Monday, August 11, 2025

"Choodi Nahin Mera Dil Hai Dekho Dekho Toote Na" - Zahida


चूड़ी नहीं मेरा दिल है देखो देखो टूटे ना” – ज़ाहिदा

    ........शिशिर कृष्ण शर्मा  

साल 1970 की, देवआनन्द की बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म ‘प्रेमपुजारी’ से एक नयी अभिनेत्री ने फ़िल्मों में कदम रखा था| नाम था, ज़ाहिदा हुसैन| हालांकि फ़िल्मों में वो भले ही नयी थीं लेकिन थीं एक प्रतिष्ठित फ़िल्मी परिवार से| उनकी दादी जद्दनबाई 1930 के दशक की एक हरफ़नमौला कलाकार थीं, वो अभिनेत्री थीं, गायिका थीं, फ़िल्म प्रोड्यूसर थीं, डायरेक्टर थीं, और संगीतकार भी थीं| ज़ाहिदा जी के पिता अख़्तर हुसैन प्रोड्यूसर-डायरेक्टर थे, चाचा अनवर हुसैन मशहूर अभिनेता थे और बुआ नरगिस अपने दौर की सुपरस्टार थीं| 

ज़ाहिदा जी का इंटरव्यू मैंने अगस्त 2003 के दूसरे सप्ताह में, दक्षिण मुम्बई स्थित मालाबार हिल की अनीता बिल्डिंग के उनके फ़्लैट में किया था और ये इंटरव्यू साप्ताहिक सहारा समय के 23 अगस्त 2003 के अंक में छपा था| उनका जन्म 9 अक्टूबर 1944 को मुम्बई में हुआ था| वो कहती हैं, "मेरे पिता अख़्तर हुसैन एक फ़िल्म निर्माता थे और मां इक़बाल बेगम आम घरेलू महिला थीं| मेरे पिता ने ‘रोमियो जूलियट’ (1947) ‘दरोगाजी’ (1949) ‘बेवफ़ा’ (1952) और ‘रात और दिन’ (1967) जैसी फ़िल्में बनाई थीं| सात भाई बहनों में मैं तीसरे नंबर पर थी| 

बुआ नरगिस की मैं सबसे बड़ी फैन थी| वो जब शूटिंग पर जाने से पहले अपने बड़े से ड्रेसिंग टेबल पर बैठकर मेकअप करती थीं तो मैं उन्हें बहुत गौर से देखती थी| मेरी नज़र में वो दुनिया की सबसे खूबसूरत और सबसे गरिमामयी औरत थीं| उन्हें मिलने वाला सम्मान, लोगों का प्यार और शोहरत मुझे बहुत आकर्षित किया करते थे|” 

ज़ाहिदा जी थोड़ी बड़ी हुईं तो जैसा कि फ़िल्मी दुनिया का रिवाज है, फ़िल्मों से जुड़े परिवारों की लड़कियों की तरह उन्हें भी अभिनय के लिए ऑफर आने लगे| पहला ऑफर उन्हें गुरुदत्त का आया जो फिल्म ‘कनीज़’ के लिए ज़ाहिदा जी को साइन करना चाहते थे| लेकिन उस ऑफर को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया| दरअसल गुरूदत्त की इमेज ऐसी बनी हुई थी कि नयी लड़कियों को लांच करने की अपनी घोषणा को वो अमूमन कूड़ेदान में डाल देते थे| और हुआ भी यही| ज़ाहिदा के इंकार के बाद उस फ़िल्म के लिए सिम्मी को साइन किया गया, एकाध दिन की शायद शूटिंग भी हुई और फिर वो फ़िल्म डिब्बे के हवाले कर दी गयी| 

