“बन में बहार आ गयी, मन में उमंग छा गयी” – बलवंत सिंह
........शिशिर कृष्ण शर्मा
ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ के लिए 1930 और 40 के दशक के बालकलाकार और गायक बहन-भाई मंजु और बालकराम पर शोध के दौरान मुझे यूट्यूब पर गीत ‘काका अब्बा बड़े खिलाड़ी, इक दूजे से रहें अगाड़ी’ देखने को मिला था| बेहद ही मज़ेदार ये गीत पुणे की ‘प्रभात फ़िल्म कंपनी’ की बहुचर्चित फ़िल्म ‘पड़ोसी’ का था, जो साल 1941 में प्रदर्शित हुई थी| इस गीत में परदे पर बालकराम समेत दो तीन बच्चे और कुछ बालिग स्त्री-पुरूष थे, जिनमें फ़िल्म की शीर्षक भूमिका निभाने वाले, उस दौर के मशहूर अभिनेता मज़हर खान और गजानन जागीरदार भी शामिल थे| कलाकारों की उस भीड़ के बीच मौजूद एक युवा अभिनेता ने मेरा ध्यान ख़ासतौर से अपनी ओर खींचा था| बेहद ख़ूबसूरत, सुदर्शन व्यक्तित्व, प्रभावशाली और आकर्षक| मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, कौन है ये कलाकार? लेकिन उसके बारे में जानने की तमाम कोशिशों के बावजूद मुझे सिर्फ़ इतना पता चल पाया, कि उस कलाकार का नाम बलवंत सिंह था, वो अभिनेता होने के साथ साथ एक बेहतरीन गायक भी थे, और अपने गाने ख़ुद गाते थे| गीत ‘काका अब्बा बड़े खिलाड़ी’ भी बालकराम, बलवंत और गोपाल की आवाज़ों में था|
समय बीतता गया| तमाम व्यस्तताओं के बीच बलवंत सिंह का नाम कहीं पीछे छूटता चला गया| लेकिन तभी एक रोज़ फ़ेसबुक पर किसी भूले बिसरे कलाकार से सम्बंधित अपनी पोस्ट पर मुझे एक कमेन्ट नज़र आया| उन पाठक ने ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ की प्रशंसा में अत्यंत उत्साहवर्धक बातें लिखते हुए अपना परिचय अभिनेता (स्वर्गीय) बलवंत सिंह के बेटे के रूप में दिया था| मैंने उत्साहित होकर उनसे संपर्क किया और जिन बलवंत सिंह के बारे में जानने की मेरी बेताबी समय के साथ निराशा में बदलती चली गयी थी, उनकी विस्तृत जीवनगाथा बहुत जल्द किसी करिश्मे की तरह उनके बेटे साहिबज़ादा राज़ ठाकुर की कलम से मेरे सामने थी| इस सहयोग के लिए मैं साहिबज़ादा राज़ ठाकुर का आभारी हूं, और सदैव रहूंगा|
तत्कालीन पंजाब प्रांत का हिस्सा रहे और आज के हिमाचल प्रदेश में स्थित ऊना जिले के पन्डोगा के जागीरदार परिवार में 9 फ़रवरी 1918 को जन्मे ठाकुर बलवंत सिंह के पिता का नाम ठाकुर बिशनचंद और माता का नाम ब्राह्मी देवी था| परिवार में माता- पिता के अलावा बलवंत सिंह से बड़े एक भाई और छोटी एक बहन थी| बलवंत सिंह ने ऊना से दसवीं तक पढ़ाई की| संगीत में उनकी गहन दिलचस्पी थी, इसलिए वो पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के शिष्य पंडित भीष्म देव जी से विधिवत रूप से शास्त्रीय गायन की शिक्षा लेने लगे| अभिनय से उनका रिश्ता स्कूल में दोस्तों के साथ मिमिक्री करने तक सीमित था|
