“ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे” – वाडिया मूवीटोन
...........................शिशिर कृष्ण शर्मा
साल 1931 भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक क्रांति लेकर आया था जब दर्शकों ने आर्देशीर ईरानी की कंपनी ‘इम्पीरियल मूवीटोन’ की बनाई फ़िल्म ‘आलमआरा’ में चलती-फिरती तस्वीरों को पहली बार बोलते-गाते सुना था। ‘आलमआरा’ से टॉकी फ़िल्मों का दौर शुरू होते ही कई नई कंपनियां अस्तित्व में आयीं और मुंबई के साथ साथ पुणे, कोल्हापुर, कोलकाता और लाहौर बहुत तेज़ी से फ़िल्म निर्माण का केन्द्र बनकर उभरने लगे थे। जल्द ही पुणे की ‘प्रभात पिक्चर्स’, कोल्हापुर की ‘जयाप्रभा’ और ‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’, कोलकाता की ‘न्यू थिएटर्स’ और ‘माडन थिएटर्स’, लाहौर की ‘पंचोली आर्ट्स’ और मुंबई की ‘रंजीत मूवीटोन’ और ‘बॉम्बे टॉकीज़’ जैसी कंपनियां उत्कृष्ट फ़िल्मों का निर्माण करके उस दौर की तमाम फ़िल्म-कंपनियों की कतार में सबसे आगे आ खड़ी हुईं। लेकिन इन सभी कंपनियों द्वारा ख़ासतौर से साहित्य और समाज से ली गयी कहानियों पर बनाई जा रही फ़िल्मों के उस ज़माने में एक ‘वाडिया मूवीटोन’ जैसी कंपनी भी थी जो फ़ैंटेसी और स्टंट फ़िल्मों के ज़रिए अपना एक अलग दर्शक वर्ग तैयार करते हुए बहुत तेज़ी से सफलता की सीढ़ियां चढ़ रही थी।
‘वाडिया मूवीटोन’ की बुनियाद ‘जमशेदजी बोमनजी होरमसजी (जे.बी.एच.) वाडिया’ ने रखी थी. पारसी परिवार के जे.बी.एच.वाडिया उन मास्टर बिल्डर ‘लवजी वाडिया’ के वंशज थे जिन्होंने 17वीं सदी में सूरत (गुजरात) से मुंबई आकर ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के लिए पहला भारतीय पानी का जहाज़ बनाया था। कुछ साल पहले हुई एक मुलाक़ात के दौरान जे.बी.एच.वाडिया के बेटे विंसी वाडिया ने बताया था कि उनके पिता ने अंग्रेज़ी साहित्य और प्राचीन ‘अवेस्ता’ और ‘पहलवी’ भाषाओं में एम.ए. करने के बाद कुछ समय सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया में नौकरी की और फिर ‘देवारे भाईयों’ के साथ मिलकर फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में कूद पड़े।
साल 1928 से 1933 के बीच जे.बी.एच.वाडिया ने 7
साईलेंट फ़िल्मों - ‘सन ऑफ़ द रिच’ उर्फ़ ‘वसंतलीला’ (1928),
‘बॉण्डेज’ उर्फ़ ‘प्रतिज्ञा बंधन’ (1929),
‘थंडरबोल्ट’ उर्फ़ ‘दिलेर डाकू’ (1931),
‘तूफ़ान मेल’ और ‘लॉयन मैन’ उर्फ़ ‘सिंह गर्जना’ (दोनों 1932), ‘व्हर्लविंड’ उर्फ़ ‘वैण्टोलियो’ और ‘द अमेज़न’ उर्फ़ ‘दिलरूबा डाकू’ (दोनों 1933)
का निर्माण किया। इनमें से आख़िरी दो फ़िल्में उन्होंने अपने छोटे भाई होमी वाडिया के साथ मिलकर ‘वाडिया ब्रदर्स’ के बैनर में बनाई थीं।
