Thursday, August 8, 2013

“Satguru Teri Oat” - Karunesh Thakur

सतगुरू तेरी ओट” - करूणेश ठाकुर

         .............शिशिर कृष्ण शर्मा

(बीते हुए दिनके अभिन्न अंग श्री गजेन्द्र खन्ना द्वारा संचालित वेबसाईट www.anmolfankaar.com में सर्वप्रथम प्रकाशित|)

आज़ादी से पहले के हिंदी सिनेमा और उस दौर के स्टूडियो सिस्टम का ज़िक़्र होते ही ज़हन में जो नाम सबसे पहले उभरते हैं वो हैं मुम्बई के रणजीत, बॉम्बे टॉकीज़ और वाडिया मूवीटोन, कोल्हापुर का जयाप्रभा, पुणे का प्रभात, कोलकाता का न्यू थिएटर्स और लाहौर का पंचोली आर्ट्स। ये तमाम वो स्टूडियोज थे जो उच्चकोटि की रचनात्मकता के बल पर हिंदुस्तानी सिनेमा को समृद्ध करते हुए सिनेमा के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज कराने में कामयाब हुए थे। लेकिन इन बड़े नामों के बीच गाहे-बगाहे कुछ एक ऐसे स्टूडियोज़ भी अस्तित्व में आए जो ख़ुद को भले ही ज़्यादा समय तक ज़िंदा रख पाए हों, लेकिन हिंदुस्तानी सिनेमा के इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए उन नामों को नजरअंदाज़ कर पाना मुनासिब नहीं होगा। ऐसे ही अल्पजीवी स्टूडियोज़ में से एक था लाहौर का लीलामंदिर, जिसकी नींव ठाकुर हिम्मत सिंह ने रखी थी। ठाकुर हिम्मत सिंह उन राजपूत सरदारों के वंशज थे जिन्हें कुछ ख़ास वजहों से उत्तर भारत (अब उत्तरप्रदेश) का अपना घरबार छोड़कर महाराजा रणजीत सिंह की शरण में जाना पड़ा था और महाराजा ने उन परिवारों को लाहौर के मोची दरवाज़े के इलाक़े में बसने की इजाज़त दी थी। लाहौर में बनने वाली साईलेंट फ़िल्मों के जाने-माने अभिनेता ठाकुर हिम्मत सिंह ने साल 1940 में बनी पंजाबी फ़िल्मदुल्ला-भट्टीमें खलनायक की भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म के निर्देशक रूप के.शोरी और संगीतकार पंडित गोबिंदराम थे।

दुल्ला-भट्टीको इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि जाने-माने संगीतकार .पी.नैयर के जीवन की ये पहली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में अज़ीज़ कश्मीरी के लिखे गीतरब दी जनाब विचों ऐहो दिल मंगदा, अंबियां दा बाग होवे, बदला दी छांव होवेके कोरस में हिस्सा लेने के साथ साथ वो इस गीत में परदे पर भी नज़र आए थे।

