Sunday, April 4, 2021

“Ban Mein Bahaar Aa Gayi, Mann Mein Umang Chha Gayi” – Balwant Singh

बन में बहार आ गयी, मन में उमंग छा गयी” – बलवंत सिंह 

                                             ........शिशिर कृष्ण शर्मा 

ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ के लिए 1930 और 40 के दशक के बालकलाकार और गायक बहन-भाई मंजु और बालकराम पर शोध के दौरान मुझे यूट्यूब पर गीत ‘काका अब्बा बड़े खिलाड़ी, इक दूजे से रहें अगाड़ी’ देखने को मिला था| बेहद ही मज़ेदार ये गीत पुणे की ‘प्रभात फ़िल्म कंपनी’ की बहुचर्चित फ़िल्म ‘पड़ोसी’ का था, जो साल 1941 में प्रदर्शित हुई थी| इस गीत में परदे पर बालकराम समेत दो तीन बच्चे और कुछ बालिग स्त्री-पुरूष थे, जिनमें फ़िल्म की शीर्षक भूमिका निभाने वाले, उस दौर के मशहूर अभिनेता मज़हर खान और गजानन जागीरदार भी शामिल थे| कलाकारों की उस भीड़ के बीच मौजूद एक युवा अभिनेता ने मेरा ध्यान ख़ासतौर से अपनी ओर खींचा था| बेहद ख़ूबसूरत, सुदर्शन व्यक्तित्व, प्रभावशाली और आकर्षक| मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, कौन है ये कलाकार? लेकिन उसके बारे में जानने की तमाम कोशिशों के बावजूद मुझे सिर्फ़ इतना पता चल पाया, कि उस कलाकार का नाम बलवंत सिंह था, वो अभिनेता होने के साथ साथ एक बेहतरीन गायक भी थे, और अपने गाने ख़ुद गाते थे| गीत ‘काका अब्बा बड़े खिलाड़ी’ भी बालकराम, बलवंत और गोपाल की आवाज़ों में था|

समय बीतता गया| तमाम व्यस्तताओं के बीच बलवंत सिंह का नाम कहीं पीछे छूटता चला गया| लेकिन तभी एक रोज़ फ़ेसबुक पर किसी भूले बिसरे कलाकार से सम्बंधित अपनी पोस्ट पर मुझे एक कमेन्ट नज़र आया| उन पाठक ने ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ की प्रशंसा में अत्यंत उत्साहवर्धक बातें लिखते हुए अपना परिचय अभिनेता (स्वर्गीय) बलवंत सिंह के बेटे के रूप में दिया था| मैंने उत्साहित होकर उनसे संपर्क किया और जिन बलवंत सिंह के बारे में जानने की मेरी बेताबी समय के साथ निराशा में बदलती चली गयी थी, उनकी विस्तृत जीवनगाथा बहुत जल्द किसी करिश्मे की तरह उनके बेटे साहिबज़ादा राज़ ठाकुर की कलम से मेरे सामने थी| इस सहयोग के लिए मैं साहिबज़ादा राज़ ठाकुर का आभारी हूं, और सदैव रहूंगा|

तत्कालीन पंजाब प्रांत का हिस्सा रहे और आज के हिमाचल प्रदेश में स्थित ऊना जिले के पन्डोगा के जागीरदार परिवार में 9 फ़रवरी 1918 को जन्मे ठाकुर बलवंत सिंह के पिता का नाम ठाकुर बिशनचंद और माता का नाम ब्राह्मी देवी था| परिवार में माता- पिता के अलावा बलवंत सिंह से बड़े एक भाई और छोटी एक बहन थी| बलवंत सिंह ने ऊना से दसवीं तक पढ़ाई की| संगीत में उनकी गहन दिलचस्पी थी, इसलिए वो पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के शिष्य पंडित भीष्म देव जी से विधिवत रूप से शास्त्रीय गायन की शिक्षा लेने लगे| अभिनय से उनका रिश्ता स्कूल में दोस्तों के साथ मिमिक्री करने तक सीमित था|