साल 1933 में ही जे.बी.एच.वाडिया और होमी वाडिया ने ‘वाडिया मूवीटोन’ की नींव रखकर टॉकी फ़िल्मों का निर्माण शुरू किया। अपने पूर्वज लवजी वाडिया को श्रद्धांजलि-स्वरूप उन्होंने ‘वाडिया मूवीटोन’ के प्रतीक-चिह्न के तौर पर ‘पानी के जहाज’ की तस्वीर को चुना। इस बैनर की पहली फ़िल्म ‘लाल-ए-यमन’ एक फ़ैंटेसी फ़िल्म थी, जिसकी कामयाबी के बाद उन्होंने ‘बाग-ए-मिसर’, ‘वामन अवतार’, ‘वीर भारत’, ‘ब्लैक रोज़’ (सभी
1934), ‘देशदीपक’ और ‘नूर-ए-यमन’ (दोनों 1935) जैसी फ़िल्में बनाईं। और फिर साल 1935
में बनी फ़िल्म ‘हंटरवाली’ ने तमाम रेकॉर्ड तोड़ते हुए ‘वाडिया मूवीटोन’ को कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचा दिया।
होमी वाडिया द्वारा निर्देशित स्टंट फ़िल्म ‘हंटरवाली’ में पिछले कुछ समय से ‘वाडिया मूवीटोन’ में बतौर एक्स्ट्रा कलाकार नौकरी कर रही नाडिया को पहली बार हिरोईन के तौर पर प्रस्तुत किया गया था। ‘नाडिया’ द्वारा किए गए ख़ौफ़नाक़ स्टंट दृश्यों की बदौलत उस ज़माने में देखते ही देखते उनकी अभिनीत स्टंट फ़िल्मों का एक बहुत बड़ा दर्शकवर्ग तैयार हो गया था। नाडिया के हैरतअंगेज़ कारनामों को देखकर उनके प्रशंसकों ने उन्हें ‘फ़ीयरलेस (निडर) नाडिया’ के नाम से ऐसा नवाज़ा कि सारी ज़िंदगी उन्हें इसी नाम से जाना जाता रहा।
8 जनवरी 1910
को पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में जन्मी, अंग्रेज़ पिता हरबर्ट इवांस और ग्रीक मां मारग्रेट इवांस की बेटी नाडिया का असली नाम ‘मैरी’ था। वो महज़ एक साल की थीं जब उनके फ़ौजी पिता परिवार को साथ लेकर ट्रांसफ़र पर मुंबई के नज़दीक स्थित एलिफ़ेंटा टापू की फ़ौजी छावनी में चले आए थे। लेकिन 1914
से 1918
तक चले पहले विश्वयुद्ध के दौरान हरबर्ट और उनके दो फ़ौजी भाई मारे गए। मारग्रेट ने पति की मौत के बाद भारत में ही रहने का फ़ैसला करते हुए मैरी का दाख़िला क्लेयर रोड, मुंबई के एक कॉंवेंट स्कूल में करा दिया। लेकिन साल 1920
में मारग्रेट ने मुंबई छोड़ दिया और मैरी को साथ लेकर वो पश्चिमोत्तर भारत की क्वेटा छावनी में अपने रिश्तेदारों के पास रहने चली गयीं।
साल 1928 में मार्गरेट और मैरी वापस मुंबई चली आयीं। मैरी, जो अब 18 साल की हो चुकी थीं, मुंबई आकर फ़ौज की कैंटीन में सेल्सगर्ल की नौकरी करने लगीं। साथ ही वो रूसी बैले डांसर मैडम अस्त्रोवा से बैले भी सीखने लगीं जिसके पीछे उनका असली मक़सद अपने बढ़ते वज़न को कम करना था। लेकिन बहुत जल्द मैडम अस्त्रोवा ने उन्हें अपने डांस ग्रुप में शामिल करके नया नाम दिया, ‘नाडा’। मैरी को ये नाम कुछ ख़ास पसंद नहीं आया और उन्होंने इसे बदलकर ‘नाडिया’ कर लिया। क़रीब दो सालों तक वो मैडम अस्त्रोवा के डांस ग्रुप के साथ पूरे देश में घूमघूमकर बैले डांस के कार्यक्रमों में हिस्सा लेती रहीं और फिर साल 1930