लीलामंदिर के बैनर की पहली फ़िल्म पंजाबी में बनीकमलीथी जो साल 1946 में प्रदर्शित हुई थी। इस फ़िल्म के निर्देशक थे प्रकाश बख़्शी और संगीतकार इनायत हुसैन। मुख्य भूमिकाओं में थे अमरनाथ, किरण (शौक़त) और आशा पोसले। शौक़त और आशा संगीतकार इनायत हुसैन की बेटियां थीं। इस फ़िल्म ने अपने वक़्त में अच्छा-ख़ासा बिज़नेस किया था। साल 1947 में लीलामंदिर के बैनर में हिंदी फ़िल्म बेदर्दी का निर्माण शुरू किया गया। इस फ़िल्म के निर्देशन का ज़िम्मा एक बार फिर से प्रकाश बख़्शी को सौंपा गया। ठाकुर हिम्मत सिंह के बेटे करूणेश ने मैट्रिक पास करने के बाद इस फ़िल्म में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर अपना करियर शुरू किया था। उस वक़्त उनकी उम्र 18 साल थी।अनमोल फ़नकार डॉट कॉम के साथ हुई मुलाक़ात के दौरान करूणेश ठाकुर साहब ने बताया, ‘उन दिनों देहरादून में मेरी मौसी का मक़ान बन रहा था। 3 अगस्त 1947 को हमने लाहौर में फ़िल्म 'बेदर्दी' की शूटिंग शुरू की और आगे की शूटिंग के लिए 12 अगस्त को यूनिट के साथ देहरादून पहुंचकर हम मौसी के अधबने मक़ान में ठहरे। लेकिन तभी मुल्क़ का बंटवारा हुआ और दंगे भड़क उठे। यूनिट को दंगों से बचाने के लिए हमें देहरादून छोड़कर रातोंरात कोलकाता जाना पड़ा। बेहद परेशानियों के बीच हमने कोलकाता में फ़िल्म पूरी की लेकिन वो सेंसर में अटक गयी। हमें उसका नाम तक बदलकरडॉक्टर रमेशरख देना पड़ा लेकिन वो लालफ़ीताशाही की ऐसी शिकार बनी कि रिलीज़ ही नहीं हो पायी

(श्री करूणेश ठाकुर द्वारा दी गयी सूचना के विपरीत हिंदी फ़िल्म गीतकोश भाग-2 में दिए गए विवरण के अनुसार फिल्मडॉक्टर रमेशसाल 1949 में प्रदर्शित हुई थी। इस विषय में श्री हरमंदिर सिंह हमराज़ का कहना है कि हिंदी फ़िल्म गीतकोश का आधार फ़िल्म का सेंसर सर्टिफ़िकेट होता है और फ़िल्म वास्तव में प्रदर्शित हुई या नहीं, ये बात उनके लिए बेमानी है। उनके अनुसार चूंकि फ़िल्म डॉक्टर रमेश को साल 1949 में सेंसर सर्टिफ़िकेट मिल चुका था इसलिए इस फ़िल्म कोप्रदर्शितकी श्रेणी में रखा गया है।

उस दौर को याद करते हुए करूणेश जी कहते हैं, ‘बंटवारे की वजह से लाहौर वापसी के तमाम रास्ते बंद हो चुके थे। फ़िल्म के अटक जाने से सारा पैसा डूब गया था। फ़ाक़ाकशी की हालत में हमें मजबूरन देहरादून वापस आना पड़ा। माता-पिता के अलावा घर में एक छोटा भाई और तीन बहनें थीं। देहरादून आकर मैं दो रूपए रोज़ पर जनगणना ऑफ़िस में नौकरी करने लगा और पिताजी लखनऊ जाकर सरकार के लिए डॉक्यूमेंटरी फ़िल्में बनाने लगे। लेकिन घर के माली हालात संभल ही नहीं पाए। फिर एक रोज़ महज़ दस रूपए जेब में रखकर मैंने देहरादून छोड़ा और अकेला ही मुंबई चला आया। ये साल 1952 का वाक़या है