Zahida with Nargis 
ज़ाहिदा जी बताती हैं, “बुआ चाहती थीं कि बजाय फ़िल्मों की तरफ़ ध्यान देने के, पहले मैं अपनी पढ़ाई पूरी करूं| और वैसे भी उन्हें पसंद नहीं था कि हमारे घर की कोई लड़की फिल्मों में काम करे| दोनों भाईयों यानि मेरे पिता और चाचा (अनवर हुसैन) से वो छोटी थीं| लेकिन घर में उनका इतना दबदबा था कि खासतौर से हम तीनों बहनों से सम्बंधित उनके फ़ैसले सभी को मान्य होते थे| निर्माता-निर्देशक एच.एस.रवेल ने साल 1961 की अपनी फ़िल्म ‘कांच की गुड़िया’ के लिए मुझे साइन करना चाहा तो बुआ की असहमति की वजह से मैं वो फ़िल्म नहीं कर सकी| कुछ सालों बाद सिनेमैटोग्राफर फली मिस्त्री द्वारा निर्मित और राज खोसला निर्देशित फ़िल्म ‘साजन की गलियां’ में मुझे देवआनंद और साधना के साथ काम करने का मौक़ा मिला| अभिनय की मेरी हार्दिक इच्छा को देखते हुए बुआ के असहमति के सुर भी धीमे पड़ गए थे| फ़िल्म में मेरा एक राजकुमारी का रोल था| लेकिन कुछ ही दिनों की शूटिंग के बाद वो फ़िल्म पता नहीं क्यों बंद हो गयी| लेकिन इस फ़िल्म में काम करने का मुझे लाभ ज़रूर मिला|” 

देवआनंद जद्दनबाई के परिवार से तो परीचित थे ही, वो अब ज़ाहिदा का काम भी देख चुके थे| उन दिनों वो बतौर निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म ‘प्रेम पुजारी’ की तैयारियों में जुटे हुए थे| फ़िल्म की मेनलीड में ख़ुद देवआनंद और वहीदा रहमान थे| इस फ़िल्म की सेकण्ड हिरोईन के लिए उन्होंने ज़ाहिदा को साइन कर लिया| साल 1970 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘प्रेम पुजारी’ के बनने में काफ़ी समय लगा था और बॉक्स ऑफिस पर भी ये फ़िल्म ठीकठाक ही चली थी| हालांकि ज़ाहिदा जी को उसी दौरान मिली कम बजट की फ़िल्म ‘अनोखी रात’ बहुत तेज़ी से बनकर ‘प्रेम पुजारी’ से दो साल पहले, साल 1968 में ही रिलीज़ होकर सुपरहिट भी हो गयी थी| 

ज़ाहिदा जी बताती हैं, “फ़िल्म ‘अनोखी रात’ के निर्माता एल.बी.लक्ष्मण जब मेरे पास नायिका के रोल का ऑफ़र लेकर आए थे तो उन दिनों ‘प्रेम पुजारी’ की शूटिंग रुकी हुई थी| ‘अनोखी रात’ में संजीव कुमार और परीक्षित साहनी थे| संजीव कुमार उन दिनों बी-ग्रेड आर्टिस्ट माने जाते थे| और फिर फ़िल्म भी ब्लैक एन्ड व्हाइट थी| ऐसे में वो फ़िल्म करने का मेरा मन नहीं हुआ| लेकिन जैसे ही मुझे पता चला कि फ़िल्म की कहानी ऋषिकेश मुकर्जी की है और निर्देशक असित सेन हैं तो बिना देर किये मैंने वो फ़िल्म साइन कर ली| 

Anokhi Raat 

और फिर ‘गैम्बलर’ (1971), ‘तीन चोर’ (1973), ‘प्रभात (1973)’ और ‘शिकवा (1974)’ बनीं| दो अन्य फ़िल्में ‘मुस्कराहट’ और ‘औरत खड़ी बाज़ार में’ पूरी नहीं हो पायी थीं|” 

ज़ाहिदा जी के हाथ से कुछ फ़िल्में निकलीं तो कुछ फ़िल्में उन्होंने ख़ुद ही ठुकरा दी थीं| ज़ाहिदा जी के अनुसार निर्माता टी.सी.दीवान अपनी एक फिल्म में उन्हें लेना चाहते थे| मौखिक तौर पर तमाम शर्तें तय हो चुकी थीं लेकिन इससे पहले कि एग्रीमेंट साइन होता, उस ज़माने की एक बड़ी हिरोईन ने जोड़तोड़ करके वो फिल्म हथिया ली| उधर ज़ाहिदा जी के पारिवारिक मित्र एफ़.सी.मेहरा अपनी फ़िल्म ‘लाल पत्थर’ में उन्हें लेने वाले थे लेकिन ज़ाहिदा जी ने शर्त रख दी कि चूंकि वो राखी गुलज़ार से सीनियर हैं इसलिए टाइटल्स में उनका नाम ऊपर आना चाहिए| नतीजतन वो फ़िल्म से बाहर हो गयीं| साउथ की एक फ़िल्म का ऑफर उन्हें इसलिए ठुकराना पड़ा क्योंकि उस फिल्म में उन्हें जानवरों के साथ काम करना था, जबकि कुत्ते-बिल्लियों के संपर्क में आते ही उन्हें एलर्जी हो जाती थी| 

