Monday, August 11, 2025

"Choodi Nahin Mera Dil Hai Dekho Dekho Toote Na" - Zahida


चूड़ी नहीं मेरा दिल है देखो देखो टूटे ना” – ज़ाहिदा

    ........शिशिर कृष्ण शर्मा  

साल 1970 की, देवआनन्द की बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म ‘प्रेमपुजारी’ से एक नयी अभिनेत्री ने फ़िल्मों में कदम रखा था| नाम था, ज़ाहिदा हुसैन| हालांकि फ़िल्मों में वो भले ही नयी थीं लेकिन थीं एक प्रतिष्ठित फ़िल्मी परिवार से| उनकी दादी जद्दनबाई 1930 के दशक की एक हरफ़नमौला कलाकार थीं, वो अभिनेत्री थीं, गायिका थीं, फ़िल्म प्रोड्यूसर थीं, डायरेक्टर थीं, और संगीतकार भी थीं| ज़ाहिदा जी के पिता अख़्तर हुसैन प्रोड्यूसर-डायरेक्टर थे, चाचा अनवर हुसैन मशहूर अभिनेता थे और बुआ नरगिस अपने दौर की सुपरस्टार थीं| 

ज़ाहिदा जी का इंटरव्यू मैंने अगस्त 2003 के दूसरे सप्ताह में, दक्षिण मुम्बई स्थित मालाबार हिल की अनीता बिल्डिंग के उनके फ़्लैट में किया था और ये इंटरव्यू साप्ताहिक सहारा समय के 23 अगस्त 2003 के अंक में छपा था| उनका जन्म 9 अक्टूबर 1944 को मुम्बई में हुआ था| वो कहती हैं, "मेरे पिता अख़्तर हुसैन एक फ़िल्म निर्माता थे और मां इक़बाल बेगम आम घरेलू महिला थीं| मेरे पिता ने ‘रोमियो जूलियट’ (1947) ‘दरोगाजी’ (1949) ‘बेवफ़ा’ (1952) और ‘रात और दिन’ (1967) जैसी फ़िल्में बनाई थीं| सात भाई बहनों में मैं तीसरे नंबर पर थी| 

बुआ नरगिस की मैं सबसे बड़ी फैन थी| वो जब शूटिंग पर जाने से पहले अपने बड़े से ड्रेसिंग टेबल पर बैठकर मेकअप करती थीं तो मैं उन्हें बहुत गौर से देखती थी| मेरी नज़र में वो दुनिया की सबसे खूबसूरत और सबसे गरिमामयी औरत थीं| उन्हें मिलने वाला सम्मान, लोगों का प्यार और शोहरत मुझे बहुत आकर्षित किया करते थे|” 

ज़ाहिदा जी थोड़ी बड़ी हुईं तो जैसा कि फ़िल्मी दुनिया का रिवाज है, फ़िल्मों से जुड़े परिवारों की लड़कियों की तरह उन्हें भी अभिनय के लिए ऑफर आने लगे| पहला ऑफर उन्हें गुरुदत्त का आया जो फिल्म ‘कनीज़’ के लिए ज़ाहिदा जी को साइन करना चाहते थे| लेकिन उस ऑफर को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया| दरअसल गुरूदत्त की इमेज ऐसी बनी हुई थी कि नयी लड़कियों को लांच करने की अपनी घोषणा को वो अमूमन कूड़ेदान में डाल देते थे| और हुआ भी यही| ज़ाहिदा के इंकार के बाद उस फ़िल्म के लिए सिम्मी को साइन किया गया, एकाध दिन की शायद शूटिंग भी हुई और फिर वो फ़िल्म डिब्बे के हवाले कर दी गयी| 