मुंबई में करूणेश जी की मुलाक़ात कोलकाता के उनके एक दोस्त रोशनलाल मल्होत्रा से हुई। फौज में नौकरी कर रहे मल्होत्रा का भी मुंबई में कोई ठौर-ठिकाना नहीं था इसलिए दोनों दादर की एक लॉज में ठहरे जहां उन्हें एक रूपया रोज़ाना के क़िराए पर बिस्तर मिल गए। अपने दौर के जाने-माने चरित्र-अभिनेता रमेश ठाकुर (संलग्न चित्र मेंकरूणेश जी के मामा थे, जिनका दादर के बसंती म्यूज़िक हॉल के पास दो कमरों का मक़ान ख़ाली पड़ा था। कुछ दिनों बाद दादर की लॉज छोड़कर करूणेश जी और मल्होत्रा उस मक़ान में रहने लगे। करूणेश जी बताते हैं, ‘छत का इंतज़ाम हुआ तो हम बेफ़िक़्र हो गए लेकिन अचानक एक रोज़ घर के सामने एक क़त्ल होते देखा तो हमने डरकर वो जगह छोड़ दी। उन्हीं दिनों लेखक सी.एल.काविश (चुन्नीलाल नागिया) से मुलाक़ात हुई जो पेशावर के रहने वाले थे और जिनसे हमारी लाहौर से जानपहचान थी। बंटवारे से कुछ रोज़ पहले निर्माता-निर्देशक एच.एस.रवेल उन्हें अपने साथ कोलकाता ले गए थे, जहां उन्होंने रवेल की फ़िल्मझूठी कसमेंके संवाद लिखे थे। 1948 में प्रदर्शित हुई फ़िल्मझूठी कसमेंके मुख्य कलाकार रॉबिन मजूमदार, रमोला, हीरालाल, रूपलेखा, इफ़्तेख़ार और सुंदर और संगीतकार जी..चिश्ती थे। बंटवारे के वक़्त काविश कोलकाता में ही थे लेकिन उनका परिवार लाहौर से देहरादून गया था।

उधर काविश कोलकाता से मुंबई चले आए थे। मुंबई में काविश की सिफ़ारिश पर मुझे मक्खनलाल जैन और राजेन्द्र जैन की कम्पनीफ़िल्मकारमें एप्रेंटिस की नौकरी मिल गयी| इससे पहलेफ़िल्मकारके बैनर मेंछोटी भाभी(1950), दीदार (1951) औरघुंघरू(1952) जैसी फ़िल्मों का निर्माण किया जा चुका था  

फ़िल्मकार की जिस फ़िल्म से करूणेश जी ने मुंबई में करियर शुरू किया था वो थीमान’, जो साल 1954 में प्रदर्शित हुई थी। इसके मुख्य कलाकार थे अजित, चित्रा, जागीरदार, कुमार, अचला सचदेव, दुर्गा खोटे और यशोधरा काट्जू, संगीत अनिल बिस्वास का था और निर्देशक थे डॉ.सफ़दरआह रूक-रूक कर बनी इस फ़िल्म ने निर्माताओं को आर्थिक रूप से बहुत नुक़सान पहुंचाया था जिससे उबरने के लिए उन्होंने दिलीप कुमार और नूतन को लेकर फ़िल्मशिकवाशुरू की। नायक-नायिका की तरह ही फिल्म के निर्देशक रमेश सहगल भी उस दौर का एक बड़ा नाम थे। लेकिन फ़िल्मशिकवाडिब्बे में चली गयी और आर्थिक संकटों से जूझ रही कंपनीफिल्मकारबंद हो गयी।

फ़िल्म 'शिकवा' में करूणेश जी रमेश सहगल के असिस्टेण्ट थे। उसी फ़िल्म में चंदर सहगल नाम के एक और असिस्टेंट थे जिनसे करूणेश जी की अच्छी दोस्ती हो गयी थी।फ़िल्मकारबंद हुई तो करूणेश जी को ज्योति स्टूडियो की फ़िल्मपातालपरीमें असिस्टेंट की नौकरी मिल गयी जिसके निर्देशक एस.पी.बख़्शी थे। उधर चंदर सहगल कोदीप प्रदीपमें बतौर असिस्टेंट रख लिया गया।दीप प्रदीपअभिनेता प्रदीप कुमार और निर्माता दीप खोसला की साझेदारी वाली कंपनी थी। उसी दौरान करूणेश जी ने निर्माता देव जौली की फ़िल्मकारवांमें निर्देशक रफ़ीक़ रिज़वी को भी असिस्ट किया। फ़िल्म कारवां साल 1956 में प्रदर्शित हुई थी।