एक रोज़ बलवंत सिंह मुकेरियां-पंजाब के गांव क्लोथां स्थित अपने आध्यात्मिक गुरु स्वामी कन्हैयागीर जी के दर्शनों के लिए पहुंचे| गुरूजी ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हारा आध्यात्मिक जीवन आरम्भ होने में अभी समय है, फिलहाल तो तुम्हें बंबई जाना होगा| गुरूजी के मुंह से निकली ये बात बहुत जल्द सच साबित हो गयी| गुरूजी के दर्शन करने बलवंत जब घर वापस लौटे, तो एक क़रीबी रिश्तेदार कुंवर रजित सिंह उनके घर पर आए हुए थे| कुंवर रजित सिंह रेलवे में उच्चाधिकारी थे और मुम्बई में रहते थे, जो उन दिनों बंबई कहलाता था|  

कुंवर रजित सिंह ने बलवंत सिंह को गाते सुना, तो कहने लगे तू यहां क्या कर रहा है? मेरे साथ बम्बई चल, बहुत सारे फ़िल्म वाले मुझे जानते हैं, तुझे उनसे मिलवाऊंगा| और इस तरह बलवंत सिंह साल 1934 में मुम्बई चले आये| मुम्बई में तब तक हिमांशु रॉय और देविका रानी द्वारा फ़िल्म कंपनी ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की बुनियाद रखी जा चुकी थी| बलवंत सिंह का ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के साथ कॉन्ट्रैक्ट हो गया| साल 1937 में रिलीज़ हुई ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की फ़िल्म ‘जीवन प्रभात’ में बलवंत सिंह को बतौर गायक ब्रेक मिला| इस फ़िल्म में उनका गाया सोलो ‘चले थे बड़े दुश्मने जां बनकर...’ उस ज़माने में बहुत पसंद किया गया था| इसके अलावा उन्होंने इस फ़िल्म में देविका रानी के साथ दो युगल गीत भी गाये थे, जिनमें ‘निस दिन पल छिन सांझ सवेरे’ भी काफ़ी हिट हुआ था| 

साल 1938 में उन्होंने फ़िल्मनिर्मलामें सोलोजन्म लिया तो जी ले बन्दे, डरने का क्या काम बन्देतो गाया ही, इस फ़िल्म से अपने एक्टिंग करियर की भी शुरूआत की| उसी साल की फ़िल्मवचनमें वो केवल एक अभिनेता के तौर पर नज़र आये| साल 1939 की फ़िल्मदुर्गामें उन्होंने अभिनय भी किया औरअब जागो राधारानी, रैन गयी अब हुआ सवेराजैसा हिट गीत भी गाया| उसी साल की फ़िल्मकंगनमें वो केवल परदे पर नज़र आए तोनवजीवनमें ललिता देऊलकर के साथ मिलकर हिट दोगानाराजा हमें निहारो, हमें वो लग जाएगी नजरिया रे हो रामगाया| लेकिननवजीवनबॉम्बे टॉकीज़ में बलवंत सिंह की आख़िरी फिल्म साबित हुई|

बलवंत सिंह को असल पहचान मिली, साल 1941 में रिलीज़ हुई सुपरहिट फ़िल्मपड़ोसीसे| पुणे स्थित प्रभात फ़िल्म कंपनी की इस फ़िल्म का निर्देशन वी.शांताराम ने किया था| इस फ़िल्म में बलवंत सिंह और अनीस ख़ातून के गाये दोनों युगलगीतबन में बहार गयी...’ औरकैसा छाया है उजाला रसिया...’ भी उस दौर के सुपरहिट गीतों में शामिल थे

