“बूझ मेरा क्या नाम रे, नदी किनारे गांव रे” – शमशाद बेगम
.......शिशिर कृष्ण शर्मा
‘जिंगलबेल्स सी आवाज़, अपनापन लिए...! आवाज़ क्या, पंजाब के दरियाओं की रवानी...!!’ ये कहना था मशहूर संगीतकार ओ.पी.नैयर का (धर्मयुग 1 अगस्त 1991 / पेज 44), उस मीठी, खनकती हुई आवाज़ के लिए जो ख़ुद को दुनिया की नज़रों से छुपाए रखकर 30 बरसों तक परीकथाओं की किसी नायिका की तरह फ़िल्म संगीत के चाहने वालों को लुभाती रही। न कोई फ़ोटो, न कोई इंटरव्यू, हर तरह के प्रचार से उन्होंने ख़ुद को दूर रखा। साल 1969 में पहली बार वो मुंबई के षण्मुखानंद हॉल में मंच पर आयीं तो लोग उन्हें देखने के लिए टूट पड़े। लेकिन उसके बाद अचानक ही उन्होंने फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कहा और गुमनामी में खो गयीं। बरसों बाद अगस्त 1998 में वो एक बार फिर से सुर्खियों में आयीं जब देश के तमाम अख़बारों में उनके निधन की ख़बरें छपीं। लेकिन जिनका निधन हुआ था वो नसीम की मां और सायरा बानो की नानी, यानि कि कोई और शमशाद बेगम थीं।
सच्चाई का पता चलने के बावजूद कुछेक को छोड़कर किसी भी अख़बार ने अपनी इस ग़लती को सुधारने की कोशिश नहीं की। यहां तक कि ‘इंडियनमैलोडी डॉट कॉम’ नाम की वेबसाईट तो संगीतप्रेमियों को आज भी यही ग़लत सूचना देती आ रही है। उधर ये मानने वालों की भी कमी नहीं थी कि शमशाद बेगम पाकिस्तान चली गयी हैं। सिनेमा और पत्रकारिता से जुड़े उनके जानकार कई लोग ये समझते थे कि शमशाद बेगम दक्षिण मुंबई के कोलाबा में रहती हैं जहां वो पहले रहा करती थीं। लेकिन ये तमाम धारणाएं सिरे से ग़लत थीं। सच ये है कि शमशाद बेगम मुंबई में ही थीं लेकिन 1990 के दशक के मध्य में वो कोलाबा छोड़कर पवई के अतिसमृद्ध इलाक़े में शिफ़्ट हो गयी थीं जहां वो आज भी रह रही हैं।
निश्चित तौर पर उन तमाम अफ़वाहों के लिए शमशाद बेगम का शर्मीला स्वभाव भी कम ज़िम्मेदार नहीं था जो हमेशा से ही बाहरी लोगों से मिलने-जुलने से कतराती आयी थीं। इंटरव्यू करना या फ़ोटो लेना तो दूर, उन तक पहुंच पाना ही अपने आप में टेढ़ी खीर था। अपना टेलीफ़ोन नंबर और पता-ठिकाना सार्वजनिक करना उन्हें कतई मंज़ूर नहीं था। अक्सर लोग पूछते हैं कि मैंने उन्हें कैसे तलाशा, सो आज मैं पहली बार इस आलेख के जरिए उन तक पहुंचने की अपनी कवायद का ख़ुलासा कर रहा हूं, क्योंकि मेरी कलम से आज तक इस बारे में कभी कुछ छपा ही नहीं। दरअसल उनके बारे में जानने की उत्सुकता हमेशा से ही मन में थी।
उधर हिंदी सिनेमा के इतिहास के प्रति मेरे जोशोख़रोश को देखते हुए वरिष्ठ पत्रकार और हिंदी साप्ताहिक ‘सहारा समय’ के मुंबई ब्यूरो चीफ़ धीरेन्द्र अस्थाना ने उस अख़बार के कॉलम ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘बाकलम ख़ुद’ और ‘फ़िल्म पहेली’ मेरे हवाले किए तो मुझे एक मक़सद भी मिल गया। खोजबीन के दौरान ‘इंडियनमैलोडी डॉट कॉम’ के शमशाद बेगम से संबंधित पेज पर नज़र पड़ी तो मन में कई सवाल उठ खड़े हुए। इस पेज के मुताबिक़ निधन के समय शमशाद बेगम की उम्र 100 साल की थी। इसका मतलब उनका जन्म साल 1898 में हुआ था? तो क्या उन्होंने 42 साल की उम्र में (साल 1940 में) फ़िल्मों में गाना शुरू किया था? क्या अपना आख़िरी गाना उन्होंने 70 साल की उम्र में (साल 1968 में) रेकॉर्ड कराया था? नहीं...! मुझे लगा, कहीं कुछ गड़बड़ ज़रूर है।
