“आ के दर्द जवां है, सजना हाए, रात का इशारा है” – अहमद वसी
…..शिशिर कृष्ण शर्मा
अहमद वसी! वो इकलौते गीतकार, जिन्हें संगीतकार ओ.पी.नैयर ने ब्रेक दिया था| लेकिन इस तथ्य की ओर मुझ जैसे नैयर साहब के घोर प्रशंसकों का भी शायद कभी ध्यान नहीं गया| दरअसल नैयर साहब ने अपनी कुल 78 फ़िल्मों में जितने भी गीतकारों के साथ काम किया वो सभी पहले से फिल्मों में लिखते आ रहे थे| अपवाद थे तो अहमद वसी, जिन्होंने नैयर साहब की साल 1973 की म्यूज़िकल हिट फ़िल्म 'प्राण जाये पर वचन न जाए' के कुल छः में से एक गीत 'आ के दर्द जवां है, सजना हाए, रात का इशारा है' लिखकर फ़िल्मों में कदम रखा था|
अहमद वसी जी का जन्म 8 अक्टूबर 1943 को सीतापुर - उत्तरप्रदेश के मौहल्ला कज़ियारा के एक प्रतिष्ठित शिया परिवार में हुआ था| उनके पूर्वज मूल रूप से ईरान के रहने वाले थे, जिन्होंने भारत आकर शुरूआत में बाराबंकी के सैदपुर में डेरा डाला और फिर सीतापुर चले आये| चूंकि वो काज़ी थे इसलिए सीतापुर आकर जिस जगह को उन्होंने आबाद किया, वो जगह मौहल्ला कज़ियारा कहलायी| मौहल्ला कज़ियारा का अहमद वसी जी का पुश्तैनी घर बड़े इमामबाड़ा के सामने है और घर के ठीक पीछे ख़ानदान के उन्हीं पूर्वज की क़ब्र| अहमद वसी जी कहते हैं, "आज भी जब हमारे परिवारों में शादी-ब्याह जैसा कोई शुभ काम होता है तो सबसे पहले उस क़ब्र पर गुलगुले चढ़ाकर और शमां जलाकर उन बुज़ुर्ग का आशीर्वाद मांगा जाता है|”
अहमद वसी जी के पिता मोहम्मद अतहर महमूदाबाद रियासत के मैनेजर थे, पढ़ने-लिखने का शौक़ रखते थे और एक बेहतरीन शायर भी थे| वो बचपन में ही घरवालों के साथ कर्बला की ज़ियारत कर आये थे और अदब की दुनिया में 'ज़ायर सीतापुरी' के नाम से जाने जाते थे| ज़ायर शब्द उन्होंने 'ज़ियारत' से लिया था| मोहम्मद अतहर अपनी धार्मिक शायरी के लिए मशहूर थे और उन्होंने जदीद अर्थात नये मर्सिये का चलन शुरू किया था| पुराना मूल मर्सिया जहां कर्बला के ग़म को, मातम और आंसुओं को लेकर लिखा जाता था, वहीं जदीद मर्सिया में कर्बला से सामाजिक समस्याओं को भी जोड़ा गया था| कहा जाता है कि जदीद मर्सिये की बुनियाद जोश मलीहाबादी ने रखी थी|
3 बहनों और 5 भाईयों में अहमद वसी सबसे बड़े थे| दुर्भाग्य से उनके सभी बहन भाई अब इस दुनिया से जा चुके हैं, जिसका ग़म और दर्द बड़े भाई की बातों में छलक ही जाता है|
Shahid Raza |
अहमद वसी कहते हैं, "मुहर्रम की मजलिसों में पढ़ने को कहा जाता था, तो मेरी कोशिश रहती थी कि मैं अपना ही लिखा हुआ पढूं| मैं हाथ का लिखा पर्चा 'फूल' निकालता था, जिसे ख़ानदान में सभी लोग पढ़ते थे| उधर सीतापुर में मैं रंगमंच से भी जुड़ गया था| मैं नाटक लिखता था, डायरेक्ट करता था इस इस मुहिम में मेरा साथ देते थे मेरे दोस्त और सीतापुर के जुनूनी रंगकर्मी शाहिद रज़ा, जो स्टेज बनाने से लेकर मेरे साथ कुर्सियां-दरियां उठाने तक का काम पूरे जोशोखरोश से करते थे| शाहिद रज़ा एक बेहतरीन कॉमेडियन थे, जिनके मंच पर आते ही दर्शक ठहाके लगाने लगते थे| शाहिद रज़ा अब दिल्ली में रहते हैं और ईरान कल्चरल हाउस से जुड़े हुए हैं|”