एक रोज़ बलवंत सिंह मुकेरियां-पंजाब के गांव क्लोथां स्थित अपने आध्यात्मिक गुरु स्वामी कन्हैयागीर जी के दर्शनों के लिए पहुंचे| गुरूजी ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हारा आध्यात्मिक जीवन आरम्भ होने में अभी समय है, फिलहाल तो तुम्हें बंबई जाना होगा| गुरूजी के मुंह से निकली ये बात बहुत जल्द सच साबित हो गयी| गुरूजी के दर्शन करने बलवंत जब घर वापस लौटे, तो एक क़रीबी रिश्तेदार कुंवर रजित सिंह उनके घर पर आए हुए थे| कुंवर रजित सिंह रेलवे में उच्चाधिकारी थे और मुम्बई में रहते थे, जो उन दिनों बंबई कहलाता था|
कुंवर रजित सिंह ने बलवंत सिंह को गाते सुना, तो कहने लगे तू यहां क्या कर रहा है? मेरे साथ बम्बई चल, बहुत सारे फ़िल्म वाले मुझे जानते हैं, तुझे उनसे मिलवाऊंगा| और इस तरह बलवंत सिंह साल 1934 में मुम्बई चले आये| मुम्बई में तब तक हिमांशु रॉय और देविका रानी द्वारा फ़िल्म कंपनी ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की बुनियाद रखी जा चुकी थी| बलवंत सिंह का ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के साथ कॉन्ट्रैक्ट हो गया| साल 1937 में रिलीज़ हुई ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की फ़िल्म ‘जीवन प्रभात’ में बलवंत सिंह को बतौर गायक ब्रेक मिला| इस फ़िल्म में उनका गाया सोलो ‘चले थे बड़े दुश्मने जां बनकर...’ उस ज़माने में बहुत पसंद किया गया था| इसके अलावा उन्होंने इस फ़िल्म में देविका रानी के साथ दो युगल गीत भी गाये थे, जिनमें ‘निस दिन पल छिन सांझ सवेरे’ भी काफ़ी हिट हुआ था|
साल
1938 में उन्होंने
फ़िल्म ‘निर्मला’
में सोलो
‘जन्म लिया
तो जी
ले बन्दे,
डरने का
क्या काम
बन्दे’
तो गाया
ही, इस
फ़िल्म से
अपने एक्टिंग
करियर की
भी शुरूआत
की| उसी
साल की
फ़िल्म ‘वचन’
में वो
केवल एक
अभिनेता के
तौर पर
नज़र आये|
साल 1939 की फ़िल्म
‘दुर्गा’
में उन्होंने
अभिनय भी
किया और
‘अब जागो
राधारानी, रैन
गयी अब
हुआ सवेरा’
जैसा हिट
गीत भी
गाया| उसी
साल की
फ़िल्म ‘कंगन’
में वो
केवल परदे
पर नज़र
आए तो
‘नवजीवन’
में ललिता
देऊलकर के
साथ मिलकर
हिट दोगाना
‘राजा हमें
न निहारो,
हमें वो
लग जाएगी
नजरिया रे
हो राम’
गाया| लेकिन
‘नवजीवन’
बॉम्बे टॉकीज़
में बलवंत
सिंह की
आख़िरी फिल्म
साबित हुई|
बलवंत
सिंह को
असल पहचान
मिली, साल
1941 में रिलीज़
हुई सुपरहिट
फ़िल्म ‘पड़ोसी’
से| पुणे
स्थित प्रभात
फ़िल्म कंपनी
की इस
फ़िल्म का
निर्देशन वी.शांताराम
ने किया
था| इस
फ़िल्म में
बलवंत सिंह
और अनीस
ख़ातून के
गाये दोनों
युगलगीत ‘बन
में बहार
आ गयी...’
और ‘कैसा
छाया है
उजाला रसिया...’