उनका फ़ोन नंबर ढूंढने में ही क़रीब एक साल गुज़र गया। संगीतकार नौशाद, वरिष्ठ पत्रकार उदयतारा नायर और 1990 के दशक के पूर्वार्ध में दूरदर्शन पर प्रसारित हुए कार्यक्रम ‘गाता जाए बंजारा’ के निर्माण से जुड़े क्षमेन्द्र गंजू जी से हुई बातचीत के आधार पर इतना तो तय हो चुका था कि शमशाद बेगम ज़िंदा हैं और मुंबई में ही हैं। लेकिन उनका सही पता-ठिकाना और फ़ोन नंबर फ़िल्मोद्योग से जुड़े किसी भी व्यक्ति या ट्रेड यूनियन के पास नहीं था। यहां तक कि सिंगर्स एसोसिएशन’ और ‘म्यूज़िक डायरेक्टर्स एसोसिएशन’ से भी उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पायी थी। अब मेरे पास सिर्फ़ एक सूत्र था, और वो था शमशाद बेगम के दामाद का सरनेम और उनका फ़ौजी ओहदा, जिसके बारे में मुझे क्षमेन्द्र गंजू ने बताया था। क़रीब 12 साल पहले प्रसारित हुए कार्यक्रम ‘गाता जाए बंजारा’ में मैं शमशाद बेगम को देख चुका था और इसी वजह से मैंने क्षमेन्द्र गंजू से सम्पर्क किया था। उनके मुताबिक़ शमशाद बेगम उस वक़्त कोलाबा में रहती थीं।
मेरी तलाश को आसान किया शमशाद बेगम के दामाद के फौजी ओहदे, उनके दुर्लभ सरनेम और इन सबसे बढ़कर एम.टी.एन.एल. की टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री की सीडी ने। समूचे मुंबई में उस सरनेम के बामुश्किल आठ-दस टेलिफ़ोन उपभोक्ता मुझे मिले, जिनमें से एक नाम के आगे वोही फ़ौजी ओहदा जुड़ा हुआ था। फ़ोन उठाने वाली महिला ने पहले तो इस बात से साफ़ इंकार कर दिया कि उस नंबर पर कोई शमशाद बेगम रहती हैं। लेकिन आसानी से हथियार डालना मुझे भी मंज़ूर नहीं था। कुछ देर की मान-मनौवल के बाद उन्हें मानना ही पड़ा कि वो शमशाद बेगम की बेटी हैं और शमशाद बेगम उन्हीं के साथ रहती हैं। लेकिन शमशाद बेगम से मिलने के लिए क़रीब 6 महिने और इंतज़ार करना पड़ा। उस दौरान कई बार उनकी बेटी से बातचीत हुई जिन्होंने आख़िरकार अपनी मां को इस मुलाक़ात के लिए मना ही लिया। लेकिन शर्त ये थी कि मुलाक़ात आधा घंटे से ज़्यादा की नहीं होगी, आवाज़ रेकॉर्ड नहीं की जाएगी और न ही वो फ़ोटो खिंचवाएंगी।
अब सबसे बड़ा सवाल ये था कि बिना फ़ोटो या रेकॉर्डेड इंटरव्यू के मैं साबित कैसे कर पाऊंगा कि शमशाद बेगम मुंबई में ही हैं और मैं उनसे मिल चुका हूं? उनकी शर्त ने ‘सहारा समय’ के मेरे साथी कैमरामैन अनिल मुरारका के लिए तो उनके दरवाज़े बंद कर ही दिये थे, मुझे डर था कि ज़्यादा ज़ोर दूंगा तो कहीं वो मुझसे मिलने से भी इंकार न कर दें। चूंकि अब तक मैं इन बुज़ुर्ग महिला कलाकारों के मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझने लगा था इसलिए थोड़ी बहुत दिमाग़ी कसरत के बाद रास्ता भी नजर आ ही गया। मिलने से एक रोज़ पहले मैंने शमशाद बेगम की बेटी को फ़ोन करके पूछा कि अगर मैं अपनी पत्नी को साथ लेकर आऊं तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं होगी?
मैं जानता था कि पत्नी के साथ होने से माहौल पूरी तरह से घरेलू सा हो जाएगा। और जैसी कि उम्मीद थी, उनकी बेटी का जवाब भी सकारात्मक और बेहद गर्मजोशी भरा मिला। वो अलग बात है कि पत्नी को मनाने में भी मुझे कम मेहनत नहीं करनी पड़ी क्योंकि चमक-दमक भरी इस दुनिया को थोड़ा-बहुत क़रीब से देखने के बाद उनके मन में बहुत पहले ही ‘ये मुखौटे चढ़ाए नक़ली लोग आप ही को मुबारक’ वाला भाव पैदा हो चुका था, ख़ैर...!
