Monday, June 25, 2012

“Shyamchi Aai” - Vanmala

श्यामची आई- वनमाला 

 ............शिशिर कृष्ण शर्मा

एक दौर था जब फ़िल्मों से जुड़े लोगों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था। वक़्त बदला, सिनेमा की ताक़त और अहमियत का असर समाज की सोच पर भी पड़ा, अच्छे घरों के पढ़े-लिखे लोगों का रूख फ़िल्मों की तरफ़ हुआ, और फिर गुज़रते वक़्त के साथ सिनेमा एक अच्छे-ख़ासे उद्योग में बदल गया। लेकिन जहां तक सवाल है फ़िल्मों से जुड़ी महिलाओं का, तो उन्हें लेकर आम आदमी की सोच में आज भी कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। शुरूआती दौर में फ़िल्मों में ज़्यादातर महिलाएं परम्परागत रूप से नाच-गाने से जुड़े परिवारों से आती थीं| लेकिन अपवादस्वरूप उस ज़माने में दुर्गा खोटे और लीला चिटणिस जैसी अच्छे घरों की पढ़ी-लिखी महिलाएं भी मौजूद थीं, जिन्होंने तमाम पारिवारिक और सामाजिक विरोध के बावजूद सिनेमा में अपना भविष्य तलाशा और अपने हुनर, लगन और मेहनत के दम पर भारतीय सिनेमा के इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज कराया। इसी कड़ी में एक नाम था वनमाला का, जिन्होंने सोहराब मोदी की साल 1941 में बनी फ़िल्मसिकंदरसे हिन्दी फ़िल्मों में कदम रखा था, लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि महज़ 13 सालों के करियर और तमाम शोहरत बटोरने के बाद उन्हें चमक-दमक से भरी फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कह देना पड़ा। साल 1953 में बनी राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त मराठी फ़िल्मश्यामची आईवनमाला की आख़िरी फ़िल्म थी, जिसके बाद वो वृंदावन जाकर प्रभुभक्ति और समाजसेवा में लीन हो गयी थीं।

वनमाला के पिताकर्नल रावबहादुर बापूराव आनंदराव पवारउस दौर के मालवा प्रांत के कलक्टर और शिवपुरी के कमिश्नर पदों पर रहे थे| इसके अलावा वो ग्वालियर के राजामाधवराव सिंधिया-प्रथमद्वारा अपने असामयिक निधन से पहले रियासत की देखरेख के लिए बनाए गए ट्रस्ट के सदस्य भी थे। वनमाला का जन्म 23 मई 1915 को उज्जैन में हुआ था, और उनकी परवरिश ग्वालियर रियासत में पूरे राजसी तौर-तरीक़ों से हुई थी। घुड़सवारी, तैराकी, निशानेबाज़ी, पोलो और तलवारबाज़ी की शिक्षा उन्हें बचपन से ही मिली थी। उनकी स्कूली पढ़ाई ख़ासतौर से राजपरिवार के बच्चों के लिए बनाए गएसरदार डॉटर्स स्कूलमें हुई, जिसके बाद ग्वालियर से ही उन्होंने बी.. की डिग्री हासिल की थी। फिर मुंबई आकर उन्होंने एम.. में दाख़िला ले लिया था। लेकिन साल 1935 में अचानक मां के गुज़र जाने की वजह से बीच ही में पढ़ाई छोड़कर उन्हें वापस ग्वालियर जाना पड़ा।

वनमाला का फ़िल्मों में आना महज़ इत्तेफ़ाक़ से ही हुआ। एक मुलाक़ात के दौरान उन्होंने बताया था, “मेरी मौसी पुणे में रहती थीं और मशहूर मराठी लेखक और रंगकर्मी आचार्य अत्रे द्वारा संचालितआगरकर हाईस्कूलमें प्रिंसिपल थीं। कुछ समय ग्वालियर में बिताने के बाद मैं मौसी के पास पुणे चली आयी और ख़ुद भी आगरकर हाईस्कूलमें पढ़ाने लगी। पुणे में रहते हुए ही मैंने बी.टी. भी किया। आचार्य अत्रे के जरिए मेरी मुलाक़ात वी.शांताराम, मास्टर विनायक और बाबूराव पेंढारकर जैसे जाने-माने फ़िल्मकारों से हुई। वी.शांताराम ने मुझे बतौर सहायक-निर्देशिका अपने साथ रखना चाहा, जिसके लिए मैंने इंकार कर दिया। लेकिन इन सभी फ़िल्मी हस्तियों के, मराठी फ़िल्मलपंडाव (आंखमिचौनी)’ में नायिका की भूमिका निभाने के आग्रह को मैं टाल नहीं पायी।“ 

