Saturday, July 27, 2013

“Mud Mud Ke Na Dekh Mud Mud Ke” - Nadira

मुड़ मुड़ के देख मुड़ मुड़ के- नादिरा

                   ......शिशिर कृष्ण शर्मा

हिंदी सिनेमा के इतिहास में रूचि रखने वाले हरेक व्यक्ति की तरह मेरी भी दिली तमन्ना थी कि उस दौर के भूले-बिसरे फ़नकारों से मिलूं, उनके वर्तमान हालात के बारे में जानूं, उनके साथ तस्वीरें खिंचवाऊं, और शायद इसलिए भी ये मायावी शहर हमेशा से मुझे अपनी तरफ़ आकर्षित करता आया था। और फिर एक रोज़ तमाम सुख-सुविधाओं और भरे-पूरे परिवार की सुरक्षा को पीछे छोड़कर मैं इस महानगर की जद्दोजहद भरी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया। आज जब पीछे मुड़कर इस शहर में गुज़ारे अपने इन अठारह बरसों को देखता हूं तो Rhonda Byrne की मशहूर क़िताब सीक्रेटका एक एक लफ़्ज़ सच महसूस होता है, जिसके मुताबिक़ आप शिद्दत से जो कुछ चाहते हैं, वो सब आपको देर-सवेर हासिल हो ही जाता है। मैं ख़ुशक़िस्मत था कि मुंबई में क़दम रखते ही मुझे धीरेंद्र अस्थाना जैसे मशहूर लेखक और पत्रकार का साथ मिला जिन्होंने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया और साप्ताहिकसहारा समयके मुंबई ब्यूरो प्रमुख की कुर्सी सम्भालते हीक्या भूलूं क्या याद करूंऔरलोगजैसे स्तंभों की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।

एक मक़सद हासिल हुआ तो मैं जुट पड़ा अपने पसंदीदा काम में। गुमनामी के अंधेरों में खो चुके, गुज़रे ज़माने के अभिनेता-अभिनेत्रियों, संगीतकारों, लेखकों, निर्माता-निर्देशकों की तलाश में मैंने मुंबई के गली-कूंचे खंगाल डाले। इस प्रक्रिया में न्यू थिएटर्स कोलकाता की फ़िल्मों से करियर की शुरूआत करने वाली फ़नकारा औरआहें ना भरीं शिक़वे ना किएकी सहगायिका कल्याणीबाई को माहिम की दरगाह वाली गली में तलाशा तो लता को प्लेबैक में ब्रेक देने वाले संगीतकार दत्ता डावजेकर मुझे अंधेरी के शास्त्रीनगर-लोखंडवाला में मिले।हरे कांच की चूड़ियांकी नायिका नयना साहू श्रीमती राव के रूप में चेम्बूर में मिलीं तोकभी तन्हाईयों में यूंसे अमर हो चुकीं गायिका मुबारक बेगम ग्रांटरोडकांग्रेस हाऊस के रेड लाईट इलाक़े की गंदगी से बजबजाती गलियों के एक सीलन भरे मकान के बामुश्क़िल छह गुणा आठ फ़ुट के अंधेरे कमरे में।

इस मुहिम में मेरी मुलाक़ात वनमाला, प्रमिला, मंजु, नलिनी जयवंत, बेगमपारा, मुनव्वर सुल्ताना, टुनटुन, निरूपा रॉय, कामिनी कौशल, पूर्णिमा, दुलारी, श्यामा, शशिकला, निम्मी, पीस कंवल, अनीता गुहा, अमीता, बेलाबोस, कुमकुम, शारदा, सुधा मल्होत्रा, सुमन कल्याणपुर, बाबूभाई मिस्त्री, सुबोध मुकर्जी, महीपाल, राजेन्द्रनाथ, पं.फ़ीरोज़ दस्तूर, बी.एम.व्यास, नौशाद, स्नेहल भाटकर, .पी.नैयर, सरदार मलिक, रवि और इन सबसे बढ़कर शमशाद बेगम से भी हुई, जो पवई के पॉश इलाक़े में अपने बेटी-दामाद के साथ रहती थीं, और जिनके निधन की ग़लत ख़बरें 10 अगस्त 1998 के अख़बारों में छप चुकी थीं।


लेकिन कई बार मायूसी भी हाथ लगी जब लगातार कोशिशों के बावजूदछोटी बहनने ख़ुद फ़ोन उठाकर हर बार यही कहा, ‘दीदी बाज़ार गयी हुई हैंअब्दुलरहमनियाऔरगुड़ की डलीकहती रहीं, ‘मेमसाब घर पर नहीं हैं फ़ोन उठाने वालों ने बुज़ुर्ग़यमला जट्टतक मुझे कभी पहुंचने ही नहीं दिया।


50 के दशक की बांग्ला और हिंदी फ़िल्मों की अभिनेत्री के बेटे ने पहली ही कोशिश में अगले दिन मिलने के लिए बुलाया लेकिन महज़ बीस मिनट बाद उन्होंने वापस फ़ोन किया और चीख-चिल्लाकरघड़ी-घड़ी फ़ोन क्यों करते हो, कहा , मम्मी किसी से नहीं मिलतींकहते हुए मुझेबाप रे बापकहने पर मजबूर कर दिया। महज़ बीस मिनटों में हुए शीर्षासन और उसघड़ी-घड़ी के फ़ोनका रहस्य आज तक मेरी समझ में नहीं आया है।