में दिल्ली में इस डांस ग्रुप को छोड़कर उन्होंने उस ज़माने की मशहूर ‘ज़ारको सर्कस’ में नौकरी कर ली। लेकिन सर्कस की ज़िंदगी उन्हें पसंद नहीं आयी तो वो वापस स्टेज शोज़ की दुनिया में लौट आयीं।
स्टेज कार्यक्रमों के दौरान लाहौर में नाडिया की मुलाक़ात साल 1934
में रीगल थिएटर ग्रुप के मैनेजर मिस्टर कांगा से हुई। नाडिया के डांस और हिंदी गानों से प्रभावित होकर कांगा ने उन्हें फिल्मों में काम करने की सलाह दी। नाडिया मुंबई आकर ‘वाडिया भाईयों’ से मिलीं जिन्होंने अपने दोस्त कांगा की सिफ़ारिश पर नाडिया को फ़िल्म ‘देशदीपक’ और ‘नूर-ए-यमन’ में बेहद छोटी-छोटी भूमिकाएं दीं। अपनी तीसरी फ़िल्म‘हंटरवाली’ में नाडिया हिरोईन बनीं, जिसकी जबर्दस्त कामयाबी ने न सिर्फ उन्हें स्टार बनाया बल्कि ‘वाडिया मूवीटोन’ को भी अपने दौर की अग्रणी फिल्म कंपनियों में ला खड़ा किया।
साल 1933 से अगले 40 सालों के दौरान ‘वाडिया मूवीटोन’ के बैनर में ‘फ़ौलादी मुक्का’, ‘जय भारत’ (दोनों 1936), ‘हरिकेन हंसा’, ‘तूफ़ानी टार्जन’ (दोनों
1937), ‘लुटारू ललना’, ‘तूफ़ान एक्सप्रेस’ (दोनों 1938), ‘फ़्लाईंग रानी’, ‘जंगल किंग’, ‘पंजाब मेल’, ‘हरिकेन स्पेशल’ (सभी
1939), ‘हिंद के लाल’, ‘डायमंड क्वीन’ (दोनों 1940), ‘बंबईवाली’ (1941),
जंगल प्रिंसेस’, ‘रिटर्न ऑफ़ तूफ़ान मेल’ (दोनों
1942) जैसी कई स्टंट फ़िल्में बनीं। भारत की पहली गीतविहीन फ़िल्म ‘नौजवान’ (1937),
पहली अंग्रेज़ी फ़िल्म ‘कोर्ट डांसर’ (1941)
और पहली सिंधी फ़िल्म ‘एकता’ (1942)
के अलावा दिलीप कुमार और नर्गिस की नौशाद द्वारा संगीतबद्ध बेहद कामयाब फ़िल्म ‘मेला’ (1948),
तेलुगू फ़िल्म ‘नरनारायण’ (1937),
तमिल फ़िल्म ‘वनराज कर्ज़न’ (1938)
और ‘भारत केसरी’
(1939), बांग्ला फ़िल्म ‘राजनर्तकी’ (1941)
और गुजराती फ़िल्म ‘वालो नामोरी’ (1973)
का निर्माण भी ‘वाडिया मूवीटोन’ के बैनर में ही किया गया था। ‘राजनर्तकी’ बांग्ला के अलावा हिंदी में भी बनी थी। ‘कोर्ट डांसर’ फ़िल्म ‘राजनर्तकी’ का ही अंग्रेज़ी वर्शन थी।
विंसी के मुताबिक़ 1940 के दशक की शुरूआत में जे.बी.एच.वाडिया का रूझान सामाजिक फ़िल्मों की तरफ़ होने लगा था। लेकिन होमी वाडिया स्टंट और फैंटेसी फ़िल्मों के निर्माण की, ‘वाडिया मूवीटोन’ की पहचान को बनाए रखना चाहते थे। इस बात को लेकर दोनों भाईयों में मतभेद इतने बढ़े कि होमी ने ‘वाडिया मूवीटोन’ से अलग होकर साल 1942