लपंडावअभिनेत्री नंदा के पिता मास्टर विनायक की कोल्हापुर स्थित कंपनीनवयुग चित्रपटकी फ़िल्म थी, जो साल 1940 में रिलीज़ हुई थी। वनमाला के मुताबिक़ फ़िल्मलपंडावके प्रीमियर पर उनकी मुलाक़ात सोहराब मोदी से हुई, जो उन दिनों फ़िल्मसिकंदरकी मुख्य भूमिकारूखसानाके लिए एक नई लड़की की तलाश में थे। फ़िल्मलपंडावमें वनमाला के अभिनय से प्रभावित होकर सोहराब मोदी नेरूखसानाकी भूमिका के लिए वनमाला को चुन लिया।


साल 1941 में रिलीज़ हुई फ़िल्मसिकंदरके नायक पृथ्वीराज कपूर, संगीतकार मीर साहब और रफ़ीक़ गज़नवी, और लेखक-गीतकार पंडित सुदर्शन थे। ये वोही पंडित सुदर्शन थे, जिनकी कहानीहार की जीतको आज भी हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर माना जाता है। फ़िल्मसिकंदरअपने ज़माने की बहुत बड़ी हिट साबित हुई, और उसकी ज़बर्दस्त क़ामयाबी ने वनमाला को स्टार का दर्जा दिला दिया। लेकिन वनमाला के फ़िल्मों में आने का सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भारी विरोध हुआ और पिता ने तमाम रिश्ते ख़त्म करते हुए, उनके ग्वालियर आने पर रोक लगा दी।

सिकंदरके बाद वनमाला ने चरणों की दासी’ (नायक-अविनाश/1941), ‘वसंतसेना’ (साहू मोदक/1942), ‘राजारानी’ (त्रिलोक कपूर/1942), ‘मुस्कुराहट’ (मोतीलाल/1943), ‘शहंशाह अकबर’ (कुमार/1943), ‘दिल की बात’ (ईश्वरलाल/1944), ‘कादम्बरीऔर महाकवि कालिदास’ (पहाड़ी सान्याल/1944), ‘पर्वत पर अपना डेराऔर सुनो सुनाता हूं’ (उल्हास/1944), शरबती आंखें’ (ईश्वरलाल/1945), ‘परिंदेऔर आरती’ (सुरेंद्र/1945), ‘ख़ानदानी’ (कुमार/1947), ‘चन्द्रहास’ (प्रेम अदीब/1947), ‘बीते दिन’ (मोतीलाल/1947), ‘पहला प्यार’ (आग़ाजान/1947), 

आज़ादी की राह पर’ (पृथ्वीराज कपूर/1948) औरबैचलर हसबैण्ड’ (चार्ली/1950) जैसी क़रीब 22 हिंदी और 10 मराठी फ़िल्मों में नायिका की भूमिका की। फ़िल्म वसंतसेना’, ‘राजारानी’, ‘दिल की बातऔर आरतीजैसी कुछ फ़िल्मों में उन्होंने अपने लिए गाने  भी गाए थे। उनकी शैक्षणिक योग्यता को देखते हुए उस ज़माने में फ़िल्म की पब्लिसिटी में उनका नाम वनमाला बी..बी.टी.दिया जाता था। अत्रे पिक्चर्सकी भागीदार के तौर पर उन्होंने चरणों की दासी’, ‘वसंतसेना’, ‘राजारानी’, ‘दिल की बात’, ‘तस्वीर’, परिंदेऔर ख़ानदानीआदि के अलावा कुछ मराठी फ़िल्मों का निर्माण भी किया।अत्रे पिक्चर्सके बैनर में ऐसी ही एक मराठी फ़िल्मश्यामची आईमराठी के मशहूर लेखकसाने गुरूजीके उपन्यास पर बनी थी, जिसे डॉ.राजेन्द्र प्रसाद के हाथों साल 1953 में प्रथमराष्ट्रपति पुरस्कारसे सम्मानित किया गया था। इस फ़िल्म की सह-निर्मात्री होने के साथ-साथ वनमाला ने इसमें श्यामची आई अर्थातश्याम की मांकी भूमिका भी निभाई थी। वनमाला के मुताबिक़ उनके पिता की नाराज़गी अभी तक ख़त्म नहीं हुई थी, जिसे लेकर पिता के दोस्त, ग्वालियर नरेश जीवाजी राव सिंधिया और गुजरात की सचिन रियासत के नवाब हैदर अली ख़ासे चिंतित थे। दोस्तों के समझाने-बुझाने पर पिता ने वनमाला को माफ़ तो कर दिया लेकिन उनकी शर्त के मुताबिक़ वनमाला को हमेशा के लिए फ़िल्मोद्योग को अलविदा कह देना पड़ा। इस तरहश्यामची आईवनमाला की आख़िरी फ़िल्म साबित हुई, और वो वापस ग्वालियर लौट गयीं| हालांकि उनकी एक फ़िल्म अंगारेउनके मुंबई छोड़ देने के बाद साल 1954 में रिलीज़ हुई थी, जिसे उनकी आख़िरीरिलीज़फ़िल्म कहा जा सकता है।