अगले 10 सालों में बलवंत सिंह नेदर्पण(1941), ‘मालन, ‘स्वप्ना(दोनों 1942), ‘आशीर्वाद, ‘नौकर, ‘पराया धन (सभी 1943), ‘परख, ‘डॉक्टर कुमार, कॉलेजियन(सभी 1944), ‘ज़ंजीर, ‘भंवर(दोनों 1947), ‘चौबेजी(1948) औरअपनी छाया(1950) जैसी 14-15 फिल्मों में शांता हुबलीकर, ललिता पंवार, नूरजहां, शोभना समर्थ, कौशल्या, लीला देसाई, मेहताब, ख़ुर्शीद (जूनियर), चंद्रप्रभा, माया बनर्जी, बेगमपारा, शमीम, निरूपा रॉय, सुलोचना चटर्जी जैसी उस दौर की जानी मानी नायिकाओं के साथ काम किया|

{सुप्रसिद्ध फ़िल्म इतिहासकार और लेखक, और ब्लॉगबीते हुए दिनके निकट सहयोगी श्री अरुण कुमार देशमुख द्वारा उपलब्ध कराई गयी जानकारी के अनुसार बलवंत सिंह ने करीब डेढ़ दशक के अपने करियर में कुल 18 फिल्मों में अभिनय किया और 10 फ़िल्मों में 20 गाने गाये| इसके अलावा 1949 में प्रदर्शित हुई फ़िल्मसुमित्रामें उन्होंने कुल 7 में से 6 गाने भी लिखे| फ़िल्मचौबेजी(1948) ‘हिप हिप हुर्रेके नाम से प्रदर्शित हुई थी| फ़िल्मअपनी छाया(1950) में बलवंत सिंह के लिए मोहम्मद रफ़ी ने प्लेबैक किया था|}


1940 के दशक के आख़िरी सालों में बलवंत सिंह को गुर्दों की तक़लीफ़ हो गयी थी जिससे उनके लिए काम कर पाना मुश्किल हो चला था| हालात इस हद तक बिगड़ गए थे, कि साल 1950 में प्रदर्शित हुई फ़िल्मअपनी छायाके बाद उन्हें फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कहना पड़ा

बलवंत सिंह की शादी साल 1952 में हुई| इस विषय में साहिबज़ादा राज़ ठाकुर बताते हैं, “पिताजी के एक दोस्त फ़िल्मों में सहायक निर्देशक थे| उनकी पत्नी भी कुछ फिल्मों में अभिनय कर चुकी थीं| अचानक सरकार को सूचना मिली कि वो महिला पाकिस्तान की जासूस हैं| उन्हें गिरफ़्तार करके तत्कालीनबॉम्बे स्टेटकी पालनपुर जेल में बंद कर दिया गया, जो अब गुजरात में है| दोस्त ने पिताजी से मदद मांगी| उधर मोहम्मद अली जिन्ना के दामाद से भी पिताजी की दोस्ती थी| पिताजी ने उनसे संपर्क किया और फिर ख़ुद भी पालनपुर पहुंच गए| ये साल 1948 का वाकया है, और उन दिनों पालनपुर में पिताजी की फ़िल्महिप हिप हुर्रे’ (‘चौबेजी’) चल रही थी|”

पालनपुर में लोगों ने बलवंत सिंह को पहचान लिया| उन्हें क़रीब से देखने और मिलने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी| उनसे मिलने आने वालों में पालनपुर के नवाब ताले मुहम्मद खां का दोहता (बेटी का बेटा) भी शामिल था, जिसे फ़िल्मों का बहुत शौक़ था| उसके निमंत्रण पर बलवंत सिंह नवाब साहब के महल में पहुंचे, जहां उनका बहुत आदर-सत्कार हुआ, शाही परिवार के सभी सदस्यों से उनका परिचय कराया गया, और इसके बाद अक्सर उनका पालनपुर जाना-आना होने लगा| समय के साथ नवाब साहब की अविवाहिता बेटी ज़ुबैदा बेगम और बलवंत सिंह के बीच नज़दीकियां बढ़ीं और फिर उन्होंने शादी करने का फ़ैसला कर लिया| दो अलग अलग मज़हबों की वजह से दोनों ही परिवारों में इस फ़ैसले का विरोध होना स्वाभाविक ही था, लेकिन ये विरोध बहुत ज़्यादा नहीं टिक पाया| 