में अपने निजी बैनर ‘बसंत पिक्चर्स’ की स्थापना कर ली। इसके बावजूद ‘बसंत पिक्चर्स’ की पहली फ़िल्म ‘मौज’ जहां एक सामाजिक फ़िल्म थी तो होमी के अलग होने के बाद ‘वाडिया मूवीटोन’ के बैनर में बनी पहली फ़िल्म ‘मुक़ाबला’, इस बैनर की पहचान के मुताबिक़ काफ़ी हद तक एक स्टंट फ़िल्म ही थी। ये दोनों ही फ़िल्में साल 1942
में प्रदर्शित हुई थीं।
जे.बी.एच. वाडिया और होमी वाडिया ने साथ मिलकर साल 1933 से 1942
के बीच ‘वाडिया मूवीटोन’ के बैनर में कुल 43
फ़िल्में बनाई। लेकिन होमी के अलग होने के बाद जे.बी.एच.वाडिया ने परेल के लालबाग़ इलाक़े में स्थित ‘वाडिया मूवीटोन’ का स्टूडियो किराए पर वी.शांताराम को दे दिया जो उन्हीं दिनों पुणे की ‘प्रभात पिक्चर्स’ को छोड़कर मुंबई आए थे। वी.शांताराम ने उस जगह पर ‘राजकमल’ के नाम से अपना नया बैनर और स्टूडियो स्थापित कर लिया। उधर जे.बी.एच.वाडिया ने ‘वाडिया मूवीटोन’ के बैनर में फ़िल्में बनाना जारी रखा, हालांकि फ़िल्म निर्माण की उनकी गति अब बेहद धीमी हो चुकी थी।
1943 से अगले 30
सालों में ‘वाडिया मूवीटोन’ के बैनर में कुल 24
फ़िल्में बनीं। ‘आंख की शर्म’, ‘विश्वास’ (दोनों 1943), ‘पिया मिलन’, ‘शरबती आंखें’ (दोनों
1945), ‘रहनुमा’ (1948),
‘बालम’ (1949),
‘मगरूर’ (1950),
‘मदहोश’ (1951),
‘कैप्टन किशोर’ (1957),
‘दुनिया झुकती है’ (1961)
जैसी कामयाब फ़िल्में बनाने के बाद साल 1966
में ‘वाडिया मूवीटोन’ के बैनर में पहली रंगीन फ़िल्म ‘तस्वीर’ बनी, जिसके मुख्य कलाकार फ़ीरोज़ ख़ान और कल्पना और संगीतकार सी.रामचन्द्र थे। साल 1971
में रेखा और प्रेमेन्द्र अभिनीत और चित्रगुप्त द्वारा संगीतबद्ध ‘साज़ और सनम’ ‘वाडिया मूवीटोन’ के बैनर में बनी आख़िरी हिंदी फ़िल्म थी और फिर साल 1973
में बनी गुजराती फ़िल्म ‘वालो नामोरी’ के साथ ही ‘वाडिया मूवीटोन’ इतिहास का हिस्सा बनकर रह गया।
13 सितम्बर 1901
को जन्मे जे.बी.एच.वाडिया का निधन 4 जनवरी 1986 को हुआ। उनके गुज़रने के बाद उनके पोते और विंसी के बेटे रियाद वाडिया ने ‘वाडिया मूवीटोन’ के गौरवशाली पन्नों को समेटने का बीड़ा उठाया, जिसके तहत उन्होंने अपने दादा की कंपनी से जुड़े कई लोगों का इंटरव्यू करने के साथ-साथ फ़ीयरलेस नाडिया पर एक डॉक्यूमेंटरी भी बनाई। लेकिन साल 2003
में महज़ 36
साल की उम्र में रियाद भी गुज़र गए। और इसके साथ ही भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुल 67
फ़िल्मों का योगदान देने वाले मशहूर बैनर ‘वाडिया मूवीटोन’ के फिर से ज़िंदा होने की उम्मीदें भी हमेशा के लिए ख़त्म हो गयीं।
We are thankful to –
Mr. D.B. Samant, Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir
Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and
support.
