“मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूंगा सदा” – नक़्श लायलपुरी
........शिशिर कृष्ण शर्मा
नक़्श लायलपुरी नाम है उन शायर का जिन्हें भारतीय सिनेमा के इतिहास में बतौर उत्कृष्ट गीतकार हमेशा याद किया जाता रहेगा। पिछले क़रीब पांच दशकों से हिन्दी और पंजाबी सिनेमा के गीत-संगीत को अपनी लेखनी से समृद्ध करते आ रहे नक़्श साहब मुम्बई के ओशिवरा क्षेत्र में स्थित अपने निवासस्थान पर ‘बीते हुए दिन’ के लिए ख़ासतौर से समय निकाला और अपने निजी और व्यावसायिक जीवन के विषय में विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत है नक़्श लायलपुरी साहब की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी :-
मेरा जन्म 24 फरवरी 1928
को अविभाजित भारत के पश्चिमी पंजाब स्थित लायलपुर ज़िले के गांव चक नम्बर 118 में हुआ था। पिता पॉवर हाऊस में इंजीनियर थे। दस महिने का हुआ कि मेरी मां गुज़र गयीं, जिसकी वजह से पिताजी को दूसरी शादी करनी पड़ी। चौथी तक की मेरी पढ़ाई गांव के ही प्राईमरी स्कूल में हुई। पिताजी का ट्रांसफ़र रावलपिण्डी हुआ तो पांचवी से आठवीं तक की पढ़ाई मैंने रावलपिण्डी में की और फिर आगे की पढ़ाई के लिए लायलपुर शहर में हॉस्टल में दख़िला ले लिया। यही वो दौर था जिसने मेरे जीवन को एक नयी दिशा दी थी। दरअसल हमारे उर्दू के मास्टर रामलालजी मेरी लिखाई और लेखन शैली से इतने प्रभावित थे कि साल के आख़िर में मेरी कॉपियां अपने पास रख लेते थे ताकि बड़े छात्रों को दिखाकर उनके सामने उदाहरण रख सकें।
उन्हीं की प्रेरणा से मेरा रूझान साहित्य की तरफ़ होने लगा था और मैं थोड़ा-बहुत लिखने भी लगा था। मास्टरजी का कहना था, अगर मैं विषय के रूप में साहित्य को चुनूं तो जीवन में काफ़ी आगे जाऊंगा। लेकिन पिताजी चाहते थे कि मैं भी उन्हीं की तरह इंजीनियर बनूं, इसलिए उनके कहने पर मजबूरन मुझे विज्ञान के विषय चुनने पड़े, हालांकि रूचि न होने के कारण मैं कभी भी विज्ञान की कक्षा में नहीं गया। नतीजतन 12वीं तो पास कर ली लेकिन विज्ञान में मुझे बेहद कम नंबर मिले। पिताजी को मुझे इंजीनियर बनाने का सपना टूटता सा नज़र आया तो वो मुझ पर बरस पड़े। उस रोज़ मैंने साफ़ शब्दों में उनसे कह दिया कि मेरी दिलचस्पी विज्ञान या इंजीनियरिंग में ज़रा भी नहीं है। इस बात पर और भी ज़्यादा नाराज़ होकर उन्होंने मुझे आगे पढ़ाने से साफ़ इंकार कर दिया। उस वाक़ये ने भले ही मजबूरी में सही, लेकिन मुझे एक रास्ता ज़रूर सुझाया और मैं लाहौर जाकर वहां से छपने वाले, हीरो पब्लिकेशन के उर्दू दैनिक ‘रंजीत निगारा’ में नौकरी करने लगा। इस तरह से पत्रकारिता की मेरी शुरूआत हुई थी। लाहौर में लेखकों-शायरों की महफ़िलों में उठना-बैठना शुरू हुआ तो मैं भी उन्हें अपना लिखा सुनाने लगा। उन ज़हीन हस्तियों के सोहबत में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। लेकिन ये सिलसिला ज़्यादा दिनों तक नहीं चल पाया।
उन्हीं दिनों मुल्क़ का बंटवारा हुआ और शरणार्थियों के क़ाफ़िले के साथ हम लोगों को लखनऊ चले आना पड़ा, जहां पिताजी के एक दोस्त का बेटा नौकरी करता था। उन्होंने लखनऊ में जमने में पिताजी की बहुत मदद की। पिताजी ने लखनऊ में एक वर्कशॉप खोली लेकिन घर के माली हालात बद से बदतर होते चले गए। घर में माता-पिता और मेरे अलावा दो छोटी बहनें भी थीं। ऐसे में मुझ पर दबाव पड़ने लगा कि मैं भी कमाना शुरू करूं। बहुत कोशिशों के बाद भी कोई काम नहीं मिला तो परेशान होकर एक रोज़ मैंने बिना किसी को बताए चुपचाप घर छोड़ दिया। ख़ाली हाथ और ख़ाली जेब लिए बिना टिकट मैं मुम्बई जाने वाली ट्रेन में सवार हो गया। उस वक़्त बस एक ही धुन सवार थी कि अपने पैरों पर खड़े होना है, लेकिन कैसे, ये मुझे मालूम नहीं था। ये 1949