साहिबज़ादा राज़ ठाकुर बताते हैं, “राजस्थान के राजपूत परिवारों के साथ मेरे ननिहाल के रोटी-बेटी के सम्बन्ध पहले ही से चले रहे थे| नवाब ख़ानदान में कई बहुएं उक्त राजपूत परिवारों से भी चुकी थीं| ऐसे में मेरी नानी अपनी बेटी के पक्ष में खड़ी हो गयीं| उनका कहना था, जब राजपूत बहुएं ला सकते हो तो बेटी को राजपूत ख़ानदान में देने में क्या परेशानी है? और नानी के इस रूख़ के आगे विरोध के तमाम स्वर दब गए| मेरे माता-पिता की शादी साल 1952 में हुई, और मां को नया नाम दिया गया, नैना देवी|”

शादी के बाद बलवंत सिंह अहमदाबाद के वटवा इलाक़े में एक फ़ार्म खरीदकर वहीं बस गए| लेकिन साल 1973 में गुजरात सरकार द्वारा फ़ार्म का अधिग्रहण कर लिए जाने के बाद वो सपरिवार लुधियाना आ गए| उनके 3 बेटों और 2 बेटियों में साहिबजादा  राज़ ठाकुर सबसे बड़े हैं| ठाकुर परिवार का लुधियाना में ‘पंडोगा’ और ‘खातून’ ब्रांड के नाम से होज़ियरी का कारोबार है|  ठाकुर बलवंत सिंह का निधन 4 दिसंबर 1985 को लुधियाना में हुआ| सौभाग्य से 95 वर्षीया श्रीमती नैना देवी ठाकुर आज भी स्वस्थ हैं और अपने भरेपूरे परिवार के साथ लुधियाना में रहती हैं| 

विशेष :- साहिबज़ादा राज़ ठाकुर बताते हैं, “साल 1939-40 में ऑल इंडिया रेडियो, बॉम्बे के स्टेशन डायरेक्टर ज़ेड.ए.बुखारी बॉम्बे टॉकीज़ आए, तो पिताजी का गाना सुनकर बहुत प्रभावित हुए| उन्होंने पिताजी को रेडियो पर गाने का निमंत्रण दिया| उन्हीं दिनों ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के साथ कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म हुआ, तो पिताजी ऑल इंडिया रेडियो से भी गाने लगे| समय के साथ ज़ेड.ए.बुखारी के साथ उनके रिश्ते प्रगाढ़ होते चले गए| एक रोज़ पिताजी और बुखारी ‘प्रभात फ़िल्म कंपनी’ की कोई फ़िल्म देखने गए| फ़िल्म में ‘प्रभात’ की सिग्नेचर ट्यून सुनकर पिताजी ने बुखारी से कहा, क्यों न रेडियो के लिए भी ऐसी ही सिग्नेचर ट्यून बनाई जाए? 

बुखारी को पिताजी की बात जंच गयी| और ट्यून बनाने की ज़िम्मेदारी भी उन्होंने पिताजी को ही सौंप दी| पिताजी ने रागसोहनी बसंत’ (और शायद शिवरंजनी के भी) सुरों को आधार बनाकर एक धुन तैयार की, जिसमें उस दौर के मशहूर म्यूज़िशियन महेली मेहता की बजाई वायलिन, और तानपुरे का इस्तेमाल किया गया था| वो धुन ऑल इंडिया रेडियो की  सिग्नेचर ट्यून के रूप में आज तक बजती चली रही है|”

