर हमने शादी कर ली। ये सन 1947 का वाक़या है।
मैं काम की तलाश में थी। कारदार उन दिनों फिल्म ‘दर्द’ बना रहे थे। एक रोज़ उनके स्टूडियो में पहुंची और बेरोकटोक उनके कमरे में घुसकर बेझिझक उन्हीं से पूछ बैठी, कारदार कहां मिलेंगे, मुझे गाना गाना है। दरअसल मैं न तो कारदार को पहचानती थी और न ही फिल्मी तौर-तरीक़ों से वाक़िफ थी। शायद मेरा यही बेतक़ल्लुफी भरा अंदाज़ कारदार को पसन्द आया जो बिना नानुकुर किए उन्होंने नौशाद साहब के असिस्टेण्ट ग़ुलाम मोहम्मद को बुलाया और मेरा टेस्ट लेने को कहा। ग़ुलाम मोहम्मद ढोलक लेकर बैठे तो मैंने उनसे ठीक से बजाने को कहा। मेरे बेलाग तरीकों से वो भी हक्के-बक्के थे। बहरहाल मैंने फिल्म ‘ज़ीनत’ का नूरजहां का गाया गीत ‘आंधियां ग़म की यूं चलीं’ गाकर सुनाया जो सबको इतना पसन्द आया कि मुझे पांच सौ रुपए महिने की नौकरी पर रख लिया गया।
पहला गीत जो मेरी आवाज़ में रेकॉर्ड हुआ था वो था साल 1947 में बनी फिल्म ‘दर्द’ का ‘अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का’। ये गीत इतना बड़ा हिट साबित हुआ कि मुझे आज तक इसी गीत से पहचाना जाता है। इस फिल्म में मेरे गाए बाक़ी तीनों गीत ‘आज मची है धूम’, ये कौन चला’ और सुरैया के साथ ‘बेताब है दिल’ भी काफी पसन्द किए गए। उसी साल बनी फिल्म ‘नाटक’ में मैंने गीत ‘दिलवाले, जल कर ही मर जाना’ गाया। साल 1948 में बनी फिल्म ‘अनोखी अदा’ में मेरे दो सोलो गीत ‘काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाए’ और ‘दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया’ थे। 1948 में प्रदर्शित हुई ‘चांदनी रात’ में मुझे उस फिल्म का शीर्षक गीत ‘चांदनी रात है, हाए क्या बात है’ गाने का मौक़ा मिला था। उसी साल बनी फिल्म ‘दुलारी’ में मैंने शमशाद बेगम के साथ मिलकर गाया था, ‘मेरी प्यारी पतंग चली बादल के संग’। इन सभी फिल्मों के संगीतकार नौशाद साहब थे। इसके अलावा मैंने ‘चन्द्रलेखा’, ‘हीर रांझा’ (दोनों 1948), ‘भिखारी’, ‘भक्त पुण्डलिक’, ‘प्यार की रात, ‘सुमित्रा’, ‘रूपलेखा’, ‘जियो राजा’, ‘हमारी किस्मत’ (सभी 1949), ‘भगवान श्री कृष्ण’ (1950), ‘सौदामिनी’ (1950), ‘दीपक’ (1951), ‘जंगल का जवाहर’ (1952) और ‘राजमहल’ (1953) जैसी
फिल्मों में भी गीत गाए। चूंकि संगीत और गायन की मैंने विधिवत शिक्षा नहीं ली थी और उधर बच्चों के जन्म के साथ घरेलू ज़िम्मेदारियां भी बढ़ने लगी थीं इसलिए बतौर गायिका मेरा करियर ज़्यादा नहीं चल पाया। मेरे गाए गीतों की कुल संख्या क़रीब 45 होगी। यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगी कि मुझे सिंदूर खिलाकर मेरी आवाज़ खराब कर देने वाली जो बात अक्सर कही-सुनी जाती है, वो महज़ अफवाह है। उसमें ज़रा भी सच्चाई नहीं है।