की गर्मियों का वाक़या है।
मुम्बई में मेरे एक पत्र-मित्र प्रदीप नैयर रहते थे जिनसे मैं कभी मिला नहीं था। दोपहर के एक बजे ट्रेन से दादर स्टेशन पर उतरा। प्रदीप के, रहमत मंज़िल, दादर पूर्व के पते पर पहुंचा तो वहां ताला लटका मिला। पड़ोस की महिला ने बताया वो पूना गए हुए हैं और पन्द्रह दिनों बाद लौटेंगे। अब मैं भूखा-प्यासा, अजनबी शहर में अनजान लोगों के बीच पूरी तरह से सड़क पर था।
सामने से चले आ रहे एक बुज़ुर्ग सरदारजी से मैंने पूछा आसपास कोई सराय होगी, तो उन्होंने विस्तार से मेरी बात सुनकर मुझे माटुंगा में सिटीलाईट सिनेमा के पीछे गुरूद्वारे का पता देते हुए कहा, वहां जाओ, आठ दिन रहने की जगह मिलेगी और साथ में दोनों वक़्त का लंगर भी। पैदल घिसटता हुआ मैं क़रीब साढ़े चार बजे गुरूद्वारे पहुंचा तो लंगर ख़त्म हो चुका था। थका-हारा, वहीं फ़र्श पर लेट गया। पास ही में बिस्तर पर एक लड़का लेटा हुआ था। मेरी नज़र उसके सिरहाने रखी उर्दू पत्रिका “नक़ूश” पर पड़ी। पत्रिका के बहाने उनसे बातचीत शुरू हुई तो पता चला, उनका नाम कुलदीप सिंह है और वो भी लखनऊ के रहने वाले हैं। लखनऊ में लाटूश रोड पर उनकी मोटर-पार्ट्स की दुकान थी जिसकी ख़रीदारी के सिलसिले में वो मुम्बई आए थे। ये पता चलने पर कि मैं शायर हूं वो बहुत ख़ुश हुए। उन्होंने मुझे साफ़ लुंगी और साबुन दिया, मैं नहा-धोकर ग़ुसलखाने से बाहर निकला और फिर जो सोया तो नींद तभी खुली जब कुलदीप जी ने रात के लंगर के वक़्त मुझे ज़बर्दस्ती उठाया।
...तो ये था इस अजनबी शहर में मेरा पहला दिन !
कुलदीप सिंह जी ने उन आठ दिनों में मेरी भरपूर मदद की। लखनऊ लौटने से पहले उन्होंने न सिर्फ गुरुद्वारे में मेरे ठहरने के इंतज़ाम को और एक हफ़्ते के लिए बढ़वाया बल्कि जाते वक़्त मुझे बीस रूपए भी दिए जो उस ज़माने में अच्छी-ख़ासी रक़म हुआ करती थी। उनके इस एहसान को मैं न तो कभी नहीं भूला हूं और न ही कभी भुला पाऊंगा। आगे चलकर भी हमारा सम्पर्क हमेशा बना रहा।
मुझे अगर कोई शौक़ था तो वो था पान खाने का, जिसने आगे चलकर मेरे लिए इस अजनबी शहर में एक अहम रास्ता खोला। दरअसल अपने शौक़ के चलते पान की दुकान पर मेरा आना-जाना लगा रहता था। उन दिनों गुरूद्वारे में मेरा रहने का वक़्त ख़त्म होने वाला था। तभी एक रोज़ पान की दुकान पर अचानक मेरी मुलाक़ात लाहौर के रहने वाले एक दोस्त दीपक आशा से हुई जो लाहौर में बनी फ़िल्म “पराए बस में” (1946)
में खलनायक का किरदार निभा चुके थे। ये वोही दीपक आशा थे जिन्होंने आगे चलकर धरम कुमार के नाम से घमण्ड (1955),
रोड नं. 303
(1960), संगदिल (1967)
और मर्डर ऑन हाईवे (1970)
जैसी फ़िल्मों का निर्देशन किया था। दीपक मुझे अपने घर ले गए और इस तरह इस शहर में कुछ वक़्त के लिए मेरा रहने का इंतज़ाम भी हो गया। धीरे-धीरे दोस्ती का मेरा दायरा बढ़ने लगा।
उन्हीं दिनों डाकतार विभाग में नौकरी मिली तो ज़िंदगी सुचारू रूप से चलने लगी। लेकिन साल भर के अंदर ही नौकरी से ऊब होने लगी तो इस्तीफ़ा दे दिया। फिर हम कुछ दोस्तों ने मिलकर एक नाटक तैयार किया जिसमें मशहूर अभिनेता राममोहन भी एक रोल करने वाले थे, जो उन दिनों जगदीश सेठी के निर्देशन में बन रही फ़िल्म ‘जग्गू’ में भी बतौर सहायक-निर्देशक काम कर रहे थे। मेरे लिखे नाटक और उसके गीतों से राममोहन इतने प्रभावित थे कि उन्होंने मुझे जगदीश सेठी जी से मिलवाया। फ़िल्म ‘जग्गू’ में हंसराज बहल के संगीत निर्देशन में पहले से ही सात गीतकार ट्रायल पर काम कर रहे थे, जिनमें से भरत व्यास, वर्मा मलिक, असद भोपाली और ए. शाह शिकारपुरी के अलावा मुझे भी चुन लिया गया। उस फ़िल्म में मैंने एक कैबरे गीत लिखा था, “मैं तेरी हूं तू मेरा है दिल लेता जा”, जिसे कुलदीप कौर पर फ़िल्माया गया था। इस तरह साल 1952