भी उस
दौर के
सुपरहिट गीतों
में शामिल
थे|
अगले
10 सालों में
बलवंत सिंह
ने ‘दर्पण’(1941),
‘मालन’,
‘स्वप्ना’
(दोनों
1942),
‘आशीर्वाद’,
‘नौकर’,
‘पराया धन’
(सभी 1943),
‘परख’,
‘डॉक्टर कुमार’,
कॉलेजियन’
(सभी
1944),
‘ज़ंजीर’,
‘भंवर’
(दोनों
1947),
‘चौबेजी’
(1948) और
‘अपनी छाया’
(1950) जैसी
14-15 फिल्मों में
शांता हुबलीकर,
ललिता पंवार,
नूरजहां, शोभना
समर्थ, कौशल्या,
लीला देसाई,
मेहताब, ख़ुर्शीद
(जूनियर),
चंद्रप्रभा,
माया बनर्जी,
बेगमपारा, शमीम,
निरूपा रॉय,
सुलोचना चटर्जी
जैसी उस
दौर की
जानी मानी
नायिकाओं के
साथ काम
किया|
{सुप्रसिद्ध फ़िल्म इतिहासकार और लेखक, और ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ के निकट सहयोगी श्री अरुण कुमार देशमुख द्वारा उपलब्ध कराई गयी जानकारी के अनुसार बलवंत सिंह ने करीब डेढ़ दशक के अपने करियर में कुल 18 फिल्मों में अभिनय किया और 10 फ़िल्मों में 20 गाने गाये| इसके अलावा 1949 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘सुमित्रा’ में उन्होंने कुल 7 में से 6 गाने भी लिखे| फ़िल्म ‘चौबेजी’ (1948) ‘हिप हिप हुर्रे’ के नाम से प्रदर्शित हुई थी| फ़िल्म ‘अपनी छाया’ (1950) में बलवंत सिंह के लिए मोहम्मद रफ़ी ने प्लेबैक किया था|}
1940 के
दशक के
आख़िरी सालों
में बलवंत
सिंह को
गुर्दों की
तक़लीफ़ हो
गयी थी
जिससे उनके
लिए काम
कर पाना
मुश्किल हो
चला था|
हालात इस
हद तक
बिगड़ गए
थे, कि
साल 1950 में प्रदर्शित
हुई फ़िल्म
‘अपनी छाया’
के बाद
उन्हें फ़िल्मी
दुनिया को
अलविदा कहना
पड़ा|
बलवंत
सिंह की
शादी साल
1952 में हुई|
इस विषय
में साहिबज़ादा
राज़ ठाकुर
बताते हैं,
“पिताजी के
एक दोस्त
फ़िल्मों में
सहायक निर्देशक
थे| उनकी
पत्नी भी
कुछ फिल्मों
में अभिनय
कर चुकी
थीं| अचानक
सरकार को
सूचना मिली
कि वो
महिला पाकिस्तान
की जासूस
हैं| उन्हें
गिरफ़्तार करके
तत्कालीन ‘बॉम्बे
स्टेट’
की पालनपुर
जेल में
बंद कर
दिया गया,
जो अब
गुजरात में
है| दोस्त
ने पिताजी
से मदद
मांगी| उधर
मोहम्मद अली
जिन्ना के
दामाद से
भी पिताजी
की दोस्ती
थी| पिताजी
ने उनसे
संपर्क किया
और फिर
ख़ुद भी
पालनपुर पहुंच
गए| ये
साल 1948 का वाकया
है, और
उन दिनों
पालनपुर में
पिताजी की
फ़िल्म ‘हिप
हिप हुर्रे’
(‘चौबेजी’)
चल रही
थी|”
पालनपुर में लोगों ने बलवंत सिंह को पहचान लिया| उन्हें क़रीब से देखने और मिलने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी| उनसे मिलने आने वालों में पालनपुर के नवाब ताले मुहम्मद खां का दोहता (बेटी का बेटा) भी शामिल था, जिसे फ़िल्मों का बहुत शौक़ था| उसके निमंत्रण पर बलवंत सिंह नवाब साहब के महल में पहुंचे, जहां उनका बहुत आदर-सत्कार हुआ, शाही परिवार के सभी सदस्यों से उनका परिचय कराया गया, और इसके बाद अक्सर उनका पालनपुर जाना-आना होने लगा| समय के साथ नवाब साहब की अविवाहिता बेटी ज़ुबैदा बेगम और बलवंत सिंह के बीच नज़दीकियां बढ़ीं और फिर उन्होंने शादी करने का फ़ैसला कर लिया| दो अलग अलग मज़हबों की वजह से दोनों ही परिवारों में इस फ़ैसले का विरोध होना स्वाभाविक ही था, लेकिन ये विरोध बहुत ज़्यादा नहीं टिक पाया|
साहिबज़ादा
राज़ ठाकुर
बताते हैं,
“राजस्थान के
राजपूत परिवारों
के साथ
मेरे ननिहाल
के रोटी-बेटी
के सम्बन्ध
पहले ही
से चले
आ रहे
थे| नवाब
ख़ानदान में
कई बहुएं
उक्त राजपूत
परिवारों से
भी आ
चुकी थीं|
ऐसे में
मेरी नानी
अपनी बेटी
के पक्ष
में खड़ी
हो गयीं|
उनका कहना
था, जब
राजपूत बहुएं
ला सकते
हो तो
बेटी को
राजपूत ख़ानदान
में देने
में क्या
परेशानी है?
