Wednesday, December 18, 2019

“Yeh Chaman Hamara Apna Hai” – Sulochna Latkar

ये चमन हमारा अपना है” – सुलोचना लाटकर    

                .........शिशिर कृष्ण शर्मा

लीला चिटनिस, निरूपा राय, कामिनी कौशल, अचला सचदेव! हिन्दी सिनेमा की इन मशहूर माताओं की श्रेणी में एक और जानामाना नाम था सुलोचना का, जिन्होंने मराठी सिनेमा में अपनी खासी पहचान बनाने के बाद हिन्दी सिनेमा की ओर रूख किया था| बीते जुलाई में 90 वर्ष की हो चुकी सुलोचना जी आज भी हमारे बीच हैं और मुंबई के मशहूर सिद्धिविनायक मंदिर के पास प्रभादेवी के इलाक़े में रहती हैं| उनसे मेरी मुलाक़ात ‘साप्ताहिक सहारा समय’ के मेरे कॉलम ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ के लिए हुई थी| उस अवसर पर उन्होंने अपनी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं पर बेलाग बातचीत की थी| 

सुलोचना जी का जन्म 30 जुलाई 1929 को कर्नाटक के बेलगाम जिले में स्थित खड़कलाट गांव में हुआ था| ये गांव महाराष्ट्र की सीमा के बेहद क़रीब और महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर से 40 किलोमीटर के फ़ासले पर है| सुलोचना बताती हैं, “मेरे पिता कोल्हापुर रियासत में दरोगा थे और घर में माता-पिता के अलावा मुझसे 10 साल बड़ा एक भाई था| इसके अलावा मेरी एक बालविधवा मौसी भी हमारे साथ ही रहती थीं| गांव के नाम से हम लोग ‘लाटकर’ कहलाते थे| मैं गांव के ही प्राईमरी स्कूल में पढ़ती थी हालांकि पढ़ाई-लिखाई में मेरी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी|”

सुलोचना जी के अनुसार उनके गांव में दो मशहूर दरगाहें थीं, राजेबक्सर दरगाह और बालेसाब दरगाह जिनमें हर साल उर्स का मेला लगता था| उस दौरान होने वाले तमाशा, नाटक और फिल्मों के शोज़ को वो बेहद चाव से और बिला नागा सबसे आगे बैठकर देखती थीं| इसके अलावा चलती-फिरती तस्वीरों का राज़ जानने के लिए वो अक्सर परदे के पीछे भी झांकती थीं|  

सुलोचना जी 12-13 बरस की थीं जब उनके माता-पिता दोनों गुज़र गए| अब इन भाई-बहन को सिर्फ़ मौसी का सहारा रह गया था| उन्हीं दिनों प्लेग फैला तो इन तीनों को अपना घरबार छोड़कर पास ही के चिकोड़ी गांव में सुलोचना जी के पिता के वकील दोस्त बिनाडेकर के घर में शरण लेनी पड़ी| सुलोचना जी बताती हैं, “बिनाडेकर ने हमारा बहुत आदर-सत्कार किया लेकिन हमारा उनपर ज्यादा दिनों तक आश्रित रहना भी तो उचित नहीं था| एक रोज़ बिनाडेकर के परिचित निर्माता-निर्देशक मास्टर विनायक उनसे मिलने के लिए आए| मास्टर विनायक कोल्हापुर स्थित फ़िल्म कंपनी ‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ के मालिक थे| उन्हें जब हमारे हालात के बारे में पता चला तो मौसी के आग्रह पर उन्होंने मुझे कोल्हापुर बुलाकर अपनी कंपनी में नौकरी पर रख लिया| ये साल 1943 का वाकया है| ‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ में सुमति गुप्ते और मीनाक्षी शिरोडकर जैसी पढ़ी-लिखी अभिनेत्रियां पहले से काम कर रही थीं|” 

{सुमति गुप्ते का विवाह मराठी-हिन्दी के ख्यातिप्राप्त निर्माता-निर्देशक वसंत जोगलेकर से हुआ था| वसंत जोगलेकर ने लता मंगेशकर की बतौर पार्श्वगायिका डेब्यू फ़िल्म ‘आपकी सेवा में’ (1947) के अलावा ‘आंचल’ (1960), ‘आज और कल’ (1963) और ‘एक कली मुस्काई’ (1968) जैसी हिट फ़िल्मों का निर्देशन किया था| ‘आज और कल’ और ‘एक कली मुस्काई’ के निर्माता भी वोही थे| फ़िल्म ‘एक कली मुस्काई’ की नायिका मीरा जोगलेकर उनकी बेटी थीं|} 

{मीनाक्षी शिरोडकर 1930 और 40 के दशक के मराठी-हिन्दी सिनेमा का एक जानामाना नाम और भारतीय सिनेमा की पहली ग्लैमरस अभिनेत्री थीं| उन्होंने 1938 में मराठी-हिन्दी भाषाओं में बनी फ़िल्म ‘ब्रह्मचारी’ से डेब्यू किया था और अपनी इस पहली ही फ़िल्म में स्विमसूट पहनने जैसा क्रांतिकारी कदम उठाकर उस जमाने में हंगामा खड़ा कर दिया था| मशहूर अभिनेत्रियां शिल्पा और नम्रता शिरोडकर इन्हीं मीनाक्षी शिरोडकर की पोतियां हैं|}

{मास्टर विनायक अभिनेत्री नंदा के पिता थे| वो मराठी-हिन्दी फ़िल्मों के एक जानेमाने निर्माता-निर्देशक और अभिनेता थे| उनका निधन साल 1947 में महज़ 41 साल की उम्र में हो गया था|} 

‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ में ही सुलोचना जी की मुलाक़ात अपनी हमउम्र लता मंगेशकर से हुई| लता के हालात भी सुलोचना जी से कुछ अलग नहीं थे| उनके पिता गुज़र चुके थे और एक भाई और चार बहनों में सबसे बड़ी होने की वजह से घर की तमाम ज़िम्मेदारी लता के कंधों पर आ गई थी| इसी वजह से उन्हें भी ‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ में नौकरी करनी पड़ी थी| सुलोचना जी बताती हैं, “मैं चूंकि सिर्फ़ प्राईमरी पास थी और मुझे हिन्दी बोलनी भी नहीं आती थी इसलिए बेहद घबराई  हुई रहती थी| ऐसे में लता ने मुझे बहुत सहारा दिया| उस दौरान हुई हमारी प्रगाढ़ मित्रता आज तक चली आ रही है|”

‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ महज़ तीन महीने बाद ही मुंबई स्थानांतरित हो गई| लेकिन महानगर के नाम से घबराकर सुलोचना जी ने कोल्हापुर में ही रहना बेहतर समझा| वो बताती हैं, “मुझे कोल्हापुर के ‘जयाप्रभा स्टूडियो’ में 30 रूपये महीने के वेतन पर नौकरी मिल गई थी| ‘जयाप्रभा स्टूडियो’ धार्मिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों के निर्माण के लिए मशहूर भालजी पेंढारकर का था जिन्हें सब बाबा कहते थे| मैं ‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ की मराठी फ़िल्म ‘चिमुकला संसार’ (1943) में वसंत जोगलेकर के निर्देशन में एक छोटी सी भूमिका कर चुकी थी| लेकिन सही मायनों में मैंने काम सीखा ‘जयाप्रभा स्टूडियो’ में जहां बाबा हमें लाठी-तलवार चलाना, घुड़दौड़ इत्यादि तक खुद सिखाते थे| मैंने उनकी हिन्दी फ़िल्मों ‘महारथी कर्ण’ (1944) और ‘वाल्मीकि’ (1946) में अभिनय किया| मराठी फ़िल्म ‘ससुरावास’ (1947) में मैं पहली बार नायिका बनी| इस फ़िल्म में मेरे नायक मास्टर विट्ठल थे|”

सुलोचना जी के अनुसार शूटिंग पर जाने से पहले बाबा दो-तीन महीने रिहर्सल कराते थे, शूटिंग के दौरान मेकअप और गहनों-कपड़ों की कंटीन्यूटी कलाकारों को खुद ही लिखनी होती थी, उन्हें स्कूल के छात्रों की तरह फ़िल्म निर्माण के प्रत्येक पहलू की जानकारी दी जाती थी| यही वजह है कि सुलोचना जी हमेशा से बाबा को अपना गुरु ही मानती आयी हैं| वो कहती हैं, “बाबा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कट्टर हिमायती थे| उनके स्टूडियो में रोज़ाना सुबह-शाम संघ की प्रार्थना होती थी जिसमें स्टूडियो से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को अनिवार्य रूप से भाग लेना होता था| मेरा असली नाम नगाबाई और प्रचलित नाम रंगू है| बाबा ने ही मुझे ये फ़िल्मी नाम ‘सुलोचना’ दिया था| ‘जयाप्रभा स्टूडियो’ में नौकरी के दौरान 15 बरस की उम्र में मेरी शादी कोल्हापुर के एक जमींदार परिवार के आबासाहेब चव्हाण से हो गई थी|” 

गांधी की हत्या हुई तो पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों और संघ के कार्यकर्ताओं के खिलाफ़ दंगे भड़क उठे| उन्हें चुनचुनकर मारा गया, उनकी संपत्ति जला दी गई जिसमें ‘जयाप्रभा स्टूडियो’ भी शामिल था| भालजी पेंढारकर (बाबा) को गिरफ़्तार कर लिया गया| ऐसे में उन्होंने स्टूडियो के सभी कर्मचारियों को 2-2 महीने का वेतन देकर नौकरी से मुक्त कर दिया| सुलोचना जी कहती हैं, “जयाप्रभा स्टूडियो के बंद होने के बाद मैं कोल्हापुर से पुणे चली आई जहां मुझे ‘मंगल पिक्चर्स’ की फ़िल्म ‘जीवाचा सखा’ में नायिका की भूमिका मिली| ‘मंगल पिक्चर्स’ की स्थापना कोल्हापुर के ही कुछ लोगों ने मिलकर की थी| साल 1948 में रिलीज़ हुई ‘जीवाचा सखा’ की कामयाबी के बाद मैं पूरी तरह से  मराठी फ़िल्मों में व्यस्त हो गई|” 

साल 1952 में प्रदर्शित हुई सुलोचना जी की मराठी फ़िल्म ‘स्त्री जन्म तुझी कहाणी’ सुपरहिट हुई थी| रणजीत मूवीटोन के मालिक सरदार चंदूलाल शाह को ये फ़िल्म इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसका हिन्दी रीमेक बनाने का फैसला कर लिया| ‘औरत तेरी यही कहानी’ के नाम से बनने वाली हिन्दी रीमेक के लिए उन्होंने सुलोचना जी को साईन किया तो साल 1953 में सुलोचना जी को पुणे छोड़कर मुंबई आना पड़ा| ‘औरत तेरी यही कहानी’ में सुलोचना जी के नायक भारत भूषण थे| ये फ़िल्म साल 1954 में प्रदर्शित हुई थी| सुलोचना जी बताती हैं, “मैंने सुरेन्द्रनाथ के साथ ‘महात्मा कबीर’ (1954), अनूप कुमार के साथ ‘सजनी’ (1956) और मोतीलाल के साथ ‘मुक्ति’ (1960) जैसी कुछ फ़िल्में बतौर नायिका कीं लेकिन इनमें से कोई भी नहीं चल पायी| लेकिन साल 1956 में प्रदर्शित हुई ‘सती अनुसूया’ की ज़बरदस्त कामयाबी ने मुझे धार्मिक फ़िल्मों की स्टार ज़रूर बना दिया|”