बेहद ख़ूबसूरत, पॉश इलाक़ा! सिक्योरिटी गार्ड्स की कड़ी पूछताछ!! तय समय पर हम उस बहुमंज़िला इमारत की छठवीं मंज़िल के उनके फ़्लैट के दरवाज़े पर खड़े थे। दरवाज़ा उनके दामाद ने खोला। रिटायर्ड फ़ौजी अफ़सर। रौबदार लेकिन विनम्र व्यक्तित्व। गर्मजोशी के साथ उन्होंने हमारा स्वागत किया। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ और जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं देहरादून का रहने वाला हूं तो वो क़रीब 50 साल पहले ‘इंडियन मिलीटरी एकेडमी’ में ट्रेनिंग के दौरान गुज़ारे समय और देहरादून शहर, क्लेमेण्टाऊन, राजपुर, झड़ीपानी और मसूरी की यादों में खो गए। उसी दौरान उनकी पत्नी भी, जिनसे पिछले 6 महिनों में कई बार मेरी फ़ोन पर बात हुई थी, आकर बातचीत में शामिल हो चुकी थीं।
क़रीब 20 मिनट बाद आख़िरकार वो लम्हा भी आ ही गया जिसके लिए मैं पिछले डेढ़ सालों से जद्दोज़हद कर रहा था। छड़ी का सहारा लिए, गुज़रे ज़माने की मशहूर गायिका शमशाद बेगम हमारे सामने थीं। ‘आख़िर आपकी ज़िद तुड़वा ही दी हमने’ कहते हुए मैंने हाथ जोड़े तो वो हंस पड़ीं। ‘पूछो क्या पूछना है’ – कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने कहा। और बात करते करते कब ढाई घंटे बीत गए पता ही नहीं चला। अपने बचपन से अब तक की तमाम कड़ियों को सिलसिलेवार जोड़ते हुए उन्होंने बताना शुरू किया था कि -
“मैं 14 अप्रैल 1919 को लाहौर में पैदा हुई थी। मेरे अब्बा मकानों के ठेके लिया करते थे और 8 भाई-बहनों में मैं 5वें नंबर पर थी। संगीत की विधिवत शिक्षा मैंने कभी नहीं ली। मुझे पता ही नहीं मैंने कब गाना शुरू कर दिया था। स्कूल में थी तो सब बच्चों के बीच मेज़ पर खड़ी होकर दुआ गाती थी। रमज़ान के दिनों में रिश्तेदार मुझसे नातें सुनने आते थे।
12 बरस की थी जब मेरे चाचा रेकॉर्ड बनाने वाली ‘ज़ाईनोफ़ोन कंपनी’ में मुझे साथ लेकर गए जहां बतौर संगीतकार नौकरी कर रहे मास्टर ग़ुलाम हैदर ने मेरा ऑडिशन लिया था। मैंने बहादुरशाह ज़फ़र की लिखी ग़ज़ल ‘मेरा यार मुझे मिले अगर’ का स्थायी और एक अंतरा गाया और इम्तहान में पास हो गयी। सही मायनों में ये मास्टर ग़ुलाम हैदर ही थे जिन्होंने मेरी आवाज़ को तराशा और मुझे संगीत की बारीक़ियां सिखायीं। उस ज़माने में मेरे गाए कई प्राईवेट रेकॉर्ड बाज़ार में आए और पसंद किए गए। साल 1935 में जारी हुए ‘ओम जय जगदीश हरे’ की आरती के मेरे रेकॉर्ड की बहुत जबर्दस्त बिक्री हुई थी, हालांकि उस पर मेरा असली नाम नहीं दिया गया था। मेरा पहला हिट गीत था ‘हाथ जोड़ा पखियां दा क़सम ख़ुदा की’ जिसके बाद मेरी व्यस्तता ऐसी बढ़ी कि 5वीं के बाद मुझे पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी। प्लेबैक तब तक शुरू नहीं हुआ था और सुरीला गाने वालों के लिए फ़िल्मों में अभिनय के मौक़ों की भरमार थी।
मेरे सामने भी ऐसे कई प्रस्ताव आए लेकिन मेरे सख़्तमिज़ाज अम्मी-अब्बा को ये मंज़ूर नहीं था। 16 बरस की उम्र में मेरी शादी भी हो गयी थी लेकिन ‘परदे में ही रहने’ की अम्मी-अब्बा की सख़्ती की वजह से पैदा हुई झिझक मेरे स्वभाव का ही हिस्सा बन गयी। यही वजह है कि सार्वजनिक तौर पर लोगों से मिलने, इंटरव्यू देने और फ़ोटो खिंचवाने में मैं आज भी ख़ुद को बेहद असहज महसूस करती हूं।“
साल 1937 में रेडियो पर गाने का मौक़ा मिला तो शमशाद बेगम पेशावर चली गयीं। 2 साल बाद लाहौर में रेडियो स्टेशन खुला तो वो वापस आकर लाहौर के साथ ही दिल्ली और लखनऊ रेडियो पर भी गाने लगीं। 1930 का दशक ख़त्म होते होते फ़िल्मों में प्लेबैक का इस्तेमाल भी पूरी तरह शुरू हो चुका था। शमशाद बेगम के मुताबिक ऐसे में उन्हें लाहौर के ‘पंचोली आर्ट्स’ के मालिक ‘दलसुख एम.पंचोली’ ने पंजाबी फ़िल्म ‘यमला जट’ में गाने के लिए बुलाया।
उस फ़िल्म के लिए शमशाद बेगम का रेकॉर्ड कराया पहला गाना एक सोलो था, ‘आ सजना दोवें रल के चलिए परले पार’। मास्टर ग़ुलाम हैदर द्वारा संगीतबद्ध ये सिल्वर जुबली हिट फ़िल्म साल 1940 में रिलीज़ हुई थी। अभिनेता प्राण ने भी अपना करियर इसी फ़िल्म से शुरू किया था।
साल 1941 में बनी ‘ख़ज़ांची’ शमशाद बेगम की पहली हिंदी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म का निर्माण भी ‘पंचोली आर्ट्स’ (लाहौर) के बैनर में ही हुआ था। ‘एक कली नाज़ों की पली’ और ‘सावन के नज़ारे हैं’ सहित शमशाद बेगम के गाए इस फ़िल्म के सभी 9 गीत उस ज़माने में बेहद मशहूर हुए थे। फ़िल्म ख़ज़ांची के संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर और गीतकार वली साहब थे। लाहौर में रहते हुए शमशाद बेगम ने ‘पंचोली आर्ट्स’ की ‘खानदान’, ‘ज़मींदार’ (दोनों 1942) और ‘पूंजी’ (1943) और ‘शोरी पिक्चर्स’ की ‘निशानी’ (1942) जैसी फ़िल्मों में कुछ गीत गाए और फिर महबूब ख़ान के बुलावे पर उनकी फ़िल्म ‘तक़दीर’ में गाने के लिए मुंबई चली आयीं। साल 1943 में बनी ‘तक़दीर’ नरगिस की बतौर हिरोईन पहली फ़िल्म थी।