करूणेश जी बताते हैं, ‘एस.पी.बख़्शी को फ़िल्मिस्तान की फ़िल्मसुन तो ले हसीनामिली तो उन्होंने फ़िल्म पातालपरी बीच ही में छोड़ दी। ऐसे में निर्माता ने पातालपरी को पूरा करने की ज़िम्मेदारी मुझे दे दी। जयराज, शकीला, तिवारी, कुमकुम, रमेश ठाकुर और यशोधरा काट्जू की भूमिकाओं वाली फ़िल्मपातालपरीके संगीतकार थे एस.मोहिंदर और इसमें मेरा नामसह-निर्देशकके तौर पर दिया गया था। ये फ़िल्म 1957 में प्रदर्शित हुई थी। उधरदीप प्रदीपमें मेरे दोस्त चंदर सहगल को फ़िल्मएक शोलासे बतौर स्वतंत्र निर्देशक ब्रेक मिला।

साल 1958 में प्रदर्शित हुईएक शोलाबड़े बजट की फ़िल्म थी जिसके मुख्य कलाकार थे प्रदीप कुमार, माला सिंहा, जवाहर कौल, शुभा खोटे, नज़ीर हुसैन, धूमल और टुनटुन, संगीत मदनमोहन का था और फ़िल्म के संवाद नासिर हुसैन ने लिखे थे। मैंने इस फ़िल्म में चंदर सहगल के चीफ असिस्टेंट तौर पर काम किया था। इसके अलावा चंदर सहगल और मोहन कुमार के साथ मिलकर इस फ़िल्म का स्क्रीनप्ले भी लिखा था। रमेश सहगल के ही असिस्टेंट मोहन कुमार ने आगे चलकरआस का पंछी’, ‘अनपढ़’, ‘आई मिलन की बेला’, ‘आप की परछाईयां’, ‘आप आए बहार आई’, ‘अमीरग़रीब’, ‘आपबीती’, ‘अवतारऔरअमृतजैसी कई हिट फ़िल्में बनाईं।एक शोलाके दौरान मुझेदीप प्रदीपकी एक शॉर्ट फ़िल्मनटखट चंदूनिर्देशित करने का मौक़ा भी मिला

कुछ वक़्त बाद प्रदीप कुमार और दीप खोसला अलग हो गए। दीप खोसला ने स्वतंत्र रूप से फ़िल्मबंटवाराबनाने का फ़ैसला किया तो इसके निर्देशन की ज़िम्मेदारी करूणेश जी को दे दी। सी.एल.काविश के उपन्यास पर बनी और साल 1961 में प्रदर्शित हुई इस सामाजिक फ़िल्म के संगीतकार एस.मदन थे। 

फ़िल्म बंटवारा के गीत अपने दौर में बेहद मशहूर हुए थे, जिनमें ख़ासतौर से रफ़ी-आशा का गाया दोगानाये रात ये फ़िज़ाएं, फिर आएं या आएं, आओ शमां जला के हम आज मिल के गाएंआज भी अपनी ताज़गी बनाए हुए है। करूणेश जी के मुताबिक़ इस गीत की मूल पंक्ति ‘...आओ शमां बुझा के हम आज दिल जलाएंको सेंसर के ऐतराज़ की वजह से बदलकर ‘...आओ शमां जला के हम आज मिल के गाएंकरना पड़ा था, हालांकि रेकॉर्ड्स और ऑडियो सीडीज़ पर ये गीत मूल रूप में ही मौजूद है।

उधर प्रदीप कुमार ने चंदर सहगल के निर्देशन में स्वतंत्र रूप से फ़िल्ममिट्टी में सोनाका निर्माण शुरू किया। 1960 में प्रदर्शित, और .पी.नैयर द्वारा संगीतबद्ध इस फ़िल्म के नायक-नायिका थे प्रदीपकुमार और माला सिंहा। इस फ़िल्म का, आशा भोंसले का गाया गीतपूछो ना हमें हम उनके लिए क्या क्या नज़राने लाए हैं...’ आज भी अपनी लोकप्रियता को बनाए हुए है। बदक़िस्मती से इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान घटी एक दुर्घटना में निर्देशक चंदर सहगल का देहांत हो गया था। उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 30 बरस थी। अपने क़रीबी दोस्त की मौत का ग़म करूणेश जी के दिल में आज भी है। (इससे संबंधित पूरा विवरण कृपया साथ दिए गए वीडियो में सुनिए।