उधर इंटरव्यू के नाम परबहूरानीकभी दांत के दर्द से परेशान मिलीं तो कभी कमर के। और कुछ समय पहले जब साठ के दशक में कुल जमा चार गीत गाने वाली गायिका तक पहुंचने में कामयाबी मिली तो उनके नखरों, झूठ, चुगलखोरी और 70-75 बरस की उम्र में भीनन्हे मुन्ने राहीकी सी बचकानी हरक़तों ने मुझे कान पकड़ लेने पर मजबूर कर दिया। अभिनेत्री नादिरा भी एक ऐसी ही मूडी कलाकार थीं जिनकी टालमटोल से तंग आकर मुझे उनका नाम भी अपनी लिस्ट में से हटा देना पड़ा था। लेकिन धीरेन्द्र जी के कहने पर क़रीब दो साल बाद नवंबर 2005 के आख़िरी हफ़्ते में मुझे एक बार फिर से उनसे सम्पर्क करना पड़ा क्योंकिसहारा समयको दिलीप साहब से जुड़ी नादिरा की यादों पर एक आलेख की ज़रूरत थी। नादिरा ने फ़ोन उठाया और दिलीप साहब का नाम सुनते ही उनकी आवाज में उत्साह झलकने लगा। प्रस्तुत है फ़ोन पर हुई बातचीत के आधार पर तैयार किया गया वो आलेख – 

(दिलीप साहब के जन्म-दिवस 11 दिसम्बर पर विशेष)

मेरी नज़र में दिलीप कुमार’  - नादिरा

दिलीप साहब की तारीफ़ में कुछ कह पाना आसान नहीं है। इतना बड़ा क़द है उनका कि कहने के लिए अल्फ़ाज़ छोटे पड़ते हैं। मैं ख़ुशक़िस्मत हूं कि मैंने अपने करियर का आग़ाज़ फ़िल्मआनसे किया, जिसके हीरो दिलीप साहब थे। उस वक़्त मेरी उम्र महज़ अठारह बरस की थी और तब तक मैंने सिर्फ़ एक ही फ़िल्म, दिलीप साहब की हीअंदाज़देखी थी। लेकिन तब मैं इतनी छोटी थी कि तो वो फ़िल्म मेरी समझ में आयी और ही मैं दिलीप साहब को पहचान पायी थी। फ़िल्मआनमिली तो लोगों से पता चला हीरो कोई दिलीप कुमार हैं जो बहुत बड़े आदमी हैं और जिनकी अदाकारी का सारा मुल्क़ दीवाना है। दिलीप साहब के बारे में सुन-सुनकर कुछ ऐसा ख़ौफ दिलो-दिमाग़ पर तारी हो गया था कि जब उन्हें पहली बार सेट पर देखा तो मेरी घिग्घी बंध गयी। डरी-घबरायी, लेकिन सम्मोहित सी मैं उन्हें देखती रही और सच तो ये है कि जितना उनके बारे में सुना था उससे कई गुना ज़्यादा पुरअसर और पुरकशिश उन्हें पाया। उनकी अदाकारी से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। मुश्किल से मुश्किल शॉट को भी वो इतनी ख़ूबसूरती और सहजता के साथ निभा ले जाते थे कि सेट पर मौजूद हरेक आदमी के मुंह से बेसाख़्तावाहनिकल पड़ती थी। मैंने उन्हें देख-देखकर अदाकारी की बारीक़ियां ही नहीं बल्कि कैमरे और लाईट्स की तकनीक का अदाकारी की बेहतरी में इस्तेमाल करना भी सीखा।

दिलीप साहब की नज़र में मैं अंग्रेज़ीदां यहूदी ख़ानदान से आयी एक छोटी बच्ची थी जिसका हिंदी-उर्दू से दूर-दूर का वास्ता नहीं था। उन्होंने बेहद इज़्ज़त और दिलचस्पी के साथ मुझे अल्फ़ाज़ का सही उच्चारण करना और संवाद अदायगी की ज़रूरियात के बारे में समझाया। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि दिलीप साहब ने ही फ़िल्मों में पारसी थिएटर की लाऊडनेस की जगह सहज अदाकारी और अंडरप्ले का आग़ाज़ किया। वो अपनेआप में अदाकारी का भरा-पूरा तालीमगाह हैं। निजी तौर पर मुझे उनके विराट व्यक्तित्व की तुलना में उनकी आवाज़ हमेशा थोड़ी कमज़ोर महसूस हुई। लेकिन अपनी ख़ूबसूरत और दिलकश संवाद अदायगी के जादू से उन्होंने उस कमज़ोरी को भी अपनी ताक़त बना लिया। परदे पर ही नहीं आम ज़िंदगी में भी दिलीप साहब जैसा ज़हीन और भाषा पर पकड़ रखने वाला कोई और अदाकार मैंने आज तक नहीं देखा। जिस ख़ूबसूरती और ठहराव के साथ एक-एक लफ़्ज़ वो बोलते हैं, वो सुनने वालों को सम्मोहित कर देता है। दिलीप साहब बेहद संतुलित व्यक्तित्व के मालिक हैं। वो जानते हैं कहां, किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए। वो एक अच्छे अदाकार ही नहीं एक नेक इंसान भी हैं। लोगों के दुखदर्द को देखकर भावुक होते मैंने उन्हें कई बार देखा है।