क़रीब 30 सालों के अपने करियर के दौरान शमशाद बेगम ने मास्टर ग़ुलाम हैदर, सचिनदेव बर्मन, नौशाद, सी.रामचन्द्र, मदनमोहन और ओ.पी.नैयर सहित अपने समय के तमाम दिग्गज संगीतकारों के निर्देशन में 1600 से भी ज़्यादा गीत गाए। शमशाद बेगम के मुताबिक़, 1940 का दशक उनके लिए बेहद व्यस्तताओं भरा रहा। फिर जैसे जैसे गायक-गायिकाओं और संगीतकारों की नयी जमात मैदान में उतरती रही उनकी व्यस्तताएं कम होती चली गयी। उनका कहना है, ‘साल 1968 में बनी फ़िल्म ‘क़िस्मत’ का, ओ.पी.नैयर के संगीत में आशा भोंसले के साथ गाया दोगाना ‘कजरा मोहब्बतवाला’ मेरा आख़िरी रेकॉर्डेड गीत था, हालांकि उसके काफ़ी बाद तक भी ‘प्यार किया तो डरना क्या’ (रातों का राजा/1970), ‘तीन कवांरियां...हाथों में मेहंदी रचा दे कोई’ (पर्दे के पीछे/1971) और ‘ओ सनम तेरे लिए जागे हैं रात रात भर’, ‘कर लो जितना सितम’ और ‘हमें मिटाने आया जो’ (गंगा मांग रही बलिदान/1981) जैसे पहले से रेकॉर्डेड मेरे कुछ गीत बाज़ार में आते रहे।
शमशाद बेगम के शौहर गणपत लाल बत्तो मूल रूप से डेरा इस्माईल ख़ां के रहने वाले थे और पेशे से वक़ील थे। शमशाद बेगम का कहना है, ‘साल 1955 में शौहर के गुज़रने के बाद से मैं अपनी बेटी और दामाद के साथ रह रही हूं। साल 1971 में दामाद का ट्रांसफर हुआ तो क़रीब 7 साल मैंने भी उनके साथ मुंबई से बाहर जालंधर और महू जैसे फ़ौजी इलाक़ों में रहकर गुज़ारे। नतीजतन वापस लौटने तक फ़िल्मोद्योग से मेरा रिश्ता पूरी तरह से टूट चुका था। और फिर धीरे धीरे मैं घर की चारदीवारी में सिमटती चली गयी।‘
जैसा कि मुझे यक़ीन था, उन ढाई घंटों में माहौल इतना सहज हो चुका था कि जब उन्हें पता चला कि मैं एहतियातन कैमरा साथ लेकर आया हूं तो वो सहर्ष ही फ़ोटो खिंचवाने और छपवाने के लिए तैयार हो गयीं। अगर मैं अकेला आया होता तो शायद ऐसा न हो पाता। लेकिन संयुक्त परिवार में पली बढ़ीं और संयुक्त परिवार में ही बहू बनकर लंबा अरसा गुज़ारने वाली मेरी पत्नी अंशु को उन तीन बुज़ुर्गों के साथ घुलने-मिलने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगा था।...और जैसा कि मुझे यक़ीन था, मेरी योजना पूरी तरह से कामयाब रही थी। मैं ये स्वीकार करता हूं कि अगर मेरी पत्नी ने हर कदम पर मेरा साथ न दिया होता तो मैं आज भी उत्तराखंड के पहाड़ों में ‘धोपड़धार’, ‘चैलूसैण’, ‘डुंडा’ या ‘रानाचट्टी’ जैसी ‘पंजाब नेशनल बैंक’ की किसी शाखा में कुढ़ता हुआ, ज़्यादा से ज़्यादा मैनेजर की नौकरी बजा रहा होता। ख़ैर...! विदा लेते वक़्त मैंने इंटरव्यू देने और फ़ोटो खिंचाने के लिए शमशाद बेगम का शुक्रिया अदा करते हुए उनसे कहा कि ‘एक रोज़ मैं आपकी आवाज भी रेकॉर्ड करूंगा ज़रूर’ तो वो हंस पड़ीं।
18 सितम्बर 2004 की दोपहर हुई इस मुलाक़ात की रिपोर्ट दो दिनों के अंदर ही तैयार करके मैंने धीरेन्द्र अस्थाना जी के ज़रिए ‘सहारा समय’ के नौएडा स्थित संपादकीय विभाग के पास भिजवा दी थी। मुझे डर था कि अगर इस रिपोर्ट के छपने से पहले किसी और ने शमशाद बेगम के मौजूदा हालात के बारे में छाप दिया तो मेरी डेढ़ साल की मेहनत बेकार चली जाएगी इसलिए मैं चाहता था कि ये रिपोर्ट जल्द से जल्द छप जाए। लेकिन ‘सहारा समय’ के संपादकीय विभाग को शायद इस मामले की अहमियत और गंभीरता का अहसास नहीं था। उधर ‘दैनिक जागरण’ के मुंबई ब्यूरो को इस विषय में पता चल चुका था और वो इसे अपने अख़बार में छापना चाहते थे। मैंने उनसे थोड़ा रूकने का आग्रह किया और जब 3 हफ़्तों बाद भी ये रिपोर्ट ‘सहारा समय’ के नौएडा दफ़्तर की फ़ाईलों में ही दबी रही तो मजबूरन मुझे ‘दैनिक जागरण’ के लिए हामी भर देनी पड़ी।
12 अक्टूबर 2004 के ‘दैनिक जागरण’ के मुखपृष्ठ पर वरिष्ठ पत्रकार आनंद भारती जी के हवाले से शमशाद बेगम तक मेरे पहुंचने की रिपोर्ट छपी तो देश भर के मीडिया और ख़ासतौर से इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में हलचल मच गयी। मुझ पर शमशाद बेगम का पता-ठिकाना और फ़ोन नंबर बताने के लिए दबाव पड़ने लगा। आख़िरकार मुझे ‘दैनिक जागरण’ के मुंबई ब्यूरो की सलाह पर शमशाद बेगम से इजाज़त लेकर एक चैनल विशेष के संवाददाता को उनका फ़ोन नंबर देना ही पड़ा। फिर तो तमाम चैनलों में शमशाद बेगम का इंटरव्यू करने की होड़ मच गयी। इसके बाद सरकार भी कोमा की स्थिति से बाहर आयी और उसने साल 2009 में शमशाद बेगम को ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित करके पुण्य कमाया।