वनमाला के मुताबिक़ धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कार उन्हें पारंपरिक तौर पर मिले थे। ग्वालियर से पिता के साथ उन्हें प्रायश्चितस्वरूप बद्रीनाथ धाम की यात्रा पर जाना पड़ा, जिसके बाद उनका ज़्यादातर समय मथुरा-वृंदावन के मंदिरों में बीतने लगा। उनके मुताबिक़ पूजा-अर्चना के साथ-साथ गोवर्धन की परिक्रमा करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था। मुंबई में रहते वो फ़िल्मों के अलावा दुर्गा खोटे के साथ नाटकों में भी हिस्सा लेती रहती थीं। नाटकों से हुई आय से दोनों अभिनेत्रियों ने मिलकर ग्रांट रोड के इलाक़े में मशहूरमराठी साहित्य संघसभागार की स्थापना की थी। मथुरा में रहते हुए भी वनमाला कला के प्रति अपने मोह को छोड़ नहीं पायीं।शिवमुद्रा प्रतिष्ठान चैतन्यालय ट्रस्टका ट्रस्टी-पद औरब्रज कला केन्द्रमथुरा का अध्यक्ष-पद संभालने के साथ ही उन्होंने वृंदावन और गोवर्धन मेंस्वामी हरिदास कला संस्थानकी स्थापना भी की। लखनऊ के भातखंडे विश्वविद्यालय से जुड़े इस विद्यालय में मामूली फ़ीस पर बच्चों को नृत्य और संगीत की शिक्षा दी जाती थी।

सिनेमा ही नहीं तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं का त्याग करके सन्यास ले लेने वाली वनमाला को मथुरा-वृंदावन में सुशीला बाई के नाम से जाना जाता था। ज़िंदगी के आख़िरी 3 सालों का ज़्यादातर वक़्त उन्होंने मुंबई के महालक्ष्मी इलाक़े में रहने वाली छोटी बहन सुमति देवी धनवटे के घर पर रहकर बिताया। सुमति देवी नागपुर स्थित एशिया की अपने समय की सबसे बड़ी प्रिंटिंग प्रेसशिवराज फ़ाईन आर्ट्स लिथो वर्क्सके मालिक दादासाहब धनवटे के बेटे मारूतिराव की पत्नी हैं। साल 2003 मेंश्यामची आईके निर्माण की स्वर्णजयंती पर महाराष्ट्र सरकार द्वारा वनमाला पर एक वृत्तचित्र का निर्माण किया गया। साथ ही मुंबई स्थितदादासाहब फाल्के अकादमीने भी सिनेमा के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाओं और उपलब्धियों के लिए उन्हें सम्मानित किया था। लंबे वक़्त तक बीमारी से जूझने के बाद 29 मई 2007 को ग्वालियर में, 92 साल की उम्र में वनमाला का निधन हुआ।

वनमाला को गुज़रे हुए भले ही बरसों बीत चुके हों, लेकिन हिंदी और मराठी सिनेमा के इतिहास में उनका नाम हमेशा के लिए दर्ज हो चुका है। वनमाला जैसा आध्यात्म, कला और समाजसेवा का अनूठा संगम शायद ही कहीं देखने को मिले।

We are thankful to

Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Ms. Aksher Apoorva for the English translation of the write ups.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing. 