गुमनाम रहकर ख़ामोशी के साथ ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने में उन्हें सुकून मिलता है। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जब दिलीप साहब ने दीन-दुखियों की भरपूर मदद की लेकिन ख़ुद को उनकी नज़रों से छुपाए रखा। उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत जो मैंने देखी, वो ये कि उनकी भरसक कोशिश रहती है कि उनके क़द के आगे कभी भी कोई ख़ुद को बेचारगी की हद तक बौना महसूस करे। छोटा हो या बड़ा, सबके साथ वो बेहद इज़्ज़त से पेश आते हैं। वो इज़्ज़त देकर इज़्ज़त कराना जानते हैं। मैं गवाह हूं इस बात की, जो उम्र में भी और तजुर्बे में भी उनसे बहुत छोटी थी। लेकिन दिलीप साहब ने आत्मीयता भरे व्यवहार से मेरे दिलोदिमाग़ में समाए ख़ौफ़ को तो दूर किया ही, मेरे अंदर हिम्मत और जोशोख़रोश भी पैदा किया। ये उन्हीं का दिखाया रास्ता है जिस पर चलकर मैंने एक अच्छी अदाकारा के तौर पर फ़िल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाई। मैं इसके लिए दिलीप साहब की शुक्रगुज़ार हूं और हमेशा रहूंगी।

........शिशिर कृष्ण शर्मा से बातचीत के आधार पर

(साप्ताहिक सहारा समय दिनांक 17 दिसम्बर 2005 में प्रकाशित)

नादिरा जी से बात करने का मेरा ये अनुभव पहले के अनुभवों के ठीक विपरीत था। इस बार उनके व्यवहार में ख़ासी गर्मजोशी थी। बातचीत के दौरान जब उन्होंने मेरे बारे में और ज़्यादा जानना चाहा तो मैंने भी मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए उन्हें दो साल पहले के उनके बर्ताव की याद दिलाने की कोशिश की। मैंने उन्हें बताया कि लगातार तीन चार महिने की टालमटोल के बाद उन्होंने एक रोज़ किस तरह से मेरी पूरी बात सुने बिना ही फ़ोन पटक दिया था। सुनते ही उनके मुंह से निकला, “ओह गॉड, मैं ऐसी ग़लीज़ हरक़त कैसे कर सकती हूं!”...और अगले ही पल उन्होंने मुझे अपने घर आने का न्यौता दे दिया।...और दो ही रोज़ बाद मैं उनके घर पर था।

प्रस्तुत है दिनांक 15 जनवरी 2006 के दैनिक राष्ट्रीय सहारा केसंडे उमंगमें प्रकाशित उनका वो इण्टरव्यू

 मुड़ मुड़ के देख मुड़ मुड़ के’  - नादिरा               

       ........शिशिर कृष्ण शर्मा

महबूब की फ़िल्मआन(1952) से फ़िल्मों में क़दम रखने वाली, यहूदी परिवार की फ़रहत ख़ातून एज़िकल को नादिरा नाम भी महबूब ने ही दिया था। नादिरा के तेज़-तर्रार व्यक्तित्व, प्रखर आवाज़ और ग़ज़ब के अभिनय ने इस पहली ही फ़िल्म से सिर्फ़ 20 साल की उम्र में उन्हें स्टार बना दिया था। नायिका, खलनायिका और चरित्र अभिनेत्री के रूप में करीब चार दशकों तक वो दर्शकों के दिलोदिमाग़ पर छाई रहीं। उस दौरान क़रीब 80 फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय किया और फिर बढ़ती उम्र और बिगड़ती सेहत की वजह से वो चुपचाप फ़िल्मोद्योग से अलग हो गयीं। साईटिका और रीढ़ की लाइलाज बीमारी की वजह से पिछले तीन बरसों से वो बिस्तर पर लेटे रहने को मजबूर थीं। बाहरी दुनिया से उनका सम्पर्क लगभग कट चुका था और अपने चरित्र के मुताबिक़ फ़िल्मोद्योग भी उन्हें भुला चुका था। वोही नादिरा पिछले दिनों अचानक एक बार फिर सुर्खियों में आयीं जब देश के सभी प्रमुख अख़बारों और टेलिविज़न चैनलों ने दिल के दौरे के बाद उनके अस्पताल में भरती होने की ख़बरें प्रकाशित-प्रसारित कीं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नादिरा दक्षिण मुंबई के भाटिया अस्पताल में आई.सी.यू. में ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही हैं। पिछले कई वर्षों से मीडिया का भी उन तक पहुंचना दूभर था लेकिन हमारी लगातार कोशिशों के बाद अंतत: उन्हें अपनी ज़िद छोड़नी ही पड़ी।

तारीख़ 1 दिसंबर 2005. दक्षिण मुंबई के पैडर रोड और वार्डन रोड के जंक्शन पर स्थित बिल्डिंगवसुंधरा अत्यंत सम्पन्न इलाक़ा जहां आसपास लता, आशा, आनन्दजी जैसी कई फिल्मी हस्तियां रहती हैं। मैं तय समय पर शाम के ठीक 6 बजे नादिरा के फ़्लैट नंबर 29 के दरवाज़े पर था। दरवाज़ा जिस महिला ने खोला वो पिछले छह सालों से नादिरा की देखभाल कर रही थीं। अत्यंत सुरूचिपूर्ण तरीक़े से सजा विशाल फ़्लैट। बरसों पुराना बेहद ख़ूबसूरत फ़र्नीचर। ड्रॉईंगरूम में देसी-विदेशी भाषाओं की सैकड़ों क़िताबों का संग्रह। और बेडरूम में बिस्तर पर लेटीं नादिरा। बातचीत का सिलसिला शुरू होते ही अहसास होने लगा कि वृद्धावस्था और तक़लीफ़देह बीमारियां अपने वक़्त की इस बेमिसाल अदाकारा की आवाज़ की प्रखरता और सहज हास्यबोध पर कोई असर नहीं डाल पायी हैं।