जैसा कि मैंने शमशाद बेगम से कहा था कि ‘एक रोज़ मैं आपकी आवाज भी रेकॉर्ड करूंगा ज़रूर’, तो ख़ुशक़िस्मती से वो वक़्त भी बहुत जल्द आ ही गया। ‘विविध भारती’ के ‘इनसे मिलिए’ कार्यक्रम के लिए मैंने ‘विविध भारती’ की टीम के साथ उनके घर पर जाकर उनका इंटरव्यू किया जो वास्तव में मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि है। इसके बावजूद शमशाद बेगम एक अपवाद ही हैं, क्योंकि मेरी पत्नी के मन से ‘ये मुखौटे चढ़ाए नक़ली लोग आप ही को मुबारक’ वाला भाव आज भी निकला नहीं है।
शमशाद बेगम का निधन 23 अप्रैल 2013 को 94 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ|
We
are thankful to –
Mr.
D.B.Samant, Mr. Harish Raghuvanshi, Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ & Mr.
Biren Kothari for their valuable suggestion, guidance, and support.
Mr.
Sanjeev Tanwar for providing Dalsukh M Pancholi’s picture.
Mr. S.M.M.Ausaja
for providing movies’ posters.
Ms.
Akhsher Apoorva for editing the English translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Shamshad Begum on YT Channel BHD
“Boojh Mera Kya Naam Re, Nadi Kinaare Gaanv Re” –
Shamshad Begum
…….Shishir Krishna Sharma
‘A jingle bell voice, full of affinity…! What a voice, flowing like the rivers of Punjab…!!’ So said the famous singer O.P.Nayyar (Dharmayug 1st August 1991 / Page 44), for that sweet, clinking voice that kept its face hidden for 30 years, like a fairytale princess who kept bewitching the paramours of film music. Neither a photo nor an interview, distancing herself, far from any kind of publicity. In 1969 she appeared at Mumbai’s Shanmukhanand Hall for the first time creating a frenzy among people to see her. But suddenly after she left the world of movies and was lost in oblivion. Years later in August 1998 she once again made national headlines when all the news mills pronounced her dead. But the one who had died was Naseem’s mother and Saira Bano’s maternal grandmother, namely was some other Shamshad Begum. Despite the truth coming to light, other than a few, most of the newspapers didn’t even try to rectify this error. To the extent that a website called ‘indianmelody.com’ gives out this erroneous information to music lovers till date. Also, there was no shortage of people who believed that Shamshad Begum has shifted to Pakistan. Some cognizant from cinema and journalism believed that she still resided at Colaba, her south Mumbai home. But all these were baseless theories. The truth is that Shamshad Begum was in Mumbai all along but had merely shifted from Colaba to the posh locality of Powai during the mid-decade of 1990 where she still resides currently.
Unquestionably Shamshad Begum’s shy persona is just as responsible for these rumors as she has always been wary of mingling with other people. Acquiring an interview or her picture was a long shot, just getting to her was an immense task. She was completely against giving out her telephone number and address. Many a times people ask me how did I manage to find her, so today, for the first time through this write up I am lifting the veil on this narrative because never before has my pen touched paper been published on this account. I was always curious to know more about her. Seeing my passion for the History of Hindi Cinema, when senior journalist and Mumbai bureau chief of Hindi Weekly ‘Sahara Samaya’, Mr. Dhirendra Asthana, made me responsible for the papers column ‘Kya Bhooloon Kya Yaad Karoon’, ‘Baakalam Khud’ and ‘Film Quiz’, I found a new objective in life. During research I came across ‘indianmelody.com’s’ page on Shamshad Begum and that raised many questions in my mind. According to the web page, Shamshad Begum’s age at the time of demise was a 100 years. That means she was born in the year 1898? So did she start singing for films only at the age of 42 (in the year 1940)? Does that mean she recorded her last song (in the year 1968) at the age of 70? NO….! I thought, something does not add up here.