Zahida with Nargis 
ज़ाहिदा जी बताती हैं, “बुआ चाहती थीं कि बजाय फ़िल्मों की तरफ़ ध्यान देने के, पहले मैं अपनी पढ़ाई पूरी करूं| और वैसे भी उन्हें पसंद नहीं था कि हमारे घर की कोई लड़की फिल्मों में काम करे| दोनों भाईयों यानि मेरे पिता और चाचा (अनवर हुसैन) से वो छोटी थीं| लेकिन घर में उनका इतना दबदबा था कि खासतौर से हम तीनों बहनों से सम्बंधित उनके फ़ैसले सभी को मान्य होते थे| निर्माता-निर्देशक एच.एस.रवेल ने साल 1961 की अपनी फ़िल्म ‘कांच की गुड़िया’ के लिए मुझे साइन करना चाहा तो बुआ की असहमति की वजह से मैं वो फ़िल्म नहीं कर सकी| कुछ सालों बाद सिनेमैटोग्राफर फली मिस्त्री द्वारा निर्मित और राज खोसला निर्देशित फ़िल्म ‘साजन की गलियां’ में मुझे देवआनंद और साधना के साथ काम करने का मौक़ा मिला| अभिनय की मेरी हार्दिक इच्छा को देखते हुए बुआ के असहमति के सुर भी धीमे पड़ गए थे| फ़िल्म में मेरा एक राजकुमारी का रोल था| लेकिन कुछ ही दिनों की शूटिंग के बाद वो फ़िल्म पता नहीं क्यों बंद हो गयी| लेकिन इस फ़िल्म में काम करने का मुझे लाभ ज़रूर मिला|” 

देवआनंद जद्दनबाई के परिवार से तो परीचित थे ही, वो अब ज़ाहिदा का काम भी देख चुके थे| उन दिनों वो बतौर निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म ‘प्रेम पुजारी’ की तैयारियों में जुटे हुए थे| फ़िल्म की मेनलीड में ख़ुद देवआनंद और वहीदा रहमान थे| इस फ़िल्म की सेकण्ड हिरोईन के लिए उन्होंने ज़ाहिदा को साइन कर लिया| साल 1970 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘प्रेम पुजारी’ के बनने में काफ़ी समय लगा था और बॉक्स ऑफिस पर भी ये फ़िल्म ठीकठाक ही चली थी| हालांकि ज़ाहिदा जी को उसी दौरान मिली कम बजट की फ़िल्म ‘अनोखी रात’ बहुत तेज़ी से बनकर ‘प्रेम पुजारी’ से दो साल पहले, साल 1968 में ही रिलीज़ होकर सुपरहिट भी हो गयी थी| 

ज़ाहिदा जी बताती हैं, “फ़िल्म ‘अनोखी रात’ के निर्माता एल.बी.लक्ष्मण जब मेरे पास नायिका के रोल का ऑफ़र लेकर आए थे तो उन दिनों ‘प्रेम पुजारी’ की शूटिंग रुकी हुई थी| ‘अनोखी रात’ में संजीव कुमार और परीक्षित साहनी थे| संजीव कुमार उन दिनों बी-ग्रेड आर्टिस्ट माने जाते थे| और फिर फ़िल्म भी ब्लैक एन्ड व्हाइट थी| ऐसे में वो फ़िल्म करने का मेरा मन नहीं हुआ| लेकिन जैसे ही मुझे पता चला कि फ़िल्म की कहानी ऋषिकेश मुकर्जी की है और निर्देशक असित सेन हैं तो बिना देर किये मैंने वो फ़िल्म साइन कर ली| 

Anokhi Raat 

और फिर ‘गैम्बलर’ (1971), ‘तीन चोर’ (1973), ‘प्रभात (1973)’ और ‘शिकवा (1974)’ बनीं| दो अन्य फ़िल्में ‘मुस्कराहट’ और ‘औरत खड़ी बाज़ार में’ पूरी नहीं हो पायी थीं|” 

ज़ाहिदा जी के हाथ से कुछ फ़िल्में निकलीं तो कुछ फ़िल्में उन्होंने ख़ुद ही ठुकरा दी थीं| ज़ाहिदा जी के अनुसार निर्माता टी.सी.दीवान अपनी एक फिल्म में उन्हें लेना चाहते थे| मौखिक तौर पर तमाम शर्तें तय हो चुकी थीं लेकिन इससे पहले कि एग्रीमेंट साइन होता, उस ज़माने की एक बड़ी हिरोईन ने जोड़तोड़ करके वो फिल्म हथिया ली| उधर ज़ाहिदा जी के पारिवारिक मित्र एफ़.सी.मेहरा अपनी फ़िल्म ‘लाल पत्थर’ में उन्हें लेने वाले थे लेकिन ज़ाहिदा जी ने शर्त रख दी कि चूंकि वो राखी गुलज़ार से सीनियर हैं इसलिए टाइटल्स में उनका नाम ऊपर आना चाहिए| नतीजतन वो फ़िल्म से बाहर हो गयीं| साउथ की एक फ़िल्म का ऑफर उन्हें इसलिए ठुकराना पड़ा क्योंकि उस फिल्म में उन्हें जानवरों के साथ काम करना था, जबकि कुत्ते-बिल्लियों के संपर्क में आते ही उन्हें एलर्जी हो जाती थी| 