क़रीब एक घण्टे के रेकॉर्डेड इंटरव्यू में हंसी-मज़ाक़ के साथ हल्की-फ़ुल्की चुटकियां लेते हुए उन्होंने अपने जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं पर बेलाग बातचीत की। उस दौरान वो धाराप्रवाह बोलती चली गयीं और मुझे कुछ ज़रूरी सवाल पूछने का मौक़ा ही नहीं मिल पाया। लेकिन अचानक माहौल तब बेहद ग़मगीन हो उठा जब मैंने उनसे पूछा, अपना वक़्त आप कैसे गुज़ारती हैं? ‘ये पूछो तो ही अच्छा है...वक़्त नहीं कटता...तन्हाई बहुत तंग करती है...कम्बख़्त नींद भी तो नहीं आती...रात रात भर तड़पती हूं...कभी लाईट ऑन करती हूं, कभी ऑफ़ करती हूं...’ कहते कहते उनका गला रूंध गया था। पलकें भींचकर वो अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करने लगीं। कमरे में अजीब सा सन्नाटा पसर गया था। वाकई तन्हाई शायद नादिरा की क़िस्मत में ही लिखी थी। दोनों भाईयों समेत सभी नाते-रिश्तेदार बरसों पहले इज़राईल जा बसे थे। नादिरा ने दो विवाह किए लेकिन दोनों बामुश्क़िल दो-दो साल तक ही चल पाए। उनका पहला विवाह फ़िल्ममहलकाआएगा आने वालाजैसा हिट गीत लिखने वाले गीतकार नख्शब  से हुआ था। बक़ौल नादिरा, ‘मैं ही क्या, कोई भी ख़ुद्दार औरत उनकी रंगीनमिज़ाजी को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। मेरी मौजूदगी में ही जब वो ग़ैरऔरतों को घर में लाने लगे तो एक रोज़ मैंने सिर्फ़ तन पर पहने कपड़ों के साथ उनका घर छोड़ दिया।‘ 

नादिरा का दूसरा विवाह अरब मूल के एक ग़ैरफ़िल्मी व्यक्ति से हुआ था, जो उनके मुताबिक़ निहायत कामचोर क़िस्म के व्यक्ति थे। इस विषय में नादिरा का कहना था, ‘एक आम औरत की तरह शौहर को लेकर मेरी भी कुछ तमन्नाएं थीं। निकम्मे मर्द को पालना मेरे लिए मुमक़िन नहीं था इसलिए जल्द ही मुझे उनसे भी अलग होना पड़ा।नख्शब  बाद में पाकिस्तान चले गए और दूसरे शौहर अरब। बीते ज़माने की अदाकाराएं निम्मी, श्यामा और निरूपा रॉय नादिरा के काफ़ी क़रीब रहीं। श्यामा, जो खुद भी इन दिनों गंभीर रूप से बीमार चल रही हैं, कहती हैं, ‘नादिरा की साफ़गोई मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है। पहले तो रोज ही हमारा मिलना-जुलना और गप्पें लड़ाना होता था लेकिन निरूपा के गुज़रने और हम दोनों ही की सेहत के बिगड़ने की वजह से ये रिश्ता अब बस कभी-कभार फ़ोन पर बतिया लेने तक का रह गया है।

निम्मी का आज भी नादिरा से मिलना-जुलना होता रहता है। निम्मी कहती हैं, ‘फ़िल्मआनके वक़्त हुई हमारी दोस्ती आज भी बरक़रार है। पहले तो तकरीबन रोज़ ही हमारी मुलाक़ात होती थी लेकिन जब से मैं वरली से जुहू शिफ़्ट हुई, दूरियां बढ़ जाने की वजह से वो बात नहीं रही। इसके बावजूद फ़ोन पर तो क़रीब-क़रीब रोज़ाना ही एकाध दफ़ा हमारी बातचीत हो जाती है। ख़ुदा से यही दुआ है कि नादिरा जल्द से जल्द ठीक होकर घर वापस जाए।

नादिरा के अकेलेपन का वो दर्द, वो तड़प किसी को भी रूला देने के लिए काफ़ी थे। उनकी मन:स्थिति को इसी बात से समझा जा सकता है, जो फ़िल्मोद्योग की विभिन्न ट्रेडयूनियनों से जुड़े वयोवृद्ध अभिनेता चन्द्रशेखर जी के अनुसार नादिरा अक्सर मज़ाक़ में कहती है, ‘मेरे मरने का पता भी चार दिन बाद चलेगा जब मेरे फ़्लैट से बदबू आने लगेगी।