में बनी फ़िल्म ‘जग्गू’ से बतौर गीतकार मेरे करियर का श्रीगणेश हुआ।
उर्दू शायरी में चूंकि हमेशा से उपनाम के आगे शहर का नाम लगाने का चलन रहा है इसलिए मैं लाहौर में ही जसवंतराय शर्मा से ‘नक़्श लायलपुरी’ हो चुका था। उधर लखनऊ में घरवालों को भी पता चल चुका था कि मैं मुम्बई में हूं और हमारे बीच फिर से सम्पर्क स्थापित हो चुका था, लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं फ़िल्मों में काम करने लगा हूं, उन्होंने मुझसे संबंध तोड़ दिए। उधर फ़िल्म ‘जग्गू’ के रिलीज़ होने के बाद भी मेरा संघर्ष जारी रहा। उसी दौरान लखनऊ के एक दोस्त ने पत्र के ज़रिए अपनी बहन का रिश्ता मेरे लिए भेजा जिसके जवाब में मैंने उसे लिखा कि मैंने ज़िंदगी में हरेक काम अपने पैरों पर खड़ा होकर करने की कोशिश की है लेकिन शादी मैं अपने मां-बाप की मरज़ी से करूंगा। उसने मेरा पत्र मेरे पिताजी को दिखाया तो उन्हें बेहद ख़ुशी हुई। पिताजी ने वो पत्र बेहद गर्व से अपने उन सभी दोस्तों को दिखाया जो कहते थे कि उनका बेटा उनके कहे में नहीं है। इस तरह साल 1953 में मेरी शादी हुई और घरवालों के साथ मेरे संबंध सामान्य हो गए।
मेरी ज़िम्मेदारियां बढ़ रही थीं। संघर्ष बदस्तूर जारी था। दिन बेहद परेशानियों में ग़ुज़र रहे थे। मेरी उर्दू इतनी नफ़ीस थी कि लोग मुझे पंजाबी मानने को तैयार ही नहीं होते थे। इसके बावजूद एक रोज़ सपन-जगमोहन ने मुझे एक सौ एक रूपए एडवांस देकर पंजाबी फ़िल्म में गीत लिखने को कहा। मैं ठहरा उर्दू का शायर, आत्मविश्वास था नहीं लेकिन पैसे की सख़्त ज़रूरत के चलते रात भर जागकर सोलह गीतों के मुखड़े लिख डाले। पत्नी को हिदायत दी कि पैसा ख़र्च न करें, शायद वापस करने पड़ें। सुबह होते ही सपन-जगमोहन से मिला तो गीत सुनते ही वो उछल पड़े। वो फ़िल्म थी 1953 में बनी “जीजाजी” जो इतनी जबर्दस्त हिट हुई कि मेरे सामने पंजाबी फ़िल्मों की लाईन लग गयी। “जीजाजी” के बाद मैंने सपन-जगमोहन, हरबंस, एस.मदन, दत्ताराम, बी.एन.बाली, राज सोनी, सुरिंदर कोहली, हंसराज बहल, जगजीत कौर, वेद सेठी, बाबुल, हुस्नलाल-भगतराम, ख़ैयाम, चित्रगुप्त, मोहिंदरजीत सिंह, मास्टर अल्लारक्खा और कुलदीप सिंह जैसे संगीतकारों के लिए “एह धरती पंजाब दी”, “पौबारा”, “धरती वीरां दी”, “सत सालियां”, “लाईए तोड़ निभाईये”, “सतगुरू तेरी ओट”, “कुवांरा मामा”, “नीम हक़ीम”, “सपनी”, “जगवाला मेला”, “मां दी गोद”, “पटोला”, “तकरार”, “मढ़ी दा दीवा” और “वतनां तौं दूर” जैसी करीब चालीस फ़िल्मों में गीत लिखे। मेरा आर्थिक संघर्ष तो कुछ हद तक ख़त्म हो चुका था लेकिन डर था कि कहीं पंजाबी फ़िल्मों का ही गीतकार बनकर न रह जाऊं।
भले ही मैंने ‘जग्गू’ जैसी सामाजिक फ़िल्म से अपने करियर की शुरूआत की थी लेकिन हिंदी फ़िल्मों के जो भी गिने-चुने प्रस्ताव मेरे पास आ रहे थे वो सभी सी-ग्रेड स्टण्ट फ़िल्मों के थे, जिन्हें मैं लगातार ठुकराता जा रहा था। ऐसे में एक रोज़ तंग आकर पत्नी ने मुझसे कहा, एक तो वो लोग होते हैं जिन्हें काम ही नहीं आता, दूसरे वो, जिन्हें काम तो आता है, लेकिन मिलता नहीं, और तीसरे आप जैसे जिन्हें काम आता भी है, मिलता भी है लेकिन आप करना ही नहीं चाहते। उनकी बात से मुझे झटका लगा और मैंने बग़ैर फ़िल्म का स्तर देखे, हिंदी फ़िल्मों में भी लिखना शुरू कर दिया। उस दौर में मैंने “घमण्ड” (1955), “राईफ़ल गर्ल” (1958), “सर्कस-क्वीन” (1959), “चोरों की बारात” (1960), “रोड नं. 303” (1960), “ब्लैक शैडो” (1961), “ज़िंबो फ़ाईण्ड्स ए सन” (1966), “नौजवान” (1966), “संगदिल”(1967) और “जालसाज़” (1969) जैसी कई स्टण्ट फ़िल्मों में गुलशन सूफ़ी, हरबंस, शफ़ी एम.नागरी, मनोहर, सी.अर्जुन, सपन जगमोहन और जी.एस.कोहली जैसे संगीतकारों के साथ काम किया। इनमें से फ़िल्म “चोरों की बारात” के निर्देशक मेरे वोही पत्रमित्र प्रदीप नैयर थे, जिनके दादर स्थित घर पर मुम्बई में मैं सबसे पहले पहुंचा था और जहां मुझे ताला लटका मिला था। इस फ़िल्म में कुल पांच गीतकारों में मेरे साथ फ़ारूख़, ग़ाज़ी और साजन बिहारी के अलावा ग़ुलज़ार दीनवी नाम के भी एक गीतकार थे जिन्हें आज गुलज़ार के नाम से जाना जाता है।