फ़िरोज़ ख़ान की फ़िल्म ज़ाहिदा जी ने इसलिए ठुकरा दी थी क्योंकि उन दिनों फ़िरोज़ ख़ान सी-ग्रेड स्टंट फ़िल्मों के हीरो हुआ करते थे| ऐसे में फ़िरोज़ ख़ान ने नाराज़ होकर ज़ाहिदा जी से कहा था कि तुम्हें देवआनंद के अलावा किसी और के साथ काम करना ही नहीं है|

ज़ाहिदा जी कहती हैं, “मेरे मन में भी शायद कहीं न कहीं फ़िरोज़ ख़ान की ये बात जड़ें जमाये हुए थी और शायद इसीलिये मैं लगातार बाहरी फ़िल्में ठुकराए भी जा रही थी| मेरे इस रवैये की वजह से इंडस्ट्री में मुझे ‘नकचढ़ी’, ‘घमंडी’, ‘ख़ुद को नरगिस समझती है’, ‘देव साहब के बूते पर बहुत चहकती है’ जैसे विशेषणों से नवाज़ा जाने लगा था| लेकिन देव साहब को लेकर मेरा विश्वास भी ज़्यादा नहीं टिक पाया| बी.आर.चोपड़ा जी ने साल 1972 की अपनी फ़िल्म ‘दास्तान’ में मुझे एक निगेटिव रोल के लिए साइन किया था, जिसका देव साहब ने ये कहकर विरोध किया कि ‘प्रेम पुजारी’ और ‘गैम्बलर’ के बाद वो मुझे तीसरी फ़िल्म में भी बतौर हिरोईन साइन करने जा रहे हैं और ऐसे में मेरे उस निगेटिव का रोल उनकी फिल्म पर बुरा असर पड़ेगा| मजबूरन मुझे बी.आर.चोपड़ा जी की फ़िल्म छोड़ देनी पड़ी थी| और जब देव साहब ने वो तीसरी फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ अनाउंस की तो उसमें मुझे हिरोईन नहीं बल्कि हीरो की बहन के रोल में चुना गया था| ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी| 

उधर मेरे बहनोई और ‘हम दोनों’, ‘तीन देवियां’, ‘गैम्बलर’ जैसी फिल्मों के निर्देशक अमरजीत ने भी मुझसे कह दिया था कि दर्शक तुम्हें देव साहब की हिरोईन के तौर पर देख चुके हैं और अब उनकी बहन के रोल में वो तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे| तुम्हारा करियर ख़त्म हो जाएगा| ऐसे में मुझे फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ छोड़ देनी पड़ी और बहन का वो रोल ज़ीनत अमान के हिस्से में आ गया| और मेरा करियर मेरे इस इंकार की वजह से समाप्त हो गया| मुझे ऑफ़र्स आने बंद हो गए|” 

ज़ाहिदा जी के पिता अख्तर हुसैन के पास कई सालों से एक स्क्रिप्ट तैयार रखी थी, जिसपर वो राजकपूर और नरगिस को लेकर फ़िल्म बनाना चाहते थे लेकिन बना नहीं पाए थे| उस स्क्रिप्ट पर उन्होंने एक बार फिर से फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया| मेनलीड में ज़ाहिदा के साथ विनोद मेहरा और सोनिया साहनी को लिया गया, संगीत की ज़िम्मेदारी शंकर जयकिशन को दी गयी और फ़िल्म का टाइटल रखा गया, ‘नीलिमा’| साल 1975 में रिलीज़ हुई ये फ़िल्म ज़ाहिदा जी के फ़िल्मी करियर की अंतिम फ़िल्म थी, क्योंकि इस फ़िल्म के बाद ज़ाहिदा जी ने शादी करके फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कहा और अपनी गृहस्थी संभाल ली|

दरअसल फ़िल्म ‘नीलिमा’ के फायनेंसर के.एन.(केसरीनन्दन) सहाय थे जो मुज़फ़्फ़रपुर बिहार के एक ज़मींदार परिवार से थे और अमेरिका से कैमिकल इंजीनियरिंग में डिग्री लेने के बाद कैमिकल्स के एक बड़े कारोबारी बन चुके थे| ‘नीलिमा’ की शूटिंग के दौरान सहाय जी की ज़ाहिदा जी से दोस्ती हुई जो पहले प्यार में और फिर शादी में बदल गयी थी| इस शादी से दो बेटों बृजेश और नीलेश का जन्म हुआ|