Ms. Aksher Apoorva for the English translation of the write up.
Mr.
Manaswi Sharma for the technical support including video
editing.
“Ye Zindagi Ke Mele Duniya Me Kam Na Honge” – Wadia Movietone
...........................Shishir Krishna Sharma
The year 1931 of Indian cinema brought in a revolution when the audience
heard talking & singing moving images for the first time in Ardeshir Irani’s Company ‘Imperial Movietone’s’ film
‘Alamara’. With the advent of the talkie era with ‘Alamara’, many new
companies came into existence and very soon, other than Mumbai, places like
Pune, Kolhapur, Kolkata and Lahore became the centers of film making. And soon enough
companies like Pune’s ‘Prabhat Pictures’, Kolhapur’s ‘Jayaprabha’ and ‘Prafull Pictures’, Kolkata’s ‘New
Theatres’ and ‘Madan Theatres’, Lahore’s ‘Pancholi Arts’ and Mumbai’s ‘Ranjit Movietone’ and ‘Bombay
Talkies’ set a high standard of film making thus marking themselves apart from
the other film companies of that era. But other than these companies who were
mainly concentrated on story lines based on literature and social truths of
that era, there was one company viz. ‘Wadia Movietone’ which was rapidly climbing the ladder of success by
creating its own audience base through fantasy and stunt films.
The foundation of ‘Wadia Movietone’ was laid down by ‘JamshedJi Bomanji Hormasji (J.B.H.) Wadia’. Hailing from
a Parsi family, J.B.H.Wadia belonged to the one master builder ‘Luvji Wadia’s’ bloodline who in the 17th century had come
to Mumbai from Surat (Gujarat) to make the first Indian ship for the ‘East India Company’. In a
rendezvous with J.B.H.Wadia’s son Vinci Wadia, a few years back, he had said that after his
father completed his M.A. in English Literature and ancient
‘Avesta’ and ‘Pahelvi’ languages, he worked in the Central Bank Of India for some time and
there after he collaborated with the ‘Deware Brothers’ and jumped into the field of film making.
During the years 1928 to 1933, J.B.H.Wadia made 7 silent films - ‘Son Of The
Rich’ or ‘Vasantleela’ (1928), ‘Bondage’ or ‘Pratigya bandhan’ (1929), ‘Thunderbolt’ or ‘Diler Daku’ (1931), ‘Toofan Mail’ and ‘Lion Man’ or ‘Sinh
Garjana’ (both 1932), ‘Whirlwind’ or ‘Vantolio’ and ‘The Amazon’ or ‘Dilruba Daku’
(both 1933). Of these, he made the last two films in collaboration with his younger
brother Homi Wadia under the banner of ‘Wadia Brothers’.
In the year 1933 itself, J.B.H.Wadia and Homi Wadia laid the foundations of ‘Wadia Movietone’ and
started making talkie films henceforth. As homage to their ancestor Luvji Wadia, they chose to depict a picture of a ship as the
logo for ‘Wadia Movietone’. This banner’s first film ‘Laal-e-Yaman’ was a fantasy
film, and after its success they made many films like ‘Baag-e-Misar’, ‘Waaman Avtar’, ‘Veer Bharata’, ‘Black Rose’ (all 1934), ‘Desh Deepak’ and ‘Noor-e-Yaman’ (both 1935). And then
their film ‘Hunterwali’, made in the year 1935, broke all box office records
and catapulted ‘Wadia Movietone’ to immense heights of success.