फ़िल्म “चोरों की बारात” के कुल छह गीतों में से मैंने एक गीत “ले मार हाथ पे हाथ गोरिए कर ले पक्की बात’ लिखा था तो गुलज़ार दीनवी का लिखा गीत था, “ये दुनिया है ताश के पत्ते इसको करो सलाम”। (श्री हरमंदिर सिंह ‘हमराज़’ द्वारा लिखित ‘हिन्दी फ़िल्म गीतकोश’ भाग - 3
के अनुसार “चोरों की बारात” का उक्त गीत साजन बिहारी का लिखा हुआ है, जबकि गुलज़ार दीनवी का लिखा गीत है – ‘जाने और अनजाने कहीं दीवाने घूमने निकले’|)
(गुलज़ार दावा करते हैं कि उनका पहला गीत साल 1963 में बनी फ़िल्म ‘बन्दिनी’ का मोरा गोरा अंग लई ले’ था। लेकिन उनका ये दावा सही नहीं है। सच ये है कि गुलज़ार साल 1960 में बनी चार फ़िल्मों ‘दिलेर हसीना’ (3 गीत), ‘चोरों की बारात’ (1 गीत) ‘श्रीमान सत्यवादी’ (4 गीत) और बांग्ला भाषा की ‘दुई बेचारे’ में गीता दत्त का गाया ‘करो न फेरे गली में मेरे’, गुलज़ार ‘दीनवी’ के नाम से लिख चुके थे। इसके अलावा फ़िल्म ‘दिलेर हसीना’ के लेखक भी वो ही थे| साल 1961 में बनी फ़िल्म “क़ाबुली वाला’ का गीत ‘गंगा आए कहां से’ भी गुलज़ार ने ही लिखा था। गीत ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ के सम्बन्ध में ग़लत दावे की वजह वोही बेहतर बता सकते हैं, लेकिन इस आलेख के साथ संलग्न नक़्श साहब का वीडियो ज़रूर उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि करता है।)
फ़िल्म “रोड नं. 303”
से संगीतकार सी.अर्जुन ने अपना करियर शुरू किया था तो “राईफ़ल गर्ल”
और “ब्लैक शैडो”
जैसी फ़िल्मों के संगीतकार हरबंस को संगीतकार पण्डित अमरनाथ के बेटे के तौर पर कहीं ज़्यादा जाना जाता था। हरबंस की तीन फ़िल्मों में मैंने “शाद”
के नाम से गीत लिखे थे। उधर पंजाबी फ़िल्मों का गीतकार होने की मेरी पहचान इतनी गहरी जड़ें जमाए हुए थी कि रवि के संगीत में साहिर लुधियानवी का लिखा फ़िल्म “प्यार का बंधन”
का गीत “घोड़ा पिशौरी मेरा, तांगा लाहौरी मेरा” आकाशवाणी पर काफ़ी वक़्त तक सिर्फ इसलिए मेरे नाम से बजता रहा क्योंकि उसमें पंजाबी के अल्फ़ाज़ की भरमार थी। और शायद इसी वजह से रोशन के संगीत में फ़िल्म ‘मधु’ (1959) के मेरे लिखे गीत “धानी चुनर मोरी हाए रे, जाने कहां उड़ी जाए रे” का श्रेय काफ़ी समय तक शैलेन्द्र को मिलता रहा।
मैंने चालीस पंजाबी फ़िल्मों में क़रीब साढ़े तीन सौ गीत लिखे होंगे। साथ ही कैप्टन शेरू, सरफ़रोश, तेरी तलाश में, पुरानी पहचान, ग़ुस्ताख़ी माफ़, गुनाह और कानून जैसी हिंदी फ़िल्मों में भी गीत लिखता रहा। लेकिन मुझे सही पहचान मिली 1970 में आयी फ़िल्म ‘चेतना’ से। इस फ़िल्म में मेरा लिखा और मुकेश का गाया गीत “मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूंगा सदा” आज भी उतने ही चाव से सुना जाता है। उसके बाद मुझे मदन मोहन, जयदेव, ख़ैयाम, रवींद्र जैन, नौशाद, शंकर जयकिशन सहित उस दौर के सभी नामी संगीतकारों के साथ काम करने का मौक़ा मिला। “रस्मे उल्फत को निभाएं कैसे” (दिल की राहें), “कई सदियों से कई जन्मों से” (मिलाप), “उल्फत में ज़माने की हर रस्म को ठुकराओ” (कॉलगर्ल), “तुम्हें देखती हूं तो लगता है ऐसे” (तुम्हारे लिए), “ये मुलाक़ात इक बहाना है” (ख़ानदान), “माना तेरी नज़र में तेरा प्यार हम नहीं” (आहिस्ता आहिस्ता), “चांदनी रात में हर बार तुम्हें देखा है” (दिले नादान),
“तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यक़ीं है” (घरौंदा), “कदर तूने ना जानी” (नूरी), “न जाने क्या हुआ” और “प्यार का दर्द है” (दर्द), “चिट्ठिए” (हिना) और “मुमताज़ तुझे देखा” (ताजमहल) जैसे मेरे लिखे कई गीत अपने दौर में बेहद मशहूर हुए।टी.वी. सीरियलों का दौर आया तो मुझे कई सीरियलों के शीर्षक गीत लिखने का मौक़ा भी मिला। इंतज़ार और सही, शिकवा, दरार, अधिकार, वारिस, कर्तव्य, अभिमान, मिलन, सुकन्या, अनकही, सवेरा, चुनौती, विरासत, आशियाना, बाज़ार, गृहदाह, श्रीकांत, मुजरिम हाज़िर है, अमानत, कैम्पस, किटी पार्टी, दहलीज़, मुल्क़, ये इश्क़ नहीं आसान, सरहदें, विक्रम वेताल, सवेरा और बिखरी आस निखरी प्रीत जैसे दूरदर्शन और निजी चैनलों के कई सीरियलों के शीर्षक गीत मैंने लिखे।
साल 2006 में आयी फ़िल्म ‘यात्रा’ में मैंने ख़ैयाम के संगीत में एक गज़ल “साज़-ए-दिल नगमा-ए-जां” लिखी थी जिसे तलत अज़ीज़ ने गाया था। क़रीब 8 बरसों के बाद हाल ही में मैंने आने वाली फ़िल्म ‘सबका साईंबाबा’ के लिए एक भजन ‘लागी रे लगन’ लिखा, जिसे सुखविंदर सिंह ने गाया है और संगीतकार हैं आंचल तलसेरिया।
क़रीब साठ बरसों के करियर के दौरान मैंने तकरीबन सभी नामी-गिरामी संगीतकारों के साथ काम किया है। इस दौरान मैंने दो सौ से भी ज़्यादा फ़िल्मों में क़रीब बारह सौ गीत लिखे होंगे। बीते 24 फरवरी को 86 साल का हो चुका हूं। मेरे परिवार में पत्नी और तीन बेटे हैं, बड़ा और छोटा बेटा निजी क्षेत्र की कम्पनियों में मैनेजर हैं। सिर्फ़ मंझले बेटे राजन लायलपुरी ने ही सिनेमा को व्यवसाय के तौर पर चुना है और वो सिनेमैटोग्राफ़र होने के साथ-साथ एक लेखक भी हैं। पंजाबी फ़िल्म “वतनां तौं दूर” उन्हीं की कहानी पर बनी है।
आज भरेपूरे परिवार में ज़िंदगी शांति से ग़ुज़र रही है। पीछे मुड़कर देखता हूं तो उतार-चढ़ाव से भरे अपने सफर को मंज़िल पर पहुंचा देख मन को संतोष होता है और ख़ासतौर से पत्नी के प्रति मन श्रद्धा से भर उठता है जिन्होंने हर अच्छे-बुरे वक़्त में मेरा पूरा साथ दिया है।
नक्श साहब का निधन 22 जनवरी 2017
को 89 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ|
We
are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.
Mr.
S.M.M. Ausaja for providing pictures & posters.
Ms. Aksher Apoorva for the English translation of the write up.
Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.
“Mai To Har Mod Par Tujhko Doonga
Sada” - Naqsh Lyallpuri
.............Shishir Krishna
Sharma
Naqsh Lyallpuri is the poet who will always be remembered as one of the
finest lyricists in the history of Indian cinema. Naqsh sahib’s 6 decades of enriching
contribution to the music of Hindi and Punjabi cinema is amazing. During a
meeting at his residence in Mumbai’s Oshiwara area he spoke to ‘Beete Hue Din’ about
his personal and professional lives in detail. Here is Naqsh Lyallpuri sahib’s story in his own words:
I was born on 24th February
1928 in the village Chak No. 118 in Lyallpur, West Punjab, which is now in
Pakistan. My father was an engineer with the powerhouse. I was just 10 months
old when my mother died and then my father had to remarry. I passed 4th
from village’s primary school, 5th to 8th from Rawalpindi
after my father’s transfer there and then I shifted to a hostel in Lyallpur
city for my further studies.
