“बिल्लौरी आंखों वाला खलनायक” – कमल कपूर
........शिशिर कृष्ण शर्मा
1960 के दशक के मध्य में हिंदी सिनेमा के दर्शकों का परिचय एक ऐसे खलनायक से हुआ था जिनकी बिल्लौरी आंखें हमेशा ही दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचती आयीं। लेकिन बहुत कम लोग इस बात से परिचित होंगे कि यही कमल किशोर कपूर यानि कि कमल कपूर 1940 और 1950 के दशकों में कई फ़िल्मों में हीरो बनकर आए थे। करियर के अगले दौर में क़रीब तीन दशकों तक वो सिनेमा के परदे पर खलनायकी के जौहर दिखाते रहे। और फिर 1990 के दशक के मध्य में सिनेमा की जगमगाती दुनिया को अलविदा कह गए। कमल कपूर से मेरी मुलाक़ात साल 2004 के जनवरी माह में अंधेरी (पश्चिम) के चार बंगला इलाक़े के उनके फ़्लैट पर हुई थी। “बीते दिनों को याद करने की कोशिशें बहुत जल्द थका देती हैं...अब दिमाग़ पर ज़्यादा ज़ोर नहीं डाल पाता मैं” – थके स्वर में उन्होंने कहा था। उस वक़्त उनकी उम्र 84 साल थी। लेकिन बातों का सिलसिला शुरू होते ही उनकी यादें ख़ुद-ब-ख़ुद ताज़ा होने लगीं।
22 फ़रवरी 1920 को पेशावर में जन्मे कमल कपूर की पढ़ाई-लिखाई लाहौर में हुई थी। उनके बड़े भाई पुलिस अधिकारी थे जिनकी नियुक्ति तत्कालीन सेंट्रल प्रोविंस के नागपुर, जबलपुर और वर्धा शहरों में होती रहती थी। कमल कपूर के मुताबिक, “पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने सोचा कि बड़े भाई के पास सेंट्रल प्रोविंस चला जाऊंगा। लेकिन अचानक मुंबई चला आया, जहां मेरी मौसी के बेटे पृथ्वीराज कपूर पहले से ही रंगमंच और फ़िल्मों में अपनी ख़ासी पहचान बना चुके थे। ये साल 1944 का वाकया है।” संयोग से पृथ्वीराज कपूर ने उसी साल “पृथ्वी थिएटर” की नींव रखी थी। उन्होंने मुंबई में जमने में कमल कपूर की बहुत मदद की। “पृथ्वी थिएटर” के नाटक “दीवार” में अंग्रेज़ अधिकारी की भूमिका के साथ कमल कपूर ने अभिनय की दुनिया में पहला कदम रखा था।
साल 1946 में कमल कपूर की पहली फ़िल्म “दूर चलें” प्रदर्शित हुई। “दुर्गा पिक्चर्स” के बैनर में बनी इस फ़िल्म के निर्देशक फणि मजूमदार, संगीतकार के.सी.डे और नायक-नायिका कमल कपूर और नसीम थे। ये फ़िल्म तो ज़्यादा नहीं चली लेकिन इसने कमल कपूर को थोड़ी-बहुत पहचान ज़रूर दे दी। इसके बाद कमल कपूर ने वनमाला के साथ “हातिमताई” (1947), सुरैया के साथ “डाक बंगला” (1947), हुस्नबानो के साथ “परदेसी मेहमान” (1948), पाकिस्तान से आयी अभिनेत्री रागिनी के साथ “इंसान” (1952), श्यामा के साथ “जग्गू” (1952) और गीताबाली के साथ “अमीर” (1954) जैसी कुल 21 फ़िल्मों में बतौर नायक काम किया, लेकिन “जग्गू” को छोड़कर बाक़ी कोई भी फ़िल्म चल नहीं पायी। (“डाक बंगला” कमल कपूर के द्वारा साइन की गयी पहली फिल्म थी| लेकिन ये फ़िल्म उनकी एक-दो फ़िल्मों के बाद प्रदर्शित हुई थी|)
राजकपूर की बतौर निर्माता-निर्देशक साल 1948 में बनी पहली फ़िल्म “आग” में कमल कपूर ने नायक राजकपूर के पिता की भूमिका निभाई थी लेकिन उसके बाद उन्होंने उस तरह की तमाम भूमिकाओं को अस्वीकार कर दिया था। कमल कपूर के मुताबिक वो दौर ऐसा था जब उनका करियर दिशाहीन हो चला था। चरित्र भूमिकाएं वो करना नहीं चाहते थे और बतौर नायक उनकी तमाम फ़िल्में एक-एक करके फ़्लॉप होती जा रही थीं। ऐसे में उन्होंने ख़ुद ही फ़िल्म बनाने का फैसला कर लिया। साल 1951 में उन्होंने निर्माता-निर्देशक राजिंदरनाथ जॉली के साथ मिलकर फ़िल्म “कश्मीर” बनाई जिसकी मुख्य भूमिकाओं में उनके साथ अरूण, वीणा, निरूपा राय और अल नासिर थे। संगीत हंसराज बहल का था। लेकिन ये फ़िल्म भी नहीं चल पायी।
