“Manzil To Hai Badi Door” – C.H.Atma
............Shishir Krishna Sharma
Translated from original Hindi to English by :
Ms. Aksher
Apoorva
Posters & photos provided by
: Shri S.M.M.Ausaja
Acknowledgements : We are thankful to Shri Harmandir
Singh ‘Hamraz’, Shri Harish Raghuvanshi and Shri S.M.M.Ausaja
for their valuable suggestions, guidance and help.
Special thanks to Ms.Aksher Apoorva for the English
translation of the write up.
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links :
preetam aan milo (non film)
roun mai sagar ke kinaare /Nagina/1951
raat suhaani hanste taare /aasmaan /1952
MANZIL TO HAI BADI DOOR/bhaisahab
/1954
panghat pe more shyam /bilwamangal/1954
diya to jala sab raat re
balam / dhake ki malmal /1956
mandwe tale ghareeb ke/geet gaya pattharon ne/1964
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“मंज़िल तो है बड़ी दूर” – सी.एच.आत्मा
.............शिशिर कृष्ण
शर्मा
1930 और 40 के दशक में हिंदी सिनेमा के पहले स्टार गायक कुन्दनलाल
सहगल की लोकप्रियता का आलम कुछ ऐसा था कि उस दौर के सिनेमाप्रेमी हरेक नए आने वाले
गायक से सहगल की ही शैली में गाने की उम्मीद करते थे। यही वजह है कि मुकेश और
किशोर कुमार के शुरूआती गीतों पर सहगल की छाप साफ़ नज़र आती है। इन गायकों ने तो
बदलते वक़्त के साथ ख़ुद को सहगल के प्रभाव से मुक्त करके अपनी अलग पहचान बनाई और
कामयाब भी हुए लेकिन सी.एच.आत्मा जैसे गायक ज़िंदगी भर सहगल की छाया से बाहर ही
नहीं आ पाए।
अपनी अलग पहचान बनाने की
छटपटाहट दिल में ही दबाए सी.एच.आत्मा महज़ 52 साल की उम्र में इस दुनिया से चले गए थे। उनके छोटे भाई, गायक चन्द्रू
आत्मा से मेरी मुलाक़ात कैडेल रोड, माहिम स्थित उनके घर पर हुई थी। उस मुलाक़ात के दौरान
चन्द्रू आत्मा ने सी.एच.आत्मा के बारे में विस्तार से बातचीत की थी। प्रस्तुत है
वो बातचीत, चन्द्रू आत्मा के
ही शब्दों में-
“हमारे पिता हशमतराय चैनानी कराची के नामी वकील थे। संगीत का
उन्हें बेहद शौक़ था और पिता की देखादेखी यही गुण हम सब भाई-बहनों में सबसे बड़े
सी.एच.आत्मा में भी आ गए थे। ये वो दौर था जब हर तरफ़ कुन्दनलाल सहगल की धूम मची
हुई थी। भाईसाहब भी सहगल के दीवाने थे और उन्हीं के गाने गाते थे। लेकिन महज़
शौक़िया तौर पर। गायन को व्यवसाय बनाने की उन्होंने कभी नहीं सोची थी।
एक बार छुट्टियों में
भाईसाहब मौसी के घर लाहौर गए हुए थे जहां उनकी आवाज़ से लोग इतने प्रभावित हुए कि
उन्हें सहगल के गीत गाने के लिए स्टेज-कार्यक्रमों में बुलाया जाने लगा। इन
कार्यक्रमों की सफलता से लाहौर में वो इतने मशहूर हो गए कि एच.एम.वी. कम्पनी ने
ओ.पी.नैयर की बनाई धुन पर उनकी आवाज़ में गीत रेकॉर्ड कराया ‘प्रीतम आन
मिलो...दुखिया जिया बुलाए’। उन्हीं दिनों
भाईसाहब ने अपना नाम ‘आत्मा हशमतराय
चैनानी’ से बदलकर ‘सी.एच.आत्मा’ रख लिया था। ये
साल 1945 का वाकया है।
मुल्क़ का बंटवारा हुआ तो
हमारा परिवार कराची छोड़कर पुणे चला आया। उधर भाईसाहब को हिमालयन एयरवेज़ में
को-पायलट की नौकरी मिली और वो कोलकाता चले गए। हममें से किसी को भी पता नहीं चला कि