This period gave a new direction to my
life. My Urdu teacher Ramlal ji was so happy with my handwriting and the style
of writing that he would take my entire notebooks at the end of the year so
that he could show them to the students of other classes as example. With his inspiration
I started taking interest in literature and into writing. Master ji said, if I
choose literature as a subject then I’ll achieve new heights in my life. But my
father wanted me to become an engineer like he was, and he compelled me to opt
for science subjects, which I reluctantly
did. But due to lack of interest I never attended science classes. Though I successfully
passed my 12th my marks in science subjects were very low. My father’s
dream to see me as an engineer shattered and he was very angry with me when he
saw the mark sheet.
Ultimately, I clearly told him that I didn’t
have any interest in science or engineering. On this he flatly refused to help
me in my further studies. But the odd circumstances opened a new avenue for me.
I shifted to Lahore and started working with a Lahore based ‘Hero Publication’s
Urdu Daily ‘Ranjeet Nigara’. This was the start of my career into journalism.
I met many Lahore based writers and
poets and started showing my writings to them. I learnt a lot from those genius
people. But this didn’t last very long as the partition of the country took
place very soon and we had to run away to India. We came to Lucknow where one
of my father’s friend’s sons was in service. We settled in Lucknow with his
help where my father opened a workshop, but our financial conditions went from bad
to worse. Apart from my parents I also had 2 younger sisters in our family. I wanted
to earn to help my father but despite all my efforts I couldn’t find a job. I
was so frustrated that one day, without informing anybody I left my home. With
empty hands and empty pockets, I boarded a train to Mumbai. The only thing that
I had in mind at that time was that I’ll have to be self-dependent, but I
didn’t know how to fulfill my dream. This happened in the summers of 1949.
I had a pen-friend Pradeep Nayyar in
Mumbai whom I had never met in person. I alighted at Dadar station at around 2
PM and reached Pradeep’s address at Rehmat Manzil, Dadar (east). But I found his
flat locked. One lady who resided in his neighborhood informed me that Pradeep
had gone to Pune and was set to return after 15 days. Hungry and thirsty, I was
literally on road among strangers now, that too in a city which was completely
unknown to me. Then I met one elderly sardarji coming from the opposite direction.
I requested him to guide me to some place to stay. He directed me to the
Gurudwara behind City light Cinema at Matunga where I could stay and have food in
‘Langar’ for free for 8 days. Somehow dragging myself I reached Gurudwara at
around 4.30 PM, only to find that the ‘Langar’ had already been closed. Too
tired, I lay down on the floor. There was another boy lying nearby on his
bedding. I saw a copy of Urdu magazine ‘Naqoosh’ with him. As our conversation
on pretext of the magazine started, I came to know that his name was Kuldeep
Singh and he was also from Lucknow. He had a motor part shop at Latoosh Road in
Lucknow and was in Mumbai on a business tour. He was very happy to know that I
was a poet. He gave me a fresh ‘lungi’ and soap and after I came out from
bathroom after taking bath, I immediately fell to sleep and got up only after
Kuldeep ji forcibly woke me up for the dinner at ‘Langar’.
…this was my first day in this unknown
city!
Kuldeep ji helped me a lot during those
8 days. Before leaving for Lucknow not only he arranged for my stay at the
Gurudwara for another week but also gave me 20 Rupees which was a handsome
amount at that time. I always remembered and will never forget his generosity.
We remained in touch forever.
I loved eating Paan and this love
opened a new avenue to me in this unknown city. Actually, I often visited the
Paan shop for eating Paan. I had just 1 or 2 days left to check out from the Gurudwara
when I met one of my friends Deepak Asha from Lahore at the Paan shop. He had
played the main villain in the movie ‘Paraaye Bas Me’ which was made in Lahore
in the year 1946. He was the same Deepak Asha who later directed the movies
‘Ghamand’ (1955), ‘Road No. 303’ (1960) and ‘Murder on Highway’ (1970) with the
name screen name Dharam Kumar.
Deepak took me along to his home and thus
I got a place in this city to stay for some more time. Gradually I started making
friends. Meanwhile I got a job in post & telegraph department which helped
me properly settle in Mumbai. But within a year I got bored with the job and
resigned. Now some of us friends prepared a stage play in which well known
actor Rammohan was also playing a role. He was also working as assistant
director with Jagdish Sethi in the movie ‘Jaggu’. Rammohan was so impressed
with the script and the songs of the play written by me that he introduced me
to Jagdish Sethi. ‘Jaggu’ had Hansraj Behl as composer and 7 lyricists who were
working in the movie on trial basis. I was told to write one song in ‘Jaggu’. The
other selected lyricists were Asad Bhopali, Verma Malik, Bharat Vyas and A. Shah
Shikarpuri. I wrote a cabaret song ‘mai teri hoon tu mera hai’ in that movie
which was picturised on Kuldeep Kaur. Thus, I debuted as lyricist in the 1952
release movie ‘Jaggu’.