साल 1954 में कमल कपूर ने स्वतंत्र रूप से फ़िल्म “ख़ैबर” का निर्माण किया। “कपिल पिक्चर्स” के बैनर और केदार कपूर के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म के संगीतकार हंसराज बहल और नायक-नायिका कमल कपूर और निगार सुल्ताना थे। कमल कपूर के मुताबिक, “फ़िल्म ख़ैबर इतनी बुरी तरह पिटी कि मैं सड़क पर आ गया। यहां तक कि साल 1946 में मैंने जो कार ख़रीदी थी वो भी बिक गयी। नायक की भूमिकाएं मिलना तो दूर, छोटा-मोटा काम भी मिलना बंद हो गया। वो मेरी ज़िंदगी का सबसे बुरा दौर था। अपवादस्वरूप कभी-कभार “आख़िरी दांव” (1958) जैसी एकाध फ़िल्म ज़रूर मिली वरना 9 साल तक मैं बेकार बैठा रहा। आख़िरी दांव में मैं पहली बार खलनायक बना था।“
कमल कपूर के करियर का खलनायकी का दौर सही मायनों में साल 1965 में बनी फ़िल्म “जौहर महमूद इन गोवा” से शुरू हुआ। इसका श्रेय वो मशहूर निर्माता-निर्देशक (स्वर्गीय) यश जौहर को देते थे। उनके मुताबिक, “यश के ज़हन में नाटक “दीवार” की मेरी भूमिका ताज़ा थी इसलिए फ़िल्म “जौहर महमूद इन गोवा” में अंग्रेज़ खलनायक की भूमिका के लिए आई.एस.जौहर को मेरा नाम यश जौहर ने ही सुझाया था”। इस फ़िल्म की कामयाबी के साथ ही कमल कपूर के अच्छे दिनों की शुरूआत हुई और आगे चलकर उन्होंने “जौहर इन बॉम्बे”, “जौहर महमूद इन हांगकांग”, “जब जब फूल खिले”, “राजा और रंक”, “दस्तक”, “पाकीज़ा”, “पापी”, “चोर मचाए शोर”, “फ़ाईव राईफ़ल्स”, “दो जासूस”, “दीवार”, “खेल खेल में”, “मर्द” और “तूफ़ान” जैसी कई फ़िल्मों में छोटी-बड़ी भूमिकाएं कीं। साल 1967 में बनी फ़िल्म “दीवाना” में वो एक बार फिर से राजकपूर के पिता की भूमिका में नज़र आए थे।
कमल कपूर के मुताबिक, “फ़िल्म जब जब फूल खिले” (1965) के जुबली समारोह से ट्रॉफ़ी लेकर जब मैं पत्नी के साथ देर रात बाहर निकला तो भारी-भरकम ट्रॉफ़ी को उठा पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। उस रोज़ पृथ्वीराज कपूर ने हमें लिफ़्ट देकर अपनी गाड़ी से हमारे घर तक पहुंचाया था। ऐसे में मुझे साल 1954 में फ़िल्म “ख़ैबर” के फ्लॉप होने की वजह से बिकी अपनी कार बहुत याद आयी थी और यही वजह है कि मेरी ज़िंदगी का सबसे ख़ुशगवार दिन वो था, जब साल 1966 में मैंने फिर से कार ख़रीदी। साल 1975 में बनी फ़िल्म “दीवार” में मैंने सिर्फ़ एक दृश्य की छोटी सी भूमिका की थी। लेकिन दर्शकों को वो भूमिका बेहद पसंद आयी। यहां तक कि बंगलौर में तो एक रोज़ ट्रैफ़िक पुलिस के एक सिपाही ने मुझसे मिलने के लिए काफ़ी दूर तक मेरी गाड़ी का पीछा भी किया था।”
साल 1993 में बनी फ़िल्म “ज़ख़्मी रूह” कमल कपूर की आख़िरी फ़िल्म थी जिसके बाद उन्होंने अभिनय को अलविदा कह दिया था। 3 बेटों और 2 बेटियों के पिता कमल कपूर के छोटे दामाद स्वर्गीय रमेश बहल अपने दौर के मशहूर निर्माता-निर्देशक थे जिन्होंने “द ट्रेन”, “जवानी दीवानी”, “कसमें वादे”, “बसेरा”, “पुकार” और “इन्द्रजीत” जैसी क़रीब एक दर्जन फ़िल्में बनाई थीं। कमल कपूर के दोहते (रमेश बहल के बेटे) गोल्डी बहल एक जाने-माने निर्माता-निर्देशक हैं| गोल्डी को ‘बस इतना सा ख्वाब है’, ‘द्रोणा’ जैसी फ़िल्मों और ‘रिपोर्टर्स’ और ‘आरम्भ’ जैसे टी.वी. शोज़ के लिए जाना जाता है| गोल्डी बहल की पत्नी सोनाली बेंद्रे भी एक जानीमानी अभिनेत्री हैं| कमल कपूर के छोटे भाई रविंदर कपूर (चित्र में) भी अभिनेता थे| उन्होंने 1950 के दशक में ‘सुन तो ले हसीना’, ‘मैंने जीना सीख लिया’ और ‘खूबसूरत धोखा’ जैसी फिल्मों में नायक की भूमिका की थी| आगे चलकर वो चरित्र भूमिकाएं करने लगे थे|