अहमद वसी कहते हैं, "वो काफ़ी पढ़ीलिखी थीं और टीचर थीं| आगे चलकर एक इंटर कॉलेज की प्रिंसिपल बनीं| लेकिन शादी के लिए उनके मां-बाप तैयार नहीं हुए क्योंकि मेरे पास नौकरी नहीं थी| इस झटके और ग़म ने भी मेरी शायरी को काफ़ी निखारा| मुझे बचपन से ही गाने सुनने का बहुत शौक़ था| ननिहाल में भोंपूवाला ग्रामोफोन था, जिसपर बजने वाले लाख के रिकार्ड्स मुझे बहुत आकर्षित करते थे| बड़ा हुआ तो ये शौक़ और भी ज़ोर पकड़ता चला गया| लखनऊ में कॉलेज के दौरान होटलों में ज्यूकबॉक्स में पैसे डाल-डालकर रिकार्ड्स पर गाने सुनता था|”
लखनऊ में सीतापुर के रहने वाले अहमद वसी के हमउम्र और छोटेबड़े तमाम लोगों का एक ग्रुप बन गया था| वो सब साथ में सिनेमा देखने जाते थे| एक रोज़ वो फ़िल्म 'नया दौर' देखने गए, जिसमें अहमद वसी जी के पसंदीदा दिलीप कुमार, साहिर और ओ.पी.नैयर की तिगडी पहली बार एक साथ काम कर रही थी| अहमद वसी कहते हैं, "फ़िल्म शुरू हुई| टाइटल्स में साहिर का नाम आया तो मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा, 'एक रोज़ मेरा नाम भी इसी तरह स्क्रीन पर आएगा!’ ये सुनकर सभी साथी एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगे| फ़िल्म देखकर वापस लौटे तो साथियों ने कहा, ‘बहुत उड़ने लगे हो| छपना अलग बात है, लेकिन फ़िल्मों के लिए लिखना?’ मैंने जवाब दिया, ‘एक रोज़ लिख के दिखा दूंगा| ज़्यादा बोलोगे तो ओ.पी.नैयर के साथ भी लिख के दिखा दूंगा| जो हारे, वो जीतने वाले को बस पिक्चर दिखा दे, वो भी नया दौर|”
‘लखनऊ जो मेरा शहर-ए-आरज़ू था, वीराना लगने लगा| दिल ने कहा, यहां से कहीं और चल|’
सोचा बंबई चलो, जहां मेरे एक चाचा रहते थे|”
अहमद वसी 'ऑल इण्डिया रेडियो' लखनऊ जाकर ड्रामा प्रोड्यूसर कुमुद नागर से मिले| कुमुद जी सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार अमृतलाल नागर के बेटे और फ़िल्म लेखिका अचला नागर के भाई थे| अहमद वसी कहते हैं "नागर जी ने कहा, मुम्बई में मेरे उस्ताद मुख्तार अहमद जी हैं जो विविध भारती में हवामहल पेश करते हैं| उनसे मिलना, मेरा नाम ही काफ़ी है|”
अहमद वसी कहते हैं, "एक रोज़ मुमताज़ बसीर साहब ने मुझे अपने ऑफ़िस में बुलाकर कहा कि विविध भारती में प्रोग्राम कॉम्पियर की जगह निकलने वाली है, एप्लाई कर दो, लेकिन मेरा नाम नहीं आना चाहिए| मैंने एप्लाई किया| अब तक मेरा जो कुछ छपा था, इंटरव्यू में मैं उसकी कटिंग्स का पुलिंदा और तमाम सर्टिफिकेट्स लेकर पहुंचा| स्टेशन डायरेक्टर दीक्षित जी के असिस्टेंट रोशनअली मूलजी मुझे पढ़ते आये थे| उन्होंने दीक्षित जी को मेरा लिखा पढ़कर सुनाया, जिसमें हवा महल का मेरा ड्रामा भी शामिल था| और इस तरह मुझे नौकरी के लिए चुन लिया गया|”
अहमद वसी बताते हैं, “नैयर साहब अक्सर शाम के समय मुझे और आशा भोंसले को साथ लेकर गाड़ी में घूमने निकल जाते थे| रात का खाना भी मैं उन्हीं के साथ बाहर ही खाता था| एक रोज़ मैंने उन्हें लखनऊ का वो क़िस्सा सुनाया जब फिल्म 'नया दौर' के टाइटल्स देखकर मेरे मुंह से निकल पड़ा था कि 'एक रोज़ मेरा नाम भी इसी तरह स्क्रीन पर आएगा!’ और ‘ज़्यादा बोलोगे तो ओ.पी.नैयर के साथ भी लिख के दिखा दूंगा| ये सुनकर नैयर साहब हंसने लगे, और फिर ख़ामोश हो गए| बहरहाल हमारा मिलना-जुलना बदस्तूर जारी रहा|”