सुलोचना जी को इस स्टारडम का नुकसान भी सहना पड़ा| धार्मिक फ़िल्मों से जुड़े लोग उस ज़माने में भी दूसरे-तीसरे दर्जे के माने जाते थे इसलिए सुलोचना जी को सामाजिक फ़िल्मों में काम मिलना बंद हो गया| ‘आर.के.फ़िल्म्स’ की म्यूज़िकल हिट बाल फ़िल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1957) ज़रूर अपवाद साबित हुई जिसका निर्देशन अमर कुमार ने किया था| इस फ़िल्म के संगीतकार दत्ताराम थे| फ़िल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ का मशहूर गीत ‘ये चमन हमारा अपना है..’ सुलोचना और मास्टर रोमी पर फ़िल्माया गया था| इसके अलावा सुपरडुपर हिट बालगीत ‘चुन चुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लायी चिड़िया’ भी इसी फ़िल्म का था| लेकिन इस फ़िल्म की कामयाबी का सुलोचना जी को कोई लाभ नहीं मिला|

सुलोचना जी कहती हैं, “एक रोज़ बिमल रॉय ने मुझे फ़िल्म ‘सुजाता’ में मां की भूमिका के लिए बुलाया| मैंने उन्हें ना तो नहीं कहा लेकिन दुविधा में ज़रूर पड़ गई कि महज़ 30 बरस की उम्र में मां की भूमिका कैसे स्वीकार कर लूं| लेकिन दुर्गा खोटे और ललिता पंवार की सलाह पर आखिरकार मैंने खुद को चरित्र भूमिकाओं के लिए तैयार कर ही लिया| फ़िल्म ‘सुजाता’ बेहद कामयाब हुई और देखते ही देखते मैं सामाजिक फ़िल्मों की अतिव्यस्त चरित्र अभिनेत्री बन गई|”

‘सुजाता’ साल 1959 में रिलीज़ हुई थी| इसके बाद अगले 2 दशकों तक सुलोचना जी बतौर चरित्र अभिनेत्री लगातार व्यस्त रहीं| ‘दिल देके देखो’, ‘संघर्ष’, ‘आई मिलन की बेला’, ‘दुनिया’, ‘आदमी’, ‘आए दिन बहार के’, ‘नयी रोशनी’, ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘साजन’, ‘कटी पतंग’, ‘मजबूर’, ‘कसौटी’, ‘सन्यासी’, ‘प्रेम नगर’, ‘कोरा कागज़’, ‘गंगा की सौगंध’, ‘मुक़द्दर का सिकंदर’, ‘अंधा कानून’ और ’क्रांति’ जैसी कई फ़िल्मों में उन्होंने बेहतरीन चरित्र भूमिकाएं कीं| साथ ही मराठी फ़िल्मों में भी अपनी सम्मानजनक जगह बनाए रखी| और फिर समय के साथ साथ काम कम होता चला गया| 

साल 1999 में सुलोचना जी को भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया था| साल 2004 में उन्हें ‘फ़िल्मफ़ेयर लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ मिला| एक उत्कृष्ट अभिनेत्री के तौर पर उन्होंने लगभग 40 विभिन्न अवार्ड हासिल किये| 

सुलोचना जी के परिवार में बेटी कंचन और नातिन (कंचन की बेटी) रश्मि हैं| सुलोचना जी बताती हैं, “सुप्रसिद्ध मराठी रंगकर्मी और फ़िल्म अभिनेता (स्वर्गीय) डॉ.काशीनाथ घाणेकर मेरे दामाद थे| वो मराठी फ़िल्मों के तो स्टार थे ही, ‘दादी मां’ और ‘अभिलाषा’ जैसी हिन्दी फ़िल्मों में भी उन्होंने अहम भूमिकाएं की थीं| उन्हें गुज़रे हुए 30 साल से ज्यादा हो चुके हैं| उनके नाम से बने ट्रस्ट के ज़रिए हर साल नामचीन रंगकर्मियों को पुरस्कृत किया जाता है| मुझे फ़िल्मों से दूर हुए बरसों बीत चुके हैं, बीते जुलाई में 90 बरस की हो चुकी हूं और अब मेरा सारा समय ट्रस्ट का कामकाज देखने में ही बीत जाता है|”

{विशेष: सुप्रसिद्ध फ़िल्म इतिहासकार (स्व.) श्री बी.डी.सामंत और (स्व.) श्री शहाबुद्दीन अक्सर कहते थे कि सुलोचना लाटकर जी का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था और उनका असली नाम साहिब जान है| जब मैंने कंचन जी से इस बात की पुष्टि करनी चाही तो उन्होंने साफ़तौर पर इस बात को ग़लत करार दे दिया, हालांकि सुलोचना जी के परिचित कुछ लोग आज भी उनके मुस्लिम परिवार से होने वाली बात को सही कहते हैं|}      

सुलोचना जी का निधन 4 जून 2023 को 94 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ| 

We are thankful to

Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Ms. Aksher Apoorva for the English translation of the write ups.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.