ज़ाहिदा जी के पति के.एन.सहाय का निधन साल 2020 में हुआ| उनके बड़े बेटे बृजेश फार्मास्यूटिकल्स के कारोबार में हैं और छोटे बेटे नीलेश एक फिल्म निर्माता हैं जो ‘एंजेल’ (2011) और ‘स्क्वैड’ (2021) जैसी फ़िल्में बना चुके हैं| ज़ाहिदा जी कहती हैं, “मेरे बारे में आम लोगों को ग़लतफ़हमी है कि शादी के बाद मैं मुम्बई छोड़कर बिहार में जा बसी हूं| लेकिन मैं मुम्बई में ही जन्मी, मुम्बई में ही रहकर मैंने ज़िंदगी के तमाम पड़ाव देखे और अब तो मैं दादी भी बन चुकी हूं| साईंबाबा में मेरी अगाध श्रद्धा है और उनकी भक्ति मुझे असीम शांति देती है|” 

(विशेष:- इस लेख के आरम्भ में बताया गया था कि ज़ाहिदा जी की दादी जद्दनबाई 1930 के दशक की एक बहुत बड़ी फ़िल्मी हस्ती थीं| वो अभिनेत्री थीं, गायिका थीं, फ़िल्म प्रोड्यूसर थीं, डायरेक्टर थीं, और संगीतकार भी थीं| आम धारणा है कि जद्दनबाई हिंदी सिनेमा की पहली महिला संगीतकार थीं| लेकिन वास्तव में जद्दनबाई हिंदी सिनेमा की पहली नहीं बल्कि दूसरी महिला संगीतकार थीं| उन्होंने अपने बैनर, ‘संगीत फ़िल्म्स’ की साल 1935 की फ़िल्म ‘तलाशे हक़’ में संगीत दिया था| उनसे एक साल पहले, साल 1934 की फ़िल्म ‘अद्ल-ए-जहांगीर’ में इशरत सुल्ताना संगीत दे चुकी थीं जो आगे चलकर बिब्बो के नाम से एक स्टार गायिका - अभिनेत्री बनीं| एक तथ्य ये भी है कि जद्दनबाई की तीनों संतानें, अख़्तर हुसैन, अनवर हुसैन और नरगिस अलग अलग पिताओं से थे| दरअसल जद्दनबाई ने तीन शादियां की थीं| उनकी पहली शादी एक संपन्न हिन्दू व्यापारी नरोत्तमदास खत्री उर्फ़ बच्चू भाई से हुई थी जिन्होंने शादी के बाद धर्मपरिवर्तन करके इस्लाम अपना लिया था| ज़ाहिदा के पिता अख़्तर हुसैन इन्हीं बच्चू भाई के बेटे थे| जद्दनबाई के दूसरे पति उस्ताद इरशाद मीरखान एक हारमोनियम वादक थे और वो अनवर हुसैन के पिता थे| जद्दनबाई ने तीसरी शादी रावलपिंडी के एक अमीर खानदान के वारिस मोहनचंद उत्तमचंद त्यागी से की थी, जिन्होंने शादी के बाद इस्लाम अपनाते हुए अपना नाम अब्दुल राशिद रख लिया था| नरगिस इन्हीं अब्दुल राशिद की बेटी थीं|)    

We are thankful to –

(Late) Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.

Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.

Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.

Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support. 


Zahida ji on YT Channel BHD 



   








Saturday, July 12, 2025

'Tum Mujhe Bhool Bhi Jao To Ye Haq Hai Tumko' - Shubha Khote

|| श्रद्धांजलि ||
OUR MENTORS 


     SHRI HARISH RAGHUVANSHI               SHRI RAJNI KUMAR PANDYA
             Surat (Gujrat)                                           Ahmedabad (Gujrat) 
 (15 October 1949 - 27 August 2024)                    (6 July 1938 - 15 March 2025)


तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको’ – शुभा खोटे 

                                       ...............शिशिर कृष्ण शर्मा


मुंबई के उपनगर विलेपारले (पश्चिम) का सुप्रसिद्ध जुहू बीच के इलाक़े का मिलीटरी रोड| इसी रोड पर है बीते दौर के हिन्दी सिनेमा की जानीमानी अभिनेत्री शुभा खोटे का ‘शुभांगी बंगला’| साल 2003 के अंतिम सप्ताह में मैंने इसी बंगले में साप्ताहिक ‘सहारा समय’ के अपने कॉलम ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ के लिए शुभा जी का इंटरव्यू किया था, जो 4 अक्तूबर 2003 के अंक में प्रकाशित हुआ था| 

शुभा खोटे एक फ़िल्मी परिवार से थीं| उनके पिता नंदू खोटे साईलेन्ट सिनेमा के दौर से बतौर अभिनेता फ़िल्मों से जुड़े हुए थे और मराठी नाटकों के भी जाने माने अभिनेता और निर्माता-निर्देशक थे| मशहूर अभिनेत्री दुर्गा खोटे रिश्ते में शुभा जी की बुआ थीं तो उस दौर के चर्चित अभिनेता एस.बी.नायमपल्ली शुभा जी के मामा थे| मशहूर चरित्र अभिनेता और फ़िल्म ‘शोले’ के कालिया यानि विजु खोटे शुभा जी के भाई थे|

शुभा जी का जन्म 30 अगस्त 1936 को मुंबई में हुआ था| कॉन्वेंट से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने विल्सन कॉलेज में अंग्रेज़ी और फ्रेंच विषयों के साथ बी.ए. में दाखिला ले लिया था| तैराकी और साईकिलिंग शुभा जी के पसंदीदा खेल थे और उन्होंने अंतरकॉलेज तैराकी चैम्पियनशिप जीतने के साथ ही साल 1952 से 1956 तक लगातार ‘ऑलइंडिया साईकिलिंग चैम्पियनशिप’ भी जीती थी| 

शुभा जी के अनुसार फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में मूर्तिकार की भूमिका करने वाले अभिनेता कुमार की पत्नी, मशहूर अभिनेत्री और फ़िल्म निर्मात्री प्रोमिला शुभा जी से बहुत स्नेह करती थीं| वो एक अच्छी कास्टिंग डायरेक्टर के तौर पर भी जानी जाती थीं| साल 1954 में अभिनेत्री लीला चिटणिस ने फ़िल्म ‘आज की बात’ से अपने प्रोडक्शन हाउस ‘लीला चिटणिस प्रोडक्शंस’ की नींव रखी| 

Leela Chitnis

‘आज की बात’ के हीरो थे लीला जी के बेटे अजीत चिटणिस, संगीतकार थे स्नेहल भाटकर| इस फ़िल्म के लिए कास्टिंग प्रमिला जी कर रही थीं| फ़िल्म की हिरोईन के रोल के लिए उन्होंने शुभा खोटे का नाम सुझाया और शुभा जी को चुन लिया गया| शुभा जी लगातार एक महीना रोज़ाना रिहर्सल के लिए लंबा फ़ासला तय करके माटुंगा स्थित लीला जी के घर जाती रहीं| लेकिन मुहूर्त से ठीक पहले उन्हें अपनी वो पहली ही फ़िल्म छोड़ देनी पड़ी क्योंकि एग्रीमेन्ट की कुछ शर्तें उनके पिता को जमी नहीं| ऐसे में शुभा जी सबकुछ भुलाकर वापस अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गयीं| 

उन्हीं दिनों दीपावली की छुट्टियों के दौरान जब शुभा जी पुणे में थीं तो उन्हें एक मराठी फ़िल्म ‘शुभमंगल’ में काम करने का मौक़ा मिला| ये फ़िल्म पूरी बनने के बाद भी रिलीज़ तो नहीं हो पायी लेकिन फ़िल्मी हलकों में इसने शुभा जी को एक अभिनेत्री के तौर पर पहचान ज़रूर दे दी| उधर फ़िल्म ‘आज की बात’ साल 1955 में रिलीज़ हुई और उसमें शुभा जी की जगह चित्रा आ गई थीं| 