A year went by in just trying to get hold of her phone number. During my conversations with Composer Naushad, senior journalist Udaytara Nair and with Mr. Kshamendra Ganjoo, who was involved in the making of the program ‘Gaata Jaaye Banjara’ which was televised on Doordarshan towards the beginning of the 1990 decade, it became clear that Shamshad Begum was alive and living in Mumbai itself. But her right contact address or phone number was not to be found with any person from the film industry or the corresponding trade union. To the extent that I could not find any information from the ‘Singer’s Association’’ and ‘Music Director’s Association’ either. Disappointed, now, I was left with just one clue and that was the surname of Shamshad Begum’s son in law and his army officer’s rank, information which Mr. Kshamendra Ganjoo had imparted to me during one of our conversations. I remembered having seen Shamshad Begum on the televised program ‘Gaata Jaaye Banjara’ almost 12 years back and hence got in touch with Mr.Kshamendra Ganjoo. According to him, Shamshad Begum was living at Colaba at that time.
My search was made a little easy by Shamshad Begum’s son in law’s rank, his rare surname but above all by the CD of MTNL’s telephone directory. In entire Mumbai there were hardly 8 – 10 telephone users with that surname of which but one had the same army officer’s rank attached to it. The lady who answered the phone at first flatly refused that anyone called Shamshad Begum resides at his number. But I wasn’t one to give up so easily. After a while of convincing and probing, she had to agree to the fact that she is Shamshad Begum’s daughter and that Shamshad Begum lives with her. But to meet the illusive Shamshad Begum, I had to wait for another 6 long months. During this time, I spoke to Shamshad Begum’s daughter several times and eventually she managed to persuade her mother for a meeting. But the preconditions were that the meeting would last for no longer than half an hour, her voice won’t be recorded, and no photos are to be clicked.
Now the biggest question for me was that without any photographic evidence or recorded interview how will I be able to prove that Shamshad Begum is in Mumbai itself and that I have met her? Her conditions had already shut the doors for my fellow cameraman Anil Murarka being present there and I was afraid that if I did try to persuade her otherwise, she might refuse to meet me even. Because I had started to understand the psychology of many elder female artists, I stared brainstorming and finally found one way of making all this possible. A day before we were scheduled to meet, I called up Shamshad Begum’s daughter and asked her if she would have any problems if I brought my wife along to the meeting? I knew that if my wife accompanied us, the atmosphere would become very homely. And as I had hoped her daughter’s response was very positive and warm. That’s another thing that I had to work very hard to convince my wife as having seen the glamour world fairly closely she had no illusions about glitz and glamour and the thought ‘you can keep these artificial faces all to yourself honey!’ was now deep rooted in her mind, well…!
A very beautiful, posh area! Strict interrogations by the Security Guards!! Right on time, we were standing in front of the apartment door on the 6th floor of the multistoried building. The door was opened by her son in law. Retired Army Officer. Arresting but a humble personality. He received us with a lot of warmth. We started conversing and when he realized I was from Dehradoon, he became very nostalgic about the time he had spent there almost 50 years ago during his training at the ‘Indian Military Academy’ and got lost in his memories of Dehradoon City, Clement Town, Rajpur, Jharipani and Mussoorie. While we were lost in whimsical thoughts his wife, whom I had been talking to over the phone for the last 6 months, had also joined us.
After about 20 minutes finally that moment came for which I had been struggling for the past 1½ years. Supporting herself on a cane, yesteryears famous singer Shamshad Begum was there, finally, standing in front of us. Saying ‘So, we finally broke through your pertinacity’ I folded my hands in a humble Namaste and she broke out in a smile. ‘Ask me what you want to ask’ – she sat down in a chair saying that. And lost in conversation, the next two and a half hours just flew by. She wove all the pieces of her life in a series of chain starting from her childhood to now which went something like this in her words –
“I was born on the 14th of April 1919 in Lahore. My father used to take housing contracts and among 8 brothers and sisters I was the 5th child. I didn’t receive any formal training in singing. I never realized when I started singing. When I was in school, I would stand on the desk and sing DUA with all the other kids. During Ramzaan, my relatives would come to hear me recite ‘naatein’. I was 12 years old when I accompanied my Chacha (paternal uncle) to ‘Xynophone Company’ which used to make records and where Master Ghulam Hyder was working as a music composer and he took my audition. I sang the Sthaai and Antara of the Ghazal ‘mera yaar mujhe mile agar’ written by Bahadur Shah Zafar and passed the exam. In the true sense it was Master Ghulam Hyder who molded my voice and taught me the intricacies of singing. At that time many private records sung by me were released and were liked by the public. Released in the year 1935, saw a big sale of my records of the Aarti ‘Om Jai Jagdish Hare’, however, my real name did not feature on the record. My first hit song was ‘haath joda pakhiyaan da kasam khuda ki’ after which I got so busy that after the 5th standard, I had to leave my further studies. Playback had not started till then and there were many opportunities for melodious singers to act in films. Many such opportunities came my way, but my strict mother and father refused to relent. I was married at the age of 16 but due to my mother-father’s strict policy of ‘staying behind the veil’ had made shyness a prominent part of my personality. That’s also the reason that even today I feel very uncomfortable in meeting people or giving interviews or getting my pictures clicked.”