 

Sulochna Latkar On YT Channel BHD


Yeh Chaman Hamara Apna Hai” – Sulochna  

                     ..............Shishir Krishna Sharma

Leela Chitnis, Nirupa Roy, Kamini Kaushal, Achla Sachdev! Among these famous screen mothers, was the name of Sulochna who had headed towards Hindi films after making a name for herself in Marathi Cinema with her well received performances.  Sulochna ji who recently turned 90 in July stays away from the limelight in the Prabhadevi area which is near Mumbai’s famous Siddhi Vinayak Temple. I had met her in the context of my column, “Kya Bhooloon Kya Yaad Karoon” for “Saptaahik Sahara Samay”. On this occasion, she had a conversation with me regarding all aspects of her life.

Sulochna ji had been born on 30th July 1929 in Khadaklaat village of Belgaum District (Karnataka). This village is very near to the Maharashtra border and merely 40 kilometers away from Maharashtra’s Kolhapur town. Sulochna ji told us, “My father was a Daroga (a police post) in Kolhapur princely state and our family comprised of my parents and my elder brother who was 10 years senior to me. My child-widow maternal aunt (Mausi) also stayed with us. The villagers used to call us ‘Latkar’ after our ancestral village. I studied in village’s primary school though I was not particularly inclined towards studies.”

Sulochna ji told us that in her village there were two famous Dargahs ‘Rajebuxar’ & ‘Balesaab’ where annual Urs fairs used to be held. During these plays, street acts and film shows used to be organized which she would attend with a lot of enthusiasm without fail. Other than this she also tried to see behind the screen to understand the secret of the moving images!

Sulochna ji was merely 12-13 years old when she lost both her parents. In such a situation the siblings had only their aunt to depend upon. There was a plague epidemic at that time due to which the trio left everything and took refuge in her father’s lawyer friend Binadekar in the nearby Chikodi village. Sulochna ji says, “Binadekar received us with open arms but it was improper for us to depend upon him for very long. One day, Binadekar’s acquaintance, well known producer-director Master Vinayak came to meet him. Master Vinayak was the owner of Kolhapur’s ‘Prafulla Pictures’ film company. When he came to know about our dire circumstances, he invited me to Kolhapur and gave me a job in the company. The year was 1943. Educated actresses like Sumati Gupte and Meenakshi Shirdokar were already working for ‘Prafulla Pictures’.   

{Sumati Gupte got married to famous Marathi-hindi film producer-director Vasant Joglekar. In addition to Lata Mangeshkar’s play back debut ‘Aap Ki Seva Mein’ (1947), Vasant Joglekar also directed hit films like ‘Aanchal’ (1960), ‘Aaj Aur Kal’ (1963) and ‘Ek Kali Muskaai’ (1968). He was also the producer of ‘Aaj aur Kal’ and ‘Ek Kali Muskaai’. Meera Joglekar, the heroine of ‘Ek Kali Muskayi’ was their daughter.} 

{Meenakshi Shirodkar was a well-known name in Marathi-Hindi cinema in 1930s and 1940s and was Indian cinema's first glamorous actress. She made her debut in the 1938 Marathi-Hindi bilingual ‘Brahmchari’ and had created a scandal by taking the revolutionary step of wearing a swimsuit in this film in those days! Famous actresses Shilpa and Namrata Shirodkar are her paternal granddaughters.}

{Master Vinayak was the father of actress Nanda. He was a well-known producer-director and actor of Marathi-Hindi films. He passed away in 1947 at the early age of 41 years.}

It was at ‘Prafulla Pictures’ that Sulochana ji met her compatriot Lata Mangeshkar. Lata’s family condition was no different from that of Sulochna ji. Lata had also lost her father and being the eldest among the siblings the responsibility of her family (including widowed mother, one brother and four sisters) was now on her shoulders. As a result, she had also been forced to take up a job in ‘Prafulla Pictures’. Sulochna ji told us, “Since, I was merely a primary school pass out and didn’t know how to speak Hindi, I was quite apprehensive. In this situation, Lata supported me a lot. Our deep friendship which started at that time is still running strong.”

'Prafulla Pictures’ shifted to Mumbai within three months. Afraid of the metro’s name Sulochna ji preferred to stay back in Kolhapur. She says, “I got a job in Kolhapur's 'Jayaprabha Studio' at a monthly salary of Rs 30. ‘Jayaprabha’ was a studio that was specially setup to produce Mythological and Historical movies by the famous Bhalji Pendharkar who we used to call Baba. I had already done a small role in Prafulla Picture’s Marathi film ‘Chimukla Sansaar’ (1943) directed by Vasant Joglekar. However, I learnt my craft in true spirit under Baba’s guidance where he himself taught me to ride horses, use a laathi and sword etc. I acted in his Hindi films ‘Maharati Karna’ (1944) and ‘Valmiki’ (1946). I made my debut as a heroine in the 1947 Marathi film ‘Sasuravaas’ where Master Vitthal was cast opposite me in the lead role.”