और नानी
के इस
रूख़ के
आगे विरोध
के तमाम
स्वर दब
गए| मेरे
माता-पिता
की शादी
साल 1952 में हुई,
और मां
को नया
नाम दिया
गया, नैना
देवी|”
शादी के बाद बलवंत सिंह अहमदाबाद के वटवा इलाक़े में एक फ़ार्म खरीदकर वहीं बस गए| लेकिन साल 1973 में गुजरात सरकार द्वारा फ़ार्म का अधिग्रहण कर लिए जाने के बाद वो सपरिवार लुधियाना आ गए| उनके 3 बेटों और 2 बेटियों में साहिबजादा राज़ ठाकुर सबसे बड़े हैं| ठाकुर परिवार का लुधियाना में ‘पंडोगा’ और ‘खातून’ ब्रांड के नाम से होज़ियरी का कारोबार है| ठाकुर बलवंत सिंह का निधन 4 दिसंबर 1985 को लुधियाना में हुआ| सौभाग्य से 95 वर्षीया श्रीमती नैना देवी ठाकुर आज भी स्वस्थ हैं और अपने भरेपूरे परिवार के साथ लुधियाना में रहती हैं|
विशेष :- साहिबज़ादा राज़ ठाकुर बताते हैं, “साल 1939-40 में ऑल इंडिया रेडियो, बॉम्बे के स्टेशन डायरेक्टर ज़ेड.ए.बुखारी बॉम्बे टॉकीज़ आए, तो पिताजी का गाना सुनकर बहुत प्रभावित हुए| उन्होंने पिताजी को रेडियो पर गाने का निमंत्रण दिया| उन्हीं दिनों ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के साथ कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म हुआ, तो पिताजी ऑल इंडिया रेडियो से भी गाने लगे| समय के साथ ज़ेड.ए.बुखारी के साथ उनके रिश्ते प्रगाढ़ होते चले गए| एक रोज़ पिताजी और बुखारी ‘प्रभात फ़िल्म कंपनी’ की कोई फ़िल्म देखने गए| फ़िल्म में ‘प्रभात’ की सिग्नेचर ट्यून सुनकर पिताजी ने बुखारी से कहा, क्यों न रेडियो के लिए भी ऐसी ही सिग्नेचर ट्यून बनाई जाए?
बुखारी
को पिताजी
की बात
जंच गयी|
और ट्यून
बनाने की
ज़िम्मेदारी भी
उन्होंने पिताजी
को ही
सौंप दी|
पिताजी ने
राग
‘सोहनी बसंत’
(और शायद
शिवरंजनी के
भी)
सुरों को
आधार बनाकर
एक धुन
तैयार की,
जिसमें उस
दौर के
मशहूर म्यूज़िशियन
महेली मेहता
की बजाई
वायलिन,
और तानपुरे
का इस्तेमाल
किया गया
था| वो
धुन ऑल
इंडिया रेडियो
की सिग्नेचर
ट्यून के
रूप में
आज तक
बजती चली
आ रही
है|”
बलवंत
सिंह इस
बात का
ज़िक्र अक्सर
दूरदर्शन, रेडियो
और पत्र-पत्रिकाओं
को दिए
अपने साक्षात्कारों
में करते
थे| लेकिन
इस रचना
का श्रेय
उन्हें कभी
नहीं मिला|
साहिबज़ादा राज़
ठाकुर ने
भी इस
विषय में
ऑल इंडिया
रेडियो
- उर्दू सेवा
(नयी दिल्ली)
के अलावा
तत्कालीन केंद्र
और हिमाचल
सरकारों को
भी पत्र
लिखे, लेकिन
किसी ने
भी इस
ओर ध्यान
नहीं दिया|
लन्दन स्थित
‘नेशनल साउंड
आर्काइव-ब्रिटिश
लायब्रेरी’
ने ज़रूर
इस बात
का संज्ञान
लिया| इस
विषय में
ब्रिटिश लायब्रेरी
के डायरेक्टर
डॉ.सी.एच.रोड्स
भारत आकर,
ऑल इंडिया
रेडियो के
अहमदाबाद केंद्र
पर बलवंत
सिंह से
बातचीत रिकॉर्ड
करने वाले
थे| लेकिन
उन्हीं दिनों
गुजरात में
आरक्षण विरोधी
आन्दोलन भड़क
उठा, जिसकी
वजह से
बलवंत सिंह
के लिए
अहमदाबाद जा
पाना संभव
नहीं हो
पाया| ये
साल 1984 का वाकया
है| दुर्भाग्य
से इसके
साल भर
के अन्दर
ठाकुर बलवंत
सिंह का
निधन हो
गया|
साहिबज़ादा राज़ ठाकुर कहते हैं, “पिताजी ने इस बात का ज़िक्र साल 1975 में ऑल इंडिया रेडियो-जालंधर से शाम को प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘देश पंजाब’ में, और 25 फ़रवरी 1976 को दूरदर्शन पर प्रसारित अपने साक्षात्कार में भी किया था| उन्हें ज़िंदा रहते तो अपना हक़ नहीं मिल पाया, लेकिन अगर सरकार और ऑल इंडिया रेडियो इस विषय में पहल करते हुए भूल सुधार कर ले तो एक दिवंगत कलाकार को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी!”