Vanmala ji on YT Channel BHD


Shyamchi Aai” - Vanmala 

.........Shishir Krishna Sharma

There was a time when people connected with films were not viewed upon agreeably. Times changed, cinema’s power and importance transformed the perception of the society, educated people from respectable families started to gradually incline towards films and then with the passing of time, cinema became a flourishing industry. But even today, where the common man’s perception of the women associated with films is concerned, not much has changed. At the outset, the women in films would, as a rule, come from families with song and dance backgrounds but, there were also some educated girls from good families who were exceptions to the rule like Durga Khote and Leela Chitnis who despite all the opposition from their families and society carved their future in cinema on the basis of their talent, diligence and hard work and engraved their names in golden letters in the history of cinema. Amongst these, one was Vanmala who forayed into Hindi cinema with Sohrab Modi’s film ‘Sikandar’ which was made in 1941 but due to contrived circumstances after a brief career of 13 years and despite amassing all possible fame, she had to bid farewell to the blitz and glamour of the cinematic world. Made in 1953 the Marathi film ‘Shyamchi Aai’, also recipient of first President’s Award, was Vanmala’s last film after which she went to Vrindavan and immersed herself in lord’s service and social work.

Vanmala’s father ‘Colonel Raobahadur Bapurao Anandrao Pawar’ other than being Malwa State’s collector and Shivpuri’s commissioner at that time was also a member of the trust set up by Gwaliors king Madhav Rao Scindia before his untimely death to look after his estate.  Vanmala was born on 23rd may, 1915 in Ujjain and was brought up on Gwalior estate in royal fashion. She was schooled in horse riding, swimming, marksmanship, polo and fencing since childhood. She completed her initial education in ‘Sardar Daughter’s School’, a school especially for the children of the royal family after which she received her B.A. degree from Gwalior itself. Thereafter she went to Mumbai and enrolled herself for M.A. But in 1935, due to her mother’s sudden demise, she left her studies midway and returned to Gwalior.

Vanmala’s entry into films was a sheer coincidence. During a meeting she had said that, “My Mother’s sister used to live in Pune and was the principle in ‘Agarkar High School’ which was run by Marathi writer and theater personality Acharya Atre. After spending some time in Gwalior I went to live with my aunt in Pune and I too started teaching in ‘Agarkar High School’. While in Pune I also completed my B.T. Through Acharya Atre, I met renowned filmmakers like V.Shantaram, Master Vinayak and Baburao Pendharkar. V.Shantaram wanted to keep me as an assistant director with him, an offer which I declined. But when all these film personalities insisted that I play the heroine in Marathi filmLapandav (the game of Hide & Seek)’, I just could not refuse.”

Released in 1940, ‘Lapandav’ was actress Nanda’s father Master Vinayak’s Kolhapur based company ‘Navyug Chitrapat’s’ film. According to Vanmala, She met Sohrab Modi at film Lapandav’s premier who at that time was searching for a new face for the lead role of ‘Rukhsana’ in the film ‘Sikandar’. Impressed with Vanmala’s performance in ‘Lapandav’, Sohrab Modi chose Vanmala to essay the role of ‘Rukhsana’. Released in 1941, film ‘Sikandar’s’ male lead was Prithviraj Kapoor, composer were Mir Sahab & Rafiq Ghaznavi, and writer-lyricist was Pandit Sudarshan. This is the same Pandit Sudarshan whose novella ‘Haar ki Jeet’ is still considered a milestone in Hindi literature. ‘Sikandar’ proved to be a big hit at that time and its tremendous success propelled Vanmala into stardom. But Vanmala’s foray into films was objected to heavily at a social and familial level and her father cut off all ties with her and he barred her from coming to Gwalior.