According to Sulochna ji, Baba used to get rehearsals done for 2-3 months before starting shooting. The actors themselves had to ensure the continuity of their makeup, jewellery and clothes. We used to be taught the details of each aspect of film making like school children. Due to this reason Sulochna ji considers Baba her Guru. She says, “Baba was a staunch supporter of the Rashtriya Swayamsevak Sangh. There used to be Sangh’s prayer every morning and evening in his studio and every person associated with the studio had to mandatorily attend them. My real name is Nagabai but I was lovingly called ‘Rangu’. It was Baba who gave me the screen name ‘Sulochna’. I got married at the early age of 15 to Aabasaheb Chavan who belonged to a Zamindar (landlord) family of Kolhapur while I was still working in Jayaprabha Studio”

After the assassination of Mahatma Gandhi, riots against Brahmins and RSS members spread across Mahrashtra. Many were killed as a result and many properties were set afire including 'Jayaprabha Studio'. Bhalji Pendharkar was even arrested at the time. In this situation, he relieved all the employees of the studio of their duties after giving them two months’ salaries. Sulochna ji says, “After Jayaprabha Studio shut down I went to Pune from Kolhapur where I played the heroine's role in 'Mangal Picture' movie 'Jeevacha Sakha'. 'Mangal Pictures' was setup by some individuals from Kolhapur only. After the success of this 1948 release ‘Jeevacha Sakha’, I became totally busy with Marathi films.”

Sulochna ji's 1952 Marathi release 'Stree Janm Tujhi Kahani' became a superhit. Ranjeet Movietone’s owner Sardar Chandulal Shah loved it so much that he decided to make its Hindi remake. Sulochna ji shifted from Pune to Mumbai in 1953 when he signed her for this remake titled ‘Aurat Teri Yahi Kahani’. Her hero in ‘Aurat Teri Yahi Kahani’ was Bharat Bhushan and it released in 1954. Sulochna ji says, “I did the movies 'Mahatma Kabir' (1954) opposite Surendra Nath, 'Sajni' (1956) opposite Anoop Kumar and 'Mukti' (1960) opposite Motilal as a heroine but unfortunately none of these could make it at box office. However, the super success of ‘Sati Anusuya’ (1956) did make me a star of Mythological films.”

Sulochna ji had to pay the price for this stardom as well. In those days, artists associated with mythological films were considered of the second-third rung due to which she stopped getting offers for social films. ‘R. K. Film’s musical hit children’s film ‘Ab Dilli Door Nahin’ (1957) was an exception which was directed by Amar Kumar. Dattaram was the composer for this movie. Film ‘Ab Dilli Door Nahin’s famous song ‘Ye Chaman Hamara Apna Hai ...’ was picturised on Sulochna and Master Romi. Superhit children song ‘Chun Chun Karti Aayi Chidiya, Daal Ka Daana Laayi Chidiya’ was also from this movie but Sulochna ji did not get benefitted by the success of this movie.

Sulochna ji says, “One day Bimal Roy invited me to play the mother's role for his film 'Sujata'. Though, I could not decline the offer, I couldn’t help wondering how, I, at merely 30 years of age could play the role of a mother. But on the advice of Durga Khote and Lalita Pawar, I convinced myself mentally to take up character roles also. Film ‘Sujata’ was extremely successful, and I soon found myself becoming an extremely in-demand character role artist in social films.”

‘Sujata' was a 1959 release. After that, for the next two decades, Sulochna ji was a very busy character role actress. ‘Dil Deke Dekho’, ‘Sangharsh’, ‘Aayi Milan Ki Bela’, ‘Duniya’, ‘Aadmi’, ‘Aaye Din Bahar Ke’, ‘Nayi Roshni’, ‘Johnny Mera Naam’, ‘Sajan’, ‘Kati Patang’, ‘Majboor’, ‘Kasauti’, ‘Sanyasi’, ‘Prem Nagar’, ‘Kora Kaagaz’, ‘Ganga Ki Saugandh’, ‘Muqaddar Ka Sikandar’, ‘Andha Kanoon’ and 'Kranti' were some of the movies where she portayed character roles brilliantly. Parallelly, she also made a respectable place for herself in Marathi films. But with time, slowly, her film offers started declining.

In 1999, She was awarded the 'Padmashri' by the Govt of India. She also got the 'Filmfare Lifetime Achievement award' in 2004. She has received over 40 different awards for her excellent performances.

Sulochna ji's family consists of her daughter Kanchan and granddaughter Rashmi (Kanchan's daughter). Sulochna ji says, “Famous Marathi theatre and film actor, Late Dr Kashinath Ghanekar was my son-in-law. He was a star in Marathi films and had also played important roles in Hindi movies like 'Dadi Maa' and 'Abhilasha'. He passed away more than 30 years ago. A trust in his memory awards noted theatre artists every year. I have been away from films for decades; I have turned 90 years old last July and now all my time gets spent in carrying out all the tasks of the trust.”

{Note: Famous film historian (Late) Shri B.D. Samant and (Late) Shri Shahabuddin often said that Sulochna Latkar ji was born in a Muslim family and her real name is Sahib Jaan. When I tried to cross check this with Kanchan ji, she strongly rejected the claim as being totally baseless though some acquaintances of Sulochna ji continue to maintain the claim of her being born in a Muslim family.}

Sulochna ji passed away in Mumbai on 4 June 2023 at the age of 94.  