Amey Chakravorty

शुभा जी बताती हैं, ‘जब मैंने 2 मिनट 58 सेकंड में एक मील का रिकार्ड बनाकर ‘ऑलइंडिया साईकिलिंग चैम्पियनशिप’ जीती तो ‘स्क्रीन’ ने फ़िल्म पत्रिका होते हुए भी मेरी फ़ोटो छापी, जिस पर उस ज़माने के मशहूर निर्देशक अमेय चक्रवर्ती की नज़र पड़ी| उन दिनों वो फ़िल्म ‘सीमा’ बना रहे थे| इस फ़िल्म के लिए वो एक ऐसी लड़की की तलाश में थे जो साइकिल चलाना जानती हो| उन्होंने फ़िल्म के डिस्ट्रीब्यूटर एम.बी.कामत को मुझसे मिलने के लिए भेजा| उस वक़्त मैं और भाई विजु घर में अकेले थे और जैसा कि लड़कपन में सभी भाईबहनों में होता है, हम भी लड़ाई-झगड़े में मशगूल थे| खेलों से जुड़ी होने की वजह से मेरा रहनसहन, पहनावा और तौरतरीक़े लड़कोंनुमा हुआ करते थे| मैंने दरवाज़ा खोला और कामत जी के पूछने पर कहा कि शुभांगी (मेरा असली नाम) मैं ही हूं, तो उनके चेहरे के भाव बदल गए| काफ़ी समय बाद मुझे पता चला था कि कामत जी ने वापस लौटकर अमेय चक्रवर्ती से कहा था उस लड़की में लड़कियों वाली तो कोई बात ही नहीं है और वो खासी मर्दाना लगती है| लेकिन तब भी मैं उस रोल के लिए चुन ली गयी थी| और इस तरह साल 1955 की ‘सीमा’ से मैंने फ़िल्मों में कदम रखा| इस फ़िल्म में मेरा तकिया कलाम ‘क्या बात है’ बहुत मशहूर हुआ था|’ 


‘सीमा’ के एक सीन में शुभा जी को साईकिल से एक उचक्के का पीछा करना था| शूटिंग के लिए खासतौर से प्रतियोगिताओं के लिए बनी फिक्सव्हील साईकिल लाई गयी| टेक में शुभा जी ने तेज़ गति से साईकिल दौड़ाई और जैसे ही ब्रेक लगाया, मुंह के बल ज़मीन पर आ गिरीं| उन्हें इतनी गंभीर चोटें आयीं कि चेहरे पर पूरे पैंतीस टांके लगाने पड़े थे| ये दुर्घटना मई 1955 में घटी थी| लेकिन शुभा जी के साथ दुर्घटनाओं का सिलसिला जारी रहा और उन्हें जीवन में कुल सात दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा| ‘सीमा’ के अगले ही साल, अप्रैल 1956 में एक मराठी फ़िल्म की शूटिंग के दौरान जीप के ब्रेक फ़ेल हो जाने पर उनका पैर कट गया था और उसमें गैंगरीन फैल गया था| उनके साथ तीसरी बड़ी दुर्घटना साल 2000 में घटी थी जब एक टीवी शो के शूट में सीढ़ी उतरते समय उनका पैर फिसल गया| ‘सीमा’ के दौरान घटी दुर्घटना का उनके मन पर कुछ ऐसा गहरा असर था कि चेहरे को बचाने की कोशिश में हाथ में फ्रैक्चर हो गया| ऐसे में आने वाले कई एपिसोड्स की शूटिंग उन्हें प्लास्टर चढ़े हाथ के साथ करनी पड़ी थी|

Shubha khote with Mehmood & Dhumal

शुभा जी बताती हैं, ‘अमेय चक्रवर्ती कहते थे कि मैं कॉमेडी बहुत अच्छी करती हूं| ‘सीमा’ के बाद मैंने उनकी फ़िल्म ‘देख कबीरा रोया’ में भी काम किया था| लेकिन साल 1957 में अचानक ही उनकी मृत्यु हो गयी थी| उसके बाद मैंने ‘पेइंग गेस्ट’, ‘मुजरिम’, ‘अनाड़ी’, ‘सांझ और सवेरा’, ‘बरखा’, ‘दीदी’ जैसी कई फ़िल्मों में काम किया और इनमें से लगभग सभी फिल्में हिट रहीं| फ़िल्म ‘चंपाकली’ में मैंने टाइटल रोल किया था| ‘दीदी’, ‘पिकनिक’, ‘हीरामोती’, ‘रोड नं.303 जैसी छह सात फिल्में मैंने बतौर हिरोईन कीं| फ़िल्म ‘पेइंग गेस्ट’ मैंने देखी ही नहीं क्योंकि इसमें मेरा रोल खलनायिका का था, जो करना मुझे अच्छा नहीं लगा था| साल 1959 की फ़िल्म ‘छोटी बहन’ से मेरी पहचान एक हास्य अभिनेत्री की बन गयी| महमूद और धूमल के साथ मेरी तिगड़ी खूब जमी| उस दौर में मैंने ‘ससुराल’, ‘हमराही’, ‘बेटी बेटे’, ‘दिल तेरा दीवाना’, ‘भरोसा’, ‘गोदान’, ‘घराना’, ‘ज़िद्दी’, ‘लव इन टोक्यो’ जैसी कई फ़िल्में कीं| ‘हमसे आया न गया’, ‘तुम मुझे भूल भी जाओ’, ‘तड़पाओगे तड़पा लो’, ‘मैं रंगीला प्यार का राही’, ‘वो दिन याद करो, ‘सलामे हसरत कुबूल कर लो’, ‘अजहूं न आये बालमा’, ‘जाऊंगी ससुराल दुल्हन बन के’ जैसे मुझ पर फ़िल्माए गये सभी गीत भी हिट रहे|’