जब नादिरा आई.सी.यू. से बाहर आयीं तो एक रोज़ मैं उनसे मिलने भाटिया अस्पताल पहुंचा। वो बिस्तर पर लेटी हुई शून्य में ताक रही थीं। पिछले कई सालों से उनकी देखभाल करती आयी महिला उनके साथ मौजूद थीं। उन्होंने नादिरा जी को मेरा परिचय देने की भरसक कोशिश की लेकिन नादिरा जी ख़ामोशी के साथ मुझे अजनबी सी निगाहों से घूरती रहीं। साफ़ पता चलता था कि दिमाग़ उनका साथ नहीं दे रहा है। उनका चेहरा सूजा और पथराया हुआ था और एक आंख भी सूजन की वजह से बंद थी। क़रीब बीस मिनट उनके साथ गुज़ार कर मैं भारी मन लिए वापस चला आया। 9 फ़रवरी 2006 की सुबह नादिरा के निधन की ख़बर मिली और साथ ही दैनिक जागरण से फ़ोन आया कि जितना जल्द हो सके, इस विषय में एक आलेख तैयार करके भेजूं।

प्रस्तुत है दिनांक 12 फ़रवरी 2006 के दैनिक जागरण में प्रकाशित वो आलेख

अंतत: तन्हाई से मिली निजात - नादिरा

आख़िरकार नादिरा मौत से हार ही गयीं। परदे की छवि के ठीक अनुरूप अपने तेज़तर्रार और जुझारू व्यक्तित्व के दम पर ही क़रीब डेढ़ महिने तक वो मौत से जूझती रहीं। नादिरा पिछले तीन वर्षों से दक्षिण मुंबई स्थित अपने विशाल फ़्लैट से बाहर नहीं निकली थीं। रीढ़ की बीमारी के चलते वो बिस्तर पर लेटे रहने को मजबूर थीं। समय के इस अंतराल में बाहरी दुनिया से उनका सम्पर्क लगभग कट सा चुका था। लेकिन वृद्धावस्था और तक़लीफ़देह बीमारियां भी उनके हास्यबोध, चेहरे के तेज और दमदार आवाज़ पर कोई प्रभाव नहीं डाल पायी थीं। बस सिर्फ़ एक अकेलापन था जो उन्हें हर लम्हा परेशान करता था।बहुत उदास हो जाती हूं... तन्हाई बहुत तंग करती है...कभी कभी मुझे लगता है, किसी तरह ये वक़्त थम जाए, और सब कुछ रूक जाए...लेकिन बेबस हूं...और फिर कम्बख़्त नींद भी तो नहीं आती...रात रात भर तड़पती हूं...कभी लाईट ऑन करती हूं, कभी ऑफ़ करती हूं...’ ये कहते कहते उनका गला भर आया था। महबूब की फ़िल्म आन (1952) से फ़िल्मों में क़दम रखने वालीं, 5 दिसंबर 1932 को मुंबई के एक यहूदी परिवार में जन्मीं नादिरा घर में फ़रहत ख़ातून एजिकल, स्कूल में फ़्लोरेंस एजिकल और फ़िल्मों में नादिरा कहलायीं।

अकेलापन शायद उनके नसीब में ही बदा था। दोनों भाईयों समेत उनके सभी क़रीबी रिश्तेदार बरसों पहले इज़रायल जा बसे थे। दो बार विवाह कर नादिरा ने अपने अकेलेपन को बांटने की कोशिश की भी तो असफलता ही हाथ आयी। पहला विवाह उन्होंने फ़िल्ममहलमेंआएगा आने वालाजैसा अमर गीत लिखने वाले गीतकार नख्शब  से किया था। बतौर निर्माता नख्शब  ने फ़िल्मनगमा(1953) बनायी और उसी दौरान नादिरा उनकी जीवनसंगिनी बन गयीं। लेकिन बामुश्क़िल दो ही बरसों में उन्हें अलग हो जाना पड़ा। नादिरा के मुताबिक़, ‘शौहर की रंगीनमिज़ाजी को कोई भी औरत बर्दाश्त कैसे कर सकती है...मैंने कैसे घुटघुटकर वो वक़्त निकाला ये मेरा ख़ुदा ही जानता है...जब मेरी मौजूदगी में ही ग़ैरऔरतों का आना शुरू हो गया तो एक रोज़ मैं सिर्फ़ तन पर पहने कपड़ों के साथ उनके घर से निकल आयी।

नादिरा का दूसरा विवाह अरब मूल के एक ग़ैरफ़िल्मी व्यक्ति से हुआ था, लेकिन दूसरे शौहर के निठल्लेपन ने दो-ढाई साल के भीतर एक बार फिर से उन्हें अकेली हो जाने के लिए मजबूर कर दिया। कुछ वक़्त बाद नख्शब  पाकिस्तान चले गए और बक़ौल नादिरा, दूसरे शौहर आज भी सऊदी अरब में रहते हैं। 1 दिसंबर 2005 की शाम नादिरा के निवास पर हुए क़रीब एक घंटे के रेकॉर्डेड इंटरव्यू में उन्होंने अपनी ज़िंदगी के तकरीबन हरेक पहलू पर मस्ती भरे अंदाज में चुटकियां लेते हुए बेबाक़ बातचीत की।