Saturday, October 5, 2019

“Maajhi Naiya Dhoondhe Kinara” – Yunus Parvez

मांझी नैया ढूंढे किनारायूनुस परवेज़

                     .......शिशिर कृष्ण शर्मा

सिनेमा का नाटकों से रिश्ता शुरू से ही रहा है| ख़ासतौर से बोलते सिनेमा की तो बुनियाद ही रंगमंच पर टिकी हुई थी| गुज़रे दौर के मास्टर निसार, जहांआरा कज्जन, सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, .के.हंगल, संजीव कुमार से लेकर नसीरूद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आज़मी, अमोल पालेकर और आज के नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी और राधिका आप्टे तक बेशुमार अभिनेता-अभिनेत्रियों ने नाटकों की दुनिया से फ़िल्मों में कदम रखा और अपनी बेहतरीन पहचान बनाई| ऐसे ही कलाकारों में से एक थे चरित्र अभिनेता यूनुस परवेज़ जो 1970 से 90 के तीन दशकों के हिन्दी सिनेमा का एक जाना-पहचाना चेहरा थे| यूनुस परवेज़ अपनी स्क्री इमेज के ठीक विपरीत एक उच्चशिक्षाप्राप्त और बेहद ज़हीन शख्स़ थे जो कुछ समय के लिए राजनीति में भी सक्रिय रहे| उनसे मेरी मुलाक़ात फ़रवरी 2004 के मध्य में, मुम्बई के पश्चिमी उपनगर मीरा रोड के नया नगर क्षेत्र स्थित उनके फ्लैट में हुई थी| संयोग से वो मेरे घर से बामुश्किल डेढ़ किलोमीटर के फ़ासले पर रहते थे| ‘साप्ताहिक सहारा समयके मेरे कॉलमक्या भूलूं क्या याद करूंके लिए हुई उस मुलाक़ात के दौरान उन्होंने अपनी निजी और व्यावसायिक ज़िंदगियों के बारे में बेलाग बातचीत की थी

मूलत: उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर ज़िले के रहने वाले यूनुस परवेज़ का जन्म सितम्बर 1934 को मिर्ज़ापुर में हुआ था| उनके पिता पुलिस की नौकरी में थे| हर दो-चार साल में पिता के ट्रांसफर की वजह से यूनुस परवेज़ की स्कूली शिक्षा पूर्वी उत्तरप्रदेश के अलग अलग शहरों में हुई और फिर आगे की पढ़ाई के लिए वो इलाहाबाद चले आए| बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था, “इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मुझे डॉहरिवंशराय बच्चन, डॉ .राही मासूम रज़ा और फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे उच्चकोटि के शिक्षाविदों से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला| उन्हीं दिनों मेरा जुड़ाव रंगमंच से हुआ और बी.. और फिर उर्दू में एम.. करने के साथ साथ मैं कॉलेज के नाटकों में भी पूरे जोशोख़रोश के साथ हिस्सा लेने लगा|”

यूनुस परवेज़ नेइंटरसिटी यूथ फेस्टिवलमें विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने के साथ ही लगातार तीन बारबेस्ट एक्टरका पुरस्कार भी जीता| अखबारों में तस्वीरें और इंटरव्यू छपने लगे तो बतौर रंगकर्मी उनकी व्यापक पहचान बन गयी| उनका कहना था, “एम.. करने के बाद मैं पी.एच.डी. की तैयारियों में जुट गया था| उसी दौरान मशहूर लेखक दीवान वीरेन्द्रनाथ से मिलने का कार्यक्रम बना तो कुछ दिनों के लिए दिल्ली चला आया| दीवान वीरेन्द्रनाथ रिश्ते में अभिनेता कबीर बेदी के चाचा थेएक शाम वीरेन्द्रनाथ जी मुझे अपने साथ रूसी दूतावास में आयोजित एक पार्टी में लेकर गए जहां मेरी मुलाक़ात उस ज़माने के मशहूर रंगकर्मियों बेगम कुदसिया ज़ैदी, हबीब तनवीर, माईम आर्टिस्ट इरशाद पंजतन, और लेखक-कवि नियाज़ हैदर से हुई| उस साल मुझे उत्तरप्रदेश का बेस्ट एक्टर अवार्ड मिला था और ये सभी लोग मेरे नाम से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे| उनके कहने पर मैं पी.एच.डी.का इरादा त्यागकर बेगम कुदसिया ज़ैदी केहिन्दुस्तानी थिएटरमें शामिल हो गया| ये साल 1959 का वाक़या है|”

नियमित सरकारी सहायता प्राप्तहिन्दुस्तानी थिएटरकी बुनियाद पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा से रखी गयी थी| यूनुस परवेज़ क़रीब 4 सालों तकहिन्दुस्तानी थिएटरसे जुड़े रहे| उस दौरान उन्होंने हबीब तनवीर, एम.एस.सथ्यू और नरेंद्र शर्मा जैसे नामी रंगकर्मियों के साथ मिलकर इस बैनर के कई नाटकों में हिस्सा लिया| वो कहते थे, “पंडित नेहरू, डॉज़ाकिर हुसैन, कृष्ण मेनन और एस.के.पाटिल जैसे बड़े नेता अक्सर हमारे नाटकों की तैयारियां देखने तो आते ही थे, हरेक नाटक के मंचन के बाद प्रधानमंत्री निवास में पार्टी का आयोजन भी किया जाता था| एक बार मिस्र के राष्ट्रपति नासिर के सम्मान में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉराजेन्द्रप्रसाद ने हमारे नाटकशकुन्तलाका विशेष शो भी रखवाया था|” 