ज़िंदगी के क़रीब 50 साल हिंदी सिनेमा को देने वाले अभिनेता कमल कपूर का निधन 2 अगस्त 2010 को 90 साल की उम्र में मुंबई में हुआ।
We
are thankful to –
‘Kamal
Kapoor’s family blog’ as the source of some of the pictures used with this interview.
Mr.
Harish Raghuvanshi, Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ & Mr. Biren Kothari for their valuable suggestion, guidance
and support.
Mr.
S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.
Ms.
Maitri Manthan for the English translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video
editing.
Kamal Kapoor on YT Channel BHD
“A Crystalline Eyed Bad Man” – Kamal Kapoor
..........Shishir Krishna Sharma
Hindi cinema
enthusiasts of mid-1960s are familiar with an ‘on screen’ bad man with deep,
penetrating and attractive light eyes, but very few people might be aware that
the same ‘bad man’, Kamal Kishore Kapoor, known as Kamal Kapoor played the
leading man in many a films made in 1940’s and 50’s. In the second half of his
acting career he showed his excellence in playing negative parts for about
three decades. In the mid-1990’s he bid adieu to the glittering world of
cinema.
I met Kamal Kapoor
in the month of January 2004 at his flat at Four Bungalows, Andheri (West).
“It’s very tiring to revive those long-lost memories…really hard to recollect
the things now” – said the 84-year-old gentleman in a stressed voice. Yet, as
our conversation progressed, those long-lost memories started coming back
without much effort.
Born in Peshawar on
22nd February 1920, Kamal Kapoor completed his education in Lahore. His elder
brother was a police officer who served in the cities of Nagpur, Jabalpur and
Wardha which were part of the then Central Province. According to Kamal Kapoor,
“I had planned to shift to Central Province, to be with my brother after
completing my education but suddenly I changed my mind and came down to Mumbai
in 1944, to join my first cousin (my mother’s sister’s son) Prithviraj Kapoor
who was already a name in theatre and films then”. Coincidentally, the same
year i.e. in 1944, “Prithvi Theatre” was founded by Prithviraj Kapoor. He whole
heartedly helped Kamal Kapoor settle in Mumbai. Kamal Kapoor started his acting
career with the “Prithvi Theatre” play “Deewar” where he played a British
Officer.
Kamal Kapoor’s
debut film was the 1946 release, “Door Chalein”. This movie, produced under the
banner of “Durga Pictures” was directed by Phani Majumdar and the music
composer was K.C.Dey while Kamal Kapoor and Naseem were the leading pair.
Though this film did not find much appreciation among viewers, it helped Kamal
Kapoor gain some recognition. Till mid 1950’s he played the main lead in a
total of 21 films including “Hatimtai” (1947) with Vanmala, “Dak Bangla” (1947) with Suraiya, “Pardesi Mehman”
(1948) with Husn Bano, “Insaan” (1952)
with Ragini of Pakistan, “Jaggu” (1952) with Shyama and “Ameer” (1954)
with Geeta Bali but none of these except “Jaggu” found box-office success. (Very first film that Kamal Kapoor signed was “Dak
Bangla”. But this film released 1
or 2 films later.)