‘प्रीतम आन
मिलो...’ दुखिया जिया
बुलाए’ जबर्दस्त हिट हो
चुका है और इसके रेकॉर्ड्स की बेतहाशा बिक्री हो रही है।
लाहौर में उस ज़माने के
जाने-माने निर्माता-निर्देशक-वितरक दलसुख पंचोली का अपना स्टूडियो था जहां ‘पंचोली आर्ट
पिक्चर्स’ के बैनर में
उन्होंने ‘गुल बकावली’, ‘यमला जट’, ‘चौधरी’, ‘ख़ज़ांची’, ‘ख़ानदान’ ‘ज़मींदार’ और ‘पूंजी’ जैसी हिंदी और
पंजाबी की कई हिट फ़िल्में बनायी थीं। संगीतकार गुलाम हैदर, गायिका शमशाद
बेगम, अभिनेता प्राण और
अभिनेत्री मनोरमा और मुनव्वर सुल्ताना ने पंचोली की फ़िल्मों से ही करियर शुरू किया
था।
बंटवारे के बाद दलसुख
पंचोली मुम्बई चले आए थे। ‘प्रीतम आन
मिलो...’ गीत से वो इतने
प्रभावित थे कि उन्होंने भाईसाहब को खोजकर फ़िल्म ‘नगीना’ (1951) में गाने के लिए कोलकाता से मुम्बई बुला लिया।
इस फ़िल्म में भाईसाहब ने शंकर-जयकिशन के संगीत में 3 सोलो ‘रोऊं मैं सागर के किनारे’, ‘इक सितारा है आकाश में’ और ‘दिल बेक़रार है
मेरा’ गाए, जो काफ़ी पसंद किए
गए। फ़िल्म ‘नगीना’ नूतन की बतौर
हिरोईन पहली फ़िल्म थी।
अगले साल यानि 1952 में पंचोली ‘प्रीतम आन
मिलो...’ के संगीतकार
ओ.पी.नैयर को खोजकर उन्हें उनके करियर की पहली फ़िल्म ‘आसमान’ दी, हालांकि
ओ.पी.नैयर इससे पहले साल 1949 में बनी फ़िल्म ‘कनीज़’ में बैकग्राऊण्ड
म्यूज़िक दे चुके थे। फ़िल्म ‘आसमान’ में भाईसाहब ने ओ.पी.नैयर के संगीत में 3 सोलो ‘इस बेवफ़ा जहां
में’, ‘रात सुहानी हंसते
तारे’ और ‘कछु समझ नहीं आए’ गाए थे। फ़िल्म ‘आसमान’ से ही आशा पारेख
ने अपना अभिनय करियर बतौर बालकलाकार शुरू किया था।
दलसुख पंचोली ने भाईसाहब
को साल 1954 में फ़िल्म ‘भाईसाहब’ में बतौर नायक
पेश किया। इस फ़िल्म में उनकी नायिकाएं पूर्णिमा और स्मृति बिस्वास थीं। उसी साल वो
फ़िल्म ‘बिल्वमंगल’ में भी सुरैया के
साथ नायक बनकर आए। फ़िल्म ‘भाईसाहब’ में उन्होंने
नीनू मजूमदार के संगीत में 8 और ‘बिल्वमंगल’ में बुलो सी.रानी के संगीत में 6 गीत गाए थे।
लेकिन ये दोनों ही फ़िल्में नहीं चलीं।
ये वो दौर था जब हिंदी
फ़िल्म संगीत के क्षेत्र में नई नई प्रतिभाएं कदम रख रही थीं। सहगल की शैली के गायक
पुराने हो चुके थे। नतीजतन करियर की शुरूआत में ही भाईसाहब पार्श्वगायन के लिए
अनुपयोगी मान लिए गए। इसके बावजूद अनिल बिस्वास के संगीत में ‘महात्मा कबीर’ (1954), ओ.पी.नैयर के
संगीत में ‘ढाके की मलमल’ (1956) और बुलो सी.रानी
के संगीत में फ़िल्म ‘जहाज़ी लुटेरा’ (1957) में उन्हें एक एक
गीत गाने का मौक़ा ज़रूर मिला। लेकिन स्टेज कार्यक्रमों और प्राईवेट अलबमों में वो
लगातार व्यस्त रहे। साल 1957 में नैरोबी जाकर
देश से बाहर कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले वो पहले भारतीय गायक थे।
भाईसाहब मुझसे 15 साल बड़े थे। वो 10 दिसम्बर 1923 को कराची में
जन्मे थे। उनके कोलकाता से आते ही मैं भी पुणे छोड़कर उनके पास मुम्बई चला आया था।
मुम्बई में हमारे घर पर अक्सर तलत, मुकेश और जयकिशन जैसे फ़नकारों की महफ़िलें जमा करती थीं।
भाईसाहब के स्टेज कार्यक्रमों में भी मैं उनके साथ मौजूद रहता था। ऐसे माहौल में
मेरा झुकाव भी गायन की ओर होने लगा। भाईसाहब ही मेरे गुरू थे जिन्होंने मेरे शौक़