फ़िरोज़ ख़ान की फ़िल्म ज़ाहिदा जी ने इसलिए ठुकरा दी थी क्योंकि उन दिनों फ़िरोज़ ख़ान सी-ग्रेड स्टंट फ़िल्मों के हीरो हुआ करते थे| ऐसे में फ़िरोज़ ख़ान ने नाराज़ होकर ज़ाहिदा जी से कहा था कि तुम्हें देवआनंद के अलावा किसी और के साथ काम करना ही नहीं है|

ज़ाहिदा जी कहती हैं, “मेरे मन में भी शायद कहीं न कहीं फ़िरोज़ ख़ान की ये बात जड़ें जमाये हुए थी और शायद इसीलिये मैं लगातार बाहरी फ़िल्में ठुकराए भी जा रही थी| मेरे इस रवैये की वजह से इंडस्ट्री में मुझे ‘नकचढ़ी’, ‘घमंडी’, ‘ख़ुद को नरगिस समझती है’, ‘देव साहब के बूते पर बहुत चहकती है’ जैसे विशेषणों से नवाज़ा जाने लगा था| लेकिन देव साहब को लेकर मेरा विश्वास भी ज़्यादा नहीं टिक पाया| बी.आर.चोपड़ा जी ने साल 1972 की अपनी फ़िल्म ‘दास्तान’ में मुझे एक निगेटिव रोल के लिए साइन किया था, जिसका देव साहब ने ये कहकर विरोध किया कि ‘प्रेम पुजारी’ और ‘गैम्बलर’ के बाद वो मुझे तीसरी फ़िल्म में भी बतौर हिरोईन साइन करने जा रहे हैं और ऐसे में मेरे उस निगेटिव का रोल उनकी फिल्म पर बुरा असर पड़ेगा| मजबूरन मुझे बी.आर.चोपड़ा जी की फ़िल्म छोड़ देनी पड़ी थी| और जब देव साहब ने वो तीसरी फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ अनाउंस की तो उसमें मुझे हिरोईन नहीं बल्कि हीरो की बहन के रोल में चुना गया था| ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी| 

उधर मेरे बहनोई और ‘हम दोनों’, ‘तीन देवियां’, ‘गैम्बलर’ जैसी फिल्मों के निर्देशक अमरजीत ने भी मुझसे कह दिया था कि दर्शक तुम्हें देव साहब की हिरोईन के तौर पर देख चुके हैं और अब उनकी बहन के रोल में वो तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे| तुम्हारा करियर ख़त्म हो जाएगा| ऐसे में मुझे फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ छोड़ देनी पड़ी और बहन का वो रोल ज़ीनत अमान के हिस्से में आ गया| और मेरा करियर मेरे इस इंकार की वजह से समाप्त हो गया| मुझे ऑफ़र्स आने बंद हो गए|” 

ज़ाहिदा जी के पिता अख्तर हुसैन के पास कई सालों से एक स्क्रिप्ट तैयार रखी थी, जिसपर वो राजकपूर और नरगिस को लेकर फ़िल्म बनाना चाहते थे लेकिन बना नहीं पाए थे| उस स्क्रिप्ट पर उन्होंने एक बार फिर से फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया| मेनलीड में ज़ाहिदा के साथ विनोद मेहरा और सोनिया साहनी को लिया गया, संगीत की ज़िम्मेदारी शंकर जयकिशन को दी गयी और फ़िल्म का टाइटल रखा गया, ‘नीलिमा’| साल 1975 में रिलीज़ हुई ये फ़िल्म ज़ाहिदा जी के फ़िल्मी करियर की अंतिम फ़िल्म थी, क्योंकि इस फ़िल्म के बाद ज़ाहिदा जी ने शादी करके फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कहा और अपनी गृहस्थी संभाल ली|