Shubha Khote with Husband

21 जनवरी 1964 को शुभा खोटे का विवाह हुआ| उनके पति दिनेश एम. बलसावर बर्मा शैल में उच्चाधिकारी थे| लेकिन शुभा की मां लीला खोटे बेटी के इस प्रेमविवाह के पूरी तरह खिलाफ़ थीं| इसका शायद एक कारण तो ये था कि उस समय शुभा अपने करियर की ऊंचाईयों पर थीं, और दूसरा, दिनेश पहले से विवाहित और दो बेटों का पिता थे, हालांकि उनकी पत्नी का निधन हो चुका था| मां का ये गुस्सा शुभा की बेटी के जन्म के बाद ही कुछ कम हुआ था| 

शुभा जी का कहना था, “विवाह के बाद लोगों ने बिना मुझसे बात किये खुद ही धारणा बना ली कि मैं फिल्मों से अलग हो चुकी हूं| ऐसे में स्वाभाविक रूप से मेरे पास काम कम होता चला गया| हालांकि उस दौरान साल 1968 में मैं निर्माता और निर्देशक भी बन गयी और वो फ़िल्म थी, मराठी भाषा की ‘चिमुकला पाहुना’| और फिर 1970 के दशक के मध्य में मेरे पति का ट्रांसफर लंदन हुआ तो मैं भी उनके साथ चली गयी| और इस तरह फ़िल्मों से मेरा रिश्ता, भले की कुछ समय के लिए ही सही, पूरी तरह टूट गया| 

कुछ सालों बाद हम भारत वापस लौटे तो मुझे फ़िल्मों में धमाकेदार कमबैक करने का सुनहरा मौक़ा मिला| मेरी वो कमबैक फ़िल्म थी, साल 1981 की ब्लॉकबस्टर, ‘एक दूजे के लिए’| मैंने इस फ़िल्म में नायिका रति अग्निहोत्री की मां का रोल किया था, जो निगेटिव होने के साथ साथ कॉमिकल कहीं ज्यादा था|”  

करियर के इस नये दौर में शुभा जी ने ‘नसीब’, ‘कुली’, ‘जुनून’, ‘किशन कन्हैया’, ‘कोयला’ और ‘मैं प्रेम की दीवानी हूं’ जैसी फ़िल्मों के अलावा ‘ज़बान संभाल के’, ‘बा बहू और बेबी’ और ‘खट्टा मीठा’ जैसे टीवी शोज़ में भी काम किया| साथ ही शुभा जी रंगमंच पर भी सक्रिय रहीं और देश-विदेश में होने वाले हिन्दी और अंग्रेज़ी नाटकों के मंचन में लगातार हिस्सा लेती रहीं| 

Bhawana Balsawar

शुभा खोटे के बड़े बेटे परमानन्द अमेरिका में रहते हैं और छोटे बेटे अश्विन फ़िल्मों में साउन्ड रेकॉर्डिस्ट हैं| उनकी बेटी भावना बलसावर भी टीवी शोज़ की एक जानीमानी अभिनेत्री हैं| शुभा जी के पति दिनेश एम. बलसावर अब इस दुनिया में नहीं हैं|

आने वाली 30 अगस्त 2025 को शुभा खोटे 89 साल की होने जा रही हैं| 

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(Late) Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.

Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.

Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.

Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support. 


Shubha Khote On YT Channel BHD



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