We are thankful to –
Mr.
Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable
suggestion, guidance, and support.
Mr. S.M.M.Ausaja
for providing movies’ posters.
Mr.
Gajendra Khanna for the English translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
Sahibzada Raaz Thakur (Ludhiana) & Mr. Arun Kumar Deshmukh (Mumbai) for their support.
Balwant Singh on YT channel BHD
“Ban Mein Bahaar Aa Gayi, Mann Mein Umang Chha Gayi”
– Balwant
Singh
........Shishir Krishna Sharma
While researching regarding the child actor and singer
brother-sister duo of Manju and Balakram for Blog ‘Beete Hue Din’, I came across the song ‘Kaka Abba
Bade Khiladi, Ek Dooje Se Rahen Agaadi’ on YouTube. This fun song was from the
popular film ‘Padosi’ which was a 1941 release. This song had Balakram with 2-3
other child actors and few senior actors that included the famous Mazhar Khan and
Gajanan Jagirdaar who played the title roles in this film. Among these many
artists, was a young actor whose personality particularly attracted me. Very
good looking, a lively personality, extremely impressive and attractive. I was
intrigued to know, who is this actor? After a lot of efforts, the only
information I could obtain was that the artist’s name was Balwant Singh who
along with being a good actor was also a wonderful singer who sang for himself.
The song ‘Kaka Abba Bade Khiladi’ was in the voices of Balakram, Balwant
and Gopal.
As time passed, in my busy schedule, I was slowly forgetting
my quest for more knowledge on Balwant Singh. Then one day, when I posted on
Facebook regarding another forgotten artist, a comment appeared on my post. The
reader commented very enthusiastically, praising the blog ‘Beete Hue Din’ and
introduced himself as the son of veteran actor Late Balwant Singh. I excitedly
contacted him and thus, my quest for more knowledge about Balwant Singh reached
its destination in the form of his detailed biography in the words of his son
Sahibzada Raaz Thakur. I shall be eternally grateful to Sahibzada Raaz Thakur
for all the support provided by him.
Thakur Balwant Singh was born on 9th February
1918 in a Jagirdaar family of Una area’s Pandoga which was then in Punjab and
is now in Himachal Pradesh. His father’s name was Thakur Bishan Chand and
mother’s name was Brahmi Devi. Balwant ji also had an elder brother and a
younger sister in the family. Balwant Singh studied till his 10th in
Una itself. He was extremely interested in music due to which he started taking
training in classical singing from Pt Vishnu Digambar Paluskar’s disciple
Pandit Bhishm Dev ji. His association with acting during his school days was
limited to doing mimicry with his friends.