बलवंत सिंह इस बात का ज़िक्र अक्सर दूरदर्शन, रेडियो और पत्र-पत्रिकाओं को दिए अपने साक्षात्कारों में करते थे| लेकिन इस रचना का श्रेय उन्हें कभी नहीं मिला| साहिबज़ादा राज़ ठाकुर ने भी इस विषय में ऑल इंडिया रेडियो - उर्दू सेवा (नयी दिल्ली) के अलावा तत्कालीन केंद्र और हिमाचल सरकारों को भी पत्र लिखे, लेकिन किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया| लन्दन स्थितनेशनल साउंड आर्काइव-ब्रिटिश लायब्रेरीने ज़रूर इस बात का संज्ञान लिया| इस विषय में ब्रिटिश लायब्रेरी के डायरेक्टर डॉ.सी.एच.रोड्स भारत आकर, ऑल इंडिया रेडियो के अहमदाबाद केंद्र पर बलवंत सिंह से बातचीत रिकॉर्ड करने वाले थे| लेकिन उन्हीं दिनों गुजरात में आरक्षण विरोधी आन्दोलन भड़क उठा, जिसकी वजह से बलवंत सिंह के लिए अहमदाबाद जा पाना संभव नहीं हो पाया| ये साल 1984 का वाकया है| दुर्भाग्य से इसके साल भर के अन्दर ठाकुर बलवंत सिंह का निधन हो गया

साहिबज़ादा राज़ ठाकुर कहते हैं, “पिताजी ने इस बात का ज़िक्र साल 1975 में ऑल इंडिया रेडियो-जालंधर से शाम को प्रसारित होने वाले कार्यक्रमदेश पंजाबमें, और 25 फ़रवरी 1976 को दूरदर्शन पर प्रसारित अपने साक्षात्कार में भी किया था| उन्हें ज़िंदा रहते तो अपना हक़ नहीं मिल पाया, लेकिन अगर सरकार और ऑल इंडिया रेडियो इस विषय में पहल करते हुए भूल सुधार कर ले तो एक दिवंगत कलाकार को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी!” 

We are thankful to –

Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Mr. Gajendra Khanna for the English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.

Sahibzada Raaz Thakur (Ludhiana) & Mr. Arun Kumar Deshmukh (Mumbai) for their support. 

Balwant Singh on YT channel BHD 


Ban Mein Bahaar Aa Gayi, Mann Mein Umang Chha Gayi”Balwant Singh

                                 ........Shishir Krishna Sharma

While researching regarding the child actor and singer brother-sister duo of Manju and Balakram for Blog Beete Hue Din, I came across the song ‘Kaka Abba Bade Khiladi, Ek Dooje Se Rahen Agaadi’ on YouTube. This fun song was from the popular film ‘Padosi’ which was a 1941 release. This song had Balakram with 2-3 other child actors and few senior actors that included the famous Mazhar Khan and Gajanan Jagirdaar who played the title roles in this film. Among these many artists, was a young actor whose personality particularly attracted me. Very good looking, a lively personality, extremely impressive and attractive. I was intrigued to know, who is this actor? After a lot of efforts, the only information I could obtain was that the artist’s name was Balwant Singh who along with being a good actor was also a wonderful singer who sang for himself. The song Kaka Abba Bade Khiladiwas in the voices of Balakram, Balwant and Gopal.

As time passed, in my busy schedule, I was slowly forgetting my quest for more knowledge on Balwant Singh. Then one day, when I posted on Facebook regarding another forgotten artist, a comment appeared on my post. The reader commented very enthusiastically, praising the blog ‘Beete Hue Din’ and introduced himself as the son of veteran actor Late Balwant Singh. I excitedly contacted him and thus, my quest for more knowledge about Balwant Singh reached its destination in the form of his detailed biography in the words of his son Sahibzada Raaz Thakur. I shall be eternally grateful to Sahibzada Raaz Thakur for all the support provided by him. 

Thakur Balwant Singh was born on 9th February 1918 in a Jagirdaar family of Una area’s Pandoga which was then in Punjab and is now in Himachal Pradesh. His father’s name was Thakur Bishan Chand and mother’s name was Brahmi Devi. Balwant ji also had an elder brother and a younger sister in the family. Balwant Singh studied till his 10th in Una itself. He was extremely interested in music due to which he started taking training in classical singing from Pt Vishnu Digambar Paluskar’s disciple Pandit Bhishm Dev ji. His association with acting during his school days was limited to doing mimicry with his friends.