5-7 महीने बाद एक रोज़ अहमद वसी जी को नैयर साहब ने फ़ोन करके शारदा बिल्डिंग, ए-रोड, चर्चगेट के अपने घर पर आने को कहा| अहमद वसी नैयर साहब से मिलने पहुंचे| नैयर साहब ने उनसे कहा कि मैंने एक तस्वीर साईन की है| तुम्हें ट्रायल के लिए एक गीत दूंगा, जिसका पहला लफ्ज़ 'आ' होना चाहिए| सिंगर का मुंह खुलना चाहिए|
इसके बाद नैयर साहब के पास लगभग 12 सालों तक काम नहीं रहा| और फिर 1990 के दशक की शुरूआत में उन्हें एक साथ 3 फ़िल्में मिलीं, ‘जानम तेरे लिए', ‘निश्चय' और 'ज़िद'| ‘जानम तेरे लिए' के लिए अहमद वसी ने दो गीत लिखे| अनुराधा पोडवाल का गाया सोलो ‘मैं मिलूंगी तुझको राधा कभी मीरा बनकर' और अनुराधा पोडवाल और शब्बीर कुमार का गाया टाइटल सांग ‘कुरता सिलाया रंगदार, ओ जानम तेरे लिए'| बाद में इस फ़िल्म का टाइटल 'जानम तेरे लिए' से बदलकर 'दिल तेरे हवाले' कर दिया गया था, लेकिन ये फ़िल्म बन ही नहीं पायी| फिल्म के लिए रिकॉर्ड किये गए 7 गीत भी रिलीज़ नहीं हुए|
(विशेष टिप्पणी:- इस फ़िल्म के साथ महत्वपूर्ण रूप से जुड़े एक मित्र ने रिकॉर्डिंग के दौरान ये सातों दुर्लभ गीत अपने लिए एक ऑडियो कैसेट में ट्रांसफ़र कर लिये थे| उन्होंने मेरे नैयर प्रेम को देखते हुए वो सभी गीत मुझे भी दिए| आज ये गीत मेरे संग्रह का एक अहम हिस्सा हैं|)
साल 1981 की फ़िल्म 'क़ानून और मुजरिम' में अहमद वसी का लिखा एक गीत आज भी अक्सर बजता और बेहद चाव से सुना जाता है| और वो है, सी.अर्जुन के संगीत में सुरेश वाडकर और उषा मंगेशकर का गाया डुएट 'शाम रंगीन हुई है तेरे आंचल की तरह, सुरमई रंग सजा है तेरे काजल की तरह’|
साल 1987 की फ़िल्म 'वली-ए-आज़म' में अहमद वसी जी का लिखा और चित्रगुप्त के संगीत में तलत महमूद और हेमलता का गाया 'मेरे शरीक़े सफ़र अब तेरा ख़ुदा हाफ़िज़' भी अपने दौर का एक हिट गीत था| ये गीत इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि तलत महमूद का गाया और रिकॉर्ड कराया गया ये आख़िरी गीत है|
Lekh Tondon |
अहमद वसी विविध भारती की नौकरी से साल 2003 में रिटायर हुए थे| उनके परिवार में पत्नी और दो विवाहित बेटे हैं| बड़े बेटे वसी हुसैन ज़ायर उर्फ़ पैकर मुम्बई विश्वविद्यालय से एम.कॉम.,एम.लिब. करने के बाद अब सीतापुर के रिजेंसी डिग्री कॉलेज में लाइब्रेरियन के पद पर कार्यरत हैं| छोटे बेटे वसी अकील ज़ायर उर्फ़ नैयर सी.ए. हैं और मस्कट में रहते हैं| बड़े बेटे से अहमद वसी जी की की दो पोतियां हैं और छोटे से एक पोती और एक पोता|
Wasi Family |
हिन्दी ग़ज़लों की अहमद वसी की किताब 'बादलों के शहर' का जया रॉयचौधरी द्वारा अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया, तो उनकी चुनींदा ग़ज़लों का मनीषा पटवर्धन द्वारा किया गया मराठी अनुवाद, किताब के रूप में बाज़ार में आया| उधर अहमद वसी जी के चुनींदा शेरों और ग़ज़लों के शबनम गोरखपुरी द्वारा किये गये अंग्रेज़ी अनुवाद की भी एक किताब हाल ही में प्रकाशित हुई है|
We are thankful to –
Mr. Harish Raghuvanshi (Surat) & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ (Kanpur) for their valuable suggestion, guidance, and support.
Dr. Ravinder Kumar (NOIDA) for the English translation of the write up.
Mr. S.M.M.Ausaja (Mumbai) for providing movies’ posters.
Mr. Manaswi Sharma (Zurich-Switzerland) for the technical support.
Ahmed Wasi On BHD