उनके मन की कड़वाहट और बेबसी को इस बात से बख़ूबी समझा जा सकता था, ‘वो सब मैंने करना छोड़ दिया है कि लोगों को बुलाओ...खिलाओ पिलाओ...सामने सब मीठी मीठी बातें करते हैं लेकिन जाने के बाद पलटकर फ़ोन भी नहीं करते...कोई ख़ुद आना चाहे तो सर माथे...लेकिन अब कोई आता भी तो नहीं...सिर्फ़ बीते ज़माने की अदाकाराएं निम्मी, श्यामा, और (स्वर्गीया) निरूपा रॉय ही थीं जो हमेशा नादिरा के क़रीब रहीं। कुछ समय पहले तक इन चारों का लगभग रोज़ ही मिलना-जुलना, गप्पें लड़ाना और ताश खेलना होता था। लेकिन निरूपा रॉय के निधन, श्यामा की बिगड़ती सेहत और निम्मी के वरली से जुहू शिफ़्ट हो जाने की वजह से नादिरा फिर से अकेली रह गयी थीं। सिर्फ़ एक नौकरानी थी जो चौबीसों घण्टे उनकी देखभाल करती थी। या फिर बरसों पुराने एक दोस्त और प्रशंसक श्री रूंगटा जो आख़िरी वक़्त तक नादिरा के साथ रहे। 12 दिसंबर से नादिरा की तबीयत बिगड़नी शुरू हुई, 27 दिसंबर को उन्हें दक्षिण मुंबई के भाटिया अस्पताल में भरती कराया गया लेकिन हालात नहीं सम्भले तो 31 दिसंबर को आई.सी.यू. में शिफ़्ट कर दिया गया जहां से 17 जनवरी को वो बाहर आयीं। मेनेंजाईटिस के चलते आख़िरकार 9 फरवरी की सुबह अस्पताल में ही उन्होंने आख़िरी सांस ली और बीमारियों से ही नहीं, अकेलेपन से भी हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया।  

                                                                          …..प्रस्तुति : शिशिर कृष्ण शर्मा

9 फ़रवरी 2006 की दोपहर दक्षिण मुंबई के एक शवदाह गृह में श्री रूंगटा की देखरेख में, जन्म से यहूदी नादिरा का अंतिम संस्कार उनकी इच्छानुसार हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार कर दिया गया। और इसके साथ ही हिंदी सिनेमा के एक जगमगाते अध्याय का पटाक्षेप हो गया।


We are thankful to –

Mr. D.B. Samant, Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance, and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Mr. Sanjeev Tanwar for providing Nakhshab’s rare picture.

Ms. Maitri Manthan for editing the English translation of the write up.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.


Mud Mud Ke Na Dekh Mud Mud Ke” - Nadira

                              ......Shishir Krishna Sharma

Just like every vintage film enthusiast I also wished to meet the performers of the era gone by, know about their current life, click pictures with them, etc.; maybe that is why I have always been attracted towards this city of dreams. And one fine day I left behind a secure and comfortable life to become a part of this constant struggle for survival in this metropolis. Today when I look back at the 18 years I have spent in this city, every word of Rhonda Byrne’s well-known book ‘The Secret’ seems to come true. It basically says that sooner or later the Universe grants you the stuff you really wish for. I was fortunate that as soon as I stepped in Mumbai, I met well-known writer and journalist Mr. Dhirendra Asthana. He not only inspired me to write but as soon as he headed the weekly ‘Sahara Samay’ as Mumbai Bureau Chief, he entrusted to me the responsibility of its columns like ‘Kya Bhooloon Kya Yaad Karoon’ and ‘Log’. Having found a drive, I went all out to realize my dream job. I explored every street, every bylane of Mumbai to find the yesteryear actor-actresses, music directors, writers, producers-directors, now lost in the shadows of oblivion.

In due course I found the actress who started her career with New Theatres, Kolkata, also co-singer of the song ‘ahein na bhareen shikwe na kiye’, Kalyani Bai in the bylanes of Mahim Dargah. Music composer Datta Davjekar, who gave break to Lata Mangeshkar in playback was traced in Shastrinagar-Lokhandwala, Andheri. I met Nayna Sahu, the leading lady of ‘Hare Kaanch Ki Choodiyaan’ as Mrs.Rao in Chembur while the singer who is immortalized by ‘kabhi tanhaiyon mein yun’ Mubarak Begum was found in a small, dark 6x8 room in one of the filthy bustling bylanes of the red light area near Grant Road-Congress House. During this expedition I also met Vanmala, Pramila, Manju, Nalini Jaywant, Begumpara, Munavvar Sultana, Tuntun, Nirupa Roy, Kamini Kaushal, Poornima, Dulari, Shyama, Shashikala, Nimmi, Peace Kanwal, Anita Guha, Ameeta, Bela Bose, Kumkum, Sharda, Sudha Malhotra, Suman Kalyanpur, Babubhai Mistry, Subodh Mukerji, Mahipal, Rajindernath, Pt. Pheroze Dastoor, B.M.Vyas, Naushad, Snehal Bhatkar, O.P.Nayyar, Sardar Malik, Ravi and above all Shamshad Begum who was incorrectly declared dead on 10th Aug, 1998 was traced in a posh location at Powai where she lived with her daughter’s family.

But many a times disappointments too came my way too, like when even after repeated tries ‘Chhoti Behen’ would answer the phone herself saying – “Didi has gone to the market” or when both ‘Abdul Rahmania’ and ‘Gud Ki dali’ kept avoiding me, saying – “madam is not at home”. People who answered the phone never let me reach senior ‘Yamla Jatt’. Once I happened to contact the son of an actress popular in the 1950s for her work in Hindi and Bengali films. In my first attempt he called me for a meeting scheduled for the next day but within twenty minutes he called back screaming and shouting – “why are you calling us again and again, I told you mummy does not meet anyone” forcing me to say ‘Baap Re Baap’. I could never understand this sudden change in merely twenty minutes with the allegation of calling again and again. Then there was ‘Bahu Rani’ who would always complain about headache or back pain whenever I asked for an interview. And when I happened to reach a singer who sang just 4 songs in 1960’s, her lies, tantrums, backbiting and ‘Nanha Munna Rahi’ like behavior at the age of 70-75 years made me vow not to go that way again. Actress Nadira was also a moody artist whose evasive responses made me cancel her name from my list. But after two years on Dhirendraji’s request I had to contact her again in November 2005 as “Sahara Samay” required an article based on Nadira’s memories of Dilip Kumar. Nadira answered the phone and enthusiasm in her voice was evident at the mention of Dilip Kumar’s name. Here is the article written based on that phone call.