One day Balwant Singh visited Mukerian, Punjab’s village Klothan
to have the darshan of his spiritual Guru Swami Kanhaiya Gir ji Maharaj. Guru
ji blessed him and said, ‘There’s still time for your spiritual life to begin.
You will have to go to Bombay soon’. This prediction of Guru ji’s soon came
true. When Balwant reached his ancestral house after this visit, he found that
their close relative Kunwar Rajit Singh was visiting them. He was a top officer
in the railways and used to stay in Mumbai, which was called Bombay then.
After hearing Balwant Singh sing, Kunwar Rajit Singh told
him, “What are you doing here? You should come with me to Mumbai. I know many
film people whom I will introduce you to!”. It was under these circumstances
that Balwant Singh came to Mumbai in 1934. By then, Himanshu Rai and Devika
Rani had laid the foundation of their film company ‘Bombay Talkies’. Balwant
Singh entered into a contract with ‘Bombay Talkies’. Balwant Singh got a break as a singer for
their 1937 release, ‘Jeevan Prabhat’. His solo ‘Chale The Bade Dushman-e-Jaan
Bankar’ was quite appreciated in those days. In addition to this solo, he had
sung two duets with Devika Rani for the film of which ‘Nis Din Pal Chhin Saanjh
Savere’ had proved to be quite a hit in those days.
In 1938, he not only sang the solo ‘Janm Liya To Ji Le Bande,
Darne Ka Kya Kaam’ for the movie, ‘Nirmala’, he made his debut as an actor for
it as well. The same year, he was seen as an actor in the film ‘Vachan’ too. In
the 1939 release ‘Durga’ he acted as well as sang the hit song ‘Ab Jaago
Radharani, Rain Hui Ab Hua Savera’. While he appeared only on screen for the
movie ‘Kangan’, he sang a hit duet ‘Raja Humen Na Niharo, Humen wo lag jaayegi
Nazariya Haay Raam’ for the movie ‘Navjeevan’. However, this movie ‘Navjeevan’
proved to be Balwant Singh’s last movie at Bombay Talkies.
Balwant Singh earned true fame with the 1941 superhit
‘Padosi’. This movie, made in Pune’s Prabhat Film Company, was directed by V
Shantaram. Balwant Singh’s both the duets with Anees Khaatoon, ‘Ban Mein Bahaar
Aa Gayi…’ and ‘Kaisa Chhaya Hai Ujaala Rasiya…’ proved to be the superhits in
that era.
During the next ten years he acted in 14-15 films including ‘Darpan’(1941), ‘Malan’, ‘Swapna’
(Both 1942), ‘Ashirwaad’, ‘Naukar’, ‘Paraya Dhan’
(All
1943), ‘Parakh’, ‘Doctor Kumar’, ‘Collegian’
(All
1944), ‘Zanjeer’, ‘Bhanwar’
(Both
1947), ‘Chaubeji’
(1948) and ‘Apni Chhaya’
(1950), opposite top heroines of the era
like Shanta Hublikar, Lalita Pawar, Noorjehan, Shobhana Samarth, Kaushalya,
Leela Desai, Mehtaab, Khurshid (Junior), Chandraprabha, Maya Banerjee, Begum
Para, Shameem, Nirupa Roy and Sulochana Chatterjee.
{According to famous film historian and writer as well as
close associate of ‘Beete Hue Din’ Shri Arunkumar Deshmukh, Balwant Singh acted
in about 18 films during his career and sang 20 songs in 10 films. In addition,
he had also written 6 of the 7 songs in the 1949 release ‘Sumitra’. His film ‘Chaubeji’
(1948) was released with the title ‘Hip
Hip Hurray’. In the movie ‘Apni Chhaya’
(1950), Balwant Singh had got playback
from Mohammad Rafi.}
During the late 1940s, Balwant Singh had developed a kidney
related ailment due to which he found it extremely difficult to work. The
situation deteriorated to such an extent, that he had to bid adieu to the film
world after the 1950 release ‘Apni Chhaya’.