हिन्दुस्तानी थिएटरअपने उरूज़ पर था कि तभी बेगम कुदसिया ज़ैदी महज़ 44  बरस की उम्र में हार्ट अटैक से गुज़र गयीं| उधर भारत-चीन युद्ध की वजह से पंडित नेहरू के साथ साथ समूचे सरकारी तंत्र का ध्यान भीहिन्दुस्तानी थिएटरकी तरफ़ से हट चुका था| नतीजतनहिन्दुस्तानी थिएटरपूरी तरह बिखर गया| ऐसे में कई अन्य साथियों की तरह यूनुस परवेज़ को भी बेहतर भविष्य की तलाश में मुम्बई चले आना पड़ा| ये साथ 1964 का वाक़या है| मुम्बई आकर यूनुस परवेज़ नेइप्टाकी सदस्यता ले ली और ख्वाजा अहमद अब्बास, सागर सरहदी, बलराज साहनी और रमेश तलवार जैसे रंगकर्मियों के साथ एक बार फिर से रंगमंच पर सक्रिय हो गए|

यूनुस परवेज़ ने बताया था, “साल 1968 में रिलीज़ हुईहसीना मान जाएगीमेरी डेब्यू फ़िल्म थी| प्रकाश मेहरा की भी बतौर निर्देशक ये पहली फिल्म थी| फिर मुझे राजश्री प्रोडक्शन्स की साल 1971 की फिल्मउपहारमें मांझी की भूमिका मिली| इस फ़िल्म का मशहूर गीतमांझी नैया ढूंढें किनारामुझ पर फिल्माया गया था| मेरा संघर्ष जारी था| उस दौरान मैंने कुछेक फिल्मों में छोटे छोटे रोल किये| और फिर साल 1973 में आयी बहुचर्चित फ़िल्मगर्म हवा, जिसमें मैंने एक अवसरवादी नेता की भूमिका की थी| इस फ़िल्म ने मुझे प्रबुद्धवर्ग में तो पहचान दी ही, इस भूमिका के लिए मुझे यू.पी.जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सम्मानित भी किया गया| लेकिन आम दर्शकों के बीच मेरी पहचान बनी 1975 की फ़िल्मदीवारसे| इस फ़िल्म में रहीम चाचा की मेरी भूमिका को दर्शकों ने बेहद पसंद किया था| फ़िल्मदीवारकी ज़बरदस्त कामयाबी के बाद मैं लगातार व्यस्त होता चला गया|”          

साल 1975 से 1995 के बीच यूनुस परवेज़ का करियर अपनी बुलंदियों पर रहा| उस दौरान उन्होंने अमिताभ बच्चन की तकरीबन सभी फ़िल्मों औरबी.आर.फिल्म्सकीनिकाह, ‘ बर्निंग ट्रेन, ‘इन्साफ का तराज़ू, ‘आवामऔरदहलीज़के अलावाज़ख़्मी, ‘आलाप, ‘अंगूर, ’आशा, ‘अवतार, ‘उमरावजान, ‘गोलमाल, ‘मांग भरो सजना, ‘बाज़ार, ‘लैला, ‘त्रिदेव, ‘मोहरा, ‘जालऔर .बी.सी.एल. कंपनी कीतेरे मेरे सपनेसमेत क़रीब साढ़े तीन सौ फिल्मों में काम किया| 2005 में रिलीज़ हुईबंटी और बबलीऔर 2007 में बनी भोजपुरी फ़िल्मबांके बिहारी एम.एल..’ उनकी अंतिम प्रदर्शित फ़िल्मों में से थीं

अभिनय के अलावा राजनीति में भी यूनुस परवेज़ की गहरी दिलचस्पी थी| छात्र जीवन में वो कॉलेज की राजनीति में सक्रिय थे| वो बताते थे, “साल 1984 में सुनील दत्त ने अपना पहला चुनाव लड़ा तो उस दौरान वो मुझे भी सक्रिय राजनीति में ले आए और मैंने भी कांग्रेस की सदस्यता ले ली| फिर कुछ ख़ास वजहों से मुझे कांग्रेस छोड़कर समाजवादी पार्टी में जाना पड़ा जिसके टिकट पर मैंने साल 1998 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा| लेकिन फिर मैं वापस कांग्रेस में लौट आया| मेरे परिवार में पत्नी के अलावा एक बेटा और तीन बेटियां हैं| बेटा अरशद खान फिल्म निर्देशक है और तीनों बेटियों का विवाह हो चुका है|”

यूनुस परवेज़ का निधन 71 साल की उम्र में 11 फ़रवरी 2007 को अनियंत्रित डायबिटीज़ की वजह से उनके मीरा रोड स्थित निवास पर हुआ|



We are thankful to

Mr. Harish Raghuvanshi Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.

Mr. S.M.M. Ausaja for providing movies’ posters.

Ms. Aksher Apoorva, Mr. Gajendra Khanna & Ms. Maitri Manthan for the English translation of the write ups.

Mr. Manaswi Sharma for technical support including the video editing.


Yunus Parvez on YT Channel Beete Hue  Din



Maajhi Naiya Dhoondhe Kinara” – Yunus Parvez

                                .......Shishir Krishna Sharma

Cinema has had a relationship with theatre from its infancy. In particular, the foundation of the talkies was based on theatres. Many masters of yesteryears like Master Nisaar, Jahanara Kajjan, Sohrab Modi, Prithviraj Kapoor, Balraj Sahni, A K Hangal, Sanjeev Kumar to other numerous actors-actresses like Naseeruddin Shah, Om Puri, Shabana Azmi, Amol Palekar and today’s Nawazuddin Siddiqui and Radhika Apte have all entered films from the theatre world and made a name for themselves. One such artist was character actor Yunus Parvez who was a familiar face in Hindi cinema over three decades from 1970s to 1990s. In stark contrast to his screen image, Yunus Parvez was a highly educated and extremely intelligent personality who was also active for a short period in the field of politics. I met him in the middle of February 2004 at his flat at Mumbai’s western suburb of Mira Road’s Naya Nagar area. His house, incidentally, happened to be situated at a mere one and a half kilometer from my own residence. During this interview taken for my column ‘Kya Bhooloon Kya Yaad Karoon’ for ‘Sahara Samay weekly’, he talked at length about his personal and professional life. 