For the very first time Nadia, who had been working at ‘Wadia Movietone’ as an extra,
was presented as the Heroine of the stunt film ‘Hunterwali’ which was directed by Homi Wadia. The impact of the imagery of the dangerous stunts done by ‘Nadia’
was such that very soon an entirely new audience base for the enacted stunts or
as such action films had been created. Seeing Nadia’s astounding exploits onscreen, her fans baptized her as ‘Fearless Nadia’, a name that
stayed with her throughout her life as her alter identity.
Born on 8th January 1910 in Western Australia’s Perth city,
daughter of an English father Herbert Evans and Greek mother Margret Evans, Nadia’s
real name was ‘Mary’. She was just a year old when her father who was serving
the army moved the whole family to Elephanta Island’s army cantonment
near Mumbai on a transfer. But Herbert and his two brothers, who were in the
army as well, were killed during the First World War which was fought between
1914 to 1918. After her husband’s death, Margret decided to stay
in India and enrolled Mary into a convent school on Clare Road, Mumbai. But in
the year 1920, Margret left Mumbai and took Mary with her to live with their
relatives in the Quetta cantonment of north-western
India.
In 1928, Margret and Mary came back to Mumbai. Mary, who was now 18
years old, on her return to Mumbai started working as a salesgirl in
the army canteen. Also, she started
learning Ballet from Russian Ballet dancer Madam Astrova, the real reason being
learning ballet was her desire to shed some extra weight. But very soon Madam
Astrova included Mary in her dance group and gave her a new name
‘Nada’. Mary wasn’t particularly fond of her new name and hence changed it to ‘Nadia’. For almost 2
years she travelled around the country participating in ballet dance programs
with Madam Astrova’s dance group and then in the year 1930, in Delhi, she left
the dance group to join the then famous ‘Zarco Circus’. But she didn’t like the circus lifestyle and thus
returned into the world of stage shows.
During one of her stage shows in Lahore in 1934, Nadia met Regal Theatre
Group’s manager Mr.Kanga. Impressed by Nadia’s dance and Hindi
vocals, Kanga advised her to work in films. On coming to Mumbai, Nadia met the ‘Wadia
brothers’ who on the recommendation of their friend Kanga gave Nadia some small
parts to play in the films ‘Desh Deepak’ and ‘Noor-e-Yaman’. In her third film ‘Hunterwali’ Nadia became a
heroine, whose enormous success not only made her a big star but also placed ‘Wadia Movietone’ in the
frontline of that era’s film companies.
From 1933 till the next 40 years, ‘Wadia Movietone’ banner made many stunt films like ‘Fauladi Mukka’, ‘Jai Bharat’ (both 1936), ‘Hurricane
hansa’, ‘Toofani Tarzan’ (both 1937), ‘Lutaru Lalna’, ‘Toofan
Express’ (both 1938), ‘Flying Rani’, ‘Jungle
King’, ‘Punjab Mail’, ‘Hurricane Special’ (all 1939), ‘Hind Ke Laal’, ‘Diamond
Queen’ (both 1940), ‘Bambaiwali’ (1941), ‘Jungle Princess’, ‘Return of Toofan
Mail’ (both 1942). Other than India’s first song-less film ‘Naujawan’ (1937), India’s first English film ‘Court dancer’ (1941) and first Sindhi film ‘Ekta’ (1942), the very
famous film ‘Mela’ (1948) starring Dilip Kumar and Nargis and music given by
Naushad was made under the banner of ‘Wadia Movietone’
along with many other landmark films like Telugu film ‘Nar-Narayan’ (1937), Tamil films ‘Vanaraja Karzan’ (1938) and ‘Bharat Kesri’ (1939), Bangla film ‘Rajnartaki’ (1941) and Gujrati film ‘Valo Namori’ (1973). Other
than Bengali, ‘Rajnartaki’ was also made in Hindi. The film ‘Court dancer’ was film ‘Rajnartaki’s’ English
version.