(Dilip Saheb's Birthday, 11 December, Special Feature) 

Dilip Kumar as I see - Nadira

It is not easy to find words to appreciate Dilip Kumar, an actor of that stature. There don’t seem enough adjectives in the dictionary. I was fortunate to begin my career with the film ‘Aan’ which had Dilipsaheb as the leading man. I was about 18 then and till then I had seen only one film, that too Dilp Kumar’s ‘Andaaz’. But I was so young then that neither did I understand the film nor could I recognize Dilipsaheb. When I came onboard for the film ‘Aan’, I got to know from people around that a certain Dilip Kumar was going to play the main lead, he was a big name in the industry and the country loved him for his acting. Constantly hearing so much about him I was so petrified that when I saw him for the first time on the film’s set, I was awestruck. Scared and hypnotized I kept staring at him and found him beyond what people had told me. I learnt a lot through his performance.

He would perform the toughest of scenes with such amazing ease that every person present on set would instinctively say “Waah”. I not only learned the nitty-gritties of acting but also techniques of camera and lights to enhance a performance. In the eyes of Dilip ji, I was a little English Girl from a Jew Family who had no connection with Hindi and Urdu. With great interest and respect he taught me the right pronunciation of words and the requirement of good dialogue delivery. It won’t be wrong to say that it was Dilip Saheb who replaced the loudness of Parsi theatre in movies with subtle acting and underplay. He is a complete training institute for acting in himself. Personally, I found his voice a little weak in front of his grand personality. But he converted his weakness into his strength with his beautiful and alluring dialogue delivery. I am yet to see another actor like him who has such great command over the language not only onscreen but in real life as well. The beauty with which he speaks every word with would hypnotize people listening to him. Dilip Saheb is a balanced personality; he knows exactly how to behave in any given situation.

He is not only a great actor but also a wonderful human being. I have seen him getting emotional in the troubled times of others. He would find peace in secretly and silently helping the needy. There are various instances where Dilip Saheb helped the needy without coming in front of them. One of his greatest qualities that I have observed was that he would strive hard so that no one would feel small in front of his great stature. Be it elders or youngsters, he would treat everyone with great respect. He knew how to earn respect by giving the same. Being younger to him in terms of age and experience, I am a witness to this. Dilip Sahab’s affectionate behavior not only took away all the fear but also filled me a great deal of zeal and zest. I walked the path he showed me to be known as a good actress in the Industry. I am thankful to Dilip Saheb for this and will always be.

.......As told to Shishir Krishna Sharma

(Published in Weekly Sahara Samay, 17th December 2005)

This experience of interacting with Nadira ji was different from my previous encounters. This time I sensed a lot of warmth in her behavior. During our conversation when she enquired about me, I tried to remind her of her behavior two years ago. I told her how after avoiding me for about 3-4 months, one day she just hung up without letting me complete. On listening to this she said, “O God, how can I behave so badly” and invited me at her residence. And two days later, there I was at her residence.

Here is her Interview published in Daily Rashtriya Sahara’s ‘Sunday Umang’ on 15th January 2006

Mud MudKe Na Dekh’ – Nadira

     .......Shishir Krishna Sharma

The actress who made her debut with Meboob’s Film ‘Aan’, Farhat Khatoon Ezekiel from a Jew Family was rechristened as Nadira by Meboob himself. Nadira’s firebrand personality, sharp voice and amazing performance made this 20-year-old girl a star in her very first film. As a leading lady, vamp, and character actress she won the hearts of her viewers for about four decades. During this span she acted in about 80 films and then due to her increasing age and health problems she silently moved away from the film industry. Due to Sciatica and an incurable backbone disorder she was bedridden for the past three years. She had severed ties with the outer world and like it has always been, the film industry forgot about her as well.

The same Nadira was in news again when all the major newspapers and news channels covered the news of her being hospitalized after a heart attack. As I write this passage, Nadira is fighting for her life in South Mumbai’s Bhatia Hospital. For past few years media was unable to reach her but at last our persistent efforts paid off and she had to let go of her resistance.

1st December, 2005, ‘Vasundhara’ building, flat no 29 at Pedder Road and Warder Road junction in South Mumbai’s affluent locality, where the likes of Lata, Asha and Anandji live. As decided, I was at Nadira’s doorstep at 6.00 p.m. sharp. The lady who opened the door had been taking care of Nadira for the past six years. An aesthetically decorated flat; Very old but beautiful furniture; Drawing room had hundreds of books in various languages; And Nadira lying in the bedroom. As we started chatting, I realized that old age and excruciating diseases had not affected Nadiraji’s sharp voice and spontaneous sense of humor. In about an hour-long recorded interview she talked about various aspects of her life in a lively and humorous way. She spoke so fluently that I failed to get chance to ask few very important questions. But suddenly it became all gloomy when I asked how she spends her time. Her voice choked as she said “it’s better if you don’t ask about it… time does not pass… loneliness bothers me… nights are uncomfortable… I keep turning on / turning off the lights”. She tried controlling her tears; the room was filled with a strange silence.