Balwant Singh got married in the year 1952. On this aspect
Sahibzada Raaz Thakur tells us, “One of father’s friends was an assistant film
director. His wife had also acted in a few movies. Suddenly, the government got
a tip off that this lady was a Pakistani spy. She was arrested and lodged in
Bombay state’s Palanpur Jail which is now a part of Gujarat. The friend
requested my father to help. My father had friendly terms with Mohammad Ali
Jinnah’s son-in-law. My father contacted him and himself he also reached
Palanpur. This incident is of the year 1948, when his father’s film ‘Hip Hip
Hurray’ (alias ‘Chaubeji’) was running in cinemas in Palanpur.”
People in Palanpur recognized Balwant Singh and as a result,
a huge crowd gathered there. Among the visitors was Palanpur’s Nawab Tale
Mohammad Khan’s maternal grandson who was quite fond of movies. On his
invitation, Balwant Singh visited Nawab sahab’s palace where he was received
with a lot of enthusiasm. He was introduced to all the royal family members and
he started visiting Palanpur regularly. With time he got close to Nawab sahab’s
unmarried daughter Zubaida Begum and they both decided to get married. It was
natural that due to the difference in religions, both families were against the
match, but the dissent did not last long.
Sahibzada Raaz Thakur informs us, “My maternal family had
long-term relations with Rajasthan’s Rajpur families. Many of the
daughters-in-law of the Nawab family belonged to Rajput families. In this
situation, my maternal grandmother took the side of my mother. She was of the
view that if Rajput daughters-in-laws can be brought into the family, there
should not be a problem giving their daughter into a Rajput family. Due to the
vociferous defence of my maternal grandmother, all the dissent vanished away.
My parents got married in the year 1952 and my mother got a new name, Naina
Devi.”
After marriage, Balwant Singh bought a farm in Ahmedabad’s
Vatva area and settled there. However, after the Gujarat government acquired
the farm in 1973, the whole family shifted to Ludhiana. Among his three sons
and two daughters, Sahibzada Raaz Thakur is the eldest. The Thakur family runs
a hosiery business in Ludhiana under the brands, ‘Pandoga’ and ‘Khatoon’.
Thakur Balwant Singh passed away in Ludhiana on 4th December 1985. By
the Grace of God, Shrimati Naina Devi Thakur who is 95 years old is healthy and
lives in Ludhiana with her big family.
Special :- Sahibzada Raaz Thakur tells us, “In the
year 1939-40, All India Radio’s Station Director Z A Bukhari visited Bombay
Talkies and got impressed by my father’s singing talent. He invited my father
to sing on the Radio. My father’s contract with Bombay Talkies also ended
around that time and therefore my father started singing on All India Radio as
well. With time his relationship with Z A Bukhari became more and more closer.
One day, they both went to see a film of ‘Prabhat Film Company’. After
listening to the ‘Prabhat’ signature tune in the film, my father told Bukhari
ji, “Why don’t we make a signature tune for All India Radio also?”.
Bukhari sahib loved the idea and gave the responsibility of
making the tune to my father. My father made the tune using the Raag ‘Sohni
Basant’ (and Shivranjani too probably) with the violin played by famous
musician Mehli Mehta alongwith the Tanpura as a supporting instrument. That
signature tune of All India Radio continues to be played till date!”
Balwant Singh would often recall this incident during his
interviews with Doordarshan, Radio, Newspapers and Magazines. However, he never
got official credit for it. Sahibzada Raaz Thakur had also tried to correspond
with All India Radio – Urdu Service (New Delhi), other stations and the Central
and Himachal Governments, but no one paid attention towards this issue. But the
London based ‘National Sound Archive – British Library’ did take note of it.
The then British Library Director Dr C H Roads wanted to come to India and
record a conversation with him at All India Radio’s Ahmedabad center. Unfortunately,
at the same time the Anti-Reservation movement flared up in Gujrat, due to
which Balwant Singh could not go to Ahmedabad. This incident is of 1984.
Unfortunately, Thakur Balwant Singh passed away the next year.
Sahibzada Raaz Thakur summarizes, “My father had mentioned this in 1975 on All India Radio, Jalandhar’s evening program ‘Desh Punjab’ as well as during his interview to Doordarshan broadcast on 25th February 1976. Though he did not get his due credit during his lifetime, if the Government and All India Radio take a lead to give him the due credit missing all these years, It would be a true and befitting tribute to the Late Artist.”
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