कुछ समय मैं फिल्मों से दूर रहकर अपने परिवार में उलझी रही। पति नौकरी करते थे लेकिन परिवार बढ़ने के साथ उनका वेतन कम पड़ने लगा तो मजबूरन मुझे एक बार फिर से काम की तलाश में निकलना पड़ा। मैं नौशाद साहब से मिली जो उन दिनों फिल्म ‘बाबुल’ बना रहे थे। उन्होंने मुझे उस फिल्म में एक हास्य भूमिका करने को कहा जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। हालांकि इससे पहले फिल्म ‘दर्द’ में भी वो मुझे एक भूमिका ऑफर कर चुके थे लेकिन तब मैं अभिनय के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं थी। उमादेवी की जगह टुनटुन नाम भी मुझे फिल्म ‘बाबुल’ में नौशाद साहब ने ही दिया था। आगे चलकर यही नाम मेरी पहचान बन गया। मेरा ये रूप दर्शकों को बेहद पसन्द आया और देखते ही देखते मैं हिन्दी फिल्मों की अतिव्यस्त हास्य अभिनेत्री बन गयी। फिर तो उड़न खटोला, बाज़, आरपार, मिस कोकाकोला, मिस्टर एण्ड मिसेज़ 55, राजहठ, बेगुनाह, उजाला, कोहिनूर, नया अंदाज़, 12 ओ’क्लॉक, दिल अपना और प्रीत पराई, कभी अन्धेरा कभी उजाला, मुजरिम, जाली नोट, एक फूल चार कांटे, कश्मीर की कली, अक़लमन्द, सी.आई.डी.909, दिल और मोहब्बत,
एक बार मुस्कुरा दो और अन्दाज़ जैसी दर्जनों फिल्में मैंने कीं। सत्तर के दशक में मेरी सक्रियता में कमी आनी शुरु हुई और फिर क़ुर्बानी और नमक हलाल जैसी फिल्में करने के बाद मैंने खुद को अभिनय से दूर कर लिया। नब्बे के दशक की शुरुआत में काज़ी साहब गुज़रे। अब दोनों बेटों और दोनों बेटियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से आज़ाद होने के बाद पिछले क़रीब बीस बरस से मैं घर पर ही रहकर आराम कर रही हूं।’दिनांक 22 नवम्बर 2003 के सहारा समय में छपा टुनटुन का ये इण्टरव्यू उनका आखिरी इण्टरव्यू साबित हुआ। मैंने उन्हें फोन करके बताया कि अखबार की प्रति मैं उन्हें कुरियर से भिजवा रहा हूं। इस पर उन्होंने अपनी चिरपरिचित स्टाईल में कहा, ‘अखबार कुरियर से भेज रहा है तो फिर इण्टरव्यू भी फोन पर ही ले लेना था’। क़रीब आधा घण्टे के बाद उन्होंने फोन तब बन्द किया जब मैंने उनसे वादा कर लिया कि मैं जल्द ही उनसे मिलने आऊंगा। लेकिन अफसोस, कि मैं अपना वादा निभा नहीं पाया। वो अपना ये आखिरी इण्टरव्यू भी नहीं पढ़ पायीं क्योंकि अगली ही सुबह उनकी तबीयत बिगड़ी, उन्हें बान्द्रा के एक निजी अस्पताल में भरती कराया गया, जहां 24 नवम्बर 2003 की सुबह क़रीब 5 बजे उनका देहांत हो गया।
टुनटुन को हमसे बिछुड़े आज क़रीब 9 बरस गुज़र चुके हैं। लेकिन जब कभी हिन्दी सिनेमा की महिला हास्य-कलाकारों की बात होगी, उनका नाम उस लिस्ट में सबसे ऊपर होगा।
We are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Aksher Apoorva for the English
translation of the write ups.
Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Uma Devi on YT Channel BHD
“Dil Ko Laga Ke Humne Kuchh Bhi Na Paaya”- Uma Devi (Tuntun)
..............Shishir Krishna Sharma
Her first step in the arena of Hindi cinema was as a singer. Her very first song crossed all the milestones of popularity and success. But hardly after lending her voice to 40-45 some odd songs, she had to separate from filmdom due to some household reasons. And then soon after, financial constrains pulled her back into this world of glamour and glitz. But till then the playback scenario had changed so much that it wasn’t easy for her to get work as a singer. And inevitably, to earn money, she had to step in front of the camera. Such was destinies ploy! Probably she hadn’t commanded such popularity as Singer Uma Devi as she enjoyed as actress Tuntun. Hindi cinema’s audience of the 1950’s and 60’s are witness to the fact that Tuntun was perhaps the only female comedian whose mere appearance on screen would evoke the entire cinema hall into bouts of absolute laughter. Her fame preceded all others to the extent that she would be seen in every 2nd or 3rd film, it didn’t matter whether her role was miniscule or was for just 1or 2 scenes. It’s often said that it’s not necessary that an actor’s screen image or reel life has to coincide with their real life. And this is very true to a large extent. But Tuntun was an exception. She was just as jovial and merry in her personal life as she was portrayed on screen. But this was just one facet of her personality.
By the time my generation grew up, Indian cinema had almost become completely colored. Despite that the black and white era of cinema had a pull on me then that bordered on obsession and it does so even today. Qualities like clean and rich films with a purpose, melodious soothing music of those films, versatile and experienced actors, talented writers-composers-singers, impeccable language and Indian-ness enveloped in simplicity make that era ‘The golden era of Hindi Cinema’. When I came to Mumbai almost 17 years ago I didn’t think for even a second that this obsession would open up a whole new host of opportunities for me. My close friend and famous writer and journalist Dhirendra Asthana could clearly see a writer hidden inside of me that I wasn’t even aware of. Cheering that hidden writer inside me, Dhirendraji encouraged me to write stories and other articles for magazines like Jansatta Sabrang, Jagran Sakhi and Jagran Uday and many others as and when he joined hands with them. He was also well aware of my emotional attachment with the golden era of Hindi Cinema. That’s why when he became the Mumbai Bureau Chief of ‘Sahara Samay’, when it used to be published; he immediately handed over an entire page of the Hindi weekly to me. My writing started in a proper way with the film Quiz and column ‘Bakalam Khud’ and another column called ‘Kya Bhoolon Kya Yaad Karoon’ which was featured on the same page. I was always curious to know about the famous personalities of the golden era who had faded away into oblivion with time, now, I had a motive to do so and hence I immersed myself in search of those lost stars. Shyama, Shashikala, Sharda, Mahipal, Joy Mukerji, Rajendra Nath, Anita Guha, Dulari, Poornima, Sudha Malhotra...the list of such names is in-exhaustive. Senior actor Chandrashekhar ji and Anil Ganpat Gaikwad and Sukhdev Bapu Jadhav working at ‘Cine & T.V.Artistes Association’ helped me in this arduous job immensely. While Chandrashekhar ji refreshed my memory of many long forgotten artists, Anil and Sukhdev dove into the records of the Association and kept providing me with their addresses and phone numbers. One of those actors whose whereabouts I was curious of was Tuntun. But I didn’t have her correct address. If I did have the right address, I would have interviewed her in the beginning of ‘Sahara Samay’s’ publication. When I went to the address, listed in the Associations register, at Yari road situated in Andheri (west), I came to know that she had sold off that flat and shifted almost a year back. Nobody knew where she had gone. She hadn’t even contacted the Cine & T.V.Artistes Association for a long time.
After almost 4-5 months, Anil suddenly rang me. In a very excited tone Anil told me that Tuntunji had called him, now she stays at Bandra (west)’s Pali Village with her younger daughter and she has promised to be a part of the soon to be held annual general body meeting of the association. I reached the meeting on time. When I saw the slim trim and elderly Tuntun sitting on stage in front of me, her screen image which was still engraved in my mind was shattered to pieces. I could see big stars like Dilip Kumar, Chandrashekhar ji, Dharmendra, Amrish Puri and Dara Singh regarding her with lot of respect. Despite having gained many years there was no shortage of the same spark, enthusiasm and quick retort. While I was introducing myself I expressed my desire to interview her and she readily agreed. As per my appointment on 27th October, 2003, at 6:00 in the evening I reached Tuntuns home in Pali village along with my photographer colleague Anil Murarka. A carefree attitude, catchy phrases, laughter at every anecdote, these might be her much celebrated facets of personality but in reality there is a lot of pain hiding behind her jovial attitude. She has hardly experienced any happiness in her life. This was one of her recorded interview that I had kept safely. So here it is, Tuntuns story, in her own words -
“I don’t remember who my parents were or what they looked like. I was around 2 – 2 ½ years old when they passed away. I had a brother who was 8-9 years elder to me and his name was Hari. I just remember that we used to stay in a village called Alipur. There was a lake in the middle of the village where ducks used to swim. My brother used to participate in the Ramleela held in the village. One day I was sitting on the roof of someone’s house watching the Ramleela when I fell asleep and subsequently rolled off the roof. My brother used to take such good care of me that when I fell he left the Ramleela stage in between and ran to pick me up. At that time I was around 3-4 years old and my brother was around 12-13 years old. But one day he passed away as well and left me to fend for myself as a full time servant for my relatives. Now amongst my relatives whenever there was a function like marriage or death, I would be sent there to work. I suspect that Alipur is maybe somewhere near Delhi because I would often travel to and fro from some relative’s house in Delhi’s Daryaganj area. Then one day I came to know through my neighbors that we had a lot of land in Alipur and to obtain that land my relatives had murdered my parents and then my brother.
I was fond of singing since an early age but I used to be scared of even humming a tune as if any of those people would hear me singing then I would be beaten up. In those days in Delhi, I met excise department‘s inspector Akhtar Abbas Kazi. With his support my self-confidence started rising. But then the partition took place and Kazi Saheb went to Lahore. Tired of my situation, I quietly ran away to Mumbai with the dream of becoming a singer. Someone in Delhi had given me Director Nitin Bose’s assistant Javvad Hussains address and so I went to meet him and he gave me shelter. I was around 14 years old at that time. There Kazi Saheb found it difficult to adjust in Lahore and so as soon as he got a chance he came to Mumbai and then we got married. This happened in 1947.
I was in search of work. Kardar was
making film ‘Dard’ those
days. One day I went to his studio and uninterrupted I entered his office and
without any hesitation I ended up asking him, Where can I meet Kardar, I want
to sing songs. Actually I didn’t know what Kardar looked
like and I wasn’t even familiar with the ways of the film industry. Maybe Kardar like my informal attitude and
that’s why without any delay he called on Naushad Saheb’s assistant Ghulam
Mohammad and asked him to take my test. Ghulam Mohammad sat with the dholak and
I told him to play it properly. He was stunned with my undaunted attitude. Finally
I sang Noorjehan’s song ‘andhiyaan gham ki yun chaleen’ from film the ‘Zeenat’ and everyone liked it so much that they
immediately kept me on a salary of 500 rupees per month.
The first song to be recorded in my voice was ‘afsana likh rahi hoon dile beqaraar ka’ of the 1947 film ‘Dard’. This song became so popular that till date I am recognized by that song. The rest of the three songs sung by me for this film, ‘aaj machi hai dhoom’, ‘ye kaun chala’ and ‘betaab hai dil’ sung with Suraiya were also received quite well. I also sung ‘dil waale jal kar hi marr jaana’ for the film ‘Natak’ made in the same year. I sang two solo songs for the 1948 film ‘Anokhi Ada’ which were ‘kaahe jiya dile ho kaha nahin jaaye’ and ‘Dil Ko Laga Ke Humne Kuchh Bhi Na Paaya’. I also got the opportunity to sing the title song ‘chandni raat hai haaye kya baat hai’ of the film 1948 released film ‘Chandni Raat’. Made in the same year, I sang a song ‘meri pyari patang chali baadal ke sang’ along with Shamshad Beghum for the film ‘Dulari’. The music director for all these film was Naushad Saheb. I also sang songs for films like ‘Chandralekha’, ‘Heer Ranjha’ (both 1948), ‘Bhikhari’, ‘Bhakt Pundalik’, ‘Pyaar Ki Raat, ‘Sumitra’, ‘Rooplekha’, ‘Jiyo Raja’, ‘Hamaari Kismet’ (all 1949), ‘Bhagwan Shri Krishna’ (1950), ‘Saudamini’ (1950), ‘Deepak’ (1951), ‘Jungle Ka Jawahar’ (1952) and ‘Rajmahal’ (1953). Because I had no formal training in music and singing and with my growing children my household responsibilities were also growing that’s why my singing career didn’t last for too long. In total I sang approximately 45 songs. I want to clear here that many say that I was given sindoor to eat and hence my voice got spoilt, this is nothing but a rumor. This statement has no truth in it.
For some time I stayed away from films engrossed in my family. My husband used to work but as our family grew his salary proved to be not enough for us and hence once again I had to step out in search of work. I met Naushad Saheb who was making the film ‘Babul’ at that time. He asked me to do a comedy role in his movie and I accepted it. Although he had offered me a role in the film ‘Dard’ as well but at that time I wasn’t mentally prepared then to do so. It was Naushad Saheb who gave me the name Tuntun in place of Uma Devi in the film ‘Babul’. And with time this name became my identity. The audience adored me in this form and I became one of the busiest female comedians. And then I did a dozen films like Udan Khatola, Baaz, Aar Paar, Miss Coca Cola, Mr.& Mrs. 55, Rajhath, Begunaah, Ujala, Kohinoor, Naya Andaaz, 12 O’Clock, Dil Apna Aur Preet Paraai, Kabh Andhera Kabhi Ujala, Mujrim, Jaali Note, Ek Phool Chaar Kante, Kashmir Ki Kali, Akalmand, C.I.D..909, Dil Aur Mohabbat, Ek Baar Muskura Do and Andaaz. Around 1970’s my demand started decreasing and then after films like Qurbaani and Namak Halaal I distanced myself from this performing art. Kazi Saheb passed away in the beginning of 1990’s. Now having fulfilled all my duties towards both my sons and both my daughters, since the last 20 years I stay at home and rest.
Published on 22 November 2003 in Sahara Samay, this proved to be Tuntuns last interview. I told her that I am sending an edition of the magazine through the courier. Commenting on this in her own unique style she said, “You are sending the magazine via courier then you should have taken the interview via the phone”. After almost half an hour she kept the phone only after I promised her that I would come to meet her very soon. But alas, I couldn’t keep my promise to her. She couldn’t even read her last interview because the next morning her health failed her; she was admitted to a private hospital in Bandra where she left her body in the morning at 5:00 am on 24th November, 2003.
It’s been almost 9 years since Tuntun left us. But whenever people will talk of Hindi Cinema’s female comedians, her name, will on the top of the list.
Very touching write-up!
ReplyDeletevery touching interview.
ReplyDeleteThanks for it.
dobara padha
ReplyDeleteaapko dhanyvad
Where to find such singers and comedians now a days . kathputaliya. Dor uparwaleke Hathmain,,, She made us laughing , though her own life passed miserable. Thanks all the writers who has worked hard to interview such actors.
ReplyDeleteSumant Vashi Chicago.21 Oct 2012
Knowledgable.....
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