Since there has always been a tradition
to add the name of the native place with the ‘pen name’ in Urdu poetry, I had already
changed my name from Jaswant Rai Sharma to Naqsh Lyallpuri while in Lahore. Meanwhile
my parents had learnt that I was in Mumbai and we had already revived our relations
but as soon as they came to know that I’m working in the films they again
severed the relations with me. On the other side my struggle continued even
after the release of ‘Jaggu’. One fine day I received letter from one of my friends
from Lucknow. It was a proposal of marriage for his sister. I wrote him back
that I always tried to do the things at my own, but the marriage is one thing
that I’ll do with the blessings of my parents. He showed my reply to my father
which made him very happy. And then my father showed my letter with pride to
his friends who said that his son had gone out of his control. Eventually I got
married in the year 1953 and my relationship with my parents became cordial.
My responsibilities were increasing.
And there was no shortfall in my struggle. My Urdu was so fine that nobody
believed that I was a Punjabi. Still one fine day Sapan Jagmohan gave me an
advance of Rs. 100/- and asked to write songs for a Punjabi movie. Being an
Urdu poet, I didn’t have confidence to write in Punjabi. But due to acute
financial problem I readied myself and without taking rest for a single second
I wrote 16 ‘mukhda’s of Punjabi songs in one night. I instructed my wife not to
spend a single penny as I was afraid that I might have to return the money. I
met Sapan-Jagmohan in the morning and when they heard the songs, excitingly they
jumped out of the chair.
That Punjabi movie was the 1953 release
‘Jijaji’ which was so big a hit that within no time offers for Punjabi movies
started pouring in. After ‘Jijaji’ I wrote songs in approximately 40 Punjabi
movies like ‘Eh Dharti Punjab Di’, ‘Paubara’, ‘Dharti Veeran Di’, ‘Satt
Saliyan’, ‘Laiye Toad Nibhaiye’, ‘Satguru Teri Oat’, ‘Kunwara Mama’, ‘Neem
Haqeem’, ‘Sapni’, ‘Jagwala Mela’, ‘Maa Di Goad’, ‘Patola’, ‘Taqraar’, ‘Madhi Da
Deeva’ and ‘Watna Taun Door’ for composers Sapan-Jagmohan, Harbans, S.Madan,
Dattaram, B.N.Bali, Raj Soni, Surinder Kohli, Hansraj Behl, Jagjeet Kaur, Ved
Sethi, Babul, Husnlal Bhagatram, Khayyam, Chitragupt, Mohinderrjit Singh,
Master Allarakha and Kuldeep Singh.
Though financially settled to some
extent, I was afraid to be typecast as a Punjabi movies’ lyricist. Despite
starting career with the social film ‘Jaggu’, all the offers I was getting for
Hindi movies were for C-grade stunt movies which I was out rightly refusing.
Tired with my response to such movies, my wife told me one fine day that there
are 3 types of people, first are those who do not know their work, second those
who know the work but they don’t get chance and the third one are your kind of
people who know your work, you get the chance but you don’t want to work. Her
straightforward talk shook me up and I started writing for all kind of movies that
came my way.
I worked with composers like Gulshan
Soofi, Harbans, Shafi M.Nagri, Manohar, C.Arjun, Sapan Jagmohan and G.S.Kohli
and wrote songs in many stunt movies like ‘Ghamand’ (1955), ‘Rifle Girl’
(1958), ‘Circus Queen’ (1959), ‘Choron Ki Barat’ ( 1960), ‘Road No. 303’
(1960), ‘Black Shadow’ (1961), ‘Jimbo Finds A Son’ (1966), ‘Naujawaan’ (1966),
‘Sangdil’ (1967) and ‘Jaalsaaz’ (1969). Of these, ‘Choron Ki Barat’ was
directed by Pradeep Nayyar, the same pen friend of mine who resided in Dadar
(east) and whose door was locked when I reached his home on my first day in
Mumbai.
I was one of 5 lyricists of ‘Choron Ki Barat’. Other 4 were Farookh, Ghazi, Saajan Bihari and Gulzar Deenvi, who is known as Gulzar today. Of total 6 songs in this movie I wrote one song ‘le maar haath pe haath goriye kar le pakki baat’ and Gulzar Deenvi wrote ‘ye duniya hai taash ke patte issko karo salaam’. (As per ‘Hindi Film Geet Kosh’ Volume – 3 compiled/written by Shri Harmandir Singh ‘Hamraz’, above stated song in ‘Choron Ki Barat’ is written by Saajan Bihari whereas Gulzar ‘Deenvi’s song was ‘jaane aur anjaane aaj kahin deewane ghoomne nikle’.)
(Gulzar claims that his debut film song
was Bandini’s ‘mora gora ang layi le’ which was a 1963 release. But his claim is
incorrect. Truth is that Gulzar had already written 3 songs in the movie ‘Diler
Haseena’, 1 song in ‘Choron Ki Barat’, 4 songs in ‘Shriman Satyawadi’ and 1 song
‘karo na phere gali ke mere’ sung by Geeta Dutt in the Bangla film ‘Dui Bechaare’,
with the penname ‘Gulzar Deenvi’. All these 4 movies were made in 1960. Moreover,
he was also the writer of the movie ‘Diler Haseena’. He also wrote ‘ganga aaye
kahaan se’ in ‘Kabuliwala’ in 1961. Reason behind his false claim regarding
‘mora gora ang layi le’ should be best known to him only but Naqsh Sahib’s
video confirms the truth as mentioned above.)