करूणेश जी बताते हैं, ‘फ़िल्म बंटवारा की कामयाबी के बाद मुझे कई फ़िल्में मिलीं। इनमें निर्माता बेनी तलवार की फ़िल्मआगे तेरी मर्ज़ीऔर निर्माता एम.आर.सेठ की बीनाराय-मनोजकुमार की जोड़ी की फ़िल्म के अलावा सायरा-शम्मी कपूर की जोड़ी की भी एक फ़िल्म शामिल थी। लेकिन एक-एक करके सभी फ़िल्में बंद होती चली गयीं।

ऐसे में मैंने ख़ुद ही प्रोड्यूसर बनने का फ़ैसला करते हुए पंजाबी फ़िल्मसात सालियांबनाई। ये फ़िल्म ज़बर्दस्त हिट रही। इसके बाद मैंने हिंदी फ़िल्मचोर दरवाज़ाशुरू की लेकिन ये फ़िल्म भी चार रील बनने के बाद बंद हो गयी

साल 1968 में करूणेश जी ने सी.एल.काविश के उपन्यास पर फ़िल्मआंचल के फूलबनाई जिसके निर्माता थे एम.आर.सेठ। सज्जन, कामिनी कौशल, जीवन, जयंत, मदन पुरी, सुंदर और उल्हास के अभिनय से सजी और परिवार नियोजन पर बनी इस फ़िल्म के संगीतकार थे वेद सेठी। फ़िल्मआंचल के फूलको उस साल का राष्ट्रपति पुरस्कार मिला था। करूणेश जी कहते हैं, ‘राष्ट्रपति पुरस्कार का मिलना निश्चित तौर पर मेरे लिए गौरव की बात थी लेकिन मेरे करियर को इसका कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। जो भी बड़ी फ़िल्में मैंने शुरू की थीं वो सभी अधूरी रह गयी थीं। मजबूरन मुझेभावना(1972), ‘बाज़ीगर(1972), ‘अलबेली(1974), औरशादी से पहले(1980) जैसी कम बजट और छोटी स्टार कास्ट वाली फ़िल्में करनी पड़ीं, हालांकि उनके स्तर को लेकर मैंने कोई भी समझौता नहीं किया

पातालपरीऔरएक शोलाके अलावा करूणेश जी नेमैं और मेरा भाई(1961), ‘दलाल नं. वन(2000) और पंजाबी कीसत गुरू तेरी ओट’, ‘नदियों विछड़े नीर’, ‘खालसा मेरो रूप है ख़ासजैसी फ़िल्में भी लिखीं। और फिर बढ़ती उम्र की वजह से शोबिज़ से अलग होकर साल 2000 में वो वापस देहरादून चले गए।

करूणेश ठाकुर अब देहरादून के करनपुर स्थित पुश्तैनी मक़ान में अपने छोटे भाई और बहन के साथ रहते हैं। उनकी पत्नी और दो बहनों का देहांत हो चुका है। छोटी बहन सुश्री कमलेश ठाकुर देहरादून के मशहूर मार्शल स्कूल से हिंदी शिक्षिका के पद से रिटायर्ड हैं और शादीशुदा बेटी रोहिणी पति के साथ मुंबई में रहती है। करूणेश जी फ़िलहालउत्तराखण्ड फ़िल्म चैम्बर ऑफ़ कॉमर्सके वाईस प्रेसिडेंट पद पर कार्यरत हैं। साल 1999 में उन्हें उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री सूरजभान द्वारा नागरिक परिषद केके.एन.सिंह फ़िल्म विद्या दून रत्न पुरस्कारसे सम्मानित किया गया था।  

दिनांक 14 दिसम्बर 2011 की शाम देहरादून स्थित निवासस्थान पर हुई इस बातचीत के अंत में करूणेश जी कहते हैं, ‘कभी कभी सोचता हूं, अगर मेरी फ़िल्में अधूरी रह गयी होतीं तो शायद करियर की दिशा कुछ और ही होती। लेकिन फिर लगता है, सिवाकर्मके, इंसान के बस में और कुछ है भी तो नहीं

करुणेश ठाकुर जी का निधन 3 जुलाई 2013 को देहरादून में हुआ|


We are thankful to

Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Mr. Gajendra Khanna for the English translation of the write ups.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.