Belonging to Uttar Pradesh’s Ghazipur Area, Yunus Parvez was born on 3 September 1934 at Mirzapur. His father worked for the police force. Due to his father’s frequent transfers every two to three years, Yunus Parvez completed his school education from many towns and cities of East Uttar Pradesh after which he came down to Allahabad for his higher studies. During our conversation, he told me, “At Allahabad university I got the opportunity to learn from noted educationists like Dr Harivansh Rai Bachchan, Dr Raahi Masoom Raza and Firaaq Gorakhpuri. During this period I also got associated with theatre and parallel to my acquiring the BA and MA degrees in Urdu, I started participating whole heartedly in the college plays.”

Yunus Parvez while representing his college in the university’s ‘Intercity Youth Festival’ won the prestigious ‘Best Actor’ award for three continuous years. His photos and interviews were published in the newspapers regularly due to which he became well known as a theatre enthusiast. He told us, “After completing my MA, I started preparing for my PhD. At that time I went to Delhi for a few days to meet famous actor Dewan Virendranath. Dewan Virendranath was the paternal uncle of actor Kabir Bedi. One evening, Virendranath ji took me to Russian embassy for a party where I got introduced to famous theatre personalities Begum Qudsia Zaidi, Habib Tanvir, Mime Artist Irshad Panjtan and Writer-poet Niaz Haider. I had won Utttar Pradesh’s Best Actor award the same year and they were all already familiar with my work. On their suggestion I dropped my idea of pursuing a PhD and joined Begum Qudsia Zaidi’s ‘Hindustani Theatre’. This incident took place in 1959.”

The foundation of ‘Hindustani Theatre’ was laid by the inspiration of Pt Jawaharlal Nehru and it received government support regularly. Yunus Parvez was associated with ‘Hindustani Theatre’ for a period of nearly four years. Under the theatre’s banner he worked for many plays along with noted theatre artists like Habib Tanveer, M S Sathyu and Narendra Sharma. He said, “Top politicians like Pt Nehru, Dr Zakir Hussain, Krishna Menon and S K Patil used to often visit to see our preparations for various plays. After the successful screening of a play there used to be a party organized at the Prime Minister’s house. On one occasion, the then president, Dr Rajendra Prasad had even kept the screening of our play ‘Shakuntala’ in honour of Egypt’s President Nasser.”

‘Hindustani Theatre’ was at its pinnacle when the demise of Begum Qudsia Zaidi at the age of just 44 years of cardiac arrest occurred. On the other hand, as a result of the Sino-India war, the focus of Pt Nehru and the whole government apparatus had shifted away from ‘Hindustani Theatre’. As a result, ‘Hindustani Theatre’ lost its glory. In such a situation, like many of his co-artists, Yunus Parvez also came to Mumbai to try his luck around 1964. At Mumbai, Yunus Parvez became a member of IPTA and became active in theatre again along with stalwarts like Khwaja Ahmed Abbas, Sagar Sarhadi, Balraj Sahni and Ramesh Talwar.

Yunus Parvez recalled, “My debut film was the 1968 release, ‘Haseena Maan Jaayegi’ after which I got the role of Maajhi in Rajshree Production’s 1971 film ‘Uphaar’. Its superhit song ‘Maajhi Naiya Dhoondhe Kinara’ was picturized on me. My struggle was continuing. I worked in a few films in small roles. Then I did the role of an opportunist political leader in the well-received film ‘Garm Hawa’ in 1973. This film on one hand gave me recognition above the masses and on the other hand fetched me a felicitation from the U.P. Journalist Association. My recognition among the masses however came with the 1975 release ‘Deewaar’. My character of Raheem Chacha in the movie was appreciated a lot by the audience. After the stupendous success of the film ‘Deewar’, I became quite busy.”         

During the period 1975 to 1995, Yunus Parvez’a career was at its peak. He acted in nearly 350 films including almost all Amitabh Bachchan films, B.R. film’s ‘Nikaah’, ‘The Burning Train’, ‘Insaaf Ka Taraazu’, ‘Awaam’, ‘Dehleez’ and also ‘Zakhmi’, ‘Alaap’, ‘Angoor’, ‘Asha’, ‘Avtar’, ‘Umrao Jaan’, ‘Golmaal’, ‘Maang Bharo Saajna’, ‘Baazaar’, ‘Laila’, ‘Tridev’, ‘Mohra’, ‘Jaal’ and ABCL company’s ‘Tere Mere Sapne’. The 2005 release ‘Bunty Aur Babli’ and 2007’s Bhojpuri Film, ‘Baanke Bihaari M.L.A.’ were among his last released films.

Yunus Parvez also had a deep interest in politics in addition to Acting. He was active in politics during his college days as well. He told us, “In the year 1984, Sunil Dutt fought his first election. Having entered active politics, he invited me too and I took the membership of Congress. But due to some special reasons, I was forced to leave Congress to join Samajwadi Party. I even fought the 1998 Lok Sabha Elections on their ticket after which I returned back to Congress. My family consists of my wife, one son and three daughters. My son Arshad Khan is a film director while all my daughters are well settled after marriage.”

Yunus Parvez passed away at his Mira Road residence at the age of 71 on 11th February 2007 due to complications arising out of his uncontrolled diabetes.