दरअसल फ़िल्म ‘नीलिमा’ के फायनेंसर के.एन.(केसरीनन्दन) सहाय थे जो मुज़फ़्फ़रपुर बिहार के एक ज़मींदार परिवार से थे और अमेरिका से कैमिकल इंजीनियरिंग में डिग्री लेने के बाद कैमिकल्स के एक बड़े कारोबारी बन चुके थे| ‘नीलिमा’ की शूटिंग के दौरान सहाय जी की ज़ाहिदा जी से दोस्ती हुई जो पहले प्यार में और फिर शादी में बदल गयी थी| इस शादी से दो बेटों बृजेश और नीलेश का जन्म हुआ|

ज़ाहिदा जी के पति के.एन.सहाय का निधन साल 2020 में हुआ| उनके बड़े बेटे बृजेश फार्मास्यूटिकल्स के कारोबार में हैं और छोटे बेटे नीलेश एक फिल्म निर्माता हैं जो ‘एंजेल’ (2011) और ‘स्क्वैड’ (2021) जैसी फ़िल्में बना चुके हैं| ज़ाहिदा जी कहती हैं, “मेरे बारे में आम लोगों को ग़लतफ़हमी है कि शादी के बाद मैं मुम्बई छोड़कर बिहार में जा बसी हूं| लेकिन मैं मुम्बई में ही जन्मी, मुम्बई में ही रहकर मैंने ज़िंदगी के तमाम पड़ाव देखे और अब तो मैं दादी भी बन चुकी हूं| साईंबाबा में मेरी अगाध श्रद्धा है और उनकी भक्ति मुझे असीम शांति देती है|” 

(विशेष:- इस लेख के आरम्भ में बताया गया था कि ज़ाहिदा जी की दादी जद्दनबाई 1930 के दशक की एक बहुत बड़ी फ़िल्मी हस्ती थीं| वो अभिनेत्री थीं, गायिका थीं, फ़िल्म प्रोड्यूसर थीं, डायरेक्टर थीं, और संगीतकार भी थीं| आम धारणा है कि जद्दनबाई हिंदी सिनेमा की पहली महिला संगीतकार थीं| लेकिन वास्तव में जद्दनबाई हिंदी सिनेमा की पहली नहीं बल्कि दूसरी महिला संगीतकार थीं| उन्होंने अपने बैनर, ‘संगीत फ़िल्म्स’ की साल 1935 की फ़िल्म ‘तलाशे हक़’ में संगीत दिया था| उनसे एक साल पहले, साल 1934 की फ़िल्म ‘अद्ल-ए-जहांगीर’ में इशरत सुल्ताना संगीत दे चुकी थीं जो आगे चलकर बिब्बो के नाम से एक स्टार गायिका - अभिनेत्री बनीं| एक तथ्य ये भी है कि जद्दनबाई की तीनों संतानें, अख़्तर हुसैन, अनवर हुसैन और नरगिस अलग अलग पिताओं से थे| दरअसल जद्दनबाई ने तीन शादियां की थीं| उनकी पहली शादी एक संपन्न हिन्दू व्यापारी नरोत्तमदास खत्री उर्फ़ बच्चू भाई से हुई थी जिन्होंने शादी के बाद धर्मपरिवर्तन करके इस्लाम अपना लिया था| ज़ाहिदा के पिता अख़्तर हुसैन इन्हीं बच्चू भाई के बेटे थे| जद्दनबाई के दूसरे पति उस्ताद इरशाद मीरखान एक हारमोनियम वादक थे और वो अनवर हुसैन के पिता थे| जद्दनबाई ने तीसरी शादी रावलपिंडी के एक अमीर खानदान के वारिस मोहनचंद उत्तमचंद त्यागी से की थी, जिन्होंने शादी के बाद इस्लाम अपनाते हुए अपना नाम अब्दुल राशिद रख लिया था| नरगिस इन्हीं अब्दुल राशिद की बेटी थीं|)    

We are thankful to –

(Late) Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.

Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.

Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.

Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support. 


Zahida ji on YT Channel BHD