Satguru Teri Oat” – Karunesh Thakur

           ….……Shishir Krishna Sharma

(First published in www.anmolfankaar.com founded by Mr.Gajendra Khanna, an integral part of the blog ‘Beete Hue Din’.)      

Any discussion on Pre-Independence Hindi Cinema and the studio system prevalent at the time brings to mind many names including Mumbai's Ranjit, Bombay Talkies and Wadia Movietone, Kolhapur's Jayaprabha, Pune's Prabhat, Calcutta's New Theatre and Lahore's Pancholi Arts. These are the studios which enriched Hindustani Cinema with their high-quality creations and created a permanent glorious place in history.  However, amidst these big names, some other studios had also come up which though existed for a short period whose names cannot be ignored by those interested in the history of Hindi Cinema. One such shortlived Cinema was Lahore's Leela Mandir which was founded by Thakur Himmat Singh.

Thakur Himmat Singh's ancestors were Rajputs who left their homes in United Provinces (now Uttar Pradesh) to come to seek asylum in the court of Maharaja Ranjeet Singhji. The Maharaja had given them permission to settle down in the Mochi Darwaza area of Lahore. Thakur Himmat Singh was a well-known actor of silent movies made in Lahore and had played the role of the villain in the Punjabi movie Dulla Bhatti(1940). The director of this movie was Roop K Sheory and its composer was Pandit Gobindram. This movie is also known as the first movie in the career of well-known composer O.P. Nayyar. He had sung in the chorus of this movie's song “Rab Di Janaab Vichon Aeho Dilm Mangda, Ambiyaan Da Baag Hove, Badlaan Di Chhan Hove” and was one of the actors in its picturisation too.

The first movie under the Leela Mandir banner was the Punjabi Movie 'Kamli” which was released in 1946. Its director was Prakash Bakshi and the composer was Inayat Hussain. Its main cast consisted of Amarnath, Kiran (Shaukat) and Asha Posley. Shaukat and Asha were the daughters of the composer Inayat Hussain. This film was extremely successful in its time.

In 1947, the Leela Mandir banner started the production of the Hindi film Bedardi. Its direction was again given to Prakash Bakshi. Thakur Himmat Singh's son Karunesh after completing his Matriculation exams had started his career with the film unit as an Assistant Director. He was only eighteen years old at the time. During a meeting with ‘anmol fankaar.com’, Karunesh Thakur ji told us that in those days the house of my maternal aunt (Masi) was being done in Dehradun.

We started the shooting of ‘Bedardi’ on 3rd August 1947 and proceeded to Dehradun for further shooting with the unit on 12th August where we stayed in my aunt's semi constructed house. But the partition happened at that time and riots took place. To protect the unit from rioting we had to go to Calcutta overnight. We had to change its name to "Doctor Ramesh" but it got caught in red tape and never got released. (In contrast with Shri Thakur's information, Hindi Film Geet Kosh credits it as a 1949 release.  In this regard, Shri Harmandir Singh 'Hamraaz' says that its source is the Censor certificate issued for the movie. Whether the movie was actually released or not is immaterial. Since the certificate was issued in 1949 the movie is treated as a released movie.)