One day Balwant Singh visited Mukerian, Punjab’s village Klothan to have the darshan of his spiritual Guru Swami Kanhaiya Gir ji Maharaj. Guru ji blessed him and said, ‘There’s still time for your spiritual life to begin. You will have to go to Bombay soon’. This prediction of Guru ji’s soon came true. When Balwant reached his ancestral house after this visit, he found that their close relative Kunwar Rajit Singh was visiting them. He was a top officer in the railways and used to stay in Mumbai, which was called Bombay then.

After hearing Balwant Singh sing, Kunwar Rajit Singh told him, “What are you doing here? You should come with me to Mumbai. I know many film people whom I will introduce you to!”. It was under these circumstances that Balwant Singh came to Mumbai in 1934. By then, Himanshu Rai and Devika Rani had laid the foundation of their film company ‘Bombay Talkies’. Balwant Singh entered into a contract with ‘Bombay Talkies’.  Balwant Singh got a break as a singer for their 1937 release, ‘Jeevan Prabhat’. His solo ‘Chale The Bade Dushman-e-Jaan Bankar’ was quite appreciated in those days. In addition to this solo, he had sung two duets with Devika Rani for the film of which ‘Nis Din Pal Chhin Saanjh Savere’ had proved to be quite a hit in those days.

In 1938, he not only sang the solo ‘Janm Liya To Ji Le Bande, Darne Ka Kya Kaam’ for the movie, ‘Nirmala’, he made his debut as an actor for it as well. The same year, he was seen as an actor in the film ‘Vachan’ too. In the 1939 release ‘Durga’ he acted as well as sang the hit song ‘Ab Jaago Radharani, Rain Hui Ab Hua Savera’. While he appeared only on screen for the movie ‘Kangan’, he sang a hit duet ‘Raja Humen Na Niharo, Humen wo lag jaayegi Nazariya Haay Raam’ for the movie ‘Navjeevan’. However, this movie ‘Navjeevan’ proved to be Balwant Singh’s last movie at Bombay Talkies.

Balwant Singh earned true fame with the 1941 superhit ‘Padosi’. This movie, made in Pune’s Prabhat Film Company, was directed by V Shantaram. Balwant Singh’s both the duets with Anees Khaatoon, ‘Ban Mein Bahaar Aa Gayi…’ and ‘Kaisa Chhaya Hai Ujaala Rasiya…’ proved to be the superhits in that era.

During the next ten years he acted in 14-15 films including Darpan’(1941), ‘Malan, ‘Swapna’ (Both 1942), ‘Ashirwaad, ‘Naukar, ‘Paraya Dhan’ (All 1943), ‘Parakh, ‘Doctor Kumar, ‘Collegian’ (All 1944), ‘Zanjeer, ‘Bhanwar’ (Both 1947), ‘Chaubeji’ (1948) and Apni Chhaya’ (1950), opposite top heroines of the era like Shanta Hublikar, Lalita Pawar, Noorjehan, Shobhana Samarth, Kaushalya, Leela Desai, Mehtaab, Khurshid (Junior), Chandraprabha, Maya Banerjee, Begum Para, Shameem, Nirupa Roy and Sulochana Chatterjee.

{According to famous film historian and writer as well as close associate of ‘Beete Hue Din’ Shri Arunkumar Deshmukh, Balwant Singh acted in about 18 films during his career and sang 20 songs in 10 films. In addition, he had also written 6 of the 7 songs in the 1949 release ‘Sumitra’. His film Chaubeji’ (1948) was released with the title ‘Hip Hip Hurray. In the movie Apni Chhaya’ (1950), Balwant Singh had got playback from Mohammad Rafi.}

During the late 1940s, Balwant Singh had developed a kidney related ailment due to which he found it extremely difficult to work. The situation deteriorated to such an extent, that he had to bid adieu to the film world after the 1950 release ‘Apni Chhaya’.