को देखते हुए मुझे संगीत सिखाना शुरू कर दिया था। नतीजतन मैं भी जल्द ही निजी
महफ़िलों में गाने लगा।
मंच पर गाने का पहला मौक़ा
मुझे तब मिला जब 1960 के दशक के मध्य
में एक कार्यक्रम के दौरान अचानक भाईसाहब की तबीयत बिगड़ गयी और माईक मुझे सम्भालना
पड़ा। कार्यक्रम सफल रहा और इसके बाद मैं भी स्टेज पर व्यस्त होता चला गया। नाम हुआ
तो एच.एम.वी ने और फिर टी-सीरीज़ ने मेरे कई प्राईवेट अलबम निकाले। भाईसाहब को
देखते हुए लोगों ने मुझे भी चन्द्रू हशमतराय चैनानी की जगह चन्द्रू आत्मा कहना
शुरू कर दिया।
वनराज भाटिया के संगीत
में मैंने ‘मेरी ज़िंदगी की
कश्ती तेरे प्यार का सहारा’
(‘भूमिका’ / 1977), मदनमोहन के संगीत
में ‘हम पापी तू
बख़्शनहार’ (साहिब बहादुर / 1977), लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल
के संगीत में ‘सांवरिया तोरी
प्रीत नए नए रूप दिखाए’ (प्रेम बंधन / 1978) और राजेश रोशन के
संगीत में ‘तुमसे बढ़कर
दुनिया में ना देखा कोई और’
(कामचोर / 1982) और ‘पागल मन मेरा
प्रेम दीवाना’ (मारधाड़ / 1988) जैसे कुछ फ़िल्मी
गीत गाए लेकिन मुझे भी सहगल के ही ढांचे में बांध दिया गया।
भाईसाहब को ये बात हमेशा
सालती रही कि फ़िल्मों में उनकी मौलिक आवाज़ का इस्तेमाल कभी किया ही नहीं गया।
फ़िल्म ‘गीत गाया पत्थरों
ने’ (1964) में उन्होंने उमर
ख़ैयाम की भूमिका निभाने के साथ ही रामलाल के संगीत में दो गीत ‘मड़वे तले ग़रीब के’ और ‘इक पल जो मिला है
तुझको’ गाए थे जिसके बाद
फ़िल्मों से उनका रिश्ता क़रीब क़रीब टूट ही गया था। उधर उनकी शादीशुदा ज़िंदगी भी सफल
नहीं रही जिसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा।
साल 1975 में भाईसाहब
कार्यक्रम के सिलसिले में लंदन गए तो वहां की सर्दी ने उन्हें बुरी तरह जकड़ लिया।
वापस लौटकर भी उनकी तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ और 8 महिने लगातार
बीमार रहने के बाद महज़ 52 साल की उम्र में
6 दिसम्बर 1975 को उनका निधन हो
गया”।
सी.एच.आत्मा के छोटे भाई चन्द्रू
आत्मा का जन्म 17 सितम्बर 1938 को कराची में हुआ
था। उनका निधन 71 साल की उम्र में 12 अप्रैल 2009 को मुम्बई में
हुआ।
आभार : बहुमूल्य मार्गदर्शन और सहायता के लिए हम श्री हरमंदिर सिंह ‘हमराज़, श्री हरीश रघुवंशी और श्री एस.एम.एम.औसजा के आभारी हैं।
अंग्रेज़ी अनुवाद हेतु हम सुश्री अक्षर अपूर्वा के विशेष रूप से आभारी हैं।
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http://www.hindustantimes.com/delhi/dead-singer-s-kin-demand-arrest-of-her-husband/story-ec8QfyWNX4sxFrDDXScG4H.html
ReplyDeleteThe above article I read in HT,regarding SHANTI SHARMA . I am not sure whether it is for the said Shanti Sharma by you in Beete huye din for Sonik Omi.... . Please copy and paste to read.
लेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. आप के इस लेख से यह जानकारी मिली कि ओ पी नैय्यर साहब शंकर जयकिशन से जूनियर थे क्यों कि जब उनकी पहली फिल्म आसमान बनी तो उसके पहले ही शंकर-जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध कुछ फिल्में रिलीज हो चुकी थीं.
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