Remembering those troubled times, Karunesh ji says that, “Partition had sealed any chances of return to Lahore.  We had lost all our money in the film and we had to return to Dehradun. Our family consisted of one younger brother and three sisters along with my parents. After coming to Dehradun, I took up work in the Census office at a salary of two rupees per day and my father went to Lucknow to make documentaries for the government. Inspite of this, our financial condition could not improve. Then one day with ten rupees in my pocket I left

In Mumbai, Karunesh ji met his friend from Calcutta, Roshanlal Malhotra. Mr Malhotra was employed in the army and he also had nobody in Mumbai. They rented beds at rate of Re 1 per day in a lodge in Dadar.  Karunesh ji's maternal uncle Ramesh Thakur was a well known character actor of the period whose two-room house near Dadar's Basanti Music Hall was unoccupied. After some days Karunesh ji and Mr Malhotra shifted to that house. We became carefree after getting a roof over our heads. But one day we were witness to a murder in front of our house and we abandoned the place in fear.

We came across writer C.L. Kavish (Chunnilal Nagiya) who was a resident of Peshawar whom I knew from our Lahore days. A few days before partition Producer-Director H.S. Rawail had taken him to Calcutta where he had written the dialogues for Rawail's film Jhoothi Kasmen. Th cast of this 1948 released movie comprised of Robin Mazumdar, Ramola, Hiralal, Rooplekha, Iftekhar and Sunder. Its composer was G.A. Chisti. Although Kavish was in Kolkata at the time of partition his family had come to Dehradun. Meanwhile Kavish had come to Mumbai. On his recommendation, I got the post of an Apprentice in Makhanlal Jain and Rajendra Jain's company Filmkaar. This banner had produced movies including Chhoti Bhabhi (1950), Deedar (1951) and Ghunghroo (1952) earlier.

The movie with which Karunesh ji started his Mumbai Innings was 'Maan' which had released in 1954. Its main cast comprised of Ajit, Chitra, Jagirdar, Kumar, Achla Sachdev, Durga Khote and Yashodhra Katju. Its composer was Anil Biswas and its director was Dr Safdar 'Aah'. This movie was made in spurts and caused the producers losses. They then started a movie called Shikwa starring Dilip Kumar and Nutan aiming to overcome their losses. Its producer Ramesh Saigal was also a big name in those days just like its lead actors. Unfortunately, the movie Shikwa got shelved and the company which was already struggling financially shut shop. Karunesh ji was Ramesh Saigal's Assistant in Shikwa. The movie had another assistant named Chander Saigal who became a very good friend of Karunesh ji. When filmkaar closed, Karunesh ji got job as Assistant in Jyoti Studio's movie Pataalpari whose director was S.P. Bakshi. Meanwhile, Chander Saigal became Assistant in the film company 'Deep Pradeep' which was co-owned by the actor Pradeep Kumar and the producer Deep Khosla. During this period Karunesh ji assisted Director Rafiq Rizwi for the movie Caravan produced by Dev Jolly. Film Caravan released in 1956.

Karunesh ji recalls, "When S.P. Bakshi got Filmistan's movie 'Sun to Le Haseena', he left Pataalpari midway. In this situation the producer gave me the responsibility to complete the movie. The composer of this Jairaj-Shakeela-Tiwari-Kumkum-Ramesh Thakur-Yashodhra Katju starrer was S.Mohinder and I was credited as its co-director. This movie released in 1957. Meanwhile, my friend Chander Saigal got his break as director for the movie ‘Ek Shola’. This was a big-budget movie starring Pradeep Kumar, Mala Sinha, Jawahar Kaul, Shubha Khote, Nazir Hussain, Dhoomal and Tuntun. Its music was composed by Madan Mohan and its dialogues were written by Nasir Hussain. I worked as Chander Saigal's chief assistant for the movie. In addition, I wrote the movie's screenplay along with Chander Saigal and Mohan Kumar. Mohan Kumar who was Chander Saigal's assistant later went on to direct many hit movies like 'Aas Ka Panchhi', 'Anpadh', 'Aayi Milan Ki Bela', 'Aap Ki Parchhaiyaan', 'Aap Aaye Bahaar Aayi', 'Ameer Gareeb', 'Aap Beeti', 'Avtaar' and 'Amrit'. During the shooting of ‘Ek Shola’ I also got the opportunity to direct a short film named 'Natkhat Chandu'.