After ‘Sikandar’ Vanmala did about 22 Hindi films like ‘Charno Ki Daasi’ (hero-Avinash/1941), ‘Vasasntsena’ (Sahu Modak/1942), ‘Raja Rani’ (Trilok Kapoor/1942), ‘Muskurahat’ (Motilal/1943), ‘Shahenshah Akbar’ (Kumar/1943), ‘Dil Ki Baat’ (Ishwarlal/1944), ‘Kadambari’ and ‘Mahakavi Kalidas’ (Pahadi Sanyal/1944), ‘Parbat Par Apna Dera’ and ‘Suno Sunata Hoon’ (Ulhas/1944),  ‘Sharbati Ankhein’ (Ishwarlal/1945), ‘Parinde’ and ‘Aarti’ (Surendra/1945), ‘Khandani’ (Kumar/1947), ‘Chandrahaas’ (Prem Adib/1947), ‘Beete Din’ (Motilal/1947), 'Pehla Pyar' (aghajaan/1947) and ‘Azadi Ki Raah Par’ (Prithviraj Kapoor /1948) and 10 Marathi films as heroine. She sang songs for herself in few films like ‘Vasasntsena’, ‘Raja Rani’, ‘Dil Ki Baat’ and ‘Aarti’. In keeping with her educational qualifications at that time, during films publicity her name used to appear as ‘Vanmala B.A.B.T. As a partner of ‘Atre Pictures’ other than films like ‘Charno Ki Daasi’, ‘Vasasntsena’, ‘Raja Rani’, ‘Dil Ki Baat’, ‘Tasveer’, ‘Parinde’ and ‘Khandani’ she also produced some Marathi films. One of the movies made under the banner of ‘Atre Pictures’ was the Marathi film ‘Shyamchi Aai’ which was based on the famous Marathi writer Sane Guruji’s novel and it received the first President Award in 1953 by Dr. Rajendra Prasad. Other than being the co-producer for the film, Vanmala also portrayed the part of ‘Shyamchi Aai’ meaning Shyam’s Mother. According to Vanmala her father’s resentment towards her hadn’t subsided as yet and had become a fair cause of concern for her father’s friends namely Gwalior’s King Jivaji Rao Scindia and Gujrat’s Sachin estate’s Nawab Hyder Ali. After his friends counsel, Vanmala’s father forgave her but according to his condition Vanmala left the film industry forever. And just like that ‘Shyamchi Aai’ proved to be Vanmala’s last film and she returned to Gwalior, however, her film ‘Angaare’ was released in 1954 after she left Mumbai which can be considered her last ‘released’ film.

According to Vanmala she had received her religious and spiritual values in heritance. As atonement she had to accompany her father to a pilgrimage to Badrinath Dham after which she started spending maximum of her time at the temples in Mathura-Vrindavan. According to her along with prayer and worship, circling Govardhan had become a part of her daily routine. When she was in Mumbai other than films, she would also participate in dramas with Durga Khote. From the income acquired from dramas, the two actresses founded the famous Marathi Sahitya Sangh Auditorium at Grant Road. Despite staying in Mathura, Vanmala couldn’t resist her fascination towards art. Other than assuming the posts of trustee of ‘Shiv Mudra Pratishthan Chaitanyalaya Trust’ and the post of president for Braj Kala KendraMathura, she also founded the ‘Swami Haridas Kala Sansthan’ at Vrindavan and Govardhan. Associated with Lucknow’s Bhatkhande University, this school would provide dance and music lessons to children at a very nominal fee.

Vanmala had given up not only Cinema but also materialistic pleasures and had retired as a hermit and came to be known as Sushila Bai in Mathura-Vrindavan. She spent the last 3 years of her life predominantly living with her sister Sumati Devi Dhanvate at the latter’s home in Mumbai’s Mahalaxmi area. Sumati Devi was married to Maruti Rao, son of Dada Saheb Dhanvate who was the owner of the biggest printing press in Asia called ‘Shivraj Fine Arts Litho Works’ which was based in Nagpur. In 2003, on the golden jubilee of making of ‘Shyamchi Aai’, Maharashtra government made a documentary on Vanmala. At the same time, Mumbai based ‘Dada Saheb Phalke Academy’ honored her for Outstanding services and achievements in the field of cinema. After a long fight with illness, Vanmala passed away at the age of 92 on 29th May, 2007 in Gwalior.

It has been so many years since Vanmala’s death, but her name has been etched in the history of Hindi and Marathi Cinema forever. It is very rare to see such an exceptional combination of spirituality, art and social work like that of Vanmala’s.

(Original write up, was published in Sahara Samay - Weekly dated 26th June, 2004 / A tribute after demise was published on 8th June, 2007 in Daily Rashtriya Sahara / this article has also been published on www.anmolfankaar.com)

3 comments:

  1. आज फिल्म सिकन्दर देखते समय अभिनेत्री वनमाला जी के बारे में जानने की इच्छा हुई तो गूगल इमेज में फोटो से आपकी पोस्ट का लिंक मिला और सारी जानकारी यहीं मिल गई।
    हर बार की तरह एक सुन्दर पोस्ट। आप एक तरह का इनसाइक्लोपीडिया बना रहे हैं, जो भविष्य में लोगों के बहुत काम आएगा।
    इस सुन्दर पोस्ट के लिए धन्यवाद।

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  2. Good Morning,
    Excellent write up with valuable information.
    Good olden days of Love and peace.
    It is stunning to see those old time fashion so classical and incredible.
    Thanks a million for sharing the text and photos.
    Regards
    Uma Maheswar

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