‘Road No. 303’ was composer C. Arjun’s
debut movie whereas ‘Rifle Girl’ and ‘Black Shadow’s composer Harbans’s
identity was as the son of composer (late) Pt. Amarnath. I worked with Harbans
in 3 movies with the penname ‘Shaad’. My identity as the lyricist of Punjabi
movies was so strong that composer Ravi’s song ‘ghoda pishori mera tanga lahori
mera’ from the movie ‘Pyaar Ka Bandhan’ which was written by Sahir Ludhianvi
was played on the Akashwani for long with my name only because there was
abundance of Punjabi words in it. Meanwhile credit to my song ‘dhani chunar
mori haaye re jaane kahan udi jaaye re’ in the 1959 release movie ‘Madhu’ was
given to Shailendra for the same reason.
I wrote approximately 350 songs in 40
Punjabi movies. Simultaneously I also kept on writing for Hindi movies like
‘Captain Sheroo’, ‘Sarfarosh’, ‘Teri Talash Me’, ‘Purani Pehchan’, ‘Gustakhi
Maaf’, ‘Gunah Aur Kanoon’ but I got proper recognition with 1970 release Hindi
Movie ‘Chetna’. ‘Chetna’s song ‘mai to har mod par tujhko doonga sada’ which
was sung by Mukesh was a big hit. The grand success of this movie gave me
chance to work with all the then great maestros including Madan Mohan, Jaidev,
Khayyam, Ravindra Jain, Naushad and Shankar jaikishan. Many of songs which I
wrote for them were big hits.
These included ‘rasme ulfat ko
nibhayein kaise’ ( Dil Ki Rahein), ‘kai sadiyon se kai janmo se’ (Milap),
‘ulfat me zamaane ki har rasm ko
thukrao’ ( Call Girl), ‘tumhe dekhti hoon to lagta hai aise’ (Tumhare
liye), ‘ye mulaqat ik bahana hai’ (Khaandaan), ‘mana teri nazar me tera pyaar
hum nahin’ (Ahista Ahista), ‘chandni raat me har baar tumhe dekha hai’
(Dil-e-Nadaan), ‘tumhe ho na ho mujhko to itna yaqeen hai’ (Gharonda), ‘Qadar
tone na jaani’ (Noorie), ‘na jaane kya hua’ & ‘pyaar ka dard hai’ (Dard),
‘chitthiye’ (Henna) and ‘mumtaz tujhe dekha’ (Taj Mahal).
I also wrote title songs for many T.V.
serials telecast on Doordarshan and private channels. These include ‘Intezar
Aur Sahi’, ‘Shikwa’, ‘Daraar’, ‘Adhikar’ ‘Waris’, ‘Kartavya’, ‘Abhiman’,
‘Milan’, ‘Sukanya’, ‘Ankahi’, ‘Savera’, ‘Chunauti’, ‘Virasat’, ‘Ashiyana’,
‘Bazaar’, ‘Grihdaah’, ‘Shrikant’, ‘Mujrim Hazir Hai’, ‘Amanat’, ‘Campus’,
‘Kitty Party’, ‘Dehleez’, ‘Mulq’, ‘Ye Ishq Nahin Asaan’, ‘Sarhadein’, ‘Vikram
Vetaal’, ‘Savera’ and ‘Bikhri Aas Nikhri Preet’.
I wrote a ghazal ‘saaz-e-dil
naghma-e-jaan’ for the 2006 release movie ‘Yatra’ which was sung by Talat Azeez
under the baton of composer Khayyam. After a gap of almost 8 years, recently I
wrote a bhajan ‘laagi re lagan’ for the movie ‘Sabka Saibaba’. Composed by
Anchal Talseria, this bhajan is sung by Sukhwinder Singh.
In my career spanning 60 years I got an
opportunity to work with almost all the great composers of Hindi cinema. During
this period I wrote around 1200 songs in approximately 200 movies. I completed
86 on last 24th February. My family consists of my wife and 3 sons.
My eldest and the youngest sons are working as managers with well known private
sector companies. Median son Rajan Lyallpuri is working in the field of cinema
as a cinematographer. He is also a good writer. Punjabi movie ‘Watna Taun Door’
is made on the story written by him.
I’m living a peaceful life with my
blessed family. When I look back at my journey, which was full of struggle, reach
a respectable destination, I feel very content.
I’m especially grateful to my wife who
firmly stood by me at every moment and every step in life.
Naqsh Saheb passed away at the age of 89 in Mumbai on 22 January 2017.
हरदिलअज़ीज़ शायर नक़्श लायलपुरी के बारे में इतना विस्तार से पढ़ना अच्छा लगा। जानकारी का आभार!
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख,शिशिरजी,हंमेशा की तरह!नक्शसाहब के बारे में सही एवं सभी जानकारी देने के लिये धन्यवाद।
ReplyDelete