After some time, Pradeep Kumar and Deep Khosla separated. When Deep Khosla started Independently with the movie ‘Batwara’ he made Karunesh ji its director. This movie was made on the novel of C.L. Kavish and the composer of this 1961 released social was S.Madan. The songs of ‘Batwara’ were extremely popular. Its Rafi-Asha duet, “Yeh Raat Yeh Fizaayen Phir Aayen Na Aayen, Aao Shama Jala Ke Hum Aaj Mil Ke Gaayen' retains its freshness till this day. Karunesh ji mentions that the censor objected to its original line “Aao Shama Bujha Ke Hum Aaj Mil Ke Gaayen” and they had to change the line in the film although the original is retained as it is on the records and Audio CDs.

Meanwhile Pradeep Kumar started his independent production in the form of 'Mitti Mein Sona' with Chander Saigal as its director. This O.P. Nayyar composed 1960 movie had Pradeep Kumar and Mala Sinha as its lead pair. This film's Asha solo 'Poochho Na Humen Hum Unke Liye Kya Kya Nazraane Laaye Hain' retains its popularity till date. Unfortunately, the director Chander Saigal passed away in a freak accident during the making of the movie. He was merely 30 years old at the time. Karunesh ji is sad about the death of his close friend even today. Karunesh ji tells us, “I got many movies after the success of ‘Batwara’.  These included Beni Talwar's movie ‘Aage Teri Marzi’ and producer M.R. Seth’s Beena Rai-Manoj Kumar starrer and a Saira-Shammi Kapoor starrer. But unfortunately, all these movies got shelved one after the other. In this scenario I decided to turn producer with my Punjabi movie ‘Satt Saliyaan’ which was a superhit. After that I started the Hindi movie ‘Chor Darwaza’ but it also got shelved after four reels.

In 1968, Karunesh ji made the movie ‘Aanchal Ke Phool’ which was based on a novel by C.L. Kavish and produced by M.R. Seth. Its cast included Sajjan, Kamini Kaushal, Jeevan, Jayant, Madan Puri, Sunder and Ulhas. Its composer was Ved Sethi. This movie won that year's President's Award. Karunesh ji says that, “Getting the President's Award was definitely an achievement for me. However, my career did not get much benefit from the movie. Whichever big movies I started all got shelved. I had to unwillingly do many small budget movies with small star casts like ‘Bhaavna’ (1972), ‘Baazigar’ (1972), ‘Albeli’ (1974) and ‘Shaadi Se Pehle’ (1980) although I did not make any compromises in doing justice to them.

After ‘Pataalpari’ and ‘Ek Shola’, Karunesh ji also wrote the Hindi movies ‘Main Aur Mera Bhai’ (1961), Dalaal Number-1 (2000), Punjabi Movies ‘Satguru Teri Oat’, ‘Khalsa Mero Roop Hai Khas’ and ‘Nadiyon Bichhde Neer’ among others. Due to his advancing age, Karunesh ji bid adieu to Showbiz and went back to Dehradun in 2000.

Karunesh ji now stays in his ancestral house in Dehradun's Karanpur area with his younger brother and sister. His wife and two sisters have already left for the heavenly abode. His younger sister Ms Kamlesh Thakur retired from the post of Hindi teacher from the famous Marshall school of Dehradun. His married and only daughter Rohini stays with her husband in Mumbai. Karunesh ji is currently the Vice President of the Uttarakhand Film Chamber of Commerce. In 1999 the then Uttar Pradesh Governor Shri Surajbhan presented him with the ‘K.N. Singh Film Vidya Doon Ratan Award’ instituted by the Urban Corporation.

During his talk with us at his home on the evening of 14th December 2011, Karunesh ji ponders, “Sometimes I think that if my films had not remained incomplete, my career would perhaps have taken a different direction. But then I feel, only efforts are in the controls of a human being and the rest is up to fate.”

Shri Karunesh Thakur passed away on 3rd July 2013 at Dehradoon.