Balwant Singh got married in the year 1952. On this aspect Sahibzada Raaz Thakur tells us, “One of father’s friends was an assistant film director. His wife had also acted in a few movies. Suddenly, the government got a tip off that this lady was a Pakistani spy. She was arrested and lodged in Bombay state’s Palanpur Jail which is now a part of Gujarat. The friend requested my father to help. My father had friendly terms with Mohammad Ali Jinnah’s son-in-law. My father contacted him and himself he also reached Palanpur. This incident is of the year 1948, when his father’s film ‘Hip Hip Hurray’ (alias ‘Chaubeji’) was running in cinemas in Palanpur.”

People in Palanpur recognized Balwant Singh and as a result, a huge crowd gathered there. Among the visitors was Palanpur’s Nawab Tale Mohammad Khan’s maternal grandson who was quite fond of movies. On his invitation, Balwant Singh visited Nawab sahab’s palace where he was received with a lot of enthusiasm. He was introduced to all the royal family members and he started visiting Palanpur regularly. With time he got close to Nawab sahab’s unmarried daughter Zubaida Begum and they both decided to get married. It was natural that due to the difference in religions, both families were against the match, but the dissent did not last long.

Sahibzada Raaz Thakur informs us, “My maternal family had long-term relations with Rajasthan’s Rajpur families. Many of the daughters-in-law of the Nawab family belonged to Rajput families. In this situation, my maternal grandmother took the side of my mother. She was of the view that if Rajput daughters-in-laws can be brought into the family, there should not be a problem giving their daughter into a Rajput family. Due to the vociferous defence of my maternal grandmother, all the dissent vanished away. My parents got married in the year 1952 and my mother got a new name, Naina Devi.”

After marriage, Balwant Singh bought a farm in Ahmedabad’s Vatva area and settled there. However, after the Gujarat government acquired the farm in 1973, the whole family shifted to Ludhiana. Among his three sons and two daughters, Sahibzada Raaz Thakur is the eldest. The Thakur family runs a hosiery business in Ludhiana under the brands, ‘Pandoga’ and ‘Khatoon’. Thakur Balwant Singh passed away in Ludhiana on 4th December 1985. By the Grace of God, Shrimati Naina Devi Thakur who is 95 years old is healthy and lives in Ludhiana with her big family.

Special :- Sahibzada Raaz Thakur tells us, “In the year 1939-40, All India Radio’s Station Director Z A Bukhari visited Bombay Talkies and got impressed by my father’s singing talent. He invited my father to sing on the Radio. My father’s contract with Bombay Talkies also ended around that time and therefore my father started singing on All India Radio as well. With time his relationship with Z A Bukhari became more and more closer. One day, they both went to see a film of ‘Prabhat Film Company’. After listening to the ‘Prabhat’ signature tune in the film, my father told Bukhari ji, “Why don’t we make a signature tune for All India Radio also?”.

Bukhari sahib loved the idea and gave the responsibility of making the tune to my father. My father made the tune using the Raag ‘Sohni Basant’ (and Shivranjani too probably) with the violin played by famous musician Mehli Mehta alongwith the Tanpura as a supporting instrument. That signature tune of All India Radio continues to be played till date!”

Balwant Singh would often recall this incident during his interviews with Doordarshan, Radio, Newspapers and Magazines. However, he never got official credit for it. Sahibzada Raaz Thakur had also tried to correspond with All India Radio – Urdu Service (New Delhi), other stations and the Central and Himachal Governments, but no one paid attention towards this issue. But the London based ‘National Sound Archive – British Library’ did take note of it. The then British Library Director Dr C H Roads wanted to come to India and record a conversation with him at All India Radio’s Ahmedabad center. Unfortunately, at the same time the Anti-Reservation movement flared up in Gujrat, due to which Balwant Singh could not go to Ahmedabad. This incident is of 1984. Unfortunately, Thakur Balwant Singh passed away the next year.

Sahibzada Raaz Thakur summarizes, “My father had mentioned this in 1975 on All India Radio, Jalandhar’s evening program ‘Desh Punjab’ as well as during his interview to Doordarshan broadcast on 25th February 1976. Though he did not get his due credit during his lifetime, if the Government and All India Radio take a lead to give him the due credit missing all these years, It would be a true and befitting tribute to the Late Artist.

5 comments:

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