According to Vinci, in the beginning of the 1940’s decade, J.B.H.Wadia had started
preferring films with a social storyline. But Homi Wadia wanted to maintain ‘Wadia Movietone’s’ image of
making stunt and fantasy films. This ideological difference escalated to such a
huge level that eventually Homi left ‘Wadia Movietone’ and laid the foundations of his own banner ‘Basant Pictures’. But despite
the differences, ‘Basant Pictures’s’ first film ‘Mauj’ was a social film and ‘Wadia Movietone’s’ first film made under the banner after Homi’s departure
was ‘Muqabla’, which keeping with the banners image was a stunt film. Both
these films were released in the year 1942.
From 1933 to 1942, J.B.H. Wadia and Homi Wadia, together, had made a total of 43 films under the banner
of ‘Wadia Movietone’. But after his
split from Homi, J.B.H.Wadia gave the ‘Wadia Movietone’ studio situated in Parel’s Lalbaug area on rent to
V.Shantaram who had recently left Pune’s ‘Prabhat Pictures’ and had come to Mumbai. V.Shantaram founded his own
banner and studio called ‘Rajkamal’ in its place. J.B.H.Wadia did keep making
films under the banner of ‘Wadia Movietone’, however his speed of churning out films had greatly
tapered.
From 1943 till the next 30 years a total of 24 films were made under the
banner of ‘Wadia Movietone’. After making many successful films like ‘Aankh Ki Sharm’, ‘Vishwaas’ (both 1943), ‘Piya Milan’, ‘Sharbato
Ankhein’ (both 1945), ‘Rehnuma’ (1948), ‘Baalam’ (1949), ‘Maghroor’ (1950), ‘Madhosh’ (1951), ‘Captain Kishore’ (1957), ‘Duniya Jhukti Hai’ (1961), in the year 1966 ‘Wadia Movietone’ made its first colour film ‘Tasweer’ which starred Feroze Khan and kalpana and its composer was
C.Ramchandra. Featuring Rekha
and Premendra and composed by Chitragupt, 1971’s ‘Saaz Aur Sanam’ was the last
hindi film to be made under the banner of ‘Wadia Movietone’ and then with
1973’s Gujarati film ‘Valo Namori’ ‘Wadia Movietone’ became a part
of history.
Born on 19th September 1901, J.B.H.Wadia passed away on 4th
January 1986. After his death his grandson i.e. Vinci’s son Riyad Wadia took up
the mammoth task of acknowledging the glorious years of ‘Wadia Movietone’ wherein he
interviewed many people associated with his grandfather’s company and also made
a documentary on Fearless Nadia. But in 2003, merely 36 years old Riyad also
passed away. And just like that the hopes of resurrection of the banner ‘Wadia Movietone’ which
contributed 67 films to the history of Indian cinema were lost forever.
Shishir Ji
ReplyDeleteThank you very much for this well informative writing on the history of Wadia Brothers. This institution has made great contribution in the development of Indian sub continent film industry. One aspect which I would like to add that Homi Wadia was signatory and founder member of Indian Motion Pictures Production Association. Homi also married Nadia after their long association finally in 1960.
Regards
Pashambay Baloch
Karachi Pakistan
thanks for the encouraging comment sir...homi wadia n nadia's issue post 'wadia movietone' is intentionally not touched as the same would be mentioned in 'basant pictures' write up later...
ReplyDeleteShishir Ji
ReplyDeleteI today again visited Wadia Brothers write-up. I think JBH and Homi photos are wrongly captioned vice versa. Please look at it.
Pashambay Baloch
Karachi
@Pashambey Baloch ji : sir, pictures of wadia brothers are rightly captioned...homi's picture is cropped from his picture with his wife nadia which was provided to me by j.b.h.'s son vincy wadia...the original one will be used with the forthcoming 'basant pictures' write up.
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