Kamal Kapoor played
Raj Kapoor’s father in “Aag” (1948) which was also Raj Kapoor’s debut film as
producer-director. Later he got numerous offers to play similar roles which he
flatly refused to do. Kamal Kapoor said, it was a crucial point in his career
as he did not know where he was heading. He wasn’t willing to play supporting
roles but his films as a leading man were not finding success. In such
circumstances he decided to turn a producer. In the year 1951 he produced a
film “Kashmir” in partnership with producer-director Rajinder Nath Jolly. Kamal
Kapoor himself played the hero of the film with Arun, Veena, Nirupa Roy and Al Nasir
in other important roles. Composer was Hansraj Behl. But “Kashmir” again failed
to make any impact.
Kamal Kapoor turned
an independent producer in the year 1954 and produced “Khyber” under the banner
of “Kapil Pictures”. Director was Kedar Kapoor, the composer was once again
Hansraj Behl. Nigar Sultana played the main lead against Kamal Kapoor.
According to Kamal Kapoor, “Film “Khyber” was such a flop that I almost came on
the road. Even the car which I bought in 1946 had to be sold. Main lead roles turned
a distant dream; even the small supporting roles stopped coming my way. I was
out of work for almost 9 years with rare exceptions like the 1958 release
“Akhiri Dao”. I played the negative role for the first time in “Akhiri Dao”.
Kamal Kapoor’s
career as a villain started with the film “Johar Mehmood In Goa” which was
released in 1965. He always owed this to the renowned producer-director (Late)
Yash Johar. According to Kamal Kapoor, “Yash Johar always remembered the role
of the British Officer I played in the play “Deewar” thus he suggested my name
to I.S.Johar for the main villain who was an English man in “Johar Mehmood In
Goa”. This movie proved to be a big hit thus putting an end to the bad times
for Kamal Kapoor. Soon he was flooded with work and was offered to play
different characters in films like “Johar In Bombay”, “Johar Mehmood In
Hongkong”, “Jab Jab Phool Khile”, “Raja Aur Rank”, “Dastak”, “Pakeezah”,
“Paapi”, “Chor Machaye Shor”, “Five Rifles”, “Do Jasoos”, “Deewar”, “Khel Khel
Me”, “Mard” and “Toofan”. He once again got a chance to play Raj Kapoor’s
father in the 1967 release “Deewana”.
Kamal Kapoor
recollects, “Once when I and my wife were heading home from the “Jubilee
celebration” of the film “Jab Jab Phool Khile” (1965), it was already very late
in the night. The trophy I got for the film was too heavy for us to carry.
Prithviraj Kapoor gave us a lift and helped us reach home in his car. That day
I really missed my car which I had to sell off in 1954 due to the “Khyber”
disaster, that’s why the happiest day of my life was when I bought a new car
again in the year 1966. In the film “Deewar” (1975) I had a one-scene role, but
it was highly appreciated. Even a traffic police constable chased my car just
to meet me in Banglore”.
“Zakhmi Rooh”,
which was released in 1993 was Kamal Kapoor’s last film after which he bid
goodbye to acting. Father of 3 sons and 2 daughters, Kamal Kapoor’s younger son
in law (Late) Ramesh Behl was a renowned producer-director who made a dozen
films like “The Train”, “Jawani Diwani”, “Kasme Waade”, “Basera”, “Pukar” and
“Indrajeet”. Kamal Kapoor’s grandson (Ramesh Behl’s son) Goldie Behl is a
producer-director known for the movies ‘Bas Itna Sa Khwaab Hai’, ‘Drona’ and TV
shows ‘Reporters’ and ‘Aarambh’. Goldie is married to well known actress Sonali
Bendre.
Kamal Kapoor’s younger
brother Ravinder Kapoor was also an actor who played the main lead in a couple
of movies in 1950s e.g. ‘Sun To Le Hasina’, ‘Maine Jeena Seekh Liya’ and Khoobsoorat
Dhokha’. Later he turned to character roles.
Actor Kamal Kapoor who devoted 50 good years to the Hindi Cinema passed away at the age of 90 years on 2nd August 2010 in Mumbai.
Cousin of Bollywood actor Prithviraj Kapoor.
ReplyDeleteBrother of Bollywood actor Ravindra Kapoor.
ReplyDeletenice...bahut prabhavshaali khalnaayak the...lekin inke baare mein log kam jaante hain!
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