Loneliness was probably written in Nadira ji’s destiny. All her relatives including her (two) brothers settled in Israel years ago. Nadira married twice but both the marriages did not even last for two years. Her first husband was lyricist Nakhshab who has written the famous song ‘Ayega aane wala’ from the film Mahal. Nadira said, “Not just me, any self-respecting woman would never approve of his colorful lifestyle. When he started bringing other women home in my presence, I left his home in the single set of cloths I was wearing.” Her second husband of Arabian origin had no connection to film industry, who according to Nadira was a slacker. She said, “Like every ordinary woman, I too had some expectations from my husband. It was not possible for me to raise a slacker, so I had to leave him too.” Nakhshab later moved to Pakistan and her second husband went to Arab. Yesteryear actresses Shyama, Nimmi and Nirupa Roy were close to Nadira. Shyma who herself isn’t keeping too well these days says, “I liked Nadira’s frankness the most. Earlier we used to meet and chat everyday but after Nirupa’s death and our health issues, now our relationship is restricted to rare phone conversations.”

Nimmi still comes to meet Nadira. She says, “Our friendship which started on the sets of ‘Aan’ has passed the test of time. Initially we used to meet every day but ever since I have shifted from Worli to Juhu, distance has increased and thus it is not the same anymore. However, we talk over the phone at least once every day. I just pray to God that Nadira gets well soon and comes back home.”

Nadira’s pain of loneliness, that yearning can bring tears to anybody’s eyes. Her state of mind can be understood from what she used to tell senior actor Chandrashekhar as a joke, “People will know I am dead after four days of my passing when my flat starts smelling.”

When Nadira was brought out of ICU I went to meet her at Bhatia hospital. She was lying on the bed staring at empty spaces. The lady who had been taking care of her since the past few was present at the hospital. She tried her level best to remind Nadira about me but Nadara ji kept staring silently like a stranger. I spent around 20 minutes with her and returned with a heavy heart. On 9th February 2006 morning I got the news about Nadira’s passing and soon I was asked by Dainik Jaagran to do a write-up about her as soon as possible.

Below is the article which was published in Dainik Jaagran on 12th February 2006

Alas free from loneliness, Nadira

At last Nadira lost the battle with death. Just like her reel life image, this firebrand and strong-willed lady fought the battle with death for about one and half month. Nadira had not stepped out of her plush South Mumbai flat for the past three years. Due to her spine disorder she was bedridden. As time passed, she was completely alienated from the outside world. But old age and excruciating diseases had not affected Nadira ji’s facial radiance, sharp voice, and spontaneous sense of humor. It was only her loneliness that would affect her deeply. Her voice choked as she said “I get very depressed… loneliness troubles me a lot… sometimes I feel time should stop and everything should come to a halt… but I am helpless… I damn can’t even sleep… I am uncomfortable all night long… I keep turning on / turning off the lights”.

Nadira who was born in Mumbai on 5 December 1932 in a Jew Family and made her film debut with Mehboob’s ‘Aan’ was known as Farhat Khatoon Ezekiel at home, Florence Ezekiel in school and Nadira in films. Loneliness was probably written in Nadira’s destiny. All her relatives including her (two) brothers settled in Israel years ago. Nadira married twice with hope to move away from her loneliness but both her marriages were unsuccessful. Her first husband was lyricist Nakhshab who has written the famous song ‘Ayega aane wala’ from the film Mahal. As producer Nakhshab had made a movie called Nagma (1953) and during the same period he married Nadira. However, within two years they went separate ways.

According to Nadira, “No woman can approve of her husband’s colorful lifestyle. Only God knows how I spent those hard times. When he started bringing other women home in my presence, I left his home in the single set of clothes I was wearing.”

Her second husband of Arabian origin had no connection to film industry, but unable to put up with his slacker lifestyle she had to walk out of this marriage as well and embrace loneliness again. After some time Nakhshab moved to Pakistan while her second husband went to Arab. In about an hour-long recorded interview taken at her residence on the evening of 1st December 2005, she talked about various aspects of her life in a lively and humorous way. Her pain and helplessness can be understood from, “I have stopped calling people home… feeding them… they are sweet in front of you but do not even care to call after they leave… if anyone wishes to come on their own, they are welcome… but now no one comes.”.

Only yesteryear actresses Shyama, Nimmi and (late) Nirupa Roy were always close to Nadira. Till some time back, these four ladies met every day, chit-chatting and playing cards. But due to Nirupa Roy’s passing, Shyama’s often failing health and Nimmi’s relocation from Worli to Juhu, Nadira was again left alone.

She just had the company of a maid who was with her 24x7 and her friend and fan Mr. Roongta who was with her till her last breath. Nadira’s health started deteriorating since 12th December and on 27th December she was admitted to Bhatia hospital in South Mumbai. As she was showing no signs of improvement she had to be shifted in the ICU on 31st December, from where she was moved out on 17th January. Alas due to Meningitis she took her last breath in hospital on 9th February and freed herself forever not only from her illnesses but also from her lifelong loneliness. - Shishir Krishna Sharma

On the afternoon of 9th February 2006, Nadira’s (Jew by birth) last rights were performed according to Hindu rituals as per her last wish under the supervision of MrRoongta in a South Mumbai crematorium. And with it this one of Hindi cinema's glittering chapter came to an end.

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