Shamshad Begum got an opportunity to sing for radio in 1937 and so she went to Peshawar. After 2 years a radio station opened in Lahore and so she came back and started singing for Lahore as well as Delhi and Lucknow radio. By the end of 1930 playback had become an integral part of movies and was used by all. According to Shamshad Begum during this time ‘Dalsukh M.Pancholi’ owner of ‘Pancholi Arts’ in Lahore called her to sing for the Panjabi film ‘Yamla Jatt’. The first song that Shamshad Begum recorded for this film was a solo song, ‘aa sajna dowein rall ke chaliye parle paar’. Compsed by Master Ghulam Hyder this Silver Jubilee Hit film was released in the year 1940. This was also actor Pran’s debut film.
Made in the year 1941, ‘Khazanchi’ was Shamshad Begum’s first Hindi film. This film was also produced under the banner of ‘Pancholi Arts’ (Lahore). Songs ‘ek kali naazon ki pali’ and ‘sawan ke nazaare hain’ sung by Shamshad Begum along with all the 9 songs of the film had become very famous at that time. Master Ghulam Hyder was film Khazanchi’s music composer and Wali Saheb was the lyricist. While in Lahore Shamshad Begum sung songs for films like ‘Pancholi Arts’s’ ‘Khandaan’, ‘Zamindaar’ (both 1942) and ‘Poonji’ (1943) and ‘Shourie Pictures’s’ ‘Nishani’ (1942) and then on Mehboob Khan’s invitation to sing for his film ‘Taqdeer’ she came to Mumbai. Made in 1943, ‘Taqdeer’ was Nargis’s first film as a heroine.
In a career spanning 30 years, Shamshad Begum has sung more than 1600 songs under the directions of for A-list composers like Master Ghulam Hyder, Sachin Dev Burman, Naushad, C.Ramchandra, Madan Mohan and O.P.Nayyar along with many other much talented music composers. As per Shamshad Begum, 1940’s decade was very busy and one of many commitments. And then as and when the new generation of singers and music directors started to establish, her hectic schedule started lessening. She says, “My last recorded song is from film ‘Kismet’, made in 1968, composed by O.P.Nayyar wherein i sung a duet ‘kajra mohabbatwala’ with Asha Bhonsle, however many previously recorded songs like ‘pyar kiya to darna kya’ (Raaton Ka Raja/1970), ‘teen kanwariyaan…haathon me mehndi racha de koi’ (Parde Ke Peechhe/1971) and ‘O sanam tere liye jaage hain raat raat bhar’, ‘kar lo jitna sitam’ and ‘hamein mitaane aaya jo’ (Ganga Maang Rahi Balidaan/1981) were released later on in the market.”
Shamshad Begum’s husband Ganpat Lal Batto was originally from Dera Ismail Khan and was a lawyer by profession. Shamshad Begum says, “I have been living with my daughter and son in law after my husband died in 1955. My son in law got a transfer in 1971 and so I too spent around 7 years with them out of Mumbai in army cantonments like Jalandhar and Mhow. So, by the time I returned, my ties with the film world were completely broken. And then slowly and gradually the four walls of my house became my whole world.”
Like I had rightly believed, the atmosphere had become so homely in those 2-1/2 hours that when she came to know that I had in fact carried a camera just in case she readily agreed to have her pictures clicked and published. And if I had come alone this might have not been possible. Raised in a joint family and having spent a large part of her married life in a joint family, my wife effortless and graciously spent the time mingling with the three elders of this family. …and like I believed; my plan was a completely success. I completely accept that if my wife had not been with me every step of the way, then surely even today I would still be fretting in a branch of ‘Punjab National Bank’ somewhere in the hills of Uttrakhand in some place like ‘Dhopardhar’, ‘Chailusain’, ‘Dunda’ or ‘Ranachatti’ at the most as a reluctant manager. Well….! While taking our leave I thanked Shamshad Begum for the interview and for letting us click her pictures and told her ‘one day I will also have the privilege of recording your voice’ and on hearing this she burst out laughing.
I submitted a report of this meeting held in one afternoon of 18th September 2004, through Mr. Dhirendra Asthana to ‘Sahara Samay’s’ Noida based editorial section. I was afraid that if someone else published a report on Shamshad Begum’s current status before my report then my hard work of 1-1/2 years will be to no avail and hence I wanted my report to be published as soon as possible. But maybe ‘Sahara Samay’s’ editorial section didn’t realize the importance and the gravity of the situation. Meanwhile ‘Dainik Jagran’s’ Mumbai bureau had come to know of this and wanted to publish it in their newspaper. I requested them to hold on for a while but when after 3 weeks this report was still buried under files at ‘Sahara Samay’s’ Noida office, I had to reluctantly agree to let ‘Dainik Jagran’ publish it. When this report was published on the front page of 12th October’s ‘Dainik Jagran’ by senior journalist Mr. Anand Bharti of my meeting with Shamshad Begum, it shook the media and especially electronic media all over the nation. I was being pressurized to let out Shamshad Begum’s address and phone number. Ultimately on the suggestion of ‘Dainik Jagran’s’ Mumbai bureau and with the permission of Shamshad Begum, I gave a particular channel correspondent her phone number. And then it became a media circus for all channels wanted to get an interview of Shamshad Begum. Eventually the government also came out of its comatose state and in the year 2009 presented Shamshad Begum with a ‘Padma Bhooshan’, and finally earning some good karma for itself in the process!!
Like I had promised Shamshad Begum that ‘one day I will also have the privilege of recording your voice’, it was my good fortune that I saw that day soon enough. Along with a team from ‘Vividh Bharti’ I went to her house to record an interview with her for the program ‘Inse Miliye’, which I consider one of the biggest achievements of my life. Despite this all, Shamshad Begum remains an exception, because till date, my wife still believes in her statement ‘you can keep these artificial faces all to yourself honey!’
Shamshad Begum died aged 94 in Mumbai on 23 April 2013.
इस असाध्य श्रम वाले कार्य हेतु तह-ए-दिल से बधाई आपको। मेरी जानकारी में यह था कि शमशाद जी अभी भी हमारे बीच हैं और अमुक इलाके में गुमनाम जीवन जी रही हैं। लेकिन कोलकाता में रहकर इतनी छान-बीन कर पाना संभव नहीं जैसा कि आपको बंबई में रहकर भी इतनी मशक्कत करनी पड़ी। दुर्भाग्य तो यह है कि नेट पर उनकी प्रोफाइल में भी उन्हें दिवंगत दिखाया जाता रहा है। मुझे जब-जब मौका मिला, मैं अपने एफ. एम. के कार्यक्रम में उन्हें जीवित बताती रही हूं और जन्म दिन की बधाई भी देती रही हूं। अपने प्रोग्राम 'आज की शख्सीयत'में जब कभी उन पर प्रोग्राम पेश करूंगी तो आपसे भी बात करना चाहूंगी ON AIR. मेरे पसंदीदा कलाकारों में हैं श्रद्धेया शमशाद जी। ईश्वर उन्हें स्वस्थ्य रखे और दीर्घायु करे, यही कामना है। इस पुण्य कार्य हेतु पुन: बधाई आपको।
ReplyDelete- नीलम शर्मा 'अंशु'
Good one!!
ReplyDeleteBrotheri
ReplyDeleteइसके बाद सरकार भी कोमा की स्थिति से बाहर आयी, this not right, mr chandar kant ji write a book on her The Author Chandrakant Mohanlal ji
Khanakti Aawaaz ... Shamshad Begum year 2003
Chandrakant ji is no ordinary person. He is a retired mathematic professor from Indor--emobile number +91-9819883628 or 9819883628
she get award.
thanks
शुक्रिया नीलम जी और अश्विनी जी !!!
ReplyDelete@surhall : this book was released in 2008 and not 2003. please check.
http://www.screenindia.com/news/book-on-shamshad-begum/359283/
"इसके बाद सरकार भी कोमा की स्थिति से बाहर आयी" - कृपया इस पंक्ति में छुपे व्यंग्य को समझें। शमशाद बेगम जैसी महान गायिका को सम्मानित करने के लिए उनकी सेवानिवृत्ति के बाद 41 सालों का इंतज़ार?...और अगर मीडिया में उनके जीवित होने की ख़बरें न आयी होतीं तो क्या सरकार तब भी उन्हें खोज कर सम्मानित करती?
aapki mehnat ko salam iss bahane log update bhi lenge aour recuuring galtiyon se bachenge
ReplyDeleteu know number 09231845289
Sharma ji,
ReplyDeleteI am terribly impressed with your efforts in tracking Shamshad ji.only a person with genuine desire to put on record the real facts can do such a thing.hats off to you.
After reading your articles,I learnt so much that I think I have yet to learn the ABC of becoming an interviewer and what I have done so far is almost nothing.
In India we need Kalapremi people like you who will record the facts,collected First Hand-as far as possible-to build a History of Indian Hindi Film industry's contributors.
Artists like Shamshad ji have given their contribution full throatedly and we are thankful the such artists for it is they who have been responsible for the Golden period of Film music in India.
I thank you once again and hope to read more such articles in future.
-Arunkumar Deshmukh
shukriya jitendra ji aur arun ji...
ReplyDeleteafsos ki ye "beete hue din" ka antim aalekh hai...kuchh khaas wajahon se mai "beete hue din" ko yahin samaapt karne par majboor hoon !!! :(
aapki mehnat bahut achchha rang laayi. Badhayi.
ReplyDeleteशुक्रिया संजीव जी...!!! :):)
ReplyDeleteShishir Ji, the whole article made such a compelling read. Thank you so much; you deserve a big pat on the back for searching Begum Sahiba at time when the world at large had forgotten about her - and some had even taken her as deceased (terrible!). May god bless her many more years of healthy life. And may you continue to remain inspired like this all through your life.
ReplyDeletethanks nareshji...!!!
ReplyDeleteAapki team ko dhanyawaad dene ke liye shabd naheen hain mere paas.
ReplyDeletelove from lahore
ReplyDeletepakistan
salute to